अर्थशास्त्र / Economics

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की सफलताएँ | Achievements of I.M.F. in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की सफलताएँ | Achievements of I.M.F. in Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की सफलताएँ

(Achievements of I.M.F.)

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की स्थापना का मूल उद्देश्य विश्व की मौद्रिक-व्यवस्था का सन्तुलन एवं नियमन, विदेशी भुगतानों की समुचित व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर लगे प्रतिबन्धों को हटाकर उसका सम्बर्द्धन और विश्व का उत्पादन बढ़ाकर पूर्ण रोजगार की स्थिति उत्पन्न करना था। यह कहना कठिन है कि मुद्रा-कोष विश्व में एक आदर्श व्यवस्था स्थापित करने में सफल हुआ है, फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में उसने एक महान कार्य किया है। अपने कार्यकाल के प्रथम 30 वर्षों में मुद्रा कोष सम्भवतः विश्व मौद्रिक सन्तुलन स्थापित करने में भूतकालीन सभी मौद्रिक व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक सफल हुआ।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग

(International Monetary Cooperation)-

मुद्रा कोष का प्रमुख उद्देश्य एक ऐसा मंच प्रस्तुत करना था जहाँ विश्व के देश-मिल बैठकर अपनी समस्याओं को सुलझा सकें और मौद्रिक सन्तुलन बनाये रख सकें । मुद्रा कोष अपने आन्तरिक संगठन और बाह्य प्रभाव द्वारा एक सहयोगी वातावरण बनाने में सफल हुआ है। इस अध्याय के आरम्भ में इसका विस्तृत विवरण दिया जा चुका है।

  1. यूरोपीय देशों का पुनर्निर्माण

(Reconstruction of European Countries)-

मुद्रा कोष ने अमरीका जैसे समृद्ध देशों को अपने प्रभाव से यूरोप के पुनर्निर्माण सम्बन्धी समस्याओं को हल करने की दिशा में प्रेरित किया और इसी का परिणाम था कि युद्धजनित क्षति की पूर्ति अधिकांश में 1952 तक हो चुकी थी और यूरोपीय देश अपने आर्थिक विकास और प्रगति के मार्ग में आगे बढ़ने लगे थे।

  1. विनिमय-दर स्थिरता-

विनिमय-दर स्थिरता इसका प्रमुख उद्देश्य रहा है। मुद्रा-कोष प्रणाली के अन्तर्गत जितनी विनिमय की स्थिरता अथवा उसका व्यवस्थित समायोजन हो सका उसके पहले कभी नहीं हुआ था न स्वर्णमान व्यवस्था में और न अन्तर युद्ध काल में। इसका उद्देश्य कठोर स्थिरता नहीं है, वरन् विनिमय प्रबन्ध में स्थिरता के साथ उचित लोच का समावेश किया गया है। मुद्रा-कोष ने मौद्रिक सहयोग की भावना उत्पन्न करके विश्व के देशों से अपनी-अपनी मुद्राओं के स्वर्ण मूल्य (Par Values) परिभाषित कराये और उनसे यह प्रतिज्ञा ली कि भविष्य में इस मूल्य को उसी स्तर पर बनाये रखा जाएगा। इसका सदस्य देश निरन्तर परिपालन करते रहे हैं। यही समता दरें विभिन्न मुद्राओं के बीच विनिमय दर का आधार हैं। किसी देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर मुद्रा अवमूल्यन की व्यवस्था है किन्तु ये अवमूल्यन व्यवस्थित रूप में समायोजित किये जाते हैं। बिना मुद्रा-कोष की अनुमति के अवमूल्यन निषेध माना जाता है। मौद्रिक संकट आने पर मुद्रा कोष तकनीकी परामर्श और आर्थिक सहायता देता है। 1949 और 1958 के बीच 30 देशों ने अपनी मुद्राओं के अवमूल्यन किये; 1966 में 22 देशों ने, 1967 में 19 देशों ने तथा 1971 में 29 देशों ने अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन किया। मुद्रा-कोष इन अवमूल्यनों को व्यवस्थित रूप में कराने में सफल हुआ और देशों की अर्थ-व्यवस्था और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर इनका कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा।

  1. विदेशी भुगतान का बहुमुखी व्यवस्था

(Multilateral System of Foreign Payments)-

कोष की स्थापना के समय सभी देशों में विदेशी विनिमय नियन्त्रण लगे थे, विदेशी व्यापार पर भी अनेक प्रतिबन्ध लगे हुए थे। मुद्रा-कोष इन्हें कम कराने और विदेशी भुगतान की बहुमुखी व्यवस्था स्थापित करने में सफल हुआ है। कई देशों की मुद्राएँ स्वतन्त्र रूप में अन्य मुद्राओं में परिवर्तनीय हैं तथा भुगतान में स्वीकार की जाती है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय तरलता वृद्धि-

मुद्रा-कोष व्यापारिक वृद्धि के अनुरूप विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय तरलता में वृद्धि करने में सफल हुआ है। एक ओर उसने अपने स्थायी प्रसाधनों को बढ़ाया है और दूसरी ओर विशेष आहरण अधिकार की एक नई तरल सम्पत्ति बनाई है।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार वृद्धि

(Increase in Foreign Trade)-

मुद्रा कोष ने भुगतानों की सरल व्यवस्था स्थापित करके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने में महान योग दिया है। जिन देशों का व्यापार घाटे में होता है उन्हें मुद्रा कोष सहायता देता रहता है। इसी का परिणाम है कि गत वर्षों में विश्व का व्यापार लगभग 16 गुना हो गया है। 1948 में विश्व के निर्यातों का मूल्य

 53 अरब डालर था जो 1969 में 244 अरब डालर, 1971 में 312 अरब डालर तथा 1975 में 880 अरब डालर हो गये। इस व्यापार वृद्धि का एक प्रमुख कारण प्रादेशिक संगठनों का बनना है जिसका श्रेय भी मुद्रा कोष को ही दिया जा सकता है। यूरोपीय साझा बाजार (ECM) मध्य अमरीकी साझा बाजार (CACM), दक्षिणी अमरीकी स्वतन्त्र बाजार संगठन (LAFTA), यूरोपीय मुक्त व्यापार संस्था (EFTA) आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।

  1. स्वर्ण मूल्य

(Gold Price)-

मुद्रा कोष व्यवस्था के अन्तर्गत स्वर्ण-मूल्य स्थिर रखना भी एक उद्देश्य था। विश्वव्यापी संकटों, तूफानी और सामाजिक उतार-चढ़ावों का सामना करते हुए मुद्रा-कोष 1971 तक स्वर्ण का मूल्य 35 डालर प्रति औंस बनाए रखने में सफल हुआ। 1971 के डॉलर संकट के उपरान्त भी स्वर्ण-मूल्य में केवल थोड़ा ही परिवर्तन किया गया है और अब स्वर्ण-मूल्य 42 डालर प्रति औंस रखा गया था। सन् 1975 के उपरान्त स्वर्ण-मूल्यों की वृद्धि को रोकने के लिए मुद्रा-कोष ने स्वर्ण बेचकर उसके मूल्य कम करने के प्रयल किये हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि विश्व के स्वर्ण बाजारों में स्वर्ण का मूल्य ऊँचा चढ़ गया है और इस भाँति मुद्रा- कोष स्वर्ण मूल्य स्थिर रखने में विफल रहा है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना चाहिए कि बाजार मूल्य और वैधानिक मूल्य में अन्तर स्वाभाविक है क्योंकि अनेकों मौद्रिक एवं अमौद्रिक घटनाओं को इस पर प्रभाव पड़ता है। इसी कारण 1976 के संशोधन के अन्तर्गत स्वर्ण का वैधानिक मूल्य सर्वथा समाप्त कर दिया गया।

  1. विकासशील देशों की विशेष सहायता-

मुद्रा कोष ने विकासशील देशों की समस्यायें सुलझाने में विशेष रुचि दिखाई है और वह उनके भुगतान सन्तुलन एवं मौद्रिक स्थिरता की दिशा में तत्परता से सहयोग देता रहा है। इन देशों को अपनी मौद्रिक, तटकर एवं विनिमय नीति निर्धारण में मुद्रा-कोष से पर्याप्त सहायता एवं परामर्श मिलता रहा है। इन देशों के अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण व्यवस्था भी की गई है जहाँ अनेक अधिकारी प्रशिक्षण पाकर अपने देशों को लाभदायक सेवा देते रहते हैं।

  1. भुगतान सन्तुलन के असाम्य को दूर करने में सहायक-

मुद्रा-कोष से विभिन्न देशों के भुगतान असन्तुलन को दूर करने में सहायक प्राप्त हुई है। मुद्रा-कोष की सहायता से विकसित तथा विकासशील दोनों ही देश लाभान्वित हुए हैं।

  1. संकट में साथी-

मुद्रा-कोष संकट के समय सहायता प्रदान करता है। अत: यह दुख में भी मित्र है।

  1. तकनीकी ज्ञान-

मुद्रा-कोष ने तकनीकी ज्ञान के विस्तार में भी योगदान दिया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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