अर्थशास्त्र / Economics

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के कार्य | Functions of the International Monetary Fund in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के कार्य | Functions of the International Monetary Fund in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष के कार्य

अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मुद्रा-कोष निम्नलिखित कार्य करता है-

  1. ऋण प्रदान करने सम्बन्धी कार्य-

मुद्रा-कोष या ऋण प्रदान करने का कार्य मुद्रा के विक्रय के रूप में किया जाता है। कोई भी सदस्य राष्ट्र जिसके पास विदेशी मुद्रा की कमी होती है। अपनी स्वयं की मुद्रा देकर कोष से सम्बन्धित विदेशी मुद्रा क्रय कर सकता है। जिस मुद्रा की माँग की जाती है उसका प्रयोग चालू भुगतान के लिए होता है। ऋण देकर मुद्रा कोष सदस्य राष्ट्रों के अल्पकालीन भुगतानावशेष के सन्तुलन को दूर करने एवं कम करने का प्रयास करता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि जिस मुद्रा की माँग की गयी है वह मुद्रा-कोष द्वारा दुर्लभ घोषित न हो।

कोई सदस्य देश मुद्रा-कोष से एक वर्ष से अफ्नी मुद्रा के बदले अपने अभ्यंश के 25% से अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त नहीं कर सकता। इसके साथ किसी भी समय मुद्रा कोष के पास किसी सदस्य देश की मुद्रा की मात्रा उसके अभ्यंश के 200% से अधिक नहीं, हो सकती। उदाहरण के लिए, माना किसी सदस्य देश का अभ्यंश 3000 लाख डालर है तो उसे 750 लाख डालर तो स्वर्ण के रूप में और 2250 लाख डालर अपनी मुद्रा के रूप में मुद्रा-कोष के पास रखना पड़ेगा। नियमानुसार यह देश अपनी मुद्रा देकर कोष से 3750 लाख डालर से अधिक की विदेशी मुद्रा प्राप्त नहीं कर सकता।

पहले मुद्रा-कोष केवल अस्थायी असन्तुलन की स्थिति को ही ठीक करने के लिए ऋण देता था। इन ऋणों की अवधि अधिकतम तीन वर्ष से पाँच वर्ष तक की होती थी। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा- कोष ने अस्थायी भुगतान सन्तुलन की कठिनाइयों के लिए दी जाने वाली मूल सुविधा के अतिरिक्त विशिष्ट उद्देश्यों के लिए भी अनेक सुविधाएँ देने की व्यवस्था की है। कुछ व्यवस्थाएँ स्थायी स्वभाव की हैं तो कुछ अस्थायी स्वभाव की। इन सुविधाओं में क्षतिपूरक वित्त सुविधा 1963, बफर स्टॉक वित्त सुविधा 1969, विस्तृत सुविधा 1974 जिसके अन्तर्गत 5 वर्ष से अधिक के लिए साधन प्रदान करने की व्यवस्था है। अस्थायी सुविधाओं में तेल सुविधा 1974 अनुपूरक वित्त सुविधा सम्मिलित हैं। 1963 से पूर्व एक सदस्य मुद्रा-कोष से अपने अभ्यंश का अधिकतम 125% हैं। ऋण के रूप में ले सकता था परन्तु अब प्राय: ऋण की राशि 500 से 600 प्रतिशत तक हो सकती है।

1988 में सदस्य देशों पर मुद्रा-कोष का 27,829 विलियन SDR के बराबर का ऋण बकाया था।

(क) संकटकाल में सहायता-जब किसी क्षेत्र में आकस्मिक ही कोई राजनीतिक व आर्थिक विपत्ति आ जाती है और उस विपत्ति से अन्य देशों को भी हानि पहुँचने का भय उत्पन्न हो जाता है तो ऐसी स्थिति में मुद्रा कोष द्वारा तुरन्त ही सहायता की व्यवस्था की जाती हैं। सहायता मिलने से पहले उस देश द्वारा मुद्रा कोष को यह आश्वासन देना पड़ता है कि उ स विपत्ति को दूर करने हेतु वह स्वयं भी भरसक प्रयास करता रहेगा।

1956 में स्वेज नहर विवाद के कारण उत्पन्न होने वाले आर्थिक संकट के सम्पय में ब्रिटेन को दिया गया 130 करोड़ डालर का ऋण इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है। यह ऋण स्टलिंग की स्थिति को सुदृढ़ करने हेतु दिया गया था। संसार की आर्थिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए मुद्रा-कोष द्वारा दी गयी यह सहायता अति आवश्यक थी क्योंकि विश्व का लगभग 50 प्रतिशत व्यापार सम्बन्धी भुगतान स्टलिंग में होता था। इस सहायता के अभाव में अनेक देशों की मुद्रा- व्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ने की सम्भावना थी। इसी प्रकार 1967 में पौण्ड के अवमूल्यन के पश्चात् भी मुद्रा-कोष ने ब्रिटेन की सहायतार्थ 140 करोड़ डालर की सहायता प्रदान की थी और 1968 में फ्रांस को भी राजनीतिक वं आर्थिक संकट आने पर 74.5 करोड़ डालर की आर्थिक सहायता दी थी।

(ख) सामयिक असन्तुलन के समय सहायता- मुद्रा-कोष ऐसे देशों को भी सहायता देता है जिनका निर्यात व्यापार सामयिक या मौसमी होता है अर्थात् जो एक फसल पर निर्भर होते हैं तथा नई फसल के तैयार होने तक या विदेशों से उसका भुगतान प्राप्त होने तक भुगतान सम्बन्धी कठिनाई का अनुभव करते हैं। ऐसे देशों को कोष से नियमित रूप में 6 माह से 12 माह तक के लिए ऋण मिलता रहता है। इस प्रकार की सहायता प्राप्त करने वाले देश क्यूबा, एलसल्वाडोर (El Salvador), होंडूरस (Honduras) व निकारागुआ (Nicaragua) हैं।

(ग) चालू भुगतान असन्तुलन को दूर करना-विकासशील देशों को अपनी विकास सम्बन्धी योजनाओं या अन्य कारणों से अधिक आयात करने पड़ते हैं । इससे उनके समक्ष भुगतान असन्तुलन की कठिनाई आ जाती है। यद्यपि इन देशों की समस्या दीर्घकालीन होती है परन्तु कभी- कभी उन्हें दीर्घकालीन ऋण प्राप्त होने में विलम्ब हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों के अन्तर्गत इस अवधि में योजना कार्य निरन्तर चलता रहे व उसके क्रम में रुकावट न हो, इसके लिए मुद्रा कोष अस्थायी ऋण प्रदान कर देता है। इस प्रकार समय पर मिलने वाली सहायता डूबते हुए व्यक्ति के लिए नाव का कार्य करती है। चालू भुगतान असन्तुलन सम्बन्धी सहायता अर्जेण्टाइना, भारत, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, हालैण्ड, जापान आदि देशों को प्राप्त हुई है।

(घ) बहुमुखी विनिमय दरों के परित्याग के सम्बन्ध में सहायता- कभी-कभी कुछ देश अपनी भुगतान असन्तुलन सम्बन्धी कठिनाई से मुक्ति पाने हेतु बहुमुखी विनिमय दरों की नीति अपना लेते हैं परन्तु इससे उनके समक्ष व्यापार तथा लेन-देन सम्बन्धी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिए जैसे ही उन देशों की आर्थिक दशा सुधरने लगती है वे मुद्रा कोष से अस्थायी ऋण प्राप्त करके तुरन्त ही एक समता दर नीति अपनाने का प्रयास करते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मुद्रा-कोष सम्बन्धित देशों को तत्काल सहायता देने की व्यवस्था करता है। ब्राजील, इजरायल, कोस्टारिका (Coasta-Rica) आदि देशों को बहुमुखी विनिमय दरों के परित्याग के लिए कोष से सहायता मिली है।

विशेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए मुद्रा-कोष विशेष प्रकार की सहायता प्रदान करता है। विकासशील देशों के लिए ऐसी सहायता कई रूपों में हाल में की गयी है।

(i) अनुपूरक वित्त सुविधा (Supplementary Financing Facility)-  इसे विदृविन सुविधा (Wittevev Facility) भी कहा जाता है। इसे अनुपूरक सहायता का मुद्रा कोष ने अगस्त, 1977 में निर्णय लिया था तथा इसे फरवरी, 1979 से चालू किया गया। इसका उद्देश्य उन सदस्य देशों को अनुपूरक वित्त उपलब्ध करना है जिन्हें भयानक भुगतान असन्तुलन (serious payments imbalance) का सामना करना पड़ रहा हो और जिसकी पूर्ति मुद्रा कोष के सामान्य साधनों से की जा सकती हो अर्थात् जो उनके अभ्यंश (Quota) से अधिक हो। ऐसे सदस्य देशों को अधिक मात्रा में एवं लम्बी अवधि के लिए सहायता की आवश्यकता हो सकती है जो उन्हें नियमित साख सुविधा (Regular Credit traches) के अन्तर्गत नहीं मिल सकती। ऐसी सहायता उपलब्ध करने के लिए मुद्रा-कोष कुछ ऋणदाता सदस्यों से समझौता करता है। जून, 1979 तक 14 देशों ने ऐसी सहायता के लिए मुद्रा-कोष को 7.78 खरब वि०आ०अ० (SDR) देने का समझौता कर लिया था। मई, 1979 में इस निधि ने सूडान सरकार को तीन वर्ष तक 20 करोड़ वि०आ०अ० (SDR) विदेशी मुद्रा क्रय करने की स्वीकृति दे दी थी। जून 1979 तक इस निधि से तीन सदस्यों को 471 लाख वि०आ०अ०(SDRs) स्वीकृत किये जा चुके थे।

(ii) क्षतिपूरक वित्त सुविधा (Compensatory Finance Facility)-  इस प्रकार की सहायता प्रारम्भिक पदार्थ उत्पन्न करने वाले देशों को सन् 1963 से दी जाती रही है जिससे वे अपने निर्यात में सहसा गिरावट आने की कठिनाई से पार पा सकते हैं जो अन्यथा उनकी सामर्थ्य के बाहर होती है। अगस्त, 1979 से इस योजना को और अधिक उदार कर दिया गया, निर्यात की गिरावट की गणना के निमित्त अब यात्रा से प्राप्त धन एवं श्रमिकों द्वारा प्रेषित धन भी निर्यात के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाने लगा। इस सुविधा के अन्तर्गत सर्वाधिक सहायता सन् 1976-77 वर्ष में दी गयी जो 269.3 करोड़ वि०आ०अ० (SDRs) थी; सन् 1978-79 में 61.9 करोड़ वि०आ०अ० (SDRs) दिये गए। 1987-88 में इस सुविधा के अन्तर्गत सात देशों ने 1.54 विलियन डालर SDR प्राप्त किये जिनमें अर्जेण्टाइना ने 752 मिलियन डालर तथा इण्डोनेशिया में 463 मिलियन डालर प्राप्त किया।

(iii) न्यास विधि- निम्न आय वाले सदस्य देशों को अतिरिक्त रियायत भुगतान सन्तुलन सहायता प्रदान करने के लिए मई, 1976 में एक न्यास कोष की स्थापना हुई। मुद्रा कोष ने अपनी स्वर्ण निधि के एक भाग की नीलामी से प्राप्त लाभ में से निम्न अन्य वर्ग के सदस्यों को रियायती शर्तों पर सहायता प्रदान की। 30 अप्रैल, 1981 को न्यास कोष समाप्त कर दिया गया।

(iv) विस्तृत कोष सुविधा-मुद्रा कोष ने सितम्बर, 1974 में एक नवीन सुविधा की व्यवस्था की। इसके अन्तर्गत ऐसे देशों को जिसके भुगतान सन्तुलन विशेष कारणों से विपक्ष में हो गये हो दीर्घ अवधि के लिए सहायता दी जा सकती है। इस सुविधा की अवधि 1981 में बढ़कर 10 वर्ष हो गयी। नवम्बर 1981 में भारत को मुद्रा कोष द्वारा 5 अरब SDR की सहायता स्वीकृत की गयी।

दिसम्बर, 1987 में IMF ने 8.4 विलियन (Billion) डालर के एक कोष की स्थापना की जिसमें से निर्धनतम सदस्य राष्ट्रों को उनके वित्तीय उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए सहायता प्रदान की जायेगी।

ऋण-शुल्क (Charges)-  जब मुद्रा-कोष द्वारा किसी देश को ऋण दिया जाता है तो कोष के पास उस देश की मुद्रा की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और उधार दी गयी मुद्रा की मात्रा में कमी हो जाती है। वह देश मुद्रा-कोष पर ऋणी हो जाता है जिसकी मुद्रा उसके निर्धारित अभ्यंश से अधिक हो जाती है, कोष द्वारा उस देश के अभ्यंश से अधिक मुद्रा की मात्रा पर शुल्क वसूल किया जाता है। शुल्क (या ब्याज) की दर में राशि तथा अवधि के साथ वृद्धि होती है। 1 मई, 1985 से शुल्क की दर 7% वार्षिक निर्धारित हुई।

ऋण देने का वचन (Stand by Agreements)-  मुद्रा कोष अपने सदस्यों को प्रत्यक्ष रूप से विदेशी मुद्रा बेचने के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने का विदेशी मुद्रा के विक्रय का वचन भी देता है। विदेशी मुद्रा के वचन का समय प्राय: एक वर्ष होता है किन्तु इसको आपसी समझौते द्वारा बढ़ाया जा सकता है।

दुर्लभ मुद्रा (Scarce or Hard Currency)-  जब किसी देश का भुगतान सन्तुलन लगातार उसके अनुकूल बना रहता है तो उस देश की मुद्रा की माँग अनेक सदस्य देशों द्वारा की जाती है और कोष के पास उस देश की मुद्रा की कमी हो जाती है। मुद्रा कोष उस बढ़ी हुई माँग को पूरा करने के लिए उस देश से मुद्रा उधार ले सकता है। यदि वह देश अपनी मुद्रा उधार नहीं देता तो कोष स्वर्ण (अब वि०आ०अ०-SDR) देकर उस देश से मुद्रा प्राप्त कर सकता है। ऐसा करने पर भी यदि उस मुद्रा की माँग पूरी नहीं हो पाती तो कोष उस मुद्रा को दुर्लभ मुद्रा घोषित कर देता है। ऐसा करने से कोष को उस देश की मुद्रा का राशनिंग करने का अधिकार स्वत: मिल जाता है और इस प्रकार विभिन्न देशों के लिए उस दुर्लभ मुद्रा का अभ्यंश (quota) निश्चित कर दिया जाता है। इसके उपरान्त दुर्लभ मुद्रा की माँग करने वाले देश उस देश विशेष से होने वाले आयातों पर रोक लगाकर अपनी भुगतान असन्तुलन की स्थिति को ठीक करने का प्रयास करते हैं। किसी देश की मुद्रा को दुर्लभ घोषित करने पर कोष को यह अधिकार मिल जाता है कि वह उस देश को अपनी मुद्रा का पुनर्मूल्यन (Revaluation) करने के लिए कहे। पुनर्मूल्यन के परिणामस्वरूप दुर्लभ मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि हो जाती है तथा स्थिति में सुधार होना आरम्भ हो जाता है।

लाभ का वितरण (Distribution of Profit)-  मुद्रा-कोष अपने कुल लाभ में से 20% राशि उन ऋणदाता देशों को दे देता है जिनकी मुद्रा उसके पास किसी वर्ष में उनके अभ्यंशों के अनुसार 75% से कम रह जाती है। लाभ की शेष राशि सदस्यों में उनके अभ्यंशों के अनुपात में वितरित कर दी जाती है। लाभ का वितरण सदस्य देशों में उनकी मुद्रा में किया जाता है।

  1. तकनीकी सहायता (Technical Assistance)-

वित्तीय सहायता के अतिरिक्त मुद्रा-कोष अपने सदस्यों को तकनीकी सहायता भी प्रदान करता है। यह सहायता दो प्रकार की होती है। पहली प्रकार की सहायता के अन्तर्गत कोष के अधिकारियों द्वारा सदस्य देशों को उनकी विशेष समस्याओं के सम्बन्ध में परामर्श दिया जाता है। इस प्रकार सदस्य देशों को अपनी मौद्रिक, विनिमय, भुगतान सन्तुलन व प्रशुल्क (Fiscal) नीतियों के निर्माण में तथा बैंक व्यवस्था, सरकारी वित्त सांख्यिकी एवं अपने स्थायित्व कार्यक्रमों (Stabilization programmes) में सहायता प्राप्त हो जाती है। मुद्रा-कोष द्वारा ये अधिकारी प्रायः थोड़े समय के लिए ही भेजे जाते हैं किन्तु 1975-76 में कोष ने अपने कर्मचारियों को 25 देशों में दीर्घकाल के लिए भेजा जाता था।

दूसरे प्रकार की सहायता के अन्तर्गत विशिष्ट ज्ञान रखने वाले विद्वानों की, जो कि कोष के बाहर के होते हैं, सेवाएँ प्राप्त की जाती हैं और उन्हें सदस्य देशों में भेजा जाता है। ये विशेषज्ञ उन देशों में सलाहकार या प्रशासकीय अधिकारियों (Executive officers) के रूप में कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, कोष ने 1975-76 में ऐसे 134 विशेषज्ञ, जो अन्य देशों से बुलाये गये थे, 45 देशों में भेजे थे।

इस कार्य के सुचारु संचालन के निमित्त मुद्रा कोष ने दो विभागों की स्थापना की है-

(क) केन्द्रीय बैंक सेवा विभाग (Central Banking Service Department), तथा

(ख) कर सम्बन्धी कार्यों का विभाग (Fiscal Affairs Department)।

  1. प्रशिक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम (Training Programmes)-

मुद्रा कोष 1951 से सदस्य देशों के प्रतिनिधियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करता रहा है। इस कार्यक्रम के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान, आर्थिक विकास, वित्त सम्बन्धी व्यवस्था, आँकड़ों के संग्रह व विश्लेषण से सम्बन्धित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। यह प्रशिक्षण व्यवस्था केन्द्रीय बैंकों व सरकार के वित्त विभाग के उच्च पदाधिकारियों हेतु होती है। प्रशिक्षण की अवधि 6 माह से 12 माह तक के लिए होती है। अधिकांश पाठ्यक्रम (Courses) आठ, दस एवं बीस सप्ताह होते हैं।

मई, 1964 में कोष ने एक प्रशिक्षण संस्थान (Training Institute) वाशिंगटन में स्थापित किया। यह संस्थान सदस्य देशों को वित्तीय प्रसाधनों आदि सम्बन्धी प्रशिक्षण सुविधा प्रदान करता है। कोष ने विकासशील देशों के कनिष्ठ कर्मचारियों (Junior Staff) के प्रशिक्षण हेतु भी विभिन्न विषयों में पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये हैं। सन् 1964 से 1976 तक संस्थान 125 सदस्य देशों के 1665 अधिकारियों को प्रशिक्षण प्रदान कर चुका था।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सम्पर्क-

मुद्रा-कोष विश्व में समस्त अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सम्पर्क रखता है तथा इसके द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि उन संगठनों की वार्षिक सभाओं में सम्मिलित होते रहते हैं। इस प्रकार कोष विश्व आर्थिक परिवर्तनों से अवगत रहता है।

  1. सांख्यिकीय सुधार सेवा-

मुद्रा-कोष की एक महत्त्वपूर्ण सेवा सामान्य (General) एवं वित्तीय (Financial) आँकड़ों का संकलन, विश्लेषण एवं प्रकाशन है। इस कार्य को करने के लिए एक सांख्यिकी ब्यूरो (Bureau of Statistics) बना दी गयी है जो सदस्य देशों के केन्द्रीय बैंक बुलेटिनों के आँकड़ों में सुधार, अन्तर्राष्ट्रीय प्रारक्षित-निधि (Reserves) मुद्रा एवं बैंक, ब्याज दर, मूल्य, उत्पादन, विदेशी व्यापार, सरकारी वित्त, भुगतान सन्तुलन, राष्ट्रीय आय, इत्यादि सम्बन्धी आँकड़ों के प्रकाशन व सुधार सम्बन्धी सहायता करती है। इन आँकड़ों के सदस्य देशों की आर्थिक तुलना तथा मौद्रिक एवं भुगतान सम्बन्धी समस्याओं के विश्लेषण में सहायता मिलती है।

  1. प्रकाशनों द्वारा ज्ञान प्रसार (Dissemination of knowledge through publications)-

मुद्रा-कोष सदस्य देशों में अपने प्रकाशनों द्वारा ज्ञान फैलाता है। इसके आठ प्रकाशन हैं।

  1. विनिमय नियन्त्रण सम्बन्धी परामर्श (Advice Regarding Exchange Control)-

मुद्रा-कोष विकासशील देशों को विनिमय नियन्त्रण सम्बन्धी सलाह देता है। यद्यपि मुद्रा-कोष विदेशी व्यापार तथा विदेशी विनिमय सम्बन्धी प्रतिबन्धों को नहीं चाहता, परन्तु संक्रान्तिकाल में सदस्य देशों को ऐसे प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार दे देता है। संक्रान्तिकाल समाप्त होने पर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाना पड़ता है। विनिमय नियन्त्रण के सम्बन्ध में मुद्रा-कोष द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि व्यापार और चालू लेन-देन में प्रतिबन्ध नहीं होने चाहिए। परन्तु पूँजी के बहिर्गमन (Capital Fight) पर रोक लगाने हेतु मुद्रा कोष विनिमय नियन्त्रण लगाने की अनुमति प्रदान करता है। विनिमय नियन्त्रण की अनुमति मुद्रा कोष द्वारा घोषित की गयी दुर्लभ मुद्रा के सम्बन्ध में भी होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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