राजनीति विज्ञान / Political Science

अधिनायकतन्त्र किसे कहते हैं? | आधुनिक अधिनायकतंत्र | आधुनिक अधिनायकतन्त्र के लक्षण | अधिनायकतन्त्र के गुण | अधिनायकतन्त्र के दोष | आधुनिक अधिनायकतन्त्र के उदय के प्रमुख कारण | तानाशाही शासकों के प्रमुख गुण तथा दोष

अधिनायकतन्त्र किसे कहते हैं? | आधुनिक अधिनायकतंत्र | आधुनिक अधिनायकतन्त्र के लक्षण | अधिनायकतन्त्र के गुण | अधिनायकतन्त्र के दोष | आधुनिक अधिनायकतन्त्र के उदय के प्रमुख कारण | तानाशाही शासकों के प्रमुख गुण तथा दोष

अधिनायकतन्त्र किसे कहते हैं? (परिचय)

अधिनायकतन्त्र की तानाशाही, अधिनायकवाद या अन्य शासन भी कहा जाता है। यह सरकार का कोई नया रूप नहीं है। प्रजातांत्रिक रोम में अधिनायकतंत्र स्वीकृत व्यवस्था थी जहाँ सरकार की शक्ति सामान्यतः दो प्रधानों में निहित थी, जिन्हें कौंसल कहा जाता था। आवश्यकता के समय रोम-निवासी कौंसलों के ऊपर अधिनायक को नियुक्त किया करते थे और उसे संकट का सामना करने के लिए सर्वोच्च शक्तियाँ सौंप दिया करते थे। लेकिन यह रोमन अधिनायकतन्त्र केवल एक अस्थायी प्रयोग था। संकटकालीन अवस्था समाप्त हो जाने पर इसे त्याग दिया जाता था।

आधुनिक अधिनायकों को राष्ट्रीय संकट के समय शासन-संचालन के लिए सीमित अवधि के लिए किसी कानूनी विधि द्वारा नहीं चुना जाता वरन् वे तो प्रायः आकस्मिक क्रान्ति के फलस्वरूप शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। उनकी राजनीतिक शक्ति का आधार बल-प्रयोग होता है। दे उसी समय तक शक्ति में रहते हैं जब तक बल प्रयोग उन्हें अधिनायक बनाने में सहायक होता है। अधिनायक अपने अपेक्षा अन्य किसी शक्ति के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। वे प्रजातन्त्र के घोर विरोधी होते हैं। अधिनायकतन्त्र में सरकार की शक्तियाँ असीमित होती हैं जिन पर कोई वैधानिक नियन्त्रण (Constitutional check) नहीं होता। सैनिक तानाशाही में तो संविधान स्थगित कर दिया जाता है और एक क्रान्तिकारी परिषद् बनायी जाती है जिसमें सेना के उच्च अधिकारी शामिल होते हैं और वे राजाज्ञाओं अथवा आदेशों द्वारा देश का शासन चलाते हैं।

अधिनायक अर्थात सर्वोच्च शासक अपने समर्थक वर्ग के हित में शासन करता है और उनके सहयोग का आकांक्षी रहता है। उसके सलाहकारों की एक परिषद् होती है। ये सलाहकार उसके समर्थक-वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिटलर और मुसोलिनी के समय में भी जर्मनी और इटली में इसी प्रकार का अधिनायकवाद था। दोनों ही क्रमश: नाजी और फासिस्ट दलों के नेता थे और दोनों ही अपने दलों के लक्ष्यों का पालन करने के लिए अपने दलों में से अपने सचिव चुनते थे। अत: जर्मनी और इटली में यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से व्यक्तियों का अधिनायकतन्त्र था, किन्तु उन व्यक्तियों वास्तविक शक्ति उनके समर्थक वर्ग से बाधित थी।

आधुनिक अधिनायकतंत्र

अपने वर्तमान स्वरूप में अधिनायकतन्त्र का जन्म प्रथम महायुद्ध के पश्चात् यूरोप में हुआ। इटली में मुसोलिनी की, जर्मनी में हिटलर की, स्पेन में फ्रांको की और तुर्की में कमालपाशा की तानाशाही स्थापित हुई। रूस में भी साम्यवादी दल की तानाशाही का सूत्रपात हुआ, यद्यपि उसका स्वरूप, उसका लक्ष्य और उसका चरित्र अन्य देशों की तानाशाही से भिन्न था। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् चीन, यूगोस्लाविया, बल्गेरिया, रूमानिया और लिथुआनियआ (पूर्वी यूरोप) में भी साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित हो गई।

यह उल्लेखनीय है कि जहाँ दक्षिणपन्थी अधिनायकतन्त्र का आशय पूँजीपति वर्ग के अधिनायकतन्त्र से होता है, वहाँ वामपन्थी अधिनायकतन्त्र से मजदूरों के अधिनायकतन्त्र का अर्थ लिया जाता है, जो पूँजीवादी समाज के नाश और साम्यवादी समाज के उदय के बीच का परिवर्तन है; जबकि राज्य का अन्ततः विनाश हो जाता है। ये दोनों ही प्रकार के अधिनायकतन्त्र मौलिक रूप से एक-दूसरे के विरोधी हैं, किन्तु मोटे रूप में समान सिद्धान्त का आश्रय लेते हुए कार्य करते हैं। उनमें समानता यही होती है कि दोनों एकाकी दल द्वारा शासित होते हैं और दोनों ही अपने अतिरिक्त किसी अन्य दल के अस्तित्व को सहन नहीं करते। दोनों ही अधिनायकतन्त्र समुदाय को मौलिक मानते हए व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं।

आधुनिक अधिनायकतन्त्र के उदय के कारण

(1) सन् 1914 में प्रथम महायुद्ध छिड़ गया और इसमें लोकतन्त्रीय देशों में भी युद्ध के सफल संचालन के नाम पर कार्यपालिका द्वारा सम्पूर्ण शक्तियाँ स्वयं ग्रहण कर ली गई और संसदों को पीछे धकेल दिया गया। लोगों की स्वतन्त्रताओं और अधिकारों का कोई मूल्य नहीं रहा। इससे लोकतन्त्र को सख्त धक्का लगा ।

(2) लोगों के इस विश्वास को गहरा आघात लगा कि लोकतन्त्र और शान्ति समानार्थक हैं। सन् 1914 की घटनाओं ने उनके भ्रम को नष्ट कर दिया।

(3) युद्ध के बाद लोगों ने एक बेहतर और सुखद विश्व की आशा की थी, किन्तु उनकी आशाएँ झूठी साबित हुईं। युद्ध के बाद थके सैनिक जब लौटे तो उन्हें बेकारी, घाटे के बजट, युद्ध-ऋणों को चुकाने के लिए नये करों और अन्य विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ा। अतः उनके तथा जनसाधारण के मन में यह बात जम गई कि संसदीय शासन वाले लोग ही युद्ध भड़काने वाले थे। निराशा के इस वातावरण में उन्होंने खुले तौर पर लोकतन्त्र की समाप्ति की घोषणा की।

(4) युद्ध के बाद आत्मनिर्णय के सिद्धान्त के आधार पर जिन नवीन राज्यों की स्थापना की गई उनमें संसदीय संस्थाओं के लिए सन्तोषप्रद वातावरण की गुंजाइश नहीं थी। इन देशों में भी लोकतन्त्र की परम्परा नहीं थी और न ही उन्हें किसी प्रकार के लोक-शासन का प्रशिक्षण मिला था। इसके परिणामस्वरूप देशों में लोकतन्त्र अधिक समय तक स्थिर न रखा जा सका ।

(5) सन् 1919 की वसयि-सन्धि ने जर्मनी में इस विचारधारा को प्रबल बना दिया कि शक्तिशाली सरकार ही देश का एकीकरण कर सकती है और कमर तोड़ क्षतिपूर्ति की रकम से देश को मुक्ति दिला सकती है। इसलिए हिटलर जैसी तानाशाही का मार्ग प्रशस्त हो गया और सन् 1933 में उसने शक्ति हथिया ली। इटली को यद्यपि लन्दन की गुप्त सन्धि अनुसार बहुत-सा नया प्रदेश देने का वायदा किया गया था, तथापि महायुद्ध समाप्त होने पर इटली को निराश होना पड़ा और इटलीवासियों के मन में यह बात बैठ गई कि शक्तिशाली सरकार ही देश को आगे बढ़ा सकती है। लोगों की इन भावनाओं ने मुसोलिनी का राजनीतिक क्षितिज पर उभरने में सहायता दी।

(6) रूस में क्रान्ति से पूर्व जार सरकार लोगों की आर्थिक समृद्धि के लिए कुछ नहीं कर सकी। साम्यवादियों ने क्रान्ति के समय इस पहलू पर विशेष बल दिया। उन्होंने आर्थिक असमानता दूर करने तथा सबको रोजी-रोटी देने का वचन दिया; फलतः रूस में साम्यवादी क्रान्ति हुई और साम्यवादी दल की तानाशाही स्थापित हुई।

इस तरह आधुनिक तानाशाही या अधिनायकतन्त्र का उत्कर्ष विभिन्न कारणों से हुआ। मूलतः दो कारण ही सर्वाधिक प्रधान थे। प्रथम, यह कि जिन देशों में लोकतन्त्र की नवीन स्थापना की गई उनकी भूमि और जलवायु इस योग्य नहीं थी कि वहाँ लोकतन्त्ररूपी पौधा पनप सके। द्वितीय, प्रत्येक देश में जहाँ निराशा का अभाव था, वहीं अधिनायकतन्त्र का उदय भी हुआ। जिन देशों को युद्ध में नष्ट कर दिया गया था, जिन देशों को अत्यधिक क्षति-पूर्ति करनी पड़ी थी, जिन देशों की प्राचीन परम्पराएँ विनष्ट हो चुकी थीं वहीं अधिनायकतंत्र प्रकट हुआ।

आधुनिक अधिनायकतन्त्र के लक्षण

आधुनिक अधिनायकतन्त्र ने सर्वाधिकारवादी (Totalitarianism) राज्य को जन्म दिया है जो लोकतन्त्रात्मक राज्य का विरोधी है। आधुनिक अधिनायकतन्त्र या तानाशाही की दो प्रमुख सैद्धान्तिक विशेषताएँ हैं-

(1) यह शासकों और शासितों के बीच स्पष्ट वर्ग-विभेद करता है।

(2) यह राज्य और सरकार के बीच का भेद नष्ट करता है ताकि कोई सत्ता शासक दल से जवाब- तलब न कर सके। शासक-दल सम्पूर्ण सत्ता को न केवल हथियाने का प्रयास करता है, बल्कि, वह शासितों को सत्ता देना ही नहीं चाहता | शासक स्वयं राज्य का रूप धारण कर लेते हैं। राज्य और सरकार एक ही सत्ता बन कर सर्वशक्तिमान बन जाती है। जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र बचा नहीं रहता जो आधुनिक अधिनायकतन्त्रीय राज्य के अन्तर्गत न आता हो। हिटलर और मुसोलिनी के लिए “राज्य से बढ़कर कुछ नहीं था, राज्य से परे कुछ नहीं था, राज्य से अलग कुछ नहीं था।” अधिनायकतन्त्री राज्य व्यक्तियों की समस्त गतिविधियों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। अधिनायकतन्त्र प्रायः औपनिवेशिक विस्तार की नीति का अनुसरण करता है।

(3) सभी तानाशाह लोकतन्त्र के घोर विरोधी होते हैं और वे शासक को सम्पूर्ण शक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह अधिनायकवाद या तानाशाही में सरकार की शक्तियाँ असीमित होती हैं जिन पर कोई वैधानिक नियन्त्रण नहीं होता। सैनिक अधिनायकवाद में संविधान को स्थगित करके क्रान्तिकारी परिषद्, जिसमें सेना के बड़े-बड़े अधिकारी शामिल होते हैं, देश का शासन चलाती है। साम्यवादी तानाशाही में संविधान होता है, किन्तु इसमें एक ही दल रहता है और उसी में सम्पूर्ण शक्ति निहित होती है।

(4) अधिनायकतन्त्र के प्रत्येक रूप में जनता को प्रायः मौलिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं से वंचित कर दिया जाता है। अधिकार जनता के हक नहीं समझे जाते, बल्कि राज्य की कृपा समझे जाते हैं। जिन देशों में सैनिक अधिनायकवाद होता है वहाँ चाहे नाम मात्र को संविधान भी हो, किन्तु फिर भी लोग केवल उन्हीं स्वतन्त्रताओं का उपभोग करते हैं जिनकी राज्य आज्ञा देता है।

(5) अधिनायक अन्तर्राष्ट्रीय लोकमत की परवाह न कर अपने स्वार्थों को सबसे ऊपर रखते हैं। हिटलर ने अन्तर्राष्ट्रीय लोकमत की परवाह न करके, पड़ोसी देश पर आक्रमण किया, मुसोलिनी ने भी ऐसा ही किया।

उपसंहार

आधुनिक अधिनायकतन्त्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सैनिकवाद की उपज है। इसके झण्डे के चारों ओर राष्ट्रीय आत्मसम्मान, आशाओं और आकांक्षाओं की शक्ति संगठित होती है और जिसकी प्राप्ति शक्ति के संकेन्द्रण पर निर्भर होती है। अधिनायकतन्त्र आन्तरिक विरोध तथा संघर्ष को कठोरता से दबा देता है। वह इस तरह कार्य करता है मानो वह राष्ट्रीय एकता की  मूर्ति हो। अधिनायकतन्त्र लोगों को एक स्वर रो मिलाने का प्रयत्न करता है। अधिनायकतन्त्र एक सामाजिक सिद्धान्त का प्रतिनिधित्व करता जिसे सुधार की योजना का नाम दिया जा सकता है। आधुनिक अधिनायकतन्त्र व्यवस्था एवं सुरक्षा के प्रतिबन्ध द्वारा, शिक्षा द्वारा तथा अन्य विभिन्न उपायों द्वारा जन साधारण की दशा में सुधार करने का भी प्रशंसनीय प्रयत्न करता है; किन्तु यह जनता के किसी प्रकार के विरोध को सहन नहीं करता। जनता को उसी स्थिति में रहना पड़ता है जिस स्थिति में अधिनायकतन्त्र उन्हें रखना चाहता है।

तानाशाही या अधिनायकतन्त्र के गुण

  1. तानाशाही को उन सुदृढ़ लोगों का शासन कहा जाता है जो हर बात पूरी तरह लेते हैं। इस व्यवस्था में विचारों के मतभेदों को स्थान नहीं दिया जाता; अत: शासन सुचारु रूप से चलता है, सभी कार्य द्रुतगति से होते हैं, शीघ्रातिशीघ्र निर्णय लिये जाते हैं और देश के समक्ष समस्याओं का त्वरित समाधान करने के लिए आवश्यक कदम उठा लिये जाते हैं।
  2. युद्ध-काल में तानाशाही शासन श्रेयस्कर होते हैं। क्योंकि इस व्यवस्था में संगठन फैला हुआ करता है और सभी निश्चय, निर्णय और आदेश एक ही व्यक्ति पर अवलम्बित रहते हैं; अतः न तो कार्य में शिथिलता आ पाती है और न भेद खुलने का भय रहता है। अधिनायक जिन व्यक्तियों से परामर्श लेता है वे उसके निजी विश्वसनीय व्यक्ति होते हैं जो सदैव उसकी इच्छा को मूर्त रूप देने के लिए तत्पर रहते हैं।
  3. तानाशाही व्यवस्था एक कुशल शासन-व्यवस्था है जो मुसोलिनी के इन शब्दों पर खरी उतरती है-“मेरा कार्यक्रम बात करना नहीं, बल्कि काम करना है। सिद्धान्त तो टीन और लोहे की हथकड़ियाँ हैं।” प्रजातन्त्र में समस्या उठती है और कई बार समाप्त हो जाती है, लेकिन उस समय तक भी निर्णय नहीं हो पाता। तानाशाही शासन-व्यवस्था में ‘निर्णयात्मकता’ का गुण पाया जाता है।
  4. तानाशाही सरकार देश में एकता उत्पन्न करती एक दल का शासन स्थापित करती है जिसके फलस्वरूप दलबन्दी की बुराइयाँ प्रवेश नहीं कर पाती। दूसरी ओर प्रजातन्त्र दलबन्दी की बुराइयों का ‘अड्डा’ बना रहता है। दलबन्दी के कारण ही प्रजातान्त्रिक सरकारें स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी योजनाएँ पूरी नहीं कर पातीं।
  5. तानाशाही में देश की भावी उन्नति और बहुमुखी प्रतिभा के प्रति विश्वास निहित होता है, राष्ट्रीय गौरव छलाँगें भरता है, राष्ट्रीयता की भावना हिलोरें लेती हैं। कहा जाता है कि अधिनायकवाद तो वह ‘फ्लिट’ है जो प्रजातंत्र के दूषित वातावरण में पले कीटाणुओं को नष्ट कर उसे स्वच्छ बना देता है।
  6. अधिनायकवाद मानव-स्वभाव के अधिक अनुकूल है। क्योंकि मनुष्य में दूसरों पर शासन करने और अधिकार जमाने की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से पायी जाती है। इसके अतिरिक्त मनुष्य अपने हितों की सुरक्षा चाहता है, चाहे शासन का कोई भी रूप क्यों न हो।

तानाशाही या अधिनायकतन्त्र के दोष

  1. तानाशाही शासन व्यक्तित्व के विकास को रोकता है तथा मौलिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कोई महत्त्व नहीं देता। तानाशाह की स्वेच्छाचारिता पर व्यक्ति की स्वतन्त्रताओं की बलि चढ़ जाती है। समाचारपत्रों, संघों आदि की स्वतन्त्रता का नाश हो जाता है; इस तरह समाज के मौलिक चिन्तन में शिथिलता आती है।
  2. तानाशाही व्यवस्था में राज्य साध्य है और व्यक्ति साधन । सरकार की आलोचना को राजद्रोह समझा जाता है; अत: राष्ट्रीय हितों का समुचित संरक्षण नहीं हो पाता । अधिनायक निर्देश करता है और लोगों को यन्त्रवत् उन निर्देशों के पीछे चलना पड़ता है चाहे वे निर्देश राष्ट्रीय हित में हों या नहीं । तानाशाही शासन में एक ही व्यक्ति का आतंक रहता है, वही सारी जनता के भाग्य का निर्णय करता है।
  3. तानाशाही शासन शक्ति का उपासक है। उसकी मान्यता है कि जिसके पास शक्ति होती है उसी की प्रतिष्ठा होती है। अतः वह युद्ध की बातें करता है, युद्ध के लिए तत्पर रहता है एवं जान-बूझकर युद्ध मोल लेता है। तानाशाही वस्तुतः शान्ति के लिए अभिशाप है।
  4. तानाशाह अपने प्रतियोगियों को पसन्द नहीं करते। जो योग्य और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति उसके सामने आने लगते हैं उनका सफाया’ कर दिया जाता है।
  5. तानाशाही शासन प्रायः लम्बे समय तक नहीं रह पाता । इसकी जड़ तभी तक मजबूत रहती है जब तक जनता में राजनीतिक पिछड़ापन हो या देश पर किसी महान् संकट का भय हो या देश किन्हीं उग्र लक्ष्यों को पाने का आकांक्षी हो।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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