इतिहास / History

भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय के कारण | उदारवादियों एवं उग्रवादियों में अन्तर | उदारवादियों एवं उग्रवादियों के मध्य सैद्धान्तिक मतभेद

भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय के कारण | उदारवादियों एवं उग्रवादियों में अन्तर | उदारवादियों एवं उग्रवादियों के मध्य सैद्धान्तिक मतभेद

भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय के कारण

भारतीय राजनीति में 1885 से 1905 तक उदारवादियों का बोलबाला बना रहा। परन्तु इस अवधि में ऐसी अनेक घटनाएँ घटीं जिनसे उग्रवाद को पनपने का अवसर मिला। भारतीय राजनीति में उग्रवाद के उदय के निम्नलिखित कारण थे-

(1) उदारवादियों की माँगों की उपेक्षा- ब्रिटिश सरकार ने उदारवादियों की माँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जिससे भारतीय नवयुवकों में तीव्र असन्तोष था। अतः वे उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की नीति की आलोचना करने लगे। उन्होंने अनुभव किया कि अपनी मांगे मनवाने के लिये अनुनय-विनय की नीति का परित्याग कर संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहिए।

(2) धार्मिक सुधार आन्दोलन- धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने भी उग्रवाद को प्रोत्साहन दिया। बालगंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल तथा लाला लाजपतराय आदि धार्मिक सुधार आन्दोलनों से बड़े प्रभावित थे। तिलक जी ने भारत की स्वाधीनता के लिए हिन्दू उत्सवों तथा हिन्दू संगठनों पर बल दिया। उन्होंने गणपति उत्सव तथा शिवाजी उत्सव के माध्यम से भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना जागृत की।

(3) प्राकृतिक प्रकोप- 1896-97 में दक्षिण भारत में भयंकर अकाल पड़ा तथा प्लेग की बीमारी फैल गई। परन्तु अंग्रेजी सरकार ने अकाल तथा प्लेग से पीडित लोगों के कष्टों को दूर करने का प्रयास नहीं किया। तिलक जी ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड के क्रूर व्यवहार की कटु आलोचना की। इस पर दामोदर हरि चापेकर नामक नवयुवक ने रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट की हत्या कर दी। इससे अंग्रेजी सरकार बड़ी नाराज हुई और उसने दामोदर हरि चापेकर को मृत्यु-दण्ड दिया तथा तिलक जी को 18 महीने के कठोर कारावास की सजा दी। इससे भारतवासियों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।

(4) भारत का आर्थिक शोषण- अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारत के उद्योग- धन्धे नष्ट हो गए तथा लाखों लोग बेरोजगार हो गए। भारत में कपड़ों पर 71/2 प्रतिशत उत्पादन शुल्क लगा दिया गया। इससे भारत का वस्त्र व्यवसाय चौपट हो गया। लगान के अत्यधिक बोझ के कारण किसानों की दशा दयनीय हो गई। इसके अतिरिक्त भारत से अतुल धन-सम्पत्ति इंग्लैण्ड पहुँचाया गया जिससे भारत में गरीबी तथा भुखमरी फैल गई। इस कारण भी भारतवासियों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।

(5) विदेशी घटनाओं का प्रभाव- 1896 में एबीसीनिया ने इटली को पराजित कर दिया। इसी प्रकार 1904-05 में जापान ने रूस को पराजित कर दिया। इससे भारतवासियों में यह विश्वास दृढ़ होने लगा कि पश्चिमी राष्ट्र इतने शक्तिशाली नहीं हैं जितने प्रतीत होते हैं। उन्हें प्रेरणा मिली की त्याग और बलिदान के बल पर भारत को भी अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त कराया जा सकता है।

(6) लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति- लार्ड कर्जन एक साम्राज्यवादी व्यक्ति था। उसके द्वारा पास किये गए ‘कलकत्ता कारपोरेशन अधिनियम’, ‘विश्वविद्यालय अधिनियम’, बंगाल-विभाजन आदि कार्यों से भारतवासियों में तीव्र आक्रोश था। उसने भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया। उसने 1905 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षान्त भाषण में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर कीचड़ उछाला तथा पाश्चात्य संस्कृति को श्रेष्ठ बताया। अतः कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति से भारतवासियों में तीव्र आक्रोश था।

(7) बंगाल का विभाजन- 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया जिससे  भारतवासियों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। बंगाल-विभाजन के फलस्वरूप समस्त बंगाल में विरोध सभाएँ आयोजित की गई और विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई। बंगाल-विभाजन के बाद सम्पूर्ण भारत में बहिष्कार तथा स्वदेशी आन्दोलन प्रबल हो गए।

(8) बाल-पाल और लाल का नेतृत्व- बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल तथा लाला लाजपतराय उग्रवाद के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति की कट आलोचना की तथा जन-आन्दोलनों का समर्थन किया। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों से भारतवासियों में राष्ट्रवाद का प्रसार किया।

उदारवादियों एवं उग्रवादियों में अन्तर

1885 से 1905 तक राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले आदि नेताओं के हाथ में रही। ये लोग उदारवादी कहलाते थे। इसके विपरीत बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल, अरविन्द घोष आदि उग्रवादी समझे जाते थे। दोनों के बीच अनेक सैद्धांतिक मतभेद थे जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है-

(1) ब्रिटिश सम्राट और जाति के विषय में अन्तर- उदारवादियों की ब्रिटिश सम्राट, ब्रिटिश जनता के नीति के अन्तःकरण एवं ब्रिटिश शासन के प्रति अडिग आस्था थी। वे भारतीय समस्याओं के लिए ब्रिटिश नौकरशाही को उत्तरदायी ठहराते थे। वे इंगलैण्ड के उदारवादी दल अथवा मजदूर दल की सहायता की आस्था रखते थे। परन्तु उग्रवादियों को ऐसा कोई भ्रम नहीं था। वे भारत की जनता तथा अपनी मातृभूमि के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे तथा स्वावलम्बन एवं मातृभूमि के लिये सर्वोच्च त्याग में विश्वास रखते थे।

(2) सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में अन्तर- उदारवादी पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सामने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को पिछड़ी हुई मानते थे। वे इंगलैण्ड की राजनीतिक संस्थाओं के प्रशंसक थे और ब्रिटिश संसदीय प्रजातन्त्र से प्रेरणा ग्रहण करते थे। उनका विश्वास था कि पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का अनुसरण करते हुए भारत का उद्धार, कल्याण एवं विकास संभव है। उनकी धारणा थी कि पश्चिमी शिक्षा, साहित्य और विचारधारा ने भारत में राष्ट्रीयता और प्रजातांत्रिक विचारधारा को जन्म दिया है।

उग्रवादी प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। वे भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे तथा उससे प्रेरणा लेते थे और उसी के अनुसार देश का नव-निर्माण करना चाहते थे। वे हिन्दू संस्कृति तथा भारतीय होने में गर्व का अनुभव करते थे। वेद तथा गीता उनके प्रेरणा स्त्रोत थे। वे प्राचीन हिन्दू देवी-देवताओं के माध्यम से नव- राष्ट्रवाद का संदेश प्रसारित करना चाहते थे। तिलकजी ने “गणपति उत्सव” तथा “शिवाजी उत्सव” के माध्यम से देशवासियों में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न की।

(3) ब्रिटिश शासन के विषय में अन्तर- उदारवादी ब्रिटिश शासन के बड़े प्रशंसक थे। वे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अटूट राजभक्ति रखते थे। फिरोजशाह मेहता ने कहा था कि “हम आशा करते हैं कि अंग्रेज जाति हमारी राजभक्ति पर विश्वास करेगी। मेरी राजभक्ति चट्टान की तरह दृढ़ है।” उदारवादी ब्रिटिश शासन की खुल कर आलोचना नहीं करते थे। वे सरकार के दोषपूर्ण कार्यों को निन्दा बड़े संयत तथा विनम्र भाषा में करते थे।

उग्रवादी ब्रिटिश शासन के भक्त नहीं थे। वे ब्रिटिश शासन के प्रति स्वामिभक्ति के सिद्धांत के कटु आलोचक थे। वे ब्रिटिश साम्राज्य को एक अभिशाप मानते थे तथा अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना चाहते थे। वे राष्ट्रीय स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास को ही स्वतन्त्रता का आधार मानते थे। उनका कहना था कि स्वराज्य चाहे बुरा हो, परन्तु वह एक अच्छे विदेशी राज्य से हर हालत में उत्तम होता है। इसके अतिरिक्त उग्रवादी ब्रिटिश शासन की खुलकर आलोचना करते थे। जिन कानूनों या नीतियों को वे राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल मानते थे, उनकी वे कटु आलोचना करते थे।

(4) ब्रिटिश जाति के चरित्र के विषय में अन्तर- उदारवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता एवं ईमानदारी में पूर्ण विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि यदि ब्रिटिश संसद तथा जनता को भारतीयों की माँगों की न्यायोचितता के बारे में आश्वस्त कर दिया जाए तो भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति की जा सकती है। फिरोजशाह मेहता ने कहा था कि “हम ब्रिटिश जाति की न्यायप्रियता, बुद्धिमत्ता तथा निष्पक्षता के प्रति आश्वस्त हैं। इसके विपरीत उग्रवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में तनिक भी विश्वास नहीं था। उनकी धारणा थी कि अंग्रेज लोग भारत में उनके उद्धार के लिए नहीं, बल्कि अपने साम्राज्यीय हितों की पूर्ति के लिए आए थे। उनका शासन छल-कपट, विश्वासघात आदि पर आधारित था।

(5) भारत और ब्रिटेन के मध्य संबंधों के विषय में अन्तर- उदारवादी ब्रिटिश शासन को एक वरदान समझकर उसे भारत के लिये लाभदायक मानते थे। अतः वे ब्रिटिश शासन से संबंध तोड़ना नहीं चाहते थे। वे ब्रिटिश शासन को अनिश्चित काल तक बने रहने देने के पक्ष में थे। उनका विचार था कि ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा-पद्धति, यातायात और संचार की व्यवस्था और स्थानीय स्वायत्त शासन के रूप में एक प्रगतिशील सभ्यता प्रदान की है। उनका कहना था कि ब्रिटिश शासन ही आंतरिक अशान्ति और बाहरी आक्रमण से भारत की रक्षा करने में समर्थ है। गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि ‘अच्छे या बुरे के लिए हमारा भविष्य और हमारी आकांक्षाएँ इंग्लैण्ड के साथ जुड़ गई हैं तथा कांग्रेस स्वतन्त्र रूप से यह स्वीकार करती है कि हम जो प्रगति चाहते हैं, वह ब्रिटिश शासन की सीमाओं में है।”

इसके विपरीत उग्रवादियों की मान्यता थी कि ब्रिटिश शासन के हित भारतीयों के हितों से सर्वथा भिन्न है। उनका कहना था कि राजनीति में न्यायप्रियता तथा उदारता का कोई महत्व नहीं है। इतिहास आज तक कोई ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका है कि जहाँ साम्राज्यवादी शक्ति ने स्वेच्छा से अधीन जाति को स्वशासन दिया हो। अतः भारत का भविष्य तो भारतीयों पर ही निर्भर करता है। उनका कहना था कि अंग्रेज भारत का आर्थिक शोषण करके भारतीयों को निर्धन बनाये रखना चाहते थे। अतः वे ब्रिटिश शासन को भारतीयों के लिये अभिशाप मानते थे। उनकी मान्यता थी कि भारत का आर्थिक तथा सामाजिक पुनर्निर्माण विदेशी शासन में संभव नहीं है।

(6) स्वराज्य को धारणा और प्राप्ति के विषय में अन्तर- उदारवादियों ने प्रारम्भ में तो अपना लक्ष्य केवल राजनीतिक सुधार मात्र घोषित किया था। परन्तु बाद में 1906 में उन्होंने भी स्वराज्य को अपना लक्ष्य घोषित किया था। उदारवादी स्वराज्य का अर्थ ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत औपनिवेशिक स्वशासन लगाते थे। उनकी माँग थी कि क्रमिक राजनीतिक सुधारों के द्वारा ब्रिटिश शासन की छत्रछाया में प्रतिनिध्यात्मक संसदीय संस्थाओं की स्थापना की जाए।

इसके विपरीत उग्रवादी ब्रिटेन से संबंध विच्छेद कर पूर्ण स्वराज्य के पक्षपाती थे। वे स्वराज्य को एक नैतिक आवश्यकता मानते थे। वे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति कोई वफादारी व रखते हुए ब्रिटेन से पूर्णतया संबंध विच्छेद करने के पक्ष में थे।

(7) साधनों के विषय में अन्तर- उदारवादी अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में विश्वास रखते थे तथा प्रस्तावों, प्रार्थना-पत्रों, शिष्ट मण्डलों आदि संवैधानिक तरीकों से ही अपनी माँगें पूरी करवाना चाहते थे। वे उग्र एवं हिंसात्मक तरीकों से घृणा करते थे। वे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते थे। जिसमें शक्ति-प्रदर्शन हो या विद्रोह हो या कानूनों का उल्लंघन कर अपराध की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हो। वे हिंसात्मक एवं क्रांतिकारी साधनों से घृणा करते थे तथा राजनीतिक सुधारों के लिए संवैधानिक उपायों में सरकार पर दबाव डालना चाहते थे। अपील, दलील, वकील उनके नारे थे। वे अपनी माँगों के अस्वीकृत होने पर शर्म का अनुभव नहीं करते थे और बार-बार निवेदन करते रहते थे।

इसके विपरीत उग्रवादियों को प्रार्थना-पत्रों, स्मृतिपत्रों और प्रतिनिधिमण्डलों की नीति में तनिक भी विश्वास नहीं था। वे उदारवादियों की इस अनुनय-विनय की नीति को राजनीतिक भिक्षावृत्ति की संज्ञा देते थे। उन्हें अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा ईमानदारी में तनिक भी विश्वास नहीं था। ब्रिटिश शासन को सुधारने की बजाय उसका अन्त करना चाहते थे। वे अपनी मांगों को मनवाने के लिये बहिष्कार स्वदेशी आन्दोलन और राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रमों पर बल देते थे। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जन-आन्दोलन का सहारा लेना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि इंगलैण्ड जैसे स्वतन्त्र और लोकतान्त्रिक देश में तो संवैधानिक आन्दोलन के आधार पर राजनीतिक परिवर्तन किये जा सकते हैं परन्तु भारत जैसे पराधीन राष्ट्र में संवैधानिक आन्दोलन के आधार पर स्वतन्त्रता प्राप्त करने का स्वप्न देखना स्वयं को धोखा देना है।

(8) विचारों में अन्तर- उदारवादियों का विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करके कठिनाइयों और समस्याओं का निवारण किया जा सकता है तथा वांछित सुधारों को प्राप्त किया जा सकता है। वे क्रमिक सुधारों के पक्ष में थे और धीरे-धीरे स्वराज्य का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। वे आराम कुर्सी की राजनीति में विश्वास करते थे तथा गोखले जैसे कुछ नेताओं को छोड़कर सामान्यतः वे देश हित के लिए त्याग करे एवं जेल जाने के लिये तैयार नहीं थे। परन्तु उग्रवादी देश-हित के लिए त्याग और कष्ट सहन करने को आवश्यक मानते थे और स्वयं इसके लिए तत्पर रहते थे। वे जेल जाने से तनिक भी नहीं घबराते थे। वे ब्रिटिश साम्राज्य के कुटिल इरादों से परिचित हो चुके थे और तत्काल स्वराज्य का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते थे। वे पहले स्वराज्य प्राप्ति पर बल दे तथा अन्य समस्याका बाद में समाधान चाहते थे। वे स्वराज्य की प्राप्ति के लिये बड़ा से बड़ा बलिदान के लिये तैयार थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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