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उपन्यास और कहानी | उपन्यास और नाटक | हिंदी-साहित्य में रिपोर्ताज’ के स्वरूप एवं विकास

उपन्यास और कहानी | उपन्यास और नाटक | हिंदी-साहित्य में रिपोर्ताज’ के स्वरूप एवं विकास

उपन्यास और कहानी

उपन्यास और कहानी दोनों एक ही कुल की दो संतानें हैं। अधिकांश उपन्यासकारों ने कहानियाँ भी लिखी है और कहानी संक्षिप्त होती है। लेकिन दोनों में मात्र इतना ही भेद मानना उचित नहीं है। इस एक प्रमुख भेद के कारण उनके शिल्प संबंधी सभी उपकरण भिन्न हो जाते हैं। उपन्यास में संपूर्ण जीवन का चित्रण होता है जबकि कहानी में किसी एक घटना और स्थिति का चित्र अंकित किया जाता है। उपन्यास में एक मुख्य कथा के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी जुड़ी रहती हैं, लेकिन कहानी में केवल एक संक्षिप्त कथानक होता है। उपन्यास में पात्रों के चरित्र की सभी विशेषताएं उभरकर सामने आ जाती हैं जिससे पाठकों के हृदय पर उनका स्थायी प्रभाव पड़ता है। कहानी के पात्र किसी एक प्रमुख विशेषता तक सीमित रहते हैं, जिससे पढ़ने वाले के हृदय पर अधिक समय एक उनका प्रभाव स्थिर नहीं रह पाता। उपन्यास में संवादों के लिए अधिक अवसर होता है। जबकि कहानी में संवादों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है। उपन्यास और कहानी में सबसे बड़ा अंतर भाषा शैली का है। उपन्यास का कलेवर विस्तृत होता है जिससे उसमें वर्णनात्मकता के लिए अधिक गुंजराइश होती है, कहानी में लेखक को थोड़े से थोड़े शब्दों में अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से रखना पड़ता है, इसलिए उसकी भाषा सांकेतिक और व्यंजनात्मक होती है। उपन्यास पढ़ने से मानसिक शांति मिलती है और कहानी पढ़ने से मन में उत्तेजना होती है न उपन्यास पढ़ने से मानसिक शांति मिलती है और कहानी पढ़ने से मन में उत्तेजना होती है न उपन्यास में कहानी की तीव्र भावनात्मकता हो सकती है और न कहानी में उपन्यास की संपूर्णता। दोनों पक्षएक ही कुल की दो संतानें होते हुए एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं। न कहानी उपन्यास बन सकती है और न उपन्यास कहानी बन सकता है।

उपन्यास और नाटक

अनेक पाश्चात्य समालोचकों ने महाकाव्य की अपेक्षा नाटक को उपन्यास के अधिक समीप माना है। नाटक दृश्यकाव्य है और उपन्यास व्यसकाव्य। दोनों में पर्याप्त अंतर है लेकिन लक्ष्य दोनों का एक है। नाटककार का उद्देश्य भी वर्ण्य-विषय या कथावस्तु को प्रत्यक्ष करना होता है और उपन्यासकार भी वही करना चाहता है, साधन दोनों के अलग-अलग हैं। नाटककार रंगमंच और अभिनय के द्वारा विषयवस्तु को गोचर बनाता है और उपन्यासकार अपनी वर्णनशक्ति के द्वारा वह कार्य करता है। उपन्यास पढ़ते समय पाठक को प्रातीत होता है कि उसमें वर्णित घटनाएं उसके आँखों के सामने घटित हो रही हैं। यही उपन्यास की वह विशेषता है जिसके नाते आलोचकों ने उसे ‘पाकिट थयेटर’ कहा है। इसका अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिए कि शिल्प-विधान की दृष्टि से उपन्रूास और नाटक दोनों एक हैं। दरअसल दोनों में समानता के तत्त्व जितने हैं, असमानता उससे कहीं अधिक है। फिर भी कम-से-कम एक तत्त्व अवश्य है, जो दोनों के समान रूप से पाया जाता है और वह है सम्वाद अथवा थोपथन। उपन्यास यद्यपि वर्णनात्मक विधा है किंतु उसमें आवश्यकतानुसार संवादों का भी प्रयोग होता है। इसी प्रकार नाटक मुख्यतः सम्वादात्मक काव्यरूप है किंतु कहीं-कहीं उसमें भी वर्णन का सहारा लिया जाता है। पश्चिमी साहित्य में जब उपन्यास का उदय हुआ तब उसमें संवादों का अधिक प्रयोग नहीं होता था। फील्डिंग के उपरांत उपन्यासों में सम्वादों की प्रचुरता हुई और अब सभी प्रकार के उपन्यासों में संवादों का अधिकता से प्रयोग होता है। मात्र सम्वार्दो का प्रचुरता देखकर किसी उपन्यास को नाटक नहीं माना जा सकता। उपन्यास को  अधिकाधिक नाटकीय बनाने के लिए उसमें नाटक की अन्य विशेषताओं का समावेश भी करना पड़ेगा कथानक को संक्षिप्त करके, घटनास्थल और घटनाकाल को सीमित करके, पात्रों की संख्या घटाकर सम्वादों को नाटकीय बनाकर उपन्यास को नाटक के कुछ समीप अवश्य लाया जा सकता है, किंतु नाटक की सभी विशेषताएँ उपन्यास में ला पाना संभव नहीं। जिस प्रकार महाकाव्य और महाकाव्यात्मक उपन्यास में कुछ समानताओं के बावजूद दोनों दो वस्तुएँ उसी प्रकार नाटक और नाटकीय उपन्यास में कतिपय समानताओं के बावजूद दोनों एक दूसरे से पर्याप्त भिन्न हैं।

हिंदी-साहित्य में रिपोर्ताज’ के स्वरूप एवं विकास

‘रिपोर्ताज’ हिंदी-साहित्य की अतिनवीन मद्य-विधा है। नवलेखन की अन्य विधाओं की ही तरह इसका जन्म भी आधुनिक काल में हुआ है। इसके अभिधेयार्थ पर विचार करने से ज्ञात होता है कि ‘रिपोर्ताज’ फ्रांसीसी भाषा का शब्द है। अंगरेजी में इसके लिए रिपोर्ट शब्द का प्रयोग किया जाता है। हिंदी में यह शब्द अंगरेजी के रिपोर्ट शब्द के द्वारा अवतरित हुआ। रिपोर्ट का अभिप्राय होता है, किसी घटना अथवा खबर के आँखों-देखे हाल का यथातथ्य चित्रण करना। इसके लिए ‘रपट’ शब्द का प्रयोग भी प्राप्त होता है। यद्यपि ‘रिपोर्ताज’ का अर्थ रिपोर्ट से कुछ भिन्न ही होता है, क्योंकि रिपोर्ताज में किसी घटना अथवा खबर का आँखों देखा हाल तो चित्रित होता है, किंतु कलात्मक ढंग से और रिपोर्ट में केवल यथातथ्य वर्णन होता है।

हिंदी-साहित्य में ‘रिपोर्ताज’ विधा का जन्म पत्रकारिता के माध्यम से हुआ, क्योंकि पत्रकारिता में किसी घटना की रिपोर्ट तैयार करने का दैनिक क्रम होता है। अखबारों अथवा पत्र-पत्रिकाओं में भेजी जाने वाली रिपोर्ट पर यदि कलात्मकता एवं साहित्यिकता का आवरण चढ़ा दिया जाता है, तो वह ‘रिपोर्ताज’ का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। यद्यपि हिंदी में इसके लिए ‘सूचनिका’ शब्द का प्रयोग भी होता है, तथापि, ‘रिपोर्ताज’ शब्द ही पूर्णतया प्रचलित और प्रभावशाली है। रिपोर्ताज में लेखक का व्यक्तित्व एवं उसकी संवेदनाएँ भी निहित रहतीहै। ‘सूचनिका के अतिरिक्त हिंदी में ‘रूपनिका’ और ‘वृत्त निर्देशन’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है, किंतु वह प्रभावी नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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