अश्क जी का कहानी साहित्य में योगदान | निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल
अश्क जी का कहानी साहित्य में योगदान | निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल
अश्क जी का कहानी साहित्य में योगदान
उपेंद्रनाथ अश्क कहानी की मुख्य धारा में न होने पर भी इस क्षेत्र में शायद सबसे अधिक सक्रिय दिखाई देते हैं। वे पंजाबी और उर्दू की पृष्टभूमि के साथ हिंदी में आये। अपने आरंभिक काल में भी उन्होंने ‘कोंकड़ा का तेली’ जैसी- यथार्थवादी कहानी लिखकर अपनी पहचान बनायी। लेकिन उनके पास न तो यशपाल की तरह समृद्ध राजनीतिक चेतना थी और न ही अज्ञेय या जैनेंद्र की भांति मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के प्रति वैसा आग्रह था। यही कारण है कि वे इन दोनों धाराओं के बीच तैरते हुए अपने को सक्रिय बनाये रखने की कोशिश करते हैं। उनकी आरंभिक कहानियों, जिनमें ‘डाची’ और ‘अंकुर’ जैसी कहानियाँ शामिल थीं, उसे देखकर शमशेर ने जहाँ एक ओर उनके प्राति आश्वस्ति प्रकट की थी, वहीं यह आशंका भी व्यक्त की थी क्या अश्क युग-चेतना के वाहक बन सकेंगे? अश्क के कथा-विकास को देखकर लगता है कि शमशेर की आशंका गलत नहीं थी। उनकी ‘पलंग’, ‘बेबसी’, फाग और मुस्कान तथा ठहराव’ आदि कहानियाँ देखकर लगता है कि युगीन चेतना से कटे रहकर उन्होंने व्यक्तिगत कुंठाओं के प्रति अधिक दिलचस्पी दिखाई है। काम कुंठाओं को लेकर अनेक कहानियाँ उन्होंने मण्टो स्पर्धा में लिखीं, लेकिन मण्टों जैसी सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों वाली कहानियाँ अश्क के यहाँ नहीं हैं। सामाजिक चेतना के बावजूद अश्क में उस अंतदृष्टि का अभाव है, जो उस सामाजिक अंतर्वस्तु का सार्थक रूपायन करती है। अंतर्दृष्टि के जीव को अश्क अपनी शिल्प-सजगता से पूरा करने की कोशिश करते हैं और यह सन् 1968 में प्रकाशित हुई थी, जिसके बाद वे कहानी छोड़कर अन्य रचनाओं में सक्रिय दिखाई देते हैं।
निबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य निबंधकार पं0 रामचंद्र शुक्ल जी अपने विश्लेषणात्मक प्रतिभा एवं सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के कारण हिंदी समीक्षा संसार में एक अलौकिक व्यक्तित्व के आचार्य तो हैं ही साथ ही साथ निबंध, साहित्य में भी उनकी समकक्षता का दूसरा निबंधकार नहीं दिखता। उनके निबंध ‘निबंध’ शब्द के अर्थ की पूर्ण रक्षा करने पर भी ऐसे () की कोटि में आते हैं। अंग्रेजी-साहित्य में तुलना के लिए किसी की खोज की जाय तो केवल ‘बेकन’ ही ऐसा लेखक है। लेकिन आचार्य शुक्लजी के निबंध बेकन के निबंधों से कहीं अधिक उत्कृष्ट कोटि के हैं। शुक्लजी की सूक्ष्म- अन्वेषणक्षमता सूत्र शैली, गंभीरता तथा भाषा की कसावट तो अंग्रेजी निबंधकार बेकन में नहीं दिखती, परंतु आचार्य शुक्लजी की विषय-चिंतन-सम्बद्धता एवं मनन के तारतम्य का उसमें अभाव है। बेकन का विषय-प्रतिपादन भ्रमात्मक तथा विश्रृंखल है। बेकन में विचारों की शुष्कता तथा विवेचन की निर्वैयक्तिकता विषय को बोझिल बना देती है जबकि इसके विपरीत शुक्लजी में वैयक्तिकता का पुट विचारों की गंभीरता को भार-स्वरूप बनने से बचाता है। निजी जीवन तथा सामाजिक अनुभव पर आधारित उनका विवेचन पाठक के हृदय को सीधे स्पर्श करता है। विवेचना और मामिकता का यह समन्वय बेकन में कहाँ दिखाई देता है।
आचार्य शुक्लजी की विवेचना सर्वथा त्रुटिहीन हो, ऐसी बात नहीं है। उनसे भी त्रुटिया हुई हैं। कहीं-कहीं उनकी सुक्तिबद्ध परिभाषाएं एकदम युक्तिहीन प्रतीत होती हैं। लेकिन इन दो- एक भूलों से शुक्लजी की महत्ता कम नहीं हो जाती। वह हिंदी के मूर्धन्य शैलीकार हैं। उन्होंने मनोभाव-संबंधी जो निबंध लिखे हैं, वे हिंदी की गर्व-सम्पत्ति है। इन निबंधों की गहराई तथा भाव और भाषा की रमणीयता अन्यत्र दुर्लभ है।
आचार्य शुक्ल जी के मनोभाव संबंधी निबंध उनकी 6 अन्तर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश है। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि, पर हृदय को भी साथ लेकर। अपना रास्ता निकालती हुई बुद्धि जहाँ कहीं मार्मिक या भावकर्षक स्थलों पर पहुंची है, वहाँ हृदय थोड़ा बहुत रमता अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कुछ कहता गया है। इस प्रकार यात्रा के श्रम का परिहार होता रहा है। आचार्य शुक्लजी के निबंधों में हिंदी निबंध-कला उस ऊंचाई को स्पर्श करती है, जहाँ से देखने पर आसपास के अन्य समकालीन निबंधकार बौने दिखाई देते हैं।
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