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व्यक्तिगत एकांकी की व्याख्या | लक्ष्मीनारायण लाल की एकांकी व्यक्तिगत

व्यक्तिगत एकांकी की व्याख्या | लक्ष्मीनारायण लाल की एकांकी व्यक्तिगत

व्यक्तिगत एकांकी की व्याख्या

  1. जो चीज मुझे पसन्द है, वह मेरी है। पसंद का संबंध इच्छा से है। इच्छा प्रकृति का गुण है। इच्छा को रोकना प्रकृति के उसूलों के खिलाफ है। इससे खामखा तनाव पैदा होता है और अनेक मानसिक समस्याओं के जाल में फैसना होता है। इससे मनुष्य का विकास रुक जाता है।

सन्दर्भ – आलोच्य पंक्तियाँ समकालीन प्रयोगधर्मी नाटककार लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा लिखित “व्यक्तिगत’ नामक एकांकी से ली गयी हैं, जिसमें श्री लाल ने सामाजिक एवं पारिवारिक समस्या को उद्घाटित किया है।

व्याख्या – एकांकीकार ने ‘मैं’ के कथनों द्वारा मनुष्य की मानसिकता के भीतर मचे हुये उथल-पुथल को स्पष्ट किया है। मैं कहता है- जो चीज मुझे पसंद है वह मेरी है अर्थात् मैंने उसको प्राप्त कर लिया है। पसंद का सम्बन्ध इच्छा से है और इच्छा प्रकृति का गुण है तथा इस गुण को रोकने पर, इच्छाओं की समाप्ति कर देना प्रकृति के प्रति विद्रोह करने जैसा है और इससे अनावश्यक तनाव पैदा होता है अर्थात् भौतिकवादी परिवेश से इतर अपनी इच्छाओं को जागृत रखे रहना भोतिकवादियों से विद्रोह ही तो करायेगा जो वर्तमान प्रकृतिवादियों की इच्छाओं के विपरीत होगा और इससे मनुष्य को अनेक प्रकार की मानसिक समस्याओं से गुजरना पड़ सकता है और इस प्रकृति के विद्रोह करके हमारा जो विकास है वह वहीं पर समाप्त हो जायेगा अर्थात् इस भौतिकता से परिपूर्ण सोच रखने से हमारी सोचने की प्रवृत्ति संकुचित होकर रह जायेगी जिससे हमारे विकास करने का पथ अनवरूद्ध हो जायेगा।

  1. जायेंगे कहीं नहीं। आखिर जाएँगे कहाँ? हम दोनों इसी तरह चले जाते हैं, फिर वहीं वापस लौटने के लिए। जब शादी हुई थी, तब हम ऐसे नहीं थे। शादी के पहले तो बिल्कुल ऐसे नहीं थे (सहसा ) सुनिए, एक बात बताती हूँ आप भी सुन लीजिए, यह शादी मैंने नहीं उन्होंने मुझसे की है।

प्रसंग – एकांकी के प्रथम दृश्य में ही मैं, तथा ‘वह’ (पति-पत्नी) के बीच के तनाव की झलक मिल जाती है, दोनों टहलते हुए बातें कर रहे हैं, बातों ही बातों में वह विवाद में परिणित हो जाता है तो पति खीझकर हट जाता है और पत्नी दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहती है-

व्याख्या- एकांकीकार ने ‘वह’ के माध्यम से आधुनिक नारी की वितृष्णा, क्षोभ, इच्छाओं की वृद्धि, उपभोग, शोषण आदि का रेखांकन किया है। वह अपने पति मैं से कहती है कि हमारे जो विचार हैं, भावनायें है, लालसाये वे कहीं नहीं जायेंगी। यदि इन्हें समाप्त भी करना हो तो इन्हें कैसे कहाँ पर समाप्त करें चारों तरफ तो भौतिकवादी सभ्यता का आवरण चढ़ा हुआ है और हम सभी  लोग उसी रास्ते पर चलते हैं और चलते-चलते पुनः फिर डगमगा जाते हैं, जो हमारा मानसिकता तथा भौतिकवादी दृष्टिकोण को उजागर करता है। पत्नी-पति से कहती है कि जब हमारा विवाह हुआ था तब हम अर्थात् हमारी मनः स्थिति; आवश्यकतायें, इस प्रकार की नहीं थीं और विवाह के पहले तो हमारी सोंच ही अब से अलग प्रकार की थी। पत्नी पुनः कहती है कि यह विवाह मैंने नहीं किया है, उन्होंने मुझसे विवाह किया है जो नारी के आधुनिकता बोध को स्पष्ट करता है और दाम्पत्य जीवन के टकराहट का आभास देता है।

  1. जब कोई अपना विश्वास ही न हो, चरित्र ही न हो तो निजी विचार क्या हो सकता है? एक बात और भी तो है- हमें बचपन से ही यह महसूस होता रहता है कि हमारी निजी विचारों और कामों का कोई महत्व नहीं। इसलिए हम दूसरे के काम करते हैं- औरों की जिन्दगी ओढ़ते चले जाते हैं।

सन्दर्भ- पूर्ववत् ।

व्याख्या- एकांकीकार जी कहते हैं जब किसी मनुष्य के अन्दर अपना ही विश्वास, आत्मविश्वास न हो, उसका चरित्र प्रायः नष्टप्राय हो चुका हो उसका किसी या अपने बारे में क्या विचार हो सकता है साथ-ही-साथ एक बात यह भी है कि हमें बचपन से ही यह महसूस होता रहता है कि हमारे जो स्वयं के विचार हैं या हम कार्य करते हैं उनका दूसरों के लिए कोई महत्व नहीं है इसलिये हम लोग दूसरों के कार्यों को देखकर नकल करके जीवन जीने का प्रयास करते हैं और हमारे जो स्वयं के विचार हैं, मान्यतायें हैं वे सब इस अन्धी मानसिकता में दब जाती हैं, और हमारे जो स्वयं के विचार हैं, मान्यतायें वे सब इस अन्धी मानसिकता में दब जाती हैं और हम धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के तले दबते चले जाते हैं और बाद में यह भी नहीं स्पष्ट हो पाता कि हम क्या थे अर्थात् हमारा अस्तित्व क्या था और किस प्रकार था सब इसी पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में मिलकर समाप्त हो जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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