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उपेन्द्रनाथ अश्क की एकांकी कला की विशेषताएं | उपेन्द्र नाथ अश्क की एकांकी तौलिये | एकांकीकार के रूप में उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का संक्षिप्त परिचय

उपेन्द्रनाथ अश्क की एकांकी कला की विशेषताएं | उपेन्द्र नाथ अश्क की एकांकी तौलिये | एकांकीकार के रूप में उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का संक्षिप्त परिचय

उपेन्द्रनाथ अश्क की एकांकी कला की विशेषताएं

हिन्दी एकांकी और उपेन्द्रनाथ अश्क’-

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं, किन्तु कहानी और नाटक दो विधाओं के क्षेत्र में वे अधिक सफल और चर्चित हैं। हिन्दी एकांकी के विकास में अश्क जी ने ऐतिहासिक योगदान दिया है। अश्क जी सन् 1937-38 ई. से ही एकांकी-लेखन में रत रहे। इनके प्रकाशित एकांकी संग्रह हैं- ‘देवताओं की छाया में’, ‘तूफान से पहले’, ‘चरवाहे’, ‘पक्का गाना’, ‘पर्दा उठाओ-पर्दा गिराओ’, ‘साहब को जुकाम है’ आदि।

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ ने बड़ी संख्या में एकांकियों की रचना की है। इनके रचना कार्य को तीन प्रस्थान बिन्दुओं में बाँटा जा सकता है। सन् 1935 ई. से 39 ई. तक के उनके एकांकी सामाजिक व्यंग्यप्रधान हैं। इस काल के एकांकियों में, ‘लक्ष्मी का स्वागत’ (1938 ई.), ‘क्रासवर्ड पहेली’ (1939 ई.), ‘आपस का समझौता’ (1939 ई.), ‘स्वर्ग की झलक’ (1939 ई.), ‘विवाह के दिन’ (1939 ई.) और ‘पापी’ (1941 ई.) प्रमुख हैं। सन् 1940 ई. से 1943 ई. तक के उनके एकांकी प्रतीकात्मक और सांकेतिक हैं। इस काल में उल्लेखनीय एकांकी हैं- ‘चरवाहे’ (1942 ई.), ‘चिलमन’ (1942 ई.), ‘खिड़की (1942 ई.), ‘चुम्बक, मेमना और व्यंग्य’ (1942 ई.), ‘देवताओं की छाया में’ (1940 ई.), ‘छठा बेटा’, ‘चमत्कार’ (1943 ई.) और ‘खूनी डाली’ (1943 ई.) आदि। सन् 1944 ई. से उनके जीवनपर्यन्त तक के एकांकियों को मनोवैज्ञानिक और प्रहसन-एकांकी की श्रेणी में गिना जायेगा। इस काल के एकांकियों में ‘अंजो दीदी और भंवर’ (1944 ई.), ‘आदि- मार्ग’ (1947 ई.), ‘पर्दा उठाओ-पर्दा गिराओ’ (1951 ई.), ‘अन्धी गली’ (1953 ई.), ‘स्याना मालिक और बतसिया (1942 ई.), ‘मस्केबाजी का स्वर्ग'(1952 ई.), और ‘जीवन साथी (1952 ई.) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

अश्क जी की एकांकी कला-

एकांकी के क्षेत्र में यथार्थवादी परम्परा का सूत्रपात करने वालों में अश्क जी का नाम प्रमुख है। अश्कजी जीवन की विसंगतियों और युगीन विडम्बनाओं को लेकर गम्भीर और प्रभावशाली एकांकी लिखने वाले समर्थ नाटककार हैं। उन्होंने साधारण घटनाओं और भावनाओं को अपने एकांकियों का विषय बनाया है और उनमें बड़ी गम्भीर बातें कह दी हैं।  अश्क जी के एकांकी सामाजिक और पारिवारिक विद्रूपताओं के व्यंग्य चित्र है। हास्य, व्यंग्य प्रधान एकांकियों में भी विभिन्न सामाजिक कुरीतियों और पाखण्डों को ही व्यंग्य का विषय बनाया गया है।

यथार्थवादी दृष्टि अश्क जी के लेखन की प्रमुख विशेषता है । अश्क जी के एकांकियों का कथानक यथार्थ, चरित्र यथार्थ और वातावरण यथार्थ होता है।

प्रहसन एकांकियों में भी अश्कजी ने दैनिक जीवन से ही सामग्री ली है और उसमें अत्यन्त हास्यपूर्ण वातावरण उपस्थित किया है। उनके प्रहसन हल्की फब्तियों से भरे हुए हैं। उदशंकर भट्ट ने अश्क में एकाकियों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा है- “अश्क की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके नाटक बिल्कुल जीवन के धरातल से उभरते हैं। हास्य व्यंग्य की तीक्ष्ण धारा उनके पात्रों द्वारा स्थल-स्थल पर प्रस्तुत होती रहती है। अश्क रोजमर्रा के जीवन से अपने नाटकों के पात्र चुनते हैं और उन्हीं में से कथा का चुनाव करते हैं इसलिए वह सामाजिक परिवार सीमित होते हुए कभी बगीचे में लगी हुई कांटों की बाड़ और फूल के पौधों की तरह अलग-अलग जीवन संघर्ष को उभारते हैं और पढ़ने या नाटक देखने पर लगता है मानो नाटककार ने उन्हीं के दैनिक जीवन की खुरदरी कड़वाहट में सभी विनोदपूर्ण बातों को सामने लाकर रख दिया है। वह एक साधारण से घरेलू नाटक के अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित करने में कुशल है।” स्पष्ट है कि अश्क जी का सामाजिक दृष्टिकोण है। वे समाज और मानव जीवन के आलोचक लेखक हैं। डॉ. रामचरण महेन्द्र के शब्दों में “घरों, परिवारों, मनुष्यों के मनों तथा समाज के अन्तराल में दो विरूपताएं प्रकट हो गयी है, जिनसे समाज पतन के मार्ग पर जा रहा है, आगे नहीं बढ़ पा रहा है, अश्क उन्हें उभारकर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं। वे न तो कोई समस्या देना चाहते हैं, न उपदेशक बनकर कोई आदर्श ही उपस्थित करते हैं। वे तो समाज की आलोचना कर रहे हैं, समाज तथा मनुष्य की अन्तर्वृत्तियों के भीतरी पतों को उधेड़ रहे हैं। उनमें समाज के प्रति एक तीखा व्यंग्य और हल्की सी नैराश्यमयी वेदना छुपी है।”

अश्क जी की टेकनीक में पाश्चात्य और भारतीय दृष्टियों का समन्वय है। पाश्चात्य टेकनीक में भारतीय समाज का यथार्थवादी प्रस्तुतीकरण ही उनकी एकांकी कला की विशेषता है। शिल्प की दृष्टि से उन्होंने नवीन प्रयोग किये हैं, किन्तु उनकी नवीनता, यथार्थ से दूर नहीं है। अश्क जी ने समाज के जीते-जागते, वास्तविक चरित्र उपस्थित किये हैं। पात्रों के चरित्रांकन में वे मनोवैज्ञानिक हो जाते हैं।

डॉ0 रामचरण महेन्द्र ने लिखा है- “आपका प्रत्येक एकांकी किसी मूल सामाजिक समस्या को लेकर जीवन या समाज की किसी गूढ़ गुत्थी की ओर संकेत करता है या ममोवानिक विश्लेषण में पूर्ण होकर हृदय के अन्तःस्थल को स्पर्श करता है। पात्रों का चरित्र-चित्रण जिस मनावैज्ञानिक शैली से किया जात है वह अश्क जी की निजी है।”

एकांकियों के लिए अश्क जी की भाषा उपयुक्त है। उन्होंने छोटे-छोटे, सरल और चुस्त संवादों से कथानक का विकास किया है। अश्क जी उर्दू-क्षेत्र से हिन्दी में आये हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से उसका प्रभाव इनकी भाशा के प्रवाह पर पड़ा है। अश्क जी को रंगमंच का गहरा अनुभव है। मोहन राकेश के शब्दों में कहें तो, “अश्क उन नाटककारों में है, जो नाटक लिखते ही नहीं, नाटकीय ढंग से जीते भी हैं। ……… अश्क स्वयं एक सफल अभिनेता रहे हैं, इसलिए इनके व्यक्तिगत अनुभव ने इनके एकांकियों में वह गति ला दी है, जो बिना ऐसे अनुभव के नहीं आ पाती।” जगदीशचन्द्र माथुर ने भी कुछ इसी दंग की बात अश्क के सम्बन्ध में कहीं है। वे कहते हैं- “अश्क जी को नाटककार का लिबास पहनने की आवश्यकता नहीं, उनकी स्वाभाविक सूझ और अभिव्यक्ति नाटकीय गति से पगी है।” अश्क जी के एकांकी सुपाठ्य भी है और अभिनेय थी। रूपकों में उपयुक्त और रंग-निर्देशपूर्ण संवादों की योजना की गयी है। उनके रूपकों में अभिनयेता का गुण पूर्णतया विद्यमान है। विष्णु प्रभाकर ने लिखा है- “आपके एकांकी मौलिक, सोद्देश्य तथा कलापूर्ण हैं। सुपाठ्य होने के साथ वे अभिनेय भी हैं। रंगमंच, सिनेमा और रेडियो-तीनों विधानों पर एक सा अधिकार है। आपकी कला पर साधना और अनुभूति की गहरी छाप है। सजीवता और सहानुभूति आपकी कला के गुण है।”

संक्षेप में कहें तो उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ अपने समय के प्रमुख यथार्थवादी एकांकीकार हैं। उन्होंने  सामाजिक, प्रतीकात्मक और मनोवैज्ञानिक तीन तरह के एकांकियों की रचना की है, किन्तु उनके अधिकांश एकांकी सामाजिक व्यंग्यप्रधान हैं। उनके पात्र, सामान्य जीवन जीने वाले हमारे आस- पास के ही पात्र हैं- व न सिनिक हैं न एसई, न न्यूरोटिक हैं और न असाधारण। अश्क जी ने गिरती हुई सामन्तशाही के भग्नावशेषों और जर्जरित भारतीय समाज के अनेक चित्र अपने एकांकियों में खींचे हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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