भारत में प्रशासन स्तरों पर शैक्षिक कोष के स्त्रोत | Resources of Education Income in hindi
भारत में प्रशासन स्तरों पर शैक्षिक कोष के स्त्रोत | Resources of Education Income in hindi
भारत में प्रशासन के तीन स्तरों पर शैक्षिक कोष के स्त्रोत (Resources of Education Income)
एक वित्तीय वर्ष में शैक्षिक कार्यों को सम्पन्न कराने के लिये जो पूँजी संग्रह अथवा आय प्राप्त की जाती है, उसे उस वर्ष की शैक्षिक आय कहा जाता है और जिन साधनों, अभिकरणों व मदों से शैक्षिक आय होती है उन्हें शैक्षिक कोष के स्त्रोत कहा जाता है। शैक्षिक कोष के स्रोत को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(अ) सार्वजनिक स्रोत
(ब) निजी स्रोत.
( अ) सार्वजनिक स्तरोत (Public Sources)- सार्वजनिक साधनों से प्राप्त पूँजी को सार्वजनिक, शैक्षिक आय के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके अन्तर्गत केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय शासन व विदेशी सहायता आदि सम्मिलित हैं।
(1) केन्द्र सरकार की भूमिका- (Role of Central Government)- शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र सरकार की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को शिक्षा के विषय में आवश्यक परामर्श देती है। अनुसंधान के क्षेत्र में केन्द्र सरकार का एक तरह से आविपत्य सा प्रतीत होता है। केन्द्र सरकार निम्न कार्यों का संचालन करती है।
(A) केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का संचालन करती है।
(B) अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को सहयोग प्रदान करती है।
(C) अन्य राष्ट्रों से शैक्षिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित करती है।
केन्द्र सरकार उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त राज्य सरकारों के सहयोग से भी बहुत से कायों को करती है जैसे-
(A) सम्पूर्ण राष्ट्र में 6 से 11 वर्ष तक के समस्त बालक-बालिकाओं की निःशुल्क, अनिवार्य व सार्वभौमिक शिक्षा के सम्बन्ध में राज्य सरकारों के उत्तरदायित्व में सहभागिता निभाना। वर्तमान समय में अपने राष्ट्र में अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा की स्थिति निम्नवत् है-
- जम्मू, कश्मीर व नागालैण्ड, में सभी प्रकार की शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जाती है।
- तमिलनाडू में पूर्व शिक्षा व पूर्व विद्यालयी शिक्षा निःशुल्क है।
- महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा व मध्यप्रदेश में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क है।
- उत्तर प्रदेश में बालकों के लिये प्राथमिक स्तर तथा बालिकाओं के लिये माध्यमिक स्तर की शिक्षा निःशुल्क है।
- झारखण्ड व बिहार में कक्षा 7 तक की शिक्षा निःशुल्क है।
(B) उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक व प्राविधिक शिक्षा के स्तरों का निरीक्षण व शैक्षिक अनुसंधान कार्य का नियोजन व विकास। उच्च शिक्षा में समन्वय, मानकों का निर्धारण, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा। उसने विशिष्ट क्षेत्रों में अनुसंधान की प्रोत्रति व समन्वय के लिये चार अभिकरणों की स्थापना की ।
(C) हिन्दी व राज्य की सभी भाषाओं में शोधकार्य व उनकी अभिवृत्ति ।
(D) विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियाँ प्रदान करने के लिये कार्यक्रम निर्माण करना।
(क) विकलांग की शिक्षा तथा पिछड़े वर्गों की शिक्षा को प्रोत्साहन । भारत की प्राचीन संस्कृति का संरक्षण व विकास।।
(ख) अल्प संख्यक अनुसूचित व अस्पृश्य जातियों को सांस्कृतिक हितों के लिये विशेष दायित्व।
(ग) राष्ट्र के विभिन्न भागों में स्थित केन्द्रीय विद्यालयों का संचालन ।
(घ) राष्ट्री एकता व अखण्डता को बनाये रखने के लिए समचित कार्यक्रमों व साधनों की व्यवस्था करना।
इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में शिक्षा पर होने वाले व्यय का भार केन्द्रीय सरकार वहन करती है और शिक्षा के राष्ट्रीय महत्व को देखते हुए राज्य सरकारों को भी शिक्षा विकास के लिये अनुदान देती है। इस दृष्टि से केन्द्रीय सरकार शैक्षिक आय का प्रमुख स्रोत है।
( 2 ) राज्य सरकार की भूमिका (Role of State Government)- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार शिक्षा को समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है। एक दूरगामी कदम है। उसमें यह निहित है कि शैक्षिक, वित्तीय व प्रशासनिक दृष्टि से राष्ट्रीय जीवन से जुड़े हुए इस महत्वपूर्ण मामले में केन्द्र व राज्यों के बीच दायित्व की नई सहभागिता स्थापित हो। राज्य सरकारें शासन की शालायें चालाने के साथ ही शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर शिक्षा व्यवस्था के लिये विश्वविद्यालयों, शिक्षा परिषदों, स्वायत्तशासी संस्थाओं व निजी संस्थाओं को अनुदान देकर वित्तीय सहायता प्रदान करती है। संविधान के अनुसार राज्य प्राथमिक स्तर पर निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने का दायित्व अधिक है।
(3) स्थानीय शासन की भूमिका (Role of Local Level)- स्थानीय आवश्यकताओं व विकास के लिये शिक्षा के सम्बन्ध में स्थानीय निकायों का भी विशेष महत्व है। इसके द्वारा शैक्षिक निधि के अन्तर्गत नगरनिगम, नगरपालिका, छावनी, जिलापरिषद, ग्राम पंचायत, जनपद आदि द्वारा दिया गया धन आता है। इनकी आय के साधन स्थानीय कर व राज्य सरकारों से प्राप्त अनुदान होते हैं। इन्हें राज्य सरकारों के करों से प्राप्त आमंदनी का जो भाग शिक्षा पर व्यय होता हैं, उसे शैक्षिक आय के रूप में समझकर व्यय किया जाता है। भारत के अधिकांश राज्यों में स्थानीय संस्थाओं को प्राथमिक शिक्षा के लिये पूर्णतया उत्तरदायी ठहराया गया है। लेकिन उनके संचालन का पूरा उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकती।
(4) विदेशी सहायता (Foreign Aid) – विदेशी सहायता भी शैक्षिक आय के स्रोत में अपनी अहम भूमिका निभाती है। विदेशी सहायता के रूप में हमें निम्न प्रकार से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है।
(क) विदेशों से विषय-विशेषज्ञों को हमारे राष्ट्र में आगमन व उनके तकनीकी परामर्श द्वारा लाभन्वित होना, पाठयपुस्तकों के लिये कागज देना, शिक्षकों का आदान-प्रदान करना, उपकरण की व्यवस्था आदि करना।
(ख) विशेष कार्यक्रमों के लिये पूँजी की व्यवस्था करना व उपहार प्रदत्त करना, अभिवृत्तियाँ व यात्रा व्यय के लिये भारी मात्रा में अनुदान देना।
(ब) निजी स्त्रोत (Private Sources)- शिक्षा को जो वित्तीय सहायता व्यक्तिगत अथवा निजी तरीके से प्राप्त होती है, जैसे- छात्र-अभिभावक, समुदाय के सम्पन्न लोगों, धर्मादा। यही निजी स्रोत कहलाते है। ये कई प्रकार के होते हैं। प्राभूत, धन, शालामुक्त, धर्मादा, जुर्माना, अन्य स्रोत आदि।
(1) प्राभूत धन- इसका तात्पर्य ऐसी पूँजी से है जो संस्था की स्थाई विधि के रूप में सुरक्षित रहती है। इस पूँजी से मिलने वाले ब्याज को संस्था के विभिन्न मदों पर व्यय किया जाता है। यह धन संस्था को न केवल स्थायित्व ही देता है बल्कि उसे आकस्मिक घटनाओं का सामना करने के लिये भी तैयार करता है।
(2) शाला शुल्क- छात्र द्वारा प्रतिमाह या प्रतिवर्ष शिक्षण के उपलक्ष्य में कुछ धन दिया जाता है जिसे शुल्क या फीस कहते हैं। ये प्रवेश शुल्क, शिक्षण शुल्क, प्रयोगशाला शुल्क, क्रीड़ा, पुस्तकालय, परीक्षा, अध्ययन, नामांकन, चिकित्सा, शाला पत्रिका, छात्रसंघ तथा भवन आदि है। निजी आय के स्रोत में शाला शुल्क ही आय का प्रमुख स्रोत है। वर्तमान परिस्थितियों में शाला शुल्क से अधिक आय इस कारण अधिक नहीं हो पा रही है क्योंकि कहीं-कहीं माध्यमिक स्तर तक शिक्षा निःशुल्क है। वर्तमान आँकड़े यह बताते हैं कि शाला शुल्क का अनुपात उत्तरोत्तर कम हो रहा है।
(3) धर्मादा या चन्दा- शिक्षा के विकास के लिये जो भूमि या धन व्यक्ति विशेष, संस्था या अन्य स्रोतों से स्वेच्छा से प्राप्त होता है। उसे धर्मादा या चन्दा कहते हैं। धर्मादा या दान से वैदिक काल में तो शिक्षण कार्य सम्भव था किन्त आज के समय में यह पर्याप्त नहीं है। आज छात्रों की संख्या में भी भारी वृद्धि हो गई है और दान की प्रवृत्ति भी कम हो गयी है। अतः आज दान आदि देने की प्रवृत्ति कम हो गई है।
(4) जुर्माना या दण्ड- यह शुल्क छात्रों द्वारा विशेष परिस्थितियों जैसे विद्यालय देर से आने, शुल्क समय पर न जमा करने पर, पुस्तकालय की पुस्तकें समय पर न लौटाने पर, व्यवहार में अनियमितता बरतने, विद्यालयं के नियम तोड़ने आदि में लिया जाता है। यह विद्यालय में अल्प मात्रा में ही प्राप्त होता है। निजी स्रोत में यह आय स्रोत अल्प स्रोत मात्र ही है।
(5) अन्य स्रोत- उपरोक्त स्रोतों के अतिरिक्त शिक्षा के जो आय होती है, वह अन्य स्रोत के अन्तर्गत आती है। जैसे बैंको में जमा पूँजी पर मिलने वाला ब्याज, विद्यालय भवनों से प्राप्त होने वाला किराया, विद्यालय सम्पत्ति से प्राप्त होने वाला लाभ, पुरस्कार, परिलब्धि आदि। स्वतंत्रता से पहले यह प्रभूत धन के आधीन निश्चित था, परन्तु अब इसे अन्य स्रोत के नाम से जाना जाता है।
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