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तुलसीदास के पद्यांशों की व्याख्या | तुलसीदास के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या | अयोध्याकाण्ड के पद्यांशों की व्याख्या | अयोध्याकाण्ड के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

तुलसीदास के पद्यांशों की व्याख्या | तुलसीदास के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या | अयोध्याकाण्ड के पद्यांशों की व्याख्या | अयोध्याकाण्ड के निम्नलिखित पद्यांशों की संसदर्भ व्याख्या

तुलसीदास (अयोध्याकाण्ड)

  1. भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ।।

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे।।

ज्यों मुखु मुकुरु मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत वानी।।

भूप भरतु मुनि सहित समाजू। गे जहँ विबुध कुमुद द्विजराजू।।

सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुं मीनगन नब जल जोगा।।

देवं प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी।।

राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे।।

सब कोउ राम पेममय परेखा। भए अलेख सोच बस लेखा।।

दोहा- रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।

रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु।।294।।

सन्दर्भ- प्रस्तुत काव्य पंक्ति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित ‘रामचरित मानस’ के अयोध्या काण्ड के अन्तर्गत ‘चित्रकूट में ज्ञान सभा से’ उद्धृज है।

प्रसंग- यहाँ पर देवताओं की मानसिक स्थिति को स्पष्ट किया गया है। देवतागण समाजियों की प्रेममय स्थिति देखकर घबरा रहे हैं क्योंकि उन्हें अब तक के रचे सभी प्रपंच विफल होते हुए दिखाई पड़ रहे हैं।

व्याख्या- भरत के वचन सुनकर और स्वभाव को देखकर राजा जनक, सम्पूर्ण समाज के साथ उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। उनकी वाणी सुगम भी है और अगम्य भी। कोमल भी है और कठोर होने पर भी सुन्दर है। उन्होंने अल्प शब्दों में अपरिमित अर्थों वाली वाणी बोली। जैसे मुँह दर्पण मे दिखाई देता है और दर्पण हाथ में होते हुए भी उस मुख का प्रतिबिम्ब पकड़ा नहीं जा सकता ऐसी ही अद्भुत वाणी भरत जी की है। राजा जनक, भरत, मुनि वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि समाज सहित वहाँ पहुँच गये जहाँ देवता रूपी कुई के लिए चन्द्रमा रूपी राम थे।

यह समाचार सुनकर सभी लोग सोच से व्याकुल हो उठे। ऐसा लगा मानो नये (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल हो जाती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठ की दशा देखी फिर उन्होंने विदेह राजा के विशेष स्नेह को देखा। तब उन्होंने राम भक्ति में लीन भरत को देखा। यह देखकर स्वार्थी देवता घबड़ा गये और हाय करके हृदय से हार गये। (आशय यह है कि वे सोचने लगे कि अब कुछ नहीं हो सकता, ये लोग अवश्य ही श्री राम को लौटा ले जायेंगे।)

सम्पूर्ण समाज को या समाज के सभी लोगों को प्रेममय अथवा प्रेम में डूबा हुआ देखकर देवता आसीमित सोच में पड़ गए। तब देवराज इन्द्र ने सोच में भरकर कहा कि राम तो स्नेह और सोच के वश में हैं। इसलिए सब लोग मिलकर कोई प्रपंच रचो नहीं तो सारा काम ही बिगड़ जायेगा।

विशेष – इसमें अनुप्रास, रूपक, उत्प्रेक्षा, दीपक तथा उल्लास अलंकार हैं।

  1. सुनि भूपाल भरत व्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।।

मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।

सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि।।

धरम राजनय ब्रम्हाबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू।।

सो मति मोरि भरत महिमांही। कहे काह छलि छुअति न छाँही।।

बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।

भरत चरित कीरति करतूती। धरम सीलगुन बिमल बिभूती।।

समुझत सुनक सुखद सब काहू।सुचिसुरसरि रुचि निदर सुधाहू।।

दोहा- निरबधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।

कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि।288॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- यहाँ कवि ने भरत के महत्व का सुन्दर वर्णन किया है।

व्याख्या- राजा जनक ने भरत के सोने में सुगन्ध या चन्द्रमा के सार रूप अमृत के समान व्यवहार को सुना तो उन्होंने प्रेम मगन होकर अपने नेत्र बन्द कर लिए उनके नेत्र प्रेमाश्रुओं से मर गये (मानो वे भरत के प्रेम में ध्यानमगन हो गये।) उनका शरीर पुलकित हो गया और वे प्रसन्न मन से सुन्दर यश की सराहना करने लगे। राजा बोले-हे सुमुखी ! सुन्दर नेत्र वाली तुम सावधान होकर सुनो। भरत की कथा संसार के बन्धन से मुक्त करने वाली कथा है। धर्मनीति, राजनीति और ब्रह्म विचार (वेदान्त) में अपनी बुद्धि के अनुसार जो अल्पगति है (अथवा जानता हूँ) उसके अनुसार भी यदि मेरी बुद्धि भरत की महिमा का वर्णन करे तो छल करके भी वह उसकी छाया तक को भी नहीं छा पाती।

ब्रह्म, गणेश, शेषनाग, शिव, सरस्वती, कवि, कोविद, पंडित तथा बुद्धि में निपुण लोग हैं, उन सभी को भरत का चरित्र, कीर्ति करनी, धरम (कर्तव्य) करनी, शील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य सुनने और समझने में सभी को सुख प्रदान करने वाला है। उनका चरित्र पवित्रता में गंगा का तथा रुचि (मधुरता) में अमृत का भी तिरस्कार करने वाला है। भरत जी असीम गुण-सम्पन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरत के समान बस भरत को ही जानो या समझो। कवि कुल की बुद्धि इसीलिए सकुचा गई है, क्योंकि भला समेरु पर्वत को क्या शेर के बराबर कहा जा सकता है?

विशेष-(i) प्रस्तुत पद में भरत के प्रेम को भव-बन्धन विमोचक कहकर बहुत ऊपर उठा दिया गया है। (ii) इसमें अनुप्रास, व्यतिरेक, निदर्शना, अनन्वय, प्रतीप अलंकार दृष्टव्य हैं।

  1. लखि सबिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू।।

अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।

जो सेवक साहिबहि सँकोची। निज हित चहद तासु मति पोची।।

सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥

स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥

यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥

देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥

तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।

दोहा- सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।

नतरु फेरिअहिं बंध दोउ नाथ चलौं मैं साथ।268॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पद में भरत जी ने अपनी आत्मग्लानि व्यक्त करते हुए स्वयं प्रभु राम के साथ वन में निवास करने की इच्छा प्रकट की है।

व्याख्या- गुरुवशिष्ठ और स्वामी राम का सभी प्रकार से प्रेम देखकर मेरा क्षोभ अब नहीं रह गया है और अब मेरे मन में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहा है। हे दया की खान! अब आप वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त में क्षोभ न रहे। सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपना भला चाहे उसकी बुद्धि नीच है। सेवक की भलाई तो इसी में है कि वह सम्पूर्ण सुखों और लोभों को त्यागकर स्वामी की सेवा करें। हे नाथ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार तत्व है। यही समस्त पुण्यों का फल और सम्पूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है। हे देव ! यह एक विनती मेरी सुनकर जैसा उचित हो वैसा कीजिए। मैं राजतिलक की समस्त सामग्री सजाकर लाया हूँ। हे प्रभु ! यदि आपका मन माने तो आप उसे सफल कीजिए। (आशय यह है कि आप राज्यतिलक करवाइये जिससे कि उसे यहाँ पर लाने का परिश्रम सफल हो।)

मुझे छोटे भाई शत्रुघ्न समेत वन में भेज दीजिए और आप अयोध्या वापिस चलकर सबको सनाथ कीजिए। यदि आपको यह स्वीकार न हो, तो हे नाथ ! दोनों भाइयों को लौटा दीजिए। मैं आपके साथ चलूंगा।

विशेष- अलंकार अनुप्रास तथा काव्यलिंग दृष्टव्य है।

  1. कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।

तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ।।

मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।

हित अनहित पसु पच्छिअ जाना। मानुष तन गन ग्यान निधाना।।

तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।

राखउ रायं सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥

तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥

ता पर गुर मोहि आयुस दीन्हा। अवसि जो कहहू चहउँ सोइ कीन्हा।।

दोहा- मन प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।

सत्यसंध रघबर बचन सुनि भा सखी समाज॥264।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- राम द्वारा भरत के शील-स्वभाव की विवेचना की गई है।

व्याख्या- प्रभु राम ने कहा – हे भरत! मैं सत्य स्वभाव से, शिव को साक्षी मानकर कहता हूँ कि यह भूमि तुम्हारे धर्माचरण से ही रखने से रह सकती है। आशय है कि तुम धर्मात्मा राजा हो और तुम्हारे धर्माचरण करते रहने से ही पृथ्वी टिकी रह सकती है। राजा का वचन तुम्हीं रख सकते हो तथा देव ऋषि, मुनि का कलेश भी आप ही छुड़ा सकते हो।) हे तात ! (मन में) व्यर्थ के बुरे तर्क मत रखो। बैर और प्रेम कभी छिपाये नहीं छिपते, मुनि गुणों के पास पशु-पक्षी चले जाते हैं किन्तु बाधा उत्पन्न करने वालों तथा मारने वालों को देखकर ही भाग जाते हैं। इस प्रकार से पशु और पक्षी भी अपनी भलाई और बुराई करने वालों को पहचानते हैं और यह मानव शरीर तो गुण और ज्ञान का खजाना है। आशय यह है कि हम मानव शरीर में हैं फिर भला हम तुमको क्यों न पहचानें? अथवा हम तुम्हें पहचानते हैं। इसलिए न तो तुम्हें सफाई देने की आवश्यकता है और न आत्मग्लानि व्यक्त करने की।

हे प्रभु ! मैं आपको बड़ी अच्छी तरह से जानता हूँ, क्या करूँ ! मन में बड़ा असमंजस्य हो रहा है, राजा (दशरथ) ने मुझे त्यागकर अपने सत्य को रखा और (मेरे प्रति) प्रेम के प्रण को रखने के लिए अपने शरीर को ही छोड़ दिया। (आशय यह है कि दिये हुए वचन को रखने के लिए मेरा त्याग किया और मुझे प्राण प्रिय मानते रहे इसलिए बिछुड़ने पर शरीर ही त्याग दिया।) ऐसे पिता के वचन को मिटाते हुए मन में सोच होता है, उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। इस पर भी गुरु वशिष्ठ ने मुझे आज्ञा दी है। अवश्य ही मैं वह करना चाहता हूँ, जो तुम कहो। मन प्रसन्न कर संकोच छोड़कर कहो वही मैं आज करूं। आशय यह है कि माता की करनी की ग्लानि को अपने मन से दूर करो, क्योंकि वे निर्दोष हैं। तुम छोटे होकर कैसे मुझसे कहोगे इस बात को भी मन से निकाल दो। इस प्रकार ग्लानि और विचार से मुक्त होकर अपने निर्मल मन से कहो वही काम में करूंगा।) सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल में श्रेष्ठ राम के बचनों को सुनकर सारा (उपस्थित) समाज प्रसन्न हुआ।

विशेष- राम ने भरत के प्रेम को देखकर उनको निर्भय कर दिया तथा माता कैकयी को निर्दोष घोषित करते हुए उनकी आत्मग्लानि को दूर कर दिया।

  1. सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥

लिख अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं विचारू।।

पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जन बाढ़े।।

कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।

मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।

मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।

सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहूँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥

मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेंल जितावहिं मोही।।

दोहा- महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।

दरसन तृपित न आज लगि पेम पिआसे नैन।।260।।

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- भरत ने राम के प्रति अपने प्रेम और अगाध विश्वास को प्रकट किया है।

व्याख्या- मुनि के वचन सुनकर और राम का रुख भांपकर (भरत जान गए) कि गुरु और स्वामी दोनों ही पूर्ण रूप से उनके अनुकूल हैं। पर, अपने सिर पर सम्पूर्ण बोझ देखकर वे एकदम कुछ कह सके और विचार करने लगे। उनका सारा शरीर पुलकित हो गया और वे सपा में खड़े हो गए। उनके कमल रूपी नेत्रों में प्रेम रूपी जल की बाढ़ आ गई या उनके नेत्रों से प्रेमाभु गिरने लगे। वे बोले – जो कुछ भी मैं कहना चाहता था वह तो मुनिनाथ वशिष्ठ ने कह ही दिया। इससे अधिक मैं और क्या कहूं। अपने स्वामी का स्वभाव समझता हूँ। वे कभी अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनका विशेष प्रेम और कृपा है। मैंने खेल में भी कभी उनका रूखापन या क्रोध नहीं देखा है।

बालपन से ही मैं उनके साथ रहा हूँ। उन्होंने सदैव मेरे मन के अनुकूल कार्य किया है मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भली-भाँति देखा है। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिताते ही रहे हैं। मैंने भी प्रेम और संकोचवश उनके समक्ष कभी मुँह नहीं खोला। आज तक प्रेम के प्यासे ये नेत्र प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।

विशेष- इसमें अनुप्रास, रूपक और काकुवक्रोक्ति अलंकार है।

  1. भरत बचन सुचि सुनि सुर हरपे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥

असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥

चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गतिदेखिसभा सबसोची।।

जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठ सुनि बेगि बोलाए।।

करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए पिनट दुखारे॥

दूतन्ह मुनिवर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥

सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा॥

बूझब राउर सादर साई। कुसल हेतु सो भयउ गोसाई॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- प्रस्तुत पद में तुलसीदास ने दूतों के व्यवहार पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या- भरत के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए। साधु-साधु ! कहकर उन्होंने सराहना की और उन पर फूलों की वर्षा की। अयोध्या के निवासी दुविधा में पड़ गये (कि राम लौटेंगे अथवा नहीं) वनवासी तथा तपस्वी मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए (कि उन्हें वन में राम के दर्शनों का लाभ प्राप्त होता रहेगा।) संकोची स्वभाव के कारण राम चुप ही रहे। प्रभु राम की ऐसी अवस्था देखकर सब सभा सोच में पड़ गई। (अर्थात् देव समाज, अयोध्या समाज और मुनि समाज सभी सोच में पड़ गये कि ये इस प्रकार चुप क्यों हो गये तथा बोलते क्यों नहीं हैं।)

उस अवसर पर वहाँ महाराज जनक के दूत आए। मुनि वशिष्ठ ने सुनकर उनको तुरन्त वहाँ बुलवा लिया। उन्होंने प्रणाम कर राम को देखा। वे उनका वेश देखकर अतीव दुःखी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ ने दूतों से यह बात पूछी – कि कहो विदेहराज राजा जनक कुशल से तो हैं। दूत यह बात सुनकर सकुचा गये। उन्होंने पृथ्वी पर सिर झुका लिया। दूत अपने दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे – आपने आदर के साथ हे गोसाई ! पूछा वही कुशलता का कारण हो गया। नहीं तो, हे नाथ ! कौशलपति दशरथ के साथ ही समस्त कुशलता चली गई (आशय यह है कि उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर ही सारी कुशलता समाप्त हो गई।) तथा मिथिला और अवध विशेष रूप से और यों तो सम्पूर्ण संसार ही अनाथ हो गया अर्थात् अब यहाँ पर किसी की कुशलता नहीं है।

विशेष- प्रस्तुत पद में भारतीय संस्कृति और मर्यादा के अनुसार ही दूतों के व्यवहार का चित्रण हुआ है।

  1. दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी।।

सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥

धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई।।

घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥

दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महिपाला॥

भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥

खभरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा।।

साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबरतुरत बिदा चर कीन्हे।।

दोहा– सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।

वगुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥272॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रंसग- तुलसीदास ने प्रस्तुत पद में राजा जनक के गुणों और स्वभाव पर प्रकाश डाला है।

व्याख्या- दूतों ने आकर राजा जनक के समाज में भरत जी के कार्यो का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन प्रस्तुत किया। उनके विवरण को सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सभी सोच और प्रेम से अत्यन्त व्याकुल हो गये। उन्होंने भरत की बड़ाई करते हुए (हृदय में) धैर्य धारणा कर लिया। उन्होंने अपने योद्धाओं और सेनानियों को भी आमंत्रित किया। इसके बाद घर, नगर तथा देश (मिथिला प्रान्त) में रक्षकों को नियुक्त कर दिया और हाथी, घोड़े, रथ आदि बहुत-सी सवारियों को सजवाया।

दो-दो घड़ी का मुहूर्त निकलवाकर राजा शीघ्र ही चल दिये और उन्होंने रास्ते में कहीं भी विश्राम नहीं किया। आज प्रातः आकर उन्होंने प्रयागराज मे ही स्नान किया है और सभी लोग जमुना नदी पार होने लगे हैं। राजा ने हमें यहाँ पर समाचार लेने के लिए भेजा है। यह कहकर उन दूतों ने भूमि तक अपना मस्तक नवाया। मुनिवर वसिष्ठ ने तत्काल ही छ:-सात किरातों को उसके साथ भेजकर दूतों को बिदा किया। अवध समाज महाराजा जनक के आने के समाचार को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। (वे सोचते हैं कि या तो महाराजा जनक राम को वापस लिवा ले जायेंगे अथवा उन्हें राम के साथ चार-छः दिन और रहने को मिल जायेगा अन्यथा राम तो उनको आज ही विदा कर देते।) रघुनन्दन राम को संकोच हुआ और इन्द्र बड़े ही सोच में पड़ गया।

विशेष- 1. प्रस्तुत पद में जनक के गुण स्वभाव को बताया गया है।

  1. कीन्ह मातु मिस काल कुलाची। ईति भीति जस पाकत साली॥

केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥

बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।

धरम धुरीन भनुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥

सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू॥

गुरु पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥

नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।

बिधि हरिहरुससि रवि दिसि पाला। माया जीव करम कुलि काला॥

अहिम महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥

करि विचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥

दोहा- राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।

समझि सयाने करह अब सब मिलि संमत सोई॥254॥

सन्दर्भ- पूर्ववत्।

प्रसंग- कवि ने यहाँ परम ब्रह्म राम के स्वरूप को बताया है।

व्याख्या- सभासदों के बैठ जाने के बाद मुनिवर वशिष्ठ ने समय के अनुसार कहना प्रारम्भ किया कि हे सुजान भरत ! तथा सभासदो सुनो। श्री राम धर्म धुरंधर हैं या धर्म की धुरी को धारण किये हुए हैं। वे सूर्य कुल के सूर्य हैं या सम्पूर्ण सूर्य कुल उन्हीं के द्वारा प्रकाशित है। वे राजा हैं अर्थात् अपनी बात रखेंगे और किसी के कहने से कुछ न करेंगे। वे राम हैं अर्थात् वे सब में रमण करते हैं और सब इनमें रमण करते हैं कोई उनसे अलग नहीं है। वे स्ववश हैं अर्थात् वे अपने ही वश में हैं दूसरे के नहीं। वे भगवान हैं अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड इनका ऐश्वर्य है और इन्होंने सबका संभार किया हुआ है। वे सत्य संध हैं अर्थात् उन्हें कोई सत्य के मान से नहीं हटा सकता। वे वेद और शास्त्रों के पालक हैं अर्थात् वेद मर्यादा को स्वयं पालते हैं और अधर्मियों से उनकी रक्षा करते हैं। राम का जन्म ही संसार के मंगल या कल्याण कार्य के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। वे ‘दुष्टों के दल या राक्षसो के समूह को नष्ट करने वाले तथा देवताओं की भलाई करने वाले हैं।

राम के समान नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को यथार्थ रूप से कोई नहीं जानता आशय यह है कि ये धर्म नीति, राजनीति, प्रेम, परमार्थ, स्वार्थ सभी में परिपूर्ण हैं तब उन्हें नीति क्या सिखाई जाए। वे स्वयं सभी समझते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उन जैसा समझने वाला कोई नहीं है। अतः जो कुछ भी करेंगे वह ठीक ही करेंगे। उन्हें समझाने का कोई लाभ नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, चन्द्रमा, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव सभी कर्म और काल सर्पराज शेषनाग, पृथ्वी का पालन करने वाले राजा तथा जहाँ तक इनकी प्रभुता है, योग और उनकी सिद्धियाँ जिनका वेद शास्त्रों में विवेचन हुआ है। इन सबके विषय में अपने मन में खूब सोच-विचार कर देखों तो खूब जान पड़ेगा कि श्रीराम की आज्ञा को वे शिरोधार्य करते हैं और उसका पालन करते हैं। अतः राम की आज्ञा और इच्छा रखने में ही हम सबका भला होगा। (इन तात्विक बातों और रहस्य को समझकर) अब तुम चतुर लोग जो सबका सम्मत हो वही मिलकर करो।

विशेष- (i) इसमें परमब्रह्म राम के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। (ii) इसमें अनुप्रास तथा उल्लेख अलंकार दृष्टव्य हैं।

कवितावली

  1. बबुर बहेरे को बनाय बाग लाइयत,

रूधिबे को सोई सुरतरु काटियतु है।

गारी देत नीच हरिचंदहू दधीचिहू को,

आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है।

आप महापातकी हँसत हरिहरहू को,

आपु है अभागी, भूरिभागी डाँटियतु है।

कलि को कलुष, मन मलिन किए महत,

मसक की पाँसुरी पयोधि पाटियतु है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद रामोपाषक सगुणमार्गी कवि तुलसी विरचित ‘कवितावली’ नामक रचना से उद्धृत है।

व्याख्या- इस कलियुग में नीच लोग बबूल और बहेड़े के बागों को अच्छे प्रकार से लगाते हैं और उस बाग की रक्षा करने के लिए बारी लगाने के लिए कल्पवृक्ष को काटते हैं। (ऐसे निर्बुद्धि हैं) हरिश्चन्द्र और दधीचि के समान दानियों को गाली देते हैं, पर आप इतने कंजूस हैं कि चना चबाकर भी हाथ चाटते हैं (कि कहीं लगा तो नहीं है) आप बढ़े पापी हैं पर सम्पूर्ण पापों का नाश करने में समर्थ विष्णु और शिवजी की भी हंसी करने लगते हैं। आप तो भाग्यहीन हैं, पर बड़े-बड़े भाग्यवानों को भी ऐसी फटकार देते हैं मानों वे उनको कुछ समझते ही नहीं। कलियुग के पापों ने बड़े लोगों के मन को अति ही मलिन कर दिया, पर वे मच्छर की पसुलियों से समुद्र को पाटना चाहते हैं। अर्थात् बड़े पाप करने पर भी यह समझते हैं कि हम भवसागर पार हो जायेंगे।

  1. सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल तुम!

जाहि घालो चाहिए कहौं धौं राखै ताहि को?

हौं तौ दीन-दूबरो, बिगारो ढारो रावरो न,

मैं हूँ तैं हूँ ताहि को सकल जग जाहि को।

काम-कोह लाइकै देखाइयत आँखि मोहिं,

एते मान अकस कीबे को आपु आहि को?।

साहिब सुजान जिन स्वानहू को पच्छ कियो,

रामबोला नाम, हौं गुलाम-राम-साहि को।

व्याख्या- हे कराल कलिकाल ! तुम आज राजा हो, पर यह मेरी बात सुनो। जिसको तुम मारना चाहते हो उसे कौन बचा सकता है ? मैं तो दीन और निर्बल हूँ और मैंने आपका कुछ बिगाड़ा या गिराया नहीं। (अर्थात् मेरा-आपका कुछ सरोकार नहीं है। मैं भी और आप भी उसी ईश्वर के हैं, जिसका सारा संसार है, फिर मुझसे इतना विरोध करने वाले आप हैं कौन, जो काम और क्रोध को मेरे पीछे लगाकर मुझे डराते हैं। मेरे स्वामी सुजान रामचन्द्र जी है, जिन्होंने कुत्ते का भी पक्ष किया वा। मैं स्वामी रामचन्द्र जी का सेवक हूँ और मेरा नाम ‘रामबोला’ है।

  1. कुल, करतूति, भूति, कीरति, सुरूप, गुन,

जोबन जरत जुर, परै न कछू कही।

राजकाज कुपथ, कुसाज, भोग रोगही के,

बेद-बुध बिद्या पाइ बिबस बलकही।

व्याख्या- यौवन-रूपी ज्वर में वंश-मर्यादा, पुरूषों के अच्छे काम, ऐश्वर्य, सुयश, सुन्दर रूप और गुण सब जल रहे हैं। (अर्थात् युवावस्था पाकर लोग अविचार से ये सब नष्ट कर डालते हैं।) कुछ कहा नहीं जाता कि क्या होगा। (यौवनरूपी ज्वर में) राज्याधिकार कुपथ्य है, उसका बुरा सामान भोग करना रोग को बढ़ाना है (ज्वर में कुपथ्य हुआ और रोग बढ़ा, तब) वेदपाठी जन (विद्वान लोग) विद्या पाकर विवश होकर अंडबंड बकने लगते हैं। (तात्पर्य यह है कि जवानी, अधिकार और विद्या पाकर लोगों को कलिकाल में विद्रोही ही हो जाता है), (परन्तु) राम जी की महिमा कोई नहीं जानता, जो पर्वत को छार और छार को एक पल-मात्र में पर्वत बना देते हैं। अतः हे राम जी, मेरी रक्षा करो। मैं किससे क्रुद्ध होऊ और किसको दोष दूँ, कलियुग ने तो सारे संसार की दशा को अस्तव्यस्त कर डाला है।

गीतावली

  1. पौढ़िये लालन, पालने हौं झुलावौं।

कर, पद, मुख, चख कमल लसत लखि लोचन-भंवर भुलावौं।

बाल-विनोद-मोद-मंजुलमनि किलकनि खानि खुलावौं।

तेइ अनुराग ताग़ गुहिबे कहँ मति मृगनयिनि बुलावौं।

तुलसी. भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावौं।

चारु चरित रघुबर तेरे तेहि मिलि गाई चरन चितु लावौं॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत पद रामोपासक सगुण मार्गी कवि तुलसीदास विरचित ‘गीतावली’ नामक रचना से उद्भुत है। यह पद वात्सल्य रस का है। माँ कौशल्या बालक राम से अनुनय करती हैं, यह उस समय का वर्णन है जब वह राम को पालने में झुला रही हैं।

व्याख्या- हे पुत्र, तुम पालने में लेट जाओ और मैं झुलाऊं। कमल के समान तुम्हारे हाथ, पैर, मुंह और नेत्रों को देखकर मैं अपने नेत्ररूपी मौरों का आनन्द लेने दूं। तुम्हारी बाल-केलि के आनन्दमय मंजुल मणि के लिए तुम्हारी किलकारी रूपी खान खुलाऊंगी और उन्हें प्रेमरूपी डोरे में पिरोने के लिए बुद्धि रूपी मृग जैसे नेत्र वाली स्त्री को बुलाऊंगी। तुलसीदास जी का कथन है कि उस मनोहर माला को कविता रूपिणी कमनीय कामनी (सरस्वती) के कंठ में पहना कर मैं प्रफुल्लित होऊंगी। हे राघव श्रेष्ठ, मैं उस कविता कामिनी के साथ मिलकर तुम्हारे ही पवित्र चरित्र का गुण गाकर तुम्हारे चरणों में चित्त को लगाऊंगी।

विशेष- अलंकार- रूपक। भाषा -ब्रज। रस- वात्सल्य। स्थाई भाव- रति।

  1. बिहरत अवध बीथिन राम।

संग अनुज अनेक सिसु, नव-नील नीरद-स्याम।

तरुन अरुन-सरोज-पद बनी कनकमय पदत्रान।

पीत पट कटि तून बर, कर ललित लघु धनु बान।

लोचननि को लहत फल छबि निरखि पुर-नर-नारि।

बसत तुलसीदास उर अवधेस के सुत चारि।

सन्दर्भ- पूर्ववत्

व्याख्या- अवध (अयोध्या) की गलियों में राम विहार (भ्रमण, घूमना) कर रहे हैं उनके साथ उनके भाई तथा और बहुत से बच्चे हैं अर्थात् नये नीले और श्यामल बादलों की भाँति राम अपने भाइयों तथा अन्य बच्चों के साथ अयोध्या की गलियों में वूम रहे हैं। सूर्यवंशी राम के कमल की भाँति कोमल पैरों में सोने की पनही विराजमान है। कमर में पीला वस्त्र तथा गले में सूनी वस्त्र और हाथ में छोटा सा धनुष बाण सुशोभित हा रहा है। नगरवासी उनकी इस शोभा को देखकर नेत्रों के फल को प्राप्त कर रहे हैं सुन्दरता को नेत्रों का फल कहा गया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि हृदय में दशरथ के चारों पुत्र निवास करें।

विशेष- राम की बाल शोभा का सुन्दर वर्णन है।

अलंकार – उपमा।

हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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