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निर्मला उपन्यास का उद्देश्य | निर्मला उपन्यास की भाषा | निर्मला का चरित्र चित्रण

निर्मला उपन्यास का उद्देश्य | निर्मला उपन्यास की भाषा | निर्मला का चरित्र चित्रण

निर्मला उपन्यास का उद्देश्य

उपन्या सम्राट प्रेमचंद जी ने ‘निर्मला’ उपन्यास की कोई भूमिा नहीं लिखी थी। जिससे उनके इस उपन्यास के लेखन के उद्देश्यों की जानकारी मिलती हो। आशय यह है कि प्रेमचंद जी ने अपने इस उपन्यास के लेखन का कोई उद्देश्य नहीं बताया है। अतः यदि हम इस उपन्यास का गहनता पूर्वक अध्ययन करें तो इसके लिखने को उद्देश्य की जानकारी प्राप्त हो सकती है। ‘निर्मला’ उपन्यास के अध्ययन से निम्न उद्देश्य की जानकारी प्राप्त होती है। जो अग्रलिखित है-

(1) पुरुषों के अहं की तुष्टि- ‘निर्मला’ उपन्यास की शुरूआत बाबू उदयभान लाल के अहं से होती है। प्रेचमंद जी बाबू उदयभानु लाल का परिचय करते हुए बताते हैं वे शहर के नामी वकील थे। लक्ष्मी पर उनकी विशेष, कृपा थी। अपने सगे-संबंधी एवं दूर के रिश्तेदारों को लेकर कुल बीस सदस्य उनके परिवार में थे। कोई फुफेरा, कोई भांजा, कोई भतीजा इसके अलावा उनका अपना परिवार पत्नी, एक बेटा दो बहनें, छ: सो का अपना परिवार एवं अन्य सदस्यों का भरण-पोषण करना कोई सामान्य बात न थी।

यहाँ यह बताकर लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है बाबू उदयभानु लाल की कमाई में कमी न थी लेकिनवे मितव्ययी न थे। जितना कमाते थे उससे ज्यादा व्य करते थे। उनका यह कृत्य उनके अहं का एक हिस्सा था। बाबू उदयभानु लाल अपनी बड़ी पुत्री की शादी एक संपन्न परिवार भालचंद्र सिन्हा के पुत्र भुवन मोहन सिन्हा के साथ तय किया था। शादी में दान-दहेज की तो कोई माँग न थी लेकिन बारातियों के स्वागत एवं अपने रुतबे के अनुसार प्रबंध करना बाबू उदयभान लाल की मजबूरी या अहं जो भी हो। शादी का सारा खर्चा जोड़ने पर पहले बीस हजारके आस-पास बजट पहुंचा था, लेकिन दहेज की मांग न होने का कारण कम से कम पाँच हजार रूपये की जरूरत तो थी ही। शहर के प्रतिष्ठित वकील होने के बाद भी उनके पास इतनी रकम की व्यवस्था भी न थी। पैसे को लेकर उनकी पत्नी कल्याणी में कुछ कहासुनी हो गयी। जिससे पत्नी को मजा चखाने के लिए घर छोड़ देते हैं। लेकिन जैसे ही घर से निकलते हैं रास्ते मतई नामक बदमाश उनकी हत्या कर देता है। लेखक प्रेमचंद जी ने यह बताने का प्रयास किया है यदि उदयभानु लाल अपने अहं को शांत करने के लिए तथा अपनी पत्नी कल्याणी के अहं को ठेस लगाने के लिए घर से न निकलते तो शायद उनकी मौत न होती। उस स्थिति में पंद्रह वर्षीय सुंदर निर्मला का क्या अपने दूने उम्र से अधिक तोताराम के साथ व्याह होता? कभी नहीं। जहां तक अहं की बात है, पुरूष प्रधान पात्र तोताराम भी अपने अहं के एवं संदेह के चलते अपना भरा- पुरा परिवार बर्बाद कर देता है और अंत में निर्मला भी मौत के मुह में चली जाती हैं।

(2) दहेज प्रथा एवं पुनर्विवाह का प्रचलन- ‘निर्मला’ उपन्यास का मूल उद्देश्य दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा पर चोट करना है। यदि समाज में दहेज का दान सक्रिय न होता तो निर्मला, का विवाह किसी भी भले घर के योग्य और युवा पुत्र से हो जाता। प्रेमचंद के समय मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग में महिलाओं का पुनर्विवाह तो वंश की अप्रतिष्ठा का कारण माना जाता था, परंतु पुरूष सात-सात विवाह करते थे। पुरूषों को पुनर्विवाह की छूट मिलने के प्रमाण के रूप में निर्मला के पति तोतारामजी का यह स्वगत-कथन पर्याप्त है- “मगर यह कोई अनोखी बात नहीं की। सभी स्त्री-पुरूष विवाह करते हैं। उनका जीवन आनंद से कटता है। आनंद की इच्छा से ही तो हम विवाह करते हैं। मुहल्ले में सैकड़ों आदमियों ने दूसरी, तीसरी, चौथी, यहाँ तक कि सातवीं शादियों तक की हैं और मुझसे भी कहीं अधिक अवस्था में। वह जब तक जिये आराम से ही जिये। यह भी नहीं हुआ है कि सभी स्त्री से पहले मरं गये हो, दुहाज, तिहाज होने पर भी कितने ही फिर रंडुए हो गये। अगर मेरी जैसी दशा सबकी होती तो विवाह का नाम ही कौन लेता है मेरे पिताजी ने पचपनवें वर्ष में विवाह किया था और मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न थी।

निर्मला उपन्यास की भाषा

चर्चित उपन्यास ‘निर्मला’ की भाष प्रेमचंद्र के पूर्व उपन्यासों की भाषा से अलग नहीं है। उपन्यास की भाषा उर्दू-भाषा के प्रभाव और संस्कृत भाषा की शब्दावली से युक्त है। ‘निर्मला’ में तजबीज, तकरार, तखमीना, तकदीर, अख्खाह, मनसूबे, ख्म, ताबेदार, तोहफा, हिमाकत, इतमीनान, इल्जाम, ताकीद, गाफिल, गैरहाजिरी, तरद्दद, दवाफरोश, किफायत आदि अनेक अरबी-फारसी के शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। ‘निर्मला में उर्दू संस्कृत भाषाके मिश्रित रूप भी उपन्यास के अनेक स्थलों पर मिल जाते हैं। यथा- ‘वैधव्य का मजा’, ‘मुसीबत की आकाशवाणी’, ‘प्राणियों से साबिका’, ‘वाक्यचातुर्य गायब’ इत्यसादि। उपन्यास में मुर्दा दोजख में जाए या बहिश्त में, आदि उदू-शब्दावली ‘गी एक-दो स्थलों पर दृष्टिगत हो जाती है। इसके विपरीत इस उपन्यास में संस्कृत भाषाका सौंदर्य भीय त्र-तत्र बिखरा पड़ा है। यह सौंदर्य शब्दों एवं संपूर्ण वाक्य की शब्द योजना में विद्यमान है। इस उपन्यास से ‘लालिमा के संयोग से कालिमा’, ‘हृदय किसी अलक्षित आकांक्षासे आंदोलित’, ‘यह मातृस्नेह मेरे निर्वासन की भूमिका है’ आदि अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिसमें संस्कृत भाषा के शब्दों के प्रयोग का सौंदर्य दृष्टिगत है। ‘निर्माला’ उपन्यास की भाषा का एक अंश और प्रस्तुत करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। लेखक अपने एक वर्णन में इस प्रकार लिखता है- “ऊँचा कोट, ब्रिचेज, टाई, बूट, हैट, उस पर खूब खिल रहे थे। हाथ में एक स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आंखों में आत्मगौरव।” इस अंशमें उपन्यासकार ने अंग्रेजी उर्दू  और संस्कृत के शब्दों का सुंदर प्रयोग किया है। यह अंश प्रेमचंद द्वारा विभिन्न भाषाओं के शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्तियों को स्पष्ट कर देता है। प्रेमचंद को किसी भी भाषा के शब्दों से द्वेष नहीं है। वे उन सभी शब्दों को अंगीकार करते चलते हैं, जो सहजता के साथ उनके मानस में आते रहते हैं। प्रेमचंद का लेखक विदेशी भाषा के शब्दों के पर्याय ढूँढ़कर नहीं लाता, बल्कि उन सभी शब्दों का प्रयोग करता है, जो भाषा में सहजता और स्वभाविकता के लिए आवश्यकता होते हैं।

सारांशतः यह कह सकते हैं कि ‘निर्मला’ उपन्यास में प्रेमचंद जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह अत्यंत उत्कृष्ट, कलात्मक और प्रवाहपूर्ण है। इसमें भाषा की विविधता होते हुए एक गरिमामय एकात्मकता है और इन्हीं गुणों के कारण आलोच्य उपन्यास इतना सार्थक एवं हृदयस्पर्शी बन सका है। इस तरह का उपन्यास लिखना किसी अन्य उपन्यास लेखक के बस की बात नहीं है। यह प्रेमचंद जी के सधी हुई लेखनी से ही निकल सकता है। इस उपन्यास की भाषा की विविधता को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि प्रेमचंद्र जी को उपन्यास सम्राट की पदवी यूँही नहीं दी गई है। अतः ‘निर्मला उपन्यास की भाषा एक उत्कृष्ट कोटि की भाषा है इसमें तनिक संदेह नहीं है।

निर्मला का चरित्र चित्रण

निर्मला उपन्यास सुप्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद्र के छोटे उपन्यासों में है। कहानी गठन की दृष्टि से यह प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। निर्मला इस कथानक की नायिका है। प्रेमचंद के उपन्यासों में सेवासदन के अतिरिक्त एक यही उपन्यास है जिसमें एक नारी ही कथानक की प्रधान नायिका है। वह इस उपन्यास में आये हुए किसी भी पुरूष पात्र से अधिक महत्वपूर्ण है। सारी कथा इसी के इर्द-गिर्द घूमती है।

(1) विवाह समस्या की प्रतीक- ‘निर्मला’ समाज में विवाह समस्या की प्रतीक बनाकर आती है, निर्मला के समाज न जाने कितने असंख्य परिवारों को इस समस्या से जूझना पड़ता है और इस समस्या के चक्रव्यूह में फंसकर न जाने कितनी युवतियों को अपनी महत्वाकांक्षाओं का बलिदान करना पड़ता है और जीवन संघर्षों से जूझते-जूझते शहीद हो जाना पड़ता है। कल्याणी गरीब बीस साल से उदयभानु लाल की गृहिणी है, उसके एक लड़की विवाह योग्य हो चुकी है। सच बात तो यह है कि उसी के विवाह के संबंध में पति-पत्नी में बातचीत होती है, और उसी के दौरान उसे उसका पति बताता है कि वह स्मरण रखे कि वह कमाता है अतएव घर का मालिक वह है। उससे परिवारों में विवाह समस्या स्पष्ट हो जाती है। साथ हरी इस समस्या के निराकरण में स्त्री की अपेक्षा पुरूष अपना वचस्व बनाये हुए हैं।

(2) उपन्यास की नायिका- जैसा कि स्पष्ट है कि ‘निर्मला’ उपन्यास की नायिका निर्मला ही है। निर्मला’ नामकरण की सार्थकता भी उपन्यासकार ने सिद्ध की है। प्रारंभ से अंत तक निर्मला के जीवन और उसके साथ घटित घटनाओं के संघर्ष का वर्णन इस उपन्यास में है। उसके चरित्र का विकास घटनाओं के संघातों के मध्य हुआ है। संपूर्ण उपन्यास में निर्मला के जीवन की करूण कहाना विद्यमान है। विवाह के पूर्व ही उसके मन में एक विचित्र सी शंका उत्पत्र हो जाती है। वह सोचती है- ‘न जाने क्या होगा? उसके मन में वे उमंगे नहीं हैं जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बनकर, ओठों पर मधुर हास्य बनकर और अंगों में आलस्य बनकर प्रकट होती है।’ उपन्यास का अंत, लेखक ने निर्मला के करूण-जीवन के अंत के साथ इन शब्दों में किया- ‘उस समय जब पशु-पक्षी अपने-अपने बसेरे को लौट रहे थे, निर्मला का प्राण-पक्षी भी दिनभर शिकारियों के निशानों, शिकारी चिड़ियों के पंजों और वायु के प्रचण्ड झोकों से आहत और व्यथित अपने बसेरे कीओर उड़ गया।’ इस प्रकार के उपन्यास का संपूर्ण कथानक इसी के इर्द-गिर्द घूमता है, अतः निर्मला’ उपन्यास की नायिका है।

(3) दहेज समस्या शिकार- ‘निर्मला’ दहेज समस्या से आहत है और इसी समस्या का शिकार बनी। समाज में पुत्री के विवाह पर प्रलित दहेज न जाने कितनी ललनाओं को अपने खूनी पंजे में जकड़ लेता है और उसकी पूर्ति न होने पर उन्हें अकाल कालकवलित होजाने का कारण बनता है। ‘निर्मला’ के साथ भी यही हुआ, उसके पिता इसी उधेड़-बुन में पारिवारिक तनाव वश असमय ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेते हैं। विधवा माँ उसके लिए बहुत प्रयास करती है भालचंद्र को पत्र लिखती है, विवाह संबंध की याचना करती है, पत्र का एक-एक शब्द उनकी पत्नी रंगीलीबाई को प्रभावित कर रहा था- एक-एक शब्द करूण के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से हीनता टपक रही थी। किंतु विधाता को यह संबंध मंजूर न था, पत्नी बात पति नहीं मानी। दहेज का लोभ जो था, उसके पुत्र ने भी अपनी माता से स्पष्ट कह दिया- ‘कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रूपये मिलें। और न सही, एक लाख का तो डौल हो। वहाँ अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा? उसकी माँ कल्याणी के शब्दों में, दहेज समस्या की पीड़ा देखिए वह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करे, दहेज ही दो उसके सारे गुण दोष हैं, दहेज हो तो सारे दोष गुण हैं। प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषय भाग्यलीला है? और माता विवश होकर दहेज के अभाव में उसका अनमेल विवाह करने की तैयारी हो जातीहै उसके शब्दों में ‘लेकिन मरना-जीना विधि के हाथ है। पैंतीस साल का आदमी बुट्टा नहीं कहलाता’ अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है तो जहाँ जायेगी सुखी रहेगी। दुःख भोगना है, तो जहां जायेगी दुःखी रहेगी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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