अर्थशास्त्र / Economics

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष | अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्य | अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रबन्ध

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष | अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्य | अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रबन्ध

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष

इस कोष’ की स्थपना 27 दिसम्बर, 1945 को वाशिंगटन में हुई। इसने 1 मार्च, 1947 को अपना कार्य प्रारम्भ किया।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के उद्देश्य

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मूल उद्देश्य प्रतियोगी विनिमय अवमूल्यन और विनिमय नियन्त्रण का परित्याग है। विदेशी विनिमय क्षेत्र की यह एक स्वच्छ व्यवहार संहिता (Code of Fair Practice) है जो सदस्य देशों को उचित व्यवहार करने की प्रेरणा देती है। भुगतान सम्बन्धी कठिनाइयाँ आने पर यह अल्पकालीन ऋण देकर उनकी इस समस्या को सुलझाने में सहायता करता है। संक्षेप में इसके तीन आधारभूत उद्देश्य हैं—

(क) विनिमय नियन्त्रणों को हटाना अथवा कम करना, (ख) स्थिर विनिमय दर एवं मुद्रा परिवर्तन सुविधाजनक बनाना तथा बहुमुखी व्यापार एवं भुगतान व्यवस्था का व्यापक-विस्तार। इस प्रकार इस संस्था का मन्तव्य आन्तरिक हानियों का बचाव करते हुए सदस्य देशों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्वर्णमान के लाभ तथा साथ ही पत्रमान के आन्तरिक लाभ उपलब्ध करना है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग (International Monetary Cooperation)–कोष का उद्देश्य एक स्थायी संस्था द्वारा सदस्य राष्ट्रों में मुद्रा नीति से सम्बन्धित सहयोग की स्थापना करना है। कोष के विशेषज्ञ अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं को सुलझाने हेतु परस्पर विचार-विमर्श एवं सहयोग के अवसर और सुझाव प्रस्तुत करते हैं। मुद्रा-कोष का यह प्रयास होता है कि सदस्य राष्ट्र एक ही प्रकार की मुद्रा नीति अपनायें।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रथम एवं प्रमुख उद्देश्य विश्वव्यापी मौद्रिक सहयोग को बढ़ावा देना है। इस उद्देश्य की पूर्ति मुद्रा-कोष दो प्रकार से करता है। (क) आन्तरिक सहयोग, और (ख) बाहरी सहयोग।

(क) आन्तरिक सहयोग- मुदा-कोष अपने महान संगठन, विशेषज्ञों और विशिष्ट कर्मचारियों द्वारा विश्व के देशों में मौद्रिक सहयोग की भावना जाग्रत करता है तथा मौद्रिक सन्तुलन के अनुकूल वातावरण बनाता है जिसके तीन रूप उल्लेखनीय हैं-

(i) प्रशासक मण्डल के वार्षिक अधिवेशन- प्रति वर्ष प्रशासक मण्डल की सामान्य सभा बुलाई जाती है जिसमें सभी सदस्य देशों के प्रतिनिधि उपस्थित रहते हैं। ये लोग राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं और नीतियों पर विचार-विमर्श करते हैं और सभी देशों के मौद्रिक सन्तुलन बनाये रखने का आग्रह करते हैं।

(ii) कार्यकारी निदेशक मण्डल- कोष के निदेशक मुद्रा सम्बन्धी विविध विषयों के विशेषज्ञ होते हैं। ये प्रतिदिन अपने कार्यालय में उपस्थित रहते हैं और देशों की समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए इनकी सेवाएँ आवश्यकतानुसार उपलब्ध होती रहती हैं। कोई भी देश वहाँ जा सकता है और विचार-विमर्श कर सकता है। समय-समय पर निदेशक मण्डल की सभाएँ होती रहती हैं जिनमें आर्थिक विकास सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार किया जाता है।

(iii) विशेषज्ञ दल (Staff Mission)-  मुद्रा-कोष के अधिकारी व कर्मचारी जो कि मौद्रिक समस्याओं की जानकारी रखते हैं, समय-समय पर सदस्य देशों में अकेले अथवा दल के रूप में भ्रमण किया करते हैं और परामर्श हेतु उनकी सेवाओं का उपयोग किया जा सकता है। कभी-कभी कोई देश ऐसे विशेषज्ञों की सेवाएँ माँगता है जो मुद्रा कोष के अधिकारियों व कर्मचारियों में नहीं हैं। ऐसी स्थिति में मुद्रा कोष विश्व के किसी भी देश से वांछनीय विशेषज्ञ की सेवाएँ प्राप्त कर सदस्य देश को उपलब्ध करता है जिसका कि समस्त व्यय स्वयं मुद्रा कोष वहन करता है।

(ख) बाहरी सहयोग- मुद्रा-कोष का प्रभाव विश्व के महानतम वित्तीय केन्द्रों पर भी है। अपने इस प्रभाव के द्वारा मुद्रा-कोष विश्व के बड़े-बड़े कोषागारों (Treasuries) एवं केन्द्रीय बैंकों (Central Banks) के बीच मौद्रिक सहयोग जाग्रत करता है ? इस सहयोग के तीन मंच दृष्टिगोचर होते हैं-(अ) द्विपक्षीय, (ब) त्रिपक्षीय, एवं (स) क्षेत्रीय। दो देशों के वित्त मन्त्रालय अथवा एक वित्त मन्त्रालय और एक केन्द्रीय बैंक अथवा तीन केन्द्रीय बैंक अथवा दो बैंक और एक मन्त्रालय पारस्परिक सहयोग कर सकते हैं। कभी-कभी यह सहयोग क्षेत्र विशेष के बीच में होता है जिसे बहुपक्षीय सहयोग कहा जा सकता है। इस सहयोग के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय भुगतानों की व्यवस्था की जाती है और असन्तुलन को शीघ्र से शीघ्र दूर किया जाता है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सन्तुलित विकास (Balanced Growth or International Trade)– कोष का दूसरा महान उद्देश्य ऐसी सुविधाएँ देना है जिससे कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का सन्तुलित विकास-विस्तार सम्भव हो। इसके लिए उसे विभिन्न राष्ट्रों के मध्य होने वाले पारस्परिक व्यापार में बाधाओं को हटाना होता है। मुद्रा-कोष का सदस्य राष्ट्र बिना कोष की अनुमति के अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देन या भुगतानों पर रोक लगाने के लिए स्वतन्त्र नहीं होता। मुद्रा कोष के ऐसे देशों को जिसमें आर्थिक कठिनाइयों के कारण रोक लगाना आवश्यक होता है, कुछ समय के लिए व्यापार सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगाने की अनुमति प्रदान करता है तथा उनके उत्पादन में वृद्धि करने, रोजगार के स्तर को ऊँचा रखने और राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने हेतु आवश्यक सहायता देता है।
  2. विनिमय दरों में स्थायित्व बनाये रखना (To Maintain Exchange Stability)- मुद्रा-कोष का तीसरा उद्देश्य विनिमय दर-स्थिरता अर्थात विनिमय-दर स्थायित्व प्रोत्साहित करना, सदस्यों के बीच व्यवस्थित विनिमय-दर बनाये रखना और प्रतियोगी विनिमय अवमूल्यन का निराकरण है जो कोई राष्ट्र मुद्रा-कोष की सदस्यता प्राप्त करना चाहता है उसे अपनी स्वर्ण समता घोषित करनी पड़ती है और यही समता विभिन्न मुद्राओं की विनिमय दर निर्धारित करती है और वह देश उस विनिमय दर को उसी स्तर पर बनाये रखने का प्रयास करता है। जब किसी देश की विनिमय दर में गिरावट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो मुद्रा-कोष उस देश को (क) उचित तकनीकी सलाह देता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उसको (ख) मुद्रा विशेष उधार देकर विनिमय दरों में स्थायित्व बनाये रखने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार की सहायता से सदस्य राष्ट्र की मुद्रा की अस्थायी दुर्बलता दूर हो सकती है। जब किसी सदस्य देश की आर्थिक स्थिति में स्थायी रूप से अस्थिरता सम्पन्न हो जाती है और उसकी विनिमय दर में निरन्तर गिरावट आती रहती है तो इस स्थिति में मुद्रा-कोष उस देश को (ग) अपनी मुद्रा अवमूल्यन करने का परामर्श देता है।
  3. बहुमुखी भुगतान प्रणाली की स्थापना (Establishment of Multilateral System of Payments)- मुद्रा-कोष का चौथा उद्देश्य बहुमुखी भुगतान प्रणाली स्थापित करना है। विनिमय नियन्त्रणों को दूर करके इस प्रकार की अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली की व्यवस्था करना जिसके अन्तर्गत सदस्य देश अल्पकाल में एक-दूसरे की मुद्रा में भुगतान स्वीकार करने लगें। किसी को बिना कोष की पूर्व अनुमति के विनिमय नियन्त्रण लगाना निषेध है किन्तु देश मुद्रा-कोष अस्थायी रूप से विनिमय नियन्त्रण की अनुमति प्रदान कर सकता है। इस सम्बन्ध में प्रत्येक सदस्य देश के लिए मुद्रा-कोष को प्रतिवर्ष अपने विनिमय नियन्त्रणों की स्थिति से सूचित करना तथा कोष को सलाह के अनुसार उसमें परिवर्तन करना आवश्यक होता है।
  4. भुगतान सन्तुलन के असाम्य को दूर करना (To Remove the Disequilibrium of Balance of Payments)- यदि किसी सदस्य देश के भुगतानावशेष में असन्तुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो मुद्रा-कोष द्वारा उस देश को अल्पकालीन ऋण प्रदान करके उसके भुगतान सन्तुलन की दशा सुधार करने का प्रयत्न किया जाता है। ऋण किसी भी मुद्रा में प्राप्त किये जा सकते हैं। इस प्रकार सम्बन्धित देश को आर्थिक सहायता प्राप्त हो जाती है तथा उसे अपनी व्यापारिक स्थिति को सुधारने के लिए कुछ समय भी मिल जाता है। मुद्रा-कोष असन्तुलन की अवधि तथा अंश को कम करने में सहायक होता है।
सदस्यता

मुद्रा-कोष के संविधान की समस्त धाराओं के पालन करने के लिए वचन देने पर कोई भी देश कोष की सदस्यता प्राप्त कर सकता है। वह देश जो कोष का सदस्य नहीं रहना चाहता, कोष को सूचना देकर अपनी सदस्यता समाप्त कर सकता है। किसी सदस्य देश द्वारा कोष के नियमों अथवा आदेशों का उल्लंघन करने पर उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है परन्तु सदस्यता समाप्त करने से पूर्व कोष उस देश को उचित चेतावनी देता है और चेतावनी की उपेक्षा करने पर कोष के प्रशासक मण्डल वार्षिक अधिवेशन से सदस्यता से हटाने का प्रस्ताव रखा जाता है। बहुमत से प्रस्ताव पास होने पर उस देश को सदस्यता से पृथक माना जाता है। 30 अप्रैल, 1986 को इसकी सदस्यता संख्या 149 थी। वर्तमान 1992 में सदस्य संख्या 171 हो गई।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रबन्ध

कोष के प्रबन्ध के लिए (1) प्रशासक मण्डल (Board of Governors), (2) कार्यकारी प्रबन्ध मण्डल (Board of Executive Directors), (3) प्रबन्ध संचालक (Managing Director) तथा (4) अन्य कर्मचारी (Other Staff) उत्तरदायी हैं।

मुद्रा-कोष के प्रसाधन

अभ्यंश (Quotas)-  किसी देश द्वारा मुद्रा-कोष की सदस्यता स्वीकार करने से पूर्व उसका अभ्यंश निश्चित कर दिया जाता है। सभी सदस्य देशों के अभ्यंश मिलकर मुद्रा कोष का मुख्य कोष (कुल वित्तीय साधन) बनता है। इसी कोष से सदस्य देशों की सहायता की जाती है। इसके अतिरिक्त मुद्रा-कोष सदस्य देशों से ऋण ले सकता है। अभ्यंश और ऋण के अतिरिक्त तीसरा वित्तीय साधन लेन-देन व्यवहारों से आय एवं विनियोग व्यवहार है। मुद्रा-कोष की स्थापना के समय यह व्यवस्था थी कि प्रत्येक देश द्वारा अपने अभ्यंश का 25% या अपने कुल सरकारी स्वर्ण व डालर कोषों का 10% जो भी कम हो, स्वर्ण के रूप में दिया जाता था तथा कोटा की शेष राशि अपनी मुद्रा में चुकाई जाती थी, किन्तु 1975 के निर्णयानुसार स्वर्ण मैं जमा करने की व्यवस्था का अन्त हो गया है।

नवीन सुधारों के अन्तर्गत सदस्य देश अब अपने अभ्यंशों का भुगतान स्वर्ण में न करके बढ़े हुए वि०आ०अ० (SDR) का 1/4 भाग दूसरे देश की मुद्रा में अथवा स्वयं अपनी मुद्रा में दे सकता है।

सदस्य देश का अभ्यंश उसकी राष्ट्रीय आय, उसके स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों तथा व्यापार-शेष से सम्बन्धित स्थिति को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है। यदि कोई देश अपने अभ्यंश में परिवर्तन करना चाहता है तो मुद्रा-कोष उस पर विचार करता है। अभ्यंश में परिवर्तन केवल उस समय हो सकता है जब कुल मत-शक्ति 80% पक्ष में हो। सन् 1976 के छठे अभ्यंश वृद्धि निर्णय के अनुसार सदस्य देश को अभ्यंश भुगतान के निमित्त दो प्रकार के विकल्प और दिये गये। स्वर्ण भाग वि०आ०अ० (SDR) में और कुछ भाग मुद्रा-कोष द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य सदस्य देशों की किसी भी मुद्रा में दिया जाना आदि।

20 मार्च, 1972 से अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष का खाता विशेष आहरण अधिकार के रूप में रखा जाता है। इससे पूर्व लेख की इकाई के रूप में अमरीकन डॉलर प्रयोग होता था। विशेष आहरण अधिकार (SDR) को एक इकाई का मूल्य प्रारम्भ में 0.888671 ग्राम स्वर्ण था परन्तु जुलाई 1974  से वि०आ०अ० (SDR) का मूल्य 16 प्रमुख राष्ट्रों की मुद्राओं के औसत मूल्य के आधार पर निर्धारित होने लगा।

मुद्रा कोष की तरलता- मुद्रा कोष के तरल साधनों में निम्न को सम्मिलित किया जाता है-(i) प्रयोग योग्य मुद्राएँ, (ii) विशेष आहरण अधिकार (SDR) (iii) ऋण मुद्रा कोष के पास विद्यमान स्वर्ण को तरल कोषों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। अप्रैल 1988 के अन्त में प्रयोग योग्य मुद्राओं का स्टाक 40.2 विलियन SDR के लगभग था जबकि सामान्य खाते में 0.8 विलियन SDR थे। इस समय मुद्रा-कोष पर बकाया ऋणों की राशि 9.07 विलियन SDR थी जो अप्रैल 1987 की तुलना में 3.63 विलियन डालर कम थी। अप्रैल 1987 व अप्रैल 1988 के बीच मुद्रा- कोष के तरल साधनों की देय राशि 36.72 विलियन SDR थी जो 1988 तक घटकर 31.28 विलियन SDR हो गयी।

आठवें पुनर्निरीक्षण के पश्चात् मुद्रा-कोष में कुछ सदस्य देशों के अभ्यंश निम्नलिखित हैं-

अभ्यंश स्थिति

देश नये अभ्यंश हजार वि०आ०अ० (SDR) में
अमरीका

ब्रिटेन

जर्मनी

फ्रांस

जापान

सऊदी अरब

कनाडा

इटली

17,918,300

6,194,000

5,403,700

4,482,800

4,223,300

3,202,400

2,941,300

2,207,700

 मुद्रा कोष की हिसाब की मुद्रा-

मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना के समय प्रारम्भ में कोष को हिसाब की मुद्रा अमरीकन डालर थी तथा एक डालर का मूल्य 0.888671 ग्राम स्वर्ण के बराबर था। 1971 और 1972 में डालर के अवमूल्यन के कारण मुद्रा कोष का हिसाब SDR में व्यक्त किया जाने लगा तथा एक SDR का मूल्य 0.888671 ग्राम स्वर्ण के बराबर निश्चय किया गया। परन्तु 1974 से SDR की एक इकाई का मूल्य 16 देशों की मुद्राओं की पिटारी (Basket) के आधार पर निर्धारित किया जाने लगा। 1 जनवरी, 1981 से SDR का मूल्य केवल पाँच देशों की मुद्राओं के आधार पर ही निर्धारित होने लगा है।

विभिन्न मुद्राओं की समता दरों का निर्धारण तथा परिवर्तन-

प्रारम्भ में विधान के अनुसार प्रत्येक सदस्य देश द्वारा अपनी मुद्रा की कीमत स्वर्ण तथा डालर में व्यक्त की जाती थी। जब प्रत्येक सदस्य देश की मुद्रा की कीमत स्वर्ण में निश्चित हो जाती थी तो इसी के आधार पर विभिन्न मुद्राओं की पारस्परिक विनिमय दरें निर्धारित कर दी जाती थीं। विनिमय दर निर्धारित होने पश्चात् 1971 तक प्रत्येक सदस्य देश अपनी समता दर को निर्धारित दर को एक प्रतिशत की सीमा से अधिक या कम नहीं होने देता था, किन्तु 1971 के पश्चात् यह सीमा 2.25 प्रतिशत कर दी गयी। इस प्रकार अब रेंगती झूटी (Crawling Peg) की नई व्यवस्था स्थापित हुई है।

किसी देश के भुगतान सन्तुलन में आधारभूत परिवर्तन होने पर मुद्रा-कोष उस देश की समता दर में परिवर्तन की अनुमति देता था। कोष के विधान के अनुसार कोई भी सदस्य अपनी निर्धारित विनिमय दर में 10% तक का परिवर्तन (ऊपर या नीचे की ओर) बिना कोष की अनुमति प्राप्त  किये, केवल सूचना देकर ही कर सकता था। यदि कोई देश अपनी मुद्रा की समता दर में 10% से 20% तक (ऊपर या नीचे) परिवर्तन करने का इच्छुक होता था तो उसके लिए उसे मुद्रा कोष से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक था। डालर संकट के कारण 1971 और 1972 में डालर का अवमूल्यन हुआ तथा 1974 में स्वर्ण का मुद्रा के आधार के रूप में अन्त हुआ जिससे समता दरों का आधार समाप्त हो गया तथा मुद्राओं की दर बाजार में माँग तथा पूर्ति के आधार पर निर्धारित होने लगी। इसके पश्चात् सदस्य देश की मुद्रा की इकाई का मूल्य SDR में निश्चित होने लगा। प्रत्येक सदस्य देश को अपनी इच्छानुसार किसी विनिमय व्यवस्था को अपनाने के लिए छूट दी गई। जून 1985 के अन्त में 50 सदस्य देशों की मुद्राएँ एक अकेली मुद्रा. से 12 मुद्राएँ SDR से तथा 32 अन्य संग्रथित मुद्राओं से उद्बन्धित थीं। 40 सदस्य देशों की मुद्राएँ अधिक लचकीले वर्ग के अन्तर्गत थीं तथा 13 सदस्य देशों द्वारा सीमित लोच की व्यवस्था को अपनाया गया। 25 सितम्बर, 1975 से भारतीय रुपये का बाहरी मूल्य उन देशों की मुद्राओं की भारित पिटारी (Basket) के रूप में निश्चित होता है जो भारत के बड़े व्यापारिक साझेदार हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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