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पुरस्कार सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | जयशंकर प्रसाद – पुरस्कार

पुरस्कार सन्दर्भः प्रसंग- व्याख्या | जयशंकर प्रसाद – पुरस्कार

पुरस्कार

  1. मधूलिका ने राजा का प्रतिदान, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ी रहती।

मधूक वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्ण-कुटी थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी। मधुलिका का वहीं आश्रम था। कठोर परिश्रम से जो रूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते थे। वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कथा नवनीत में संकलित ‘पुरस्कार’ नामक कहानी से उद्धृत है।’ इसके रचनाकार प्रसिद्ध कहानीकार श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग – प्रसाद की ‘पुरस्कार’ कहानी की इन पंक्तियों में मधूलिका की वर्तमान स्थिति का चित्रण हुआ है। कौशल के राजनियम के आधार पर राजा की खेती हेतु मधूलिका का खेत चुना गया था। खेत के मूल्य के बदले में मिली स्वर्णमुद्राएँ मधूलिका ने महाराज पर न्यौछावर करके बिखेर दी थी। उसके वर्तमान जीवन का चित्रण निम्नांकित पंक्तियों में द्रष्टव्य है-

व्याख्या – मधूलिका के खेत के बदले में राजा ने जो स्वर्ण मुद्राएं दी थीं उसके साथ जो कृपा-भावना दिखायी थी, उसे मधूलिका ने अस्वीकार कर दिया। उसने अपना जीवन-यापन करने हेतु दूसरे के खेतों में काम करना प्रारम्भ किया। दिन-भर काम करके सन्ध्या के समय वह रूखी- सूखी रोटी खाकर पड़ी रहती। उसने अपनी एक छोटी-सी कुटिया मधूक वृक्ष के नीचे बना ली थी, जिसको सूखे डण्ठलों से बनाया गया था- अब, वहीं उसका आश्रम था। वह अब कठोर श्रम कर रही थी, फिर भी उसे रूखा-सूखा भोजन ही मिल पाता था, जिससे वह जीवित थी। वह निश्चित रूप से दुर्बल हो गयी थी, पर उसकी तपस्या से उसकी काया में आश्चर्यजनक कान्ति झलकती थी। अंगों में तपस्या की कान्ति और अधिक झलक आयी थी। उसके तपस्वी और सादा जीवन के कारण और सिंहमित्र’ की कन्या होने के कारण वह आदर का पात्र थीं, आस-पास के कृषक उसका आदर करते थे। वस्तुतः वह एक आदर्श बालिका थी। उसका समय धीरे-धीरे इसी प्रकार व्यतीत हो रहा था।

  1. “शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप-मधुलिका का छाजन टपक रहा था, ओढ़ने की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधुलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामंजस्य बनाए रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं, परन्तु उसकी आवश्यकता और कल्पना-भावना के साथ-साथ घटती-बढ़ती रहती है। आज बहुत दिनों बाद उसे बीती हुई बात स्मरण हो आई। राजकुमार ने क्या कहा था।

प्रसंग – यह गद्यांश जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार’ से उद्धृत है। इन्द्रोत्सव के अवसर पर मधूलिका का खेत राज्य के अधीन हो गया, बदले में अनुग्रह रूप में दी गयी स्वर्ण- मुद्राएँ उसने ठुकरा दीं। अब वह अभाव का जीवन बिता रही थी। इसी प्रसंग का वर्णन लेखक करते हुए लिखता है-

व्याख्या – वह सर्दी की काली भयंकर रात थी। आकाश घने काले बादलों से ढंका हुआ  था। पानी मूसलाधार बरस रहा था। रह-रहकर बिजली कौंध उठती थी, जिससे वातावरण और भी भयावह हो गया था। मधूलिका की घास-फूस की बनी झोपड़ी जहाँ तहाँ टपक रही थी। सर्दी भयंकर वर्षा, तेज हवाएँ और टपकती हुई झोपड़ी, मधूलिका के पास ओढ़ने के लिए पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। ठिठुरती हुई एक कोने में सिकुड़ी सी बैठी थी। वह अपनी विपन्नता और अभावग्रस्त दशा के बारे में सोच रही थी। लेखक कहता है कि वे सब उपकरण, उपादान और उपाधियाँ, जो जीवन को सन्तुलित और समरस रखना चाहती हैं. वे जीवन की क्रिया और चेतना के साथ अपना अटूट सम्बन्ध कायम रखती हैं- पर मन की भावना, वासना और इच्छा की अनुकूलता प्रतिकूलता, तीव्रता-मन्दता के अनुसार उनकी जरूरत में कमी-बेशी होती रहती है अर्थात् मनुष्य अपनी भावना के अनुसार किन्हीं क्षणों में जिन वस्तुओं को, जिन संबंधों को आवश्यक या अनावश्यक महसूस करता है, विपरीत भावनात्मक दशाओं में वह उन्हीं को आवश्यक महसूस करने लगता है। यही बात मधूलिका के साथ हुई। मगध के जिस समृद्ध युवक राजकुमार अरुण का प्रणय प्रस्ताव उसने एक दिन तुकरा दिया था, आज उसे वहीं अरुण हठात् याद आ गया था ।

  1. एक घने कुंज में अरुण और मधुलिका एक-दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। संध्या हो चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।

प्रसन्नता से अरुण की आँखे चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरणें झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से खेलने लगीं। अरुण ने कहा – “चार पहर और विश्वास करो, प्रभात में इस जीर्ण कलेवर कोशल की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं स्वतन्त्र – राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!”

सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कथा नवनीत में संकलित ‘पुरस्कार’ नामक कहानी से उद्धृत हैं। इसके रचनाकार प्रसिद्ध कहानीकार श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग – प्रसाद की ‘पुरस्कार’ कहानी में जब अरुण के आग्रह पर कौशल नरेश से मधूलिका ने श्रावस्ती दुर्ग के दक्षिणी नाले के पास की भूमि माँग ली थी तब वहाँ कार्य प्रारम्भ हो गया।

व्याख्या – उस भूमि को समतल किया जा रहा था, उस समय अरुण और मधूलिका एक घने कुंज में बैठे हुए थे। वे बड़े प्रसन्न थे और आनन्दयुक्त होकर हर्ष भरे नेत्रों से एक-दूसरे को देख रहे थे, क्योंकि दोनों के मन की साधना की पूर्ति होने का ही यह कार्यक्रम था। सायंकाल का समय हो रहा था। फलतः पक्षीगण जब अपने नीड़ को लौट रहे थे, तो उस निर्जन वन में नये-नये मनुष्यों को देखकर कुछ अधिक शोर करने लगे थे। अरुण परम प्रसन्न था, यह प्रसन्नता उसकी आँखों को भी चमका रही थी। सन्ध्याकालीन अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरणें उस झाड़ी में प्रवेश कर गयी थीं (जहाँ वे दोनों बैठे थे) किरणें मधूलिका के गालों पर पड़ रही थीं, मानों वे किरणे उसके ‘कपोलों से अठखेलियाँ करने हेतु ही यहाँ उतर आयी हों।

  1. अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवी लता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित थे, भ्रमर निस्पन्द। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने के लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा। उसने अरुण से प्रश्न किया- “छि:! कुमारी के साये हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करने वाले धृष्ट, तुम कौन?” मधूलिका की आँखे खुल पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक। वह संकोच से उठ बैठी। “भद्रे तुम्हीं न कल के उत्सव की संचालिका रही हो?”

प्रसंग – पूर्ववत्

व्याख्या – मगध के राजकुमार अरुण ने देखा कि जिस प्रकार मधूक-वृक्ष से टूटकर उसकी माधवी लता खिन्न उदास बिखरी-बिखरी सी अलग पड़ जाती है, कुछ उसी तरह जमीन से बेदखल होकर मधूलिका भी भूमि खिनमना लेटी हुई है। चारों तरफ फूल खिले हुए थे और भ्रमरों की अनुगूंज खामोशी थी। अरुण ने संकेत से अश्व को भी खामोश रहने (हिनहिनाहट न करने) के लिए कहा। वह आँख भरकर मधूलिका के सौंदर्य को देखना चाहता था, पर तभी पेड़ पर बैठी कोकिल बोल उठी- छि:-छिः सोई हुई अज्ञात यौवना कुमारी का के सौंदर्य को छुप-छुप कर देखते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती। ऐ दुष्ट मनोवृत्ति वाले कुमार! तुम कौन हो, यह धृष्टता किसलिए कर रहे  हो और कोकिल के स्वर से हठात् मधूलिका की तन्द्रा भंग हुई। वह जाग पड़ी। उसने देखा कि उसके सामने अनजान अज्ञात सुदर्शन-युवक खड़ा है। वह सकुचाते हुए उठ बैठी। अरुण ने पूछा- हे देवि! क्या कल के इन्दोत्सव का संचालन करने वाली तथा महाराज द्वारा भेंट में दी गई स्वर्ण मुद्राओं को उन्हीं पर न्यौछावर करने वाली त्यागमयी, निर्लोभ युवती आप ही थीं?

  1. “यह रहस्य मानव हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार यदि नियमों से मानव हृदय बाध्य होता तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंचकर एक कृषक बालिका का अपमान करने न आता।”

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद कृत ‘पुरस्कार’ कहानी से ली गई हैं। इन्द्रोत्सव में सम्पूर्ण सम्पत्ति पर्व की प्रथानुसार गंवाने के बाद मधूलिका खिन्न मन से कुटिया में उदास है तभी उसके रूप सौंदर्य से आकर्षित मगध का राजकुमार वहाँ पहुँचता है और उसके समक्ष प्रणय निवेदन करता है। मधूलिका राजकुमार के द्वारा उसकी भूमि वापस दिलवाने की बात पर टिप्पणी करते हुए कहती है

व्याख्या – मुझे कोशल नरेश से भूमि वापस नहीं चाहिए। रही हृदय के रहस्य की बात, तो मुझमें कोई विशेष रहस्य नहीं है। मानव का मन ही निगूढ रहस्यों से भरा पड़ा है। वह अरुण से कहती है कि मानव का मन किसी नियम, किसी विधि निषेध का मोहताज नहीं होता। राजकुमार, अगर तुम्हारा हृदय भी किसी नियम नीति से बंधा होता तो आज राजकुमारी के पास न जाकर तुम मुझे हतभागिनी, अकिंचन, निराश्रिता का इस तरह अपमान करने की हिम्मत न करते। मधूलिका को अनजान विदेशी व्यक्ति के द्वारा इस तरह पहली मुलाकात में ही प्रणय-प्रस्ताव बुरा लगा, इसीलिए वह उसे शालीन भाषा में झिड़कते हुए वहाँ से चल देती है।

  1. आर्द्रा नक्षत्र! आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देवदुन्दुभी का गम्भीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था- देखने लगा महाराज की सावारी। शैलमाला के अंचल में समतल उर्वरा-भूमि से सोंधी वास उठ रही थी। नगर-तोरण से जय-घोष हुआ। भीड़ से गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखाई पड़ा। वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोरे भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ कथा नवनीत ‘पुरस्कार’ नामक कहानी से उद्धृत है। इसके रचनाकार प्रसिद्ध कहानीकार श्री जयशंकर प्रसाद जी हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियाँ कथा के आरम्भ से ली गयी हैं। इसमें लेखक कोशल राज्य के वार्षिकोत्सव में सम्मिलित होने के लिए जा रहे राजा के दल-समूह को अद्भुत प्रकृति के रंगों में मिलाकर प्रस्तुत किया है।

व्याख्या – प्रसाद जी राजा के आगमन के पूर्व देशकाल और वातावरण का सुरम्य चित्र प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि- मन मोहक पावस ऋतु का आर्द्रा नक्षत्र है। इस नक्षत्र में स्वच्छ आकाश काले-काले मेघों से आच्छादित हो अपनी उमड़-घुमड़ से प्रकृति की सुन्दरता को एक अपूर्व चारूता- प्रदान करता है। धरती की हरियाली इन काले मेघों को देखकर मानों मुस्करा रही हो। मेघों की इस आवाज में सम्राट के दुन्दुभी का जयघोष, दिग्दिगन्त उस घोष को सुनकर’ कम्पायमान हो रहे थे। इस सुरम्य और निस्तब्ध वातावरण में प्राची के एक कोने में स्वर्ण की आभा से देदीप्यमान अपनी स्वर्ण रश्मियों को बिखेरते भगवान सूर्य मानों सम्राट के उस उत्सव को छुपकर देखने की लालसा में सामने आ गये हो। नगर से दूर पर्वत श्रेणियों के हरियाली युक्त प्रकृति के रम्य आँचल में उर्वरक शक्ति से युक्त समतल भूमि से मदोन्मत करने वाली भूमि की मीठी सुगन्ध चतुर्दिक दिशाओं में फैल रही थी। राज्य के इस वार्षिकोत्सव में सम्पूर्ण नगर को दुल्हन की तरह सजाकर नगर तोरण से जयघोष कर सम्राट के आगमन की सूचना देता प्रतिहारी राज्य के पथों से आ रहा था। सम्राट के साथ चलती अपूर्व भीड़ में उनका आभूषण मोतियों से अलंकृत गजराज अपनी सँड़ को उठाकर अपने राज्य की कीर्ति बिखेरता मन्द गति से चल रहा था। समस्त नगरवासी हर्षान्मत और उत्साहित हो उस उत्सव को सफल बनाने में प्रयत्नशील थे।

  1. एक घने कुञ्ज में अरुण और मधुलिका एक-दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। सन्ध्या हो चली थी, उस निविड़ वन में नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे। प्रसन्नता से अरूण की आँखे चमक उठीं। सूर्य की अन्तिम किरणें झुरमुट में घुसकर मधूलिका के उष्ण कपोलों से खेलने लगीं। अरूण ने कहा- “चार पहर और विश्वास करो, प्रभात में इस जीर्ण कलेवर कोसल राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूंगा, मधूलिके।”

प्रसंग – यह गद्यांश जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार’ से लिया गया है। अरुण के कहने से मधूलिका ने महाराज से श्रावस्ती दुर्ग के दक्षिणी नाले के पास वाली भूमि माँग ली थी। उसी के बाद लेखक एक शाम का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – एक घनी झाड़ी में अरुण और मधूलिका बैठे थे तथा एक-दूसरे को प्रसत्रता परी आँखों से देख रहे थे। सायंकाल का समय हो गया था। चिड़ियों का झुण्ड घोंसलों को लौट रहा था, पर इन नये आये हुए लोगों को देखकर अधिक हल्ला मचा रहा था। प्रसन्नता के कारण उस समय अरुण की आँखें चमक रही थीं। सूर्य की आखिरी किरणें उस झुरमुट अर्थात् झाड़ी में घुस आई थीं, जहाँ अरुण और मधुलिका बैठे थे। वे किरणें मधुलिका के गालों पर पड़ी रही थीं। अरुण ने मधुलिका से कहा, “चार पहर और अर्थात् रात आधी होने तक मेरी बात का भरोसा करो। सबेरा होते ही कमजोर शरीर वाले इस कोसल राज्य की राजधानी में तुम्हें राजगद्दी पर बैठाने वाला स्नान कराया जायेगा। मैं वैसे तो मगध से निकाला हुआ हूँ, पर सवेरा होते ही एक स्वतन्त्र देश का मालिक बन जाऊँगा।”

विशेष (1) कोसल राष्ट्र के अधिकार करने की कल्पना से हर्षित प्रेमी और प्रेयसी का चित्रांकन प्रशंसनीय है।

(2) अरुण अपनी योजना के प्रति आश्वस्त है कि उसका प्रयास अवश्य सफल होगा।

(3) भाषा संस्कृत तत्सम-प्रधान होने पर भी सुबोध और व्यावहारिक खड़ी बोली है।

  1. पंथ अंधकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निबिड़ अंधकार से घिरा था। मधुरता नष्ट हो गयी थी। जितनी सुख-कल्पना थी, जैसे अंधकार में विलीन होने लगी थी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी, वह सफल क्यों हो? श्रावस्ती का दुर्ग एक विदेशी के हाथों में क्यों चला जाये? मगध कोसल का चिरशत्रु! ओह, उनकी विजय! कोशल नरेश ने क्या कहा था! “सिंहमित्र की कन्या !” सिंहमित्र कोसल का रक्षक वीर? उसी कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं! “मधूलिका! मधूलिका!!” जैसे उसके पिता उस अन्धकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।

शब्दार्थ – निविड़= घना। विलीन होने लगी= छिपने लगी। चिरशत्रु = बहुत पुराना दुश्मन।

प्रसंग – यह गद्यांश जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित कहानी ‘पुरस्कार’ से लिया गया है। मधूलिका ने अरुण की बात मानकर श्रावस्ती दुर्ग के दक्षिणी नाले के पास वाली भूमि महाराज से मांग ली। वहाँ से जिस रात अरुण ने श्रावस्ती के दुर्ग पर आक्रमण करने का निश्चय किया, उस रात को मधूलिका की मनोवृत्ति का लेखक वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – मधूलिका जिस रास्ते पर चल रही थी, वह अंधेरे में डूबा था और मधूलिका का मन भी घने अंधेरे से घिरा हुआ था। यकायक मधूलिका का मन व्याकुल हो उठा। उसके मन का मीठापन मिट गया। मधूलिका ने सुख पाने की जो कल्पना की थी, वह अंधेरे में छिपने लगी थी। मधूलिका डरी हुई थी। सबसे पहला डर तो उसे अरुण के विषय में था। अगर अरुण को सफलता नहीं मिली तो क्या होगा ? फिर उसने सोचा कि अरुण को सफलता क्यों मिले ? उसकी जन्मभूमि, कोसल राष्ट्र का किला, श्रावस्ती – एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाय? अरुण मगध का निवासी है और मगध तो कोसल का पुराना बैरी है। उसकी कोसल विजय बहुत बुरी बात है, मधुलिका को याद आया कि कोसल नरेश ने उसे “सिंहमित्र की कन्या” कहा था। सिंहमित्र तो ऐसे वीर थे, जिन्होंने कोसल की रक्षा की थी। उन्हीं सिंहमित्र की कन्या मधूलिका आज कितना गलत काम करने जा रही है? नहीं, नहीं ऐसा नहीं होगा। तभी मधूलिका को लगा कि उसके पिता उसका  नाम लेकर पुकार उठे हैं। मधूलिका पागल की तरह चिल्ला उठी और जिस रास्ते पर जा रही थी, उसे भूल गई।

विशेष – (1) पहले मधूलिका के हृदय की राष्ट्र भक्ति पर प्रेम ने अधिकार कर लिया है। इस समय प्रेम की भावना को राष्ट्र भक्ति ने पराजित कर लिया है।

(2) देश प्रेम के मार्ग से भटकी हुई मधूलिका अपने देश के प्राणों का उत्सर्ग करने वाले पिता का स्मरण करते ही देश-भक्त बन गयी है।

(3) भाषा संस्कृत तत्सम-प्रधान खड़ी बोली है, परन्तु दुर्बोध नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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