अर्थशास्त्र / Economics

भारत और मुद्रा-कोष | भारत के मुद्रा-कोष की सदस्यता से लाभ | विकासशील देश में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की भूमिका

भारत और मुद्रा-कोष | भारत के मुद्रा-कोष की सदस्यता से लाभ | विकासशील देश में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष की भूमिका

भारत और मुद्रा-कोष

(India and I.M.F.)

भारत का मुद्रा कोष से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और उसकी नीति-निर्माण और कार्य-संचालन में भारत निरन्तर योगदान देता रहा है। समय-समय पर आर्थिक सहायता और परामर्श द्वारा भारत भी इस व्यवस्था से लाभान्वित हुआ है।

  1. संस्थापक सदस्य- भारत उन देशों में से एक था जिन्होंने ब्रिटेन बुड सम्मेलन में भाग लिया। अत: वह कोष के संस्थापक सदस्यों में से एक है।
  2. कार्यकारी निदेशक मण्डल में स्थायी स्थान- 1970 तक भारत अधिकतम अभ्यंशों वाले प्रथम पाँच देशों में से था और इस नाते उसकी कार्यकारी निदेशक मण्डल में स्थायी स्थान प्राप्त था। इस प्रकार 23 वर्ष तक मुद्रा-कोष की नीति निर्धारण में भारत महत्त्वपूर्ण योगदान देता रहा।
  3. स्वर्ण समता- प्रारम्भ में भारतीय रुपये का मूल्य 0.268601 ग्राम शुद्ध स्वर्ण के बराबर था। 1949 के अवमूल्यन के उपरान्त यह 0.186621 ग्राम और 1966 के अवमूल्यन के पश्चात् 0.118489 ग्राम स्वर्ण के बराबर हो गया। यह स्वर्ण समता अन्य मुद्राओं के साथ विनिमय दर निर्धारित करने का अधिकार थी।
  4. मुद्रा-कोष से ऋण- भारत का भुगतान सन्तुलन विगत वर्षों में निरन्तर असन्तुलित रहा है। आवश्यकता पड़ने पर भारत मुद्रा-कोष से विदेशी विनिमय ऋण लेकर अपने भुगतान असन्तुलन में सुधार करने का प्रयास करता रहा है। उसने 1947 से 1957 तक तीन किस्तों में 30 करोड़ डालर के ऋण लिए। इसके उपरान्त 1961 में 25 करोड़ डालर, 1962 में 2.5 करोड़ डालर, 1965 में 20 करोड़ डालर, 1966 में 22.5 करोड़ डालर और 1967 में 9 करोड़ डालर का ऋण लिया गया। समयानुसार इन ऋणों को भारत चुकता करता रहा है और 1971 तक सर्वथा मुद्रा-कोष के ऋण से मुक्त हो गया था।

नवम्बर 1981 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष द्वारा भारत को 5 विलियन S.D.R. का ऋण स्वीकार किया गया जो 1985 तक किस्तों में प्राप्त किया जाना था। अप्रैल 1984 में देश में देश की विदेशी विनिमय की स्थिति में सुधार होने के कारण भारत ने इस ऋण की 1.1 विलियन S.D.R.की शेष धन राशि को प्राप्त करने से मना कर दिया। वर्ष 1990-91 तथा 1991-92 में भारत ने मुद्रा-कोष से 2.3 विलियन डालर का ऋण प्राप्त किया जिसका प्रयोग प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन को ठीक करने के लिए किया गया। यह ऋण 1656 मिलियन S.D.R. के रूप में था। सन् 1994 में भारत के भुगतान सन्तुलन में सुधार लाने तथा कुछ विशिष्ट परियोजनाओं हेतु 1 अरब डालर की माँग प्रस्तुत की है जिसमें से 2 अरब डालर 1992-93 के लिए; 6 अरब 1993-94 के लिए एवं 2 अरब 1994-95 के लिए निश्चित है।

  1. ऋण बचत अथवा अल्पकालीन साख व्यवस्था (Standby Agreement)- प्रत्यक्ष विदेशी विनिमय ऋण के अतिरिक्त मुद्रा-कोष ने सदस्य देशों की सहायता के लिए सामयिक साख व्यवस्था भी की है। प्रत्येक वर्ष के प्रारम्भ में मुद्रा-कोष उन देशों को जिनकी ओर से आवश्यकता पड़ने पर साख की माँग की जाती है, एक साख सीमा निर्धारित कर देता है। इस सीमा के अन्तर्गत सदस्य देश को जितनी आवश्यकता हो और जितनी मुद्राओं में आवश्यकता हो उतनी विदेशी विनिमय राशि प्राप्त कर सकता है। भारत इस सुविधा का लाभ उठाता रहा है। सन् 1961 में मुद्रा-कोष से 25 करोड़ डालर साख निर्धारित कर दी थी जिसमें से जुलाई में 6 मुद्राओं (डॉलर, पौंड, मार्क, फ्रेंक, लौरा और येन) में ऐसी सहायता प्राप्त की। जुलाई 1963-जुलाई 1964 की अवधि के लिए 10 करोड़ डालर और जुलाई 1965-जुलाई 1966 की अवधि में 20 करोड़ डालर की साख व्यवस्था की थी। 1965-1966 की सहायता भारत को 10 विदेशी मुद्राओं के रूप में प्राप्त हुई। आगामी वर्षों में भी ऐसी ही सहायता ली जाती रही है।
  2. विश्व बैंक की सदस्यता-मुद्रा-कोष के सदस्य होने के नाते भारत को विश्व बैंक की सदस्यता प्राप्त करने का अवसर मिला है जो हमें आर्थिक विकास हेतु विविध दीर्घकालीन सहायता देता रहा है।
  3. स्टलिंग से सम्बन्ध-विच्छेद- मुद्रा-कोष की सहायता से ही भारत स्टलिंग से अपना सम्बन्ध-विच्छेद करने में समर्थ हुआ और अपनी मुद्रा का सम्बन्ध स्वर्ण से जोड़ सका। अब हम अपने विदेशी दायित्वों का भुगतान स्टलिंग के अतिरिक्त अन्य विदेशी मुद्राओं में प्रत्यक्ष रूप से कर सकते हैं।
  4. तकनीकी परामर्श- भारत मुद्रा-कोष से तकनीकी परामर्श समय-समय पर अपनी आन्तरिक आर्थिक समस्याओं के सम्बन्ध में लेता रहा है। मुद्रा कोष के विशेषज्ञ समय-समय पर भारत आते रहते हैं।

9.‌ विशेष आहरण अधिकार- मुद्रा कोष ने जनवरी 1970 से जो विशेष आहरण अधिकार की नई साख-व्यवस्था चालू की है उसके प्रयोग का भी भारत को अधिकार प्राप्त है। भारत का अभ्यंश 1970 में 13 करोड़ डालर (98 करोड़ रुपये), 1971 में 10 करोड़ डालर (75 करोड़ रुपये), 1972 में 10 करोड़ डालर (75 करोड़ रुपये), 1976 में 32.6 करोड़ डालर तथा 1978 में 5.25 करोड़ डालर निश्चित हुआ।

  1. तेल सुविधा सहायता के अन्तर्गत भारत रियायती ब्याज पर सहायता प्राप्त करता रहा है।

भारत के मुद्रा-कोष की सदस्यता से लाभ

  1. बैंक की सदस्यता-भारत विश्व बैंक का सदस्य इसी आधार पर बन सका है जिससे कि वह अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का सदस्य है। जिससे भारत को आर्थिक विकास हेतु बड़ी सहायता मिलती है।
  2. रुपये की स्वतन्त्रता- मुद्रा-कोष की स्थापना से रुपया केवल स्टलिंग के माध्यम से मुद्राओं में बदला जा सकता था किन्तु सदस्यता प्राप्त होने के पश्चात् रुपया स्वतन्त्र मुद्रा बन गया। तत्पश्चात् भारत को बहुपक्षीय व्यापार में कोई कठिनाई नहीं होती।
  3. भुगतान सन्तुलन असाम्यता हेतु परामर्श-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के परामर्शदाताओं के निर्णय से लाभान्वित होता है जब भारत को भुगतान सन्तुलन की समस्या होती है।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व- मुद्रा कोष का सदस्य होने से भारत का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्व बढ़ा है। मुद्रा-कोष की नीतियों में भारत का विशिष्ट योगदान रहा है।
  5. विदेशी व्यापार को बढ़ावा- सदस्य देशों से आपसी सामंजस्य के कारण विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई है।
  6. अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय मान- भारतीय मुद्रा का सम्बन्ध विश्व की विभिन्न मुद्राओं से सुगमतापूर्वक इसी कारण जुड़ा हुआ है क्योंकि भारत अ०मु०को० का सदस्य है। यदि कहीं कोई गतिरोध आता है तो कोष उसे स्वयं समाप्त करने का प्रयास करता है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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