अर्थशास्त्र / Economics

सार्वजनिक उपक्रम का अर्थ एवं परिभाषा | सार्वजनिक उपक्रम के उद्देश्य | सार्वजनिक उपक्रम के गुण | सार्वजनिक उपक्रम के दोष | भारत अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों को योगदान | सार्वजनिक उपक्रम की प्रमुख समस्याएँ एवं उनके समाधान के सुझाव

सार्वजनिक उपक्रम का अर्थ एवं परिभाषा | सार्वजनिक उपक्रम के उद्देश्य | सार्वजनिक उपक्रम के गुण | सार्वजनिक उपक्रम के दोष | भारत अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों को योगदान | सार्वजनिक उपक्रम की प्रमुख समस्याएँ एवं उनके समाधान के सुझाव | Meaning and definitions of public undertaking in Hindi | Objectives of PSUs in Hindi | Qualities of Public Enterprises in Hindi | Defects of PSUs in Hindi | Contribution to Public Sector Undertakings in India’s Economy in Hindi | Major problems of PSUs and suggestions for their solutions in Hindi

सार्वजनिक उपक्रम का अर्थ एवं परिभाषा

सार्वजनिक उपक्रम :-

शब्दिक अर्थ के अनुसार लोक उपक्रम के अन्तर्गत वे सभी औद्योगिक एवं वाणिज्यिक उद्योग आते हैं जिनका नियन्त्रण एवं स्वामित्व सरकार के हाथ में होता हैं।

लोक उपक्रम एक व्यापक शब्द हैं जिसे सर्वाजनिक उपक्रम, सार्वजनिक संस्थान एवं सरकारी उपक्रम के नाम से भी जाना जाता हैं, अत सार्वजनिक उपक्रम की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. ए. एच. हैन्सन के अनुसार, “लोक उपक्रम का आशय सरकार के स्वामित्व एवं संचालन के अन्तर्गत आने वाले औद्योगि, कृषि, वित्तिय एवं वाणिज्यिक संस्थानों से हैं।’
  2. एन. एन. माल्या के अनुसार, “लोक उपक्रम का अर्थ सरकारी स्वामित्व में स्थानीय एवं नियन्त्रित ऐसी स्वशासन अथवा अर्द्ध-स्वशासित नियमों और कम्पनियों से हैं, जो औद्योगिक वाणिज्यिक क्रियाओं में लगी हों।”
  3. डॉ. तीर्थराज शर्मा के अनुसार, “राजकीय औद्योगिक प्रतिष्ठानों से अभिप्राय ऐसे संस्थानों से हैं जो किसी सेवा या औद्योगिक उत्पादन की पूर्ति के उद्देश्यों से स्थापित किये जाते हैं या तो पूर्णतः सरकार के स्वामित्व में होते हैं या जिनमें पूँजी विनियोग की अधिकांश मात्रा सरकार के पास होती हैं।”

सार्वजनिक उपक्रम के उद्देश्य

लोक-उपक्रमों के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. आर्थिक विकास की गति को तीव्र करना,
  2. विशिष्ट एवं भारी उद्योगों की स्थापना करना तथा उनका विस्तार करना,
  3. आधारभूत सेवाएँ- जल-पूर्ति, विद्युत, परिवहन प्रदान करना,
  4. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए प्रतिरक्षा उद्योगों वायुयान, जलयान व अस्त-शस्त्र आदि उद्योगों की स्थापना करना,
  5. सीमित मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक साधनों की सुरक्षा एवं उनका विदोहन करना,
  6. एकाधिकार पर नियन्त्रण करना,
  7. आय व धन का निर्धन वर्ग के पक्ष में पुनर्वितरण करना,
  8. देश या सन्तुलित आर्थिक व औद्योगिक विकास करना,
  9. क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करना,
  10. आर्थिक विकास के लिए वित्तीय स्त्रोतों को जुटाना,
  11. समाजवादी समाज की स्थापना करने में सहायक होना,
  12. रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना,
  13. तकनीकि स्तर में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना,
  14. राष्ट्र हित में निजी क्षेत्र की अनार्थिक इकाइयों को अपने हाथ में लेकर उनका आर्थिक संचालन आदि।

सार्वजनिक उपक्रम के गुण

सर्वाजनिक उपक्रम का देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। इसके महत्त्व (गुण) को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता हैं-

(1) प्राकृतिक साधनों का सर्वोत्तम उपयोग- प्रत्येक देश में प्राकृतिक साधन सीमित मात्रा में पाये जाते हैं, अतः उनका मितव्ययिता से सदृपयोग होना चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा देश में उपलब्ध साधनों का प्राथमिकताओं के आधार पर उपयोग किया जाता हैं।

(2) उपभोक्तओं के लिए लाभकारी- सार्वजनिक उपक्रम उपभोक्ताओं के लिए लाभकारी होते हैं इनके होने से उपभोक्तओं का शोषण नहीं हो पाता।

(3) सन्तुलित औद्योगिक विकास- निजी क्षेत्र उन्हीं स्थानों पर अपने उपक्रम स्थापित करता हैं। जहाँ प्राकृति साधन प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं तथा लाभ की समस्याएँ अधिक होती हैं। इससे आर्थिक सन्तुलन बिगड़ जाता है, कुछ क्षेत्र विकसित हो जाते हैं और कुछ क्षेत्र पिछड़े रह जाते हैं। सार्वजनिक उपक्रम इस खाई को पाटने में सहायक होते हैं।

(4) एकाधिकारी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण- सार्वजनिक उपक्रमों के विकास से निजी क्षेत्र के एकाधिकार को समाप्त किया जा सकता हैं तथा आर्थिक सत्ता के संकेन्द्रण की प्रवृत्ति को नियन्त्रित किया जा सकता हैं।

(5) सुरक्षा उद्योग- देश की सुरक्षा के लिए में सुरक्षा उद्योगों का संचालन सार्वजनिक उपक्रम के अन्तर्गत ही होना आवश्यक हैं क्योंकि निजी क्षेत्र को यह कार्य सौंप देने से राजनीतिक दृष्टि से सुरक्षा को खतरे पैदा हो जायेंगे। सार्वजनिक क्षेत्र में इन उद्योगों की स्थापना से सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी को गुप्त रखा जा सकता हैं तथा देश को सुरक्षित रखा जा सकता हैं।

(6) प्रबन्धकीय कुशलता- सरकार के साधन विशाल होते हैं। सरकारी उपक्रमों में मजदूरी की दर ऊँची, नौकरी सुरक्षित व अन्य अनेक प्रकार की सुविधाएँ होती हैं। अतः इन उपक्रमों में कुशल व्यक्तियों  की नियक्ति होती हैं। इसके फलस्वरूप व्यवसाय के प्रबन्ध में  अत्यधिक कुशलता होती हैं।

सार्वजनिक उपक्रम के दोष

सार्वजनिक उपक्रम के प्रमुख दोषों को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जाता हैं-

(1) श्रमिकों की कार्य क्षमता का निम्न स्तर- सार्वजनिक उपक्रमों में श्रमिकों के कार्य करने की दशाएँ, उत्तम सेवाएं, सुरक्षित व वेतनक्रम निश्चित रहते हैं। वे आराम के आदी हो जाते हैं और अधिक परिश्रम नहीं करना चाहते। ऐसी स्थिति में श्रमिकों की कार्यक्षमता का स्तर गिर जाता हैं।

(2) राजकीय प्रभुत्व में वृद्धि-सार्वजनिक उपक्रमों को बढ़ाने से राजकीय प्रभुत्व में वृद्धि हो जाती हैं तथा निजी क्षेत्र सीमित हो जाता हैं। इससे निजी क्षेत्र को विकास के अवसर नहीं मिलते। यह प्रवृत्ति एकाधिकार का प्रोत्साहित करती हैं।

(3) नियोक्ता व श्रम सम्बन्ध- सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार झगड़े से सम्बन्धित स्वयं एक पार्टी होती हैं। इस कारण इन झगड़ों को निपटाना कठिन हो जाता हैं।

(4) हानि पर संचालन- अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम हानि पर चलते रहे हैं। इससे राष्ट्रीय साधनों की बर्बादी हुई हैं तथा जनसाधारण में इनके प्रति अविश्वास बढ़ा हैं।

(5) मूल्य निर्धारण में मनमानी- सार्वजनिक उपक्रमों में विभिन्न वस्तुओं तथा सेवाओं का मूल्य निर्धारण मनमाने ढंग से किया जाता हैं। कुछ वस्तुएँ तो उपभोक्तओं को बहुत ऊंची कीमत पर उपलब्ध होती हैं।

(6) क्षमता का अपूर्ण उपयोग- अनेक सार्वजनिक उपक्रम अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ रहे हैं, जिससे उत्पादन कम हुआ हैं तथा प्रति इकाई लागत अधिक आयी हैं।

(7) दोषपूर्ण-नियोजन- कुछ उपक्रमों में न तो उचित नियोजन किया गया है और न ही उत्पादित माल की खपत के बारे में अध्ययन किया जाता हैं। इन उपक्रमों में कर्मचारियों की संख्या अधिक रही हैं, अत इनका घाटा अनावश्यक रूप से बढ़ गया हैं।

भारत अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों को योगदान

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों का प्रमुख योगदान निम्नलिखित हैं-

  1. कृषि क्षेत्र के विकास में योगदान- सार्वजनिक उपक्रम में राजकीय कृषि निगम, राष्ट्रीय बीज निगम, सहकारी विकास निगम, भारतीय उर्वरक निगम, भारतीय खाद्य निगम, गार्डन बेकरीज एवं भारतीय डेयरी निगम का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
  2. राष्ट्रीय आय में योगदान- सार्वजनिक उपक्रमों के निरन्तर वृद्धि के कारण उनका देश की शुद्ध आय में योगदान निरन्तर बढ़ रहा हैं। 1960-61 में राष्ट्रीय आय में सार्वजनिक क्षेत्र का भाग 10.9% था जो 2001-02 में बढ़कर लगभग 45.8% हो गया हैं।
  3. रोजगार के अवसरों का सृजन- सार्वजनिक उपक्रम शिक्षित एवं तकनीकि व्यक्तिगत रोजगार के अवसर सृजित करने में सहायक रहे हैं। लोक-क्षेत्र के औद्योगिक एवं व्यापारिक उपक्रमों में रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 1965-66 में 4.71 लाख थी जो आज बढ़कर एक करोड़ के आँकड़े पार कर गयी हैं।
  4. विदेशी विनिमय का अर्जन- सार्वजनिक उपक्रमों का विदेशी विनिमय के अर्जन में उल्लेखनीय योगदान रहा तथा इसमें निरन्तर वृद्धि हुई हैं। 1970-71 में लोक उपक्रमों ने 89 करोड़ रु. मूल्य की विदेशी विनिमय अर्जित की थी। 1992-93 में उनका विदेशी विनिमय अर्जन बढ़कर 4,186 करोड़ रु. हो गया। वर्ष 1997-98 में सार्वजनिक उपक्रमों का निर्यात निष्पादन 18.417 करोड़ रु था।

सार्वजनिक उपक्रम की प्रमुख समस्याएँ एवं उनके समाधान के सुझाव

सार्वजनिक उपक्रमों की कुछ प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं तथा उनके समाधान के लिए प्रमुख सुझाव भी दिये गये हैं-

(1) संगठन के प्रारूप की समस्या- सार्वजनिक उपक्रमों की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या संगठन के प्रारूप की हैं। नवगोपालदास के अनुसार, “सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या प्रबन्ध और संगठन की हैं अर्थात् किस प्रकार समाजीकृत उद्योगों का प्रबन्ध तथा संगठन किया जाय कि मितव्ययिता और क्षमता का त्याग किये बिना राष्ट्रीय कल्याण में वृद्धि की जा सके। वास्तव में अब तक हमारे यहाँ जितने राजकीय उपक्रम स्थापित किये गये हैं, उनमें किसी सिद्धान्त के रूप में उनका प्रारूप निश्चित नहीं किया गया हैं।

सुझाव (I) – विभिन्न प्रकार के उद्योगों के संगठन के प्रारूप निश्चित करने के लिए एक नीति निर्धारित की जाय।

एक उद्योग में एक से अधिक संगठन न हों।

एक प्रकार के उपक्रमोंको ही एकीकृत संगठन के अन्तर्गत लाया जाय।

(2) प्रबन्ध का स्वरूप- किसी भी उपक्रम की सफलता बहुत बड़ी मात्रा में उसके उच्च प्रबन्ध वर्ग की योग्यता, कुशलता एवं क्षमता पर निर्भर करती हैं। भारत में इन उपक्रमों की प्रबन्ध व्यवस्था सामान्यतय I.C.S, I.A.S. या P.C.S. अधिकारियों को सौंप दी जाती हैं तथा उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता हैं। इन अधिकारियों में सामान्य प्रशासन की योग्यता होती हैं, व्यावसायिक अथवा औद्योगिक प्रशासन की नहीं। औद्योगिक प्रबन्ध सामान्य प्रशासन से बहुत अधिक जटिल हैं और इसके लिए विशिष्ट प्रबन्धकीय योग्यता की आवश्कता होती हैं। गजेन्द्र गडकर के शब्दों में, ‘सचिवालय का कार्य चलना एक बात हैं व कारखानों का संचालन करना दूसरी बात। I.A.S. सभी रोगों दवा नहीं बन सकते हैं। अत सार्वजनिक उपक्रमों के लिए विशेषज्ञ अलग से तैयार करने होंगे।”

सुझाव-(I) व्यावसायिक क्षेत्र में अनुभवी एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों को ही प्रबन्धन एवं प्रबन्ध मण्डल में नियुक्त किये जायँ, (II) इन उपक्रमों को राजनीतिज्ञों के दूर रखा जाय, (III) प्रत्येक उपक्रम में विशेषज्ञों की सलाहकार समिति नियुक्त की जाय तो उपक्रम के प्रबन्ध संचालन को सलाह का कार्य करें, (IV) संचालक, प्रबन्ध संचालन व जनरल मैनेजर आदि को अपने- अपने क्षेत्र में पूर्ण अधिकार दिये जायँ, (V) विशाल उपक्रमों के लिए पूर्णकालिक प्रबन्ध संचालक या अध्यक्ष सरकार द्वारा नियुक्त की जायँ, (VI) नीति-निर्धारण का कार्य प्रबन्ध मण्डल द्वारा किया जाय, (VII) निम्न स्तर पर निर्णय लेने का कार्य विकेन्द्रीकरण कर दिया जाना चाहिए।

(3) प्रबन्ध की स्वतन्त्रता- सार्वजनिक उपक्रमों को मुख्य उद्देश्य न्यूनतम लागत पर उचित प्रकार की वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान करना होता हैं। इसके लिए प्रबन्धकीय क्षेत्र में पूर्ण  स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। डॉ. पाल एच. एप्पलबी के विचार में, ‘एक प्रजातन्त्रीय राज्य में सरकार सदैव ही ऐसे मामले में हस्तक्षेप करती हैं, जो इसके लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं और उसे ऐसा करना भी चाहिए। लेकिन स्वतन्त्रता के समर्थन से आशय केवल यह हैं कि सरकार के उच्च अंगों को यह बात सिखा दी जाय कि वे हस्तक्षेप करने में आत्मसंयम से काम लें और बहुत ही महत्वपूर्ण मामलों में ही हस्तक्षेप करें।

सुझाव-(I) सरकार द्वारा निर्धारित नीतियों के अन्तर्गत कार्य करने के लिए उपक्रम स्वतन्त्र होना चाहिए, (II) उच्च अधिकारियों को उपक्रम के दैनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। (III) अधिकारियें को भी किसी अनुचित दबाव में आकर कार्य नहीं करना चाहिए, (IV) स्वायत्तता और नियन्त्रण के बीच एक उचित सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए।

(4) श्रम-अशान्ति की समस्या- भारतीय सार्वजनिक उद्योग में श्रम प्रबन्ध संघर्ष बने रहते हैं। हडतालें और तालाबन्दी इन उपकमों की सामान्य घटनाएँ हैं।

सुझाव- (i) जनोपयोगी एवं आधारभूत उद्योगों में हड़तालों पर रोक लगनी चाहिए।

(ii) अवैधानिक हड़ताओं के लिए कर्मचारियों को कड़ी से कड़ी सजा देना चाहिए।

(iii) संयुक्त सलाहकार समितियों की स्थापना की जानी चाहिए।

(iv) कर्मचारियों के लिए प्रभावपूर्ण प्रेरणादायक कार्यक्रम चालू किये जायें।

(5) कर्मचारी समस्या- किसी भी उपक्रम की सफलता उसके योग्य अनुभवी कर्मचारियों पर निर्भर करती हैं। परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश के सार्वजनिक उपक्रमों में दोषपूर्ण सार्वजनिक नीति के कारण योग्य, प्रशिक्षित एवं अनुभवी कर्मचारियों का प्रारम्भ से ही अभाव रहा है। इसके कारण एक ओर तो इनकी प्रबन्ध-व्यवस्था अकुशल रही हैं और दूसरी ओर इनकी प्रगति अत्यन्त धीमी रही हैं। इसके अतिरिक्त अधिक सुविधाएँ, उपयुक्त वातावरण, अधिक परिश्रमिक, पहल एवं प्रेरणा आदि के अभाव के कारण योग्य कर्मचारी कभी-कभी सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में चले जाते हैं। इन उपक्रमों में कर्मचारियों की भर्ती लोक सेवा आयोग के माध्यम से होती हैं जिसके कारण लम्बे समय तक अनेक पद रिक्त पड़े रहते हैं। उच्च पदों पर I.A.S. या P.C.S. अधिकारियों की नियुक्ति की जाती हैं जिन्हें केवल सामान्य प्रशासन का ही ज्ञान होता हैं। इसके अतिरिक्त इन उपक्रमों में आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती रही हैं जिससे इनकी संचालन लागत में वृद्धि हुई हैं।

सुझाव-(I) इनमें उच्च पदों पर योग्य, अनुभवी एवं कुशल श्रमिकों की नियुक्ति की जाय। (II) कर्मचारियों को उचित वातावरण, पर्याप्त सुविधाएँ एवं उचित पारिश्रमिक दिया जाय। (III) कर्मचारियों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाय। (IV) आवश्यकता से अधिक कर्मचारियों की नियक्ति न की जाये।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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