प्रयोजनवाद के शिक्षा के उद्देश्य | प्रयोजनवाद तथा शिक्षण-विधियाँ | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा-पाठ्यक्रम
प्रयोजनवाद के शिक्षा के उद्देश्य | प्रयोजनवाद तथा शिक्षण-विधियाँ | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा-पाठ्यक्रम
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प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
(1) बालक का विकास-
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य बालक चा विकास करना भी है। प्रयोजनवादियों के अनुसार विकास की यह प्रक्रिया सदैव तथा निरन्तर रूप से चलती रहती है।
(2) गतिशील निर्देशन-
प्रयोजनवादियों द्वारा स्वीकार किये गये शिक्षा के उद्देश्यों में एक उद्देश्य बालकों को गतिशील निर्देशन प्रदान करना भी है। परन्तु प्रयोजनवादियों ने गतिशील निर्देशन की कोई समुचित व्याख्या प्रस्तुत नहीं की।
(3) अपने मूल्यों और आदर्शों का निर्माता बालक स्वयं है-
प्रयोजनवादी विचारधारा के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य यह है कि शिक्षा के परिणामस्वरूप बालक अपने लिए मूल्यों और आदर्शों का निर्माण स्वयं ही कर ले। विभिन्न परिवर्तनों में भिन्न मूल्यों की आवश्यकता हुआ करती है। इसी विषय में रॉस ने स्पष्ट कहा है-“प्रयोजनवादी शिक्षा का सबसे सामान्य उद्देश्य मूल्यों की रचना करना है। शिक्षक का प्रमुख कर्तव्य विद्यार्थियों को ऐसे वातावरण में रखना है जिसमें रहकर उसमें नवीन मूल्यों का विकास हो सके।”
(4) सामाजिक कुशलता-
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य व्यक्ति को सामाजिक कुशलता प्रदान करना भी है। इसका आशय यह है कि शिक्षा इस प्रकार से हो कि उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति की शक्तियाँ एवं क्षमताएं विकसित हो जायें और सामाजिक दृष्टि कुशल बन जाये । सामाजिक रूप से कुशल व्यक्तिअपनी मौलिक आवश्यकताओं के प्रति सजग होता है तथा उनकी पूर्ति में सफल होता है।
(5) गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास-
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा के एक उद्देश्य को रॉस ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-“गतिशील और लचीले मस्तिष्क का विकास; जो सब परिस्थितियों में साधनपूर्ण और साहसपूर्ण हो; और जिसमें अज्ञात भविष्य के लिए मूल्यों का निर्माण करने की शक्ति हो।” प्रयोजनवाद के अनुसार बालक की आवश्यकताओ, इच्छाओं, अभिप्रायों और रुचियों का महत्त्व स्वीकार किया जाता है। शिक्षा का एक उद्देश्य इनको उचित मार्ग पर लाना भी है।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा-पाठ्यक्रम
सामान्यत: प्रयोजनवादियों के अनुसार शिक्षा का कोई निश्चित और पूर्व निरधारित उद्देश्य नहीं है। अतः प्रयोजनवाद के अनुसार कोई पाठ्यक्रम नहीं भी है। परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रम में भी परिवर्तन होता रहता है। प्रयोजनवादियों के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्धारण के लिए कुछ सिद्धान्त हैं। इन सिद्धान्तों का सामान्य परिचय यहाँ प्रस्तुत करना अनिवार्य है-
(1) अनुभव का सिद्धान्त-
प्रयोजनवादियों ने शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण के लिए अनुभव के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम का सीधा सम्बन्ध बालक के अनुभवों, भावी व्यवसायो एव क्रियाओं से होना चाहिये। वास्तव में यदि पाठ्यक्रम का सम्बन्ध जीवन के अनुभवो आदि के साथ स्थापित हो जाता है तो बालक स्वत: ही विषय को सीखने के लिए प्रेरित होता है शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया सरल हो जाती है। इस विषय में डीवी का कथन इस प्रकार है-“विद्यालय समुदाय का एक अंग है। इसलिए यदि ये क्रियाएं समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्र हण कर लेंगी, तो ये बालक में नैतिक गुणों और पहलकदमी तथा स्वतन्त्रता के दूष्टिकोर्णोका विकास करेंगी साथ ही ये इसे नागरिकता का प्रशिक्षण देंगी और इसके आत्म अनुशासन को उँचा उठायेंगी। “
(2) उपयोगिता का सिद्धान्त-
पाठ्यक्रम के निर्धारण के लिए प्रयोजनवादियों ने उपयोगिता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में उन विषयों का समावेश होना चाहिए जो बालक के वर्तमान एवं भावी जीवन के लिए उपयोगी हों तथा जीविका उपार्जन में सहायक हों। इस सिद्धान्त को स्वीकार करके शिक्षा की पाठ्क्रम में भाषा, स्वास्थ्य विज्ञान, इतिहास, गणित, विज्ञान और शारीरिक विज्ञान जैसे विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिये। इसी आधार पर बालिकाओं के लिए गृह-विज्ञान तथा बालकों के लिए कृषि-विज्ञान का भी विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है।
(3) एकीकरण का सिद्धान्त रॉस महीदय-
प्रयोजनवादियों ने पाठ्यक्रम के विषयों को निर्धारित करने के लिए एकीकरण का सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्दि की एकता और ज्ञान की एकता पर बल दिया है।इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर कहा गया है कि ज्ञान अखण्ड होना चाहिये तथा पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों में विभक्त नहीं होना चाहिये।
इस विषय में रॉस महोदय का प्रस्तुत कथन उल्लेखनीय है, “प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम में विषयों के परम्परागत विभाजन की निन्दा करते हैं। एक विषय को दूसरे विषय से कठोरतापूर्वक अलग करने की भावना का अन्त किया जाना चाहिये। इसका कारण यह है कि मानव क्रियाएं महत्त्वपूर्ण हैं, न कि विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषय और उनके द्वारा सीखने के लिए दी जाने वाली सामग्री। अलग-अलग विषय पढ़ाने के बजाय छात्र को वह सब ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, जिसका उस क्रिया से सम्बन्ध है, जिसे वह करता रहा है।”
(4) स्वभाव एवं रुचि का सिद्धान्त-
पाठ्यक्रम के विषयों के निर्धारण के लिए बालकों के स्वभाव एवं रुचि का भी ध्यान रखना अनिवार्य है। भिन्न-भिन्न स्तरों पर बालक की रुचियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। अतः भिन्न-भिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न विषयों की शिक्षा देनी चाहिये ।
प्रयोजनवाद तथा शिक्षण-विधियाँ
शिक्षा के क्षेत्रं में शिक्षण-विधियों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। प्रयोजनवाद ने इस क्षेत्र में नवीन एवं मौलिक सिद्दान्त प्रस्तुत करके शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान प्रदान किया है। प्रयोजनवादियों ने परम्परागत रूप से प्रचलित शिक्षण-विधियों का विरोध किया है तथा उन्हें न अपनाने का सुझाव दिया है। इस विषय में रॉस महोदय का कथन उल्लेखनीय है-“यह हमें चेतावनी देता है कि अब हम प्राचीन और घिसी-पिटी विचार प्रक्रियाओं को अपने शैक्षिक व्यवहार में प्रमुख स्थान न दें, और नई दिशाओं में कदम बढ़ाते हुए अपनी विधियों में नये प्रयोग करें। “
स्पष्ट है कि प्रयोजनवाद सैद्दान्तिक रूप से नई एवं भिन्न शिक्षण-विधियों का समर्थन एवं प्रतिपादन करता है। इन सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय अग्रवर्णित है, जिनके आधार पर प्रयोजनवादियों के अनुसार शिक्षण-विधियाँ होनी चाहिए।
(1) अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धान्त-
प्रयोजनवाद ने शिक्षण के क्षेत्र में अनुभव को विशेष महत्त्व दिया है। इस विचार के अनुसार यह अनिवार्य नहीं कि समस्त बातें पढ़ाई या सिखाई जायें बल्कि बालक को स्वयं अपने अनुभव एवं क्रियाओं द्वारा भी कुछ न कुछ अवश्य ही सीखना चाहिए।
(2) एकीकरण का सिद्धान्त-
प्रयोजनवादियों ने शिक्षण के क्षेत्र में एकीकरण के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया है। प्रयोजनवाद के अनुसार ज्ञान के विभिन्न पक्षों में सम्बद्धता होती है तथा सीखने की प्रक्रिया भी अविभक्त रूप से चलती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रयोजनवाद का सुझाव है कि सीखने की प्रक्रिया में भी एकीकरण होना चाहिये। शिक्षा के लिए पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों का शिक्षण-विधि द्वारा एकीकरण तथा समन्वय होना चाहिये।
(3) बाल-केन्द्रित शिक्षण-पद्धति का सिद्धान्त-
प्रयोजनवाद सैद्धान्तिक रूप से यह स्वीकार करता है कि शिक्षण विधि का निर्धारण बालक के अनुसार होना चाहिये बालक का रुचि, योग्यता एवं क्षमता को अवश्य ही ध्यान में रखना चाहिए।
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