बेन्थम का राजदर्शन | राज्य के विधिक सुधारों कर के विचारों का वर्णन
बेन्थम का राजदर्शन | राज्य के विधिक सुधारों कर के विचारों का वर्णन
बेन्थम का राजदर्शन
(1) राज्य की उत्पत्ति-
बेथम पहले राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते (Social . Contract) का परिणाम समझी जाती थी। रूसो आदि ने इस सिद्धांत का प्रबल समर्थन किया था। किन्तु बेन्थन ने इसका उग्र विरोध किया। वह यह नहीं मानता था कि राज्य का जन्म, इसके तथा नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्य के किसी समझौते से उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों द्वारा राज्य के आदेशों और कानूनों का पालन करने का कारण कोई पुराना समझौता नहीं, किन्तु वर्तमान काल में प्राप्त होने वाला लाभ और उपयोगिता है। ब्लैकस्टोन ने कहा था कि मनुष्य एक आदिम सामाजिक समझौते के कारण राज्य के प्रति अपने दायित्वों और कर्त्तव्यों को पूरा करते हैं। बेन्थम के मतानुसार ऐसा कोई समझौता कभी नहीं हुआ था। यदि ऐसा कोई समझौता हुआ होता तो वह वर्तमान पीढ़ी को उससे नहीं बाँध सकता था। राज्य के आदेशों का पालन केवल इसलिए होता है कि ये उपयोगी हैं और सामान्य हित तथा सुख को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार बेन्थम उपयोगिता को राज्य का आधार मानता है और सामाजिक समझौते के सिद्धान्त का खंडन करता है।
(2) स्वतन्त्रता-
बेन्थम के अनुसार व्यक्ति को स्वतन्त्रता की नहीं वरन् सुरक्षा की आवश्यकता होती है। बेन्थम स्वतन्त्रता को मौलिक अधिकार मानने को तैयार नहीं है। राज्य का उद्देश्य नागरिकों को स्वतन्त्रता प्रदान करना न होकर सुख उपलब्ध कराना है। बेन्थम प्राकृतिक स्वतन्त्रता तथा नागरिक स्वतन्त्रता में अन्तर स्पष्ट करता है। उसके अनुसार प्राकृतिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति वह सब कुछ कर सके जो कि वह करना चाहता है। ऐसी स्वतन्त्रता किसी राजनैतिक समुदाय में सम्भव नहीं है। नागरिक स्वतंत्रता व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार सब कुछ करने की छूट देती है। बशर्ते कि उसके इन कार्यों से अन्य व्यक्तियों की इसी प्रकार की स्वतंत्रता में कोई बाधा उत्पन्न न हो। राज्य का लक्ष्य अधिकतम सुख उपलब्ध कराना है न कि अधिकतम स्वतन्त्रता । बेन्थम राज्य को एक संस्था मानता है। उसके अनुसार मनुष्य का प्रत्येक कार्य सुख प्राप्ति की भावना से प्रेरित होता है और प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपने सुख का उचित निर्णायक हो सकता है।
(3) शासन पद्धति-
शासन के विषय में प्रमुख सिद्धांत यह होना चाहिये कि वह अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख प्रदान कर सके। इसका लक्ष्य सुख को बढ़ावा होना चाहिये न कि दुःख को; अतः शासन का संगठन इस दृष्टि से किया जाना चाहिये कि वह इस उद्देश्य की पूर्ति कर सके। बेन्थम के शब्दों में, “सब व्यक्ति इस बात में सहमत हैं कि शासन सत्ता उन व्यक्तियों को दी जानी चाहिये, जिनमें बुद्धिमत्ता, भलाई और शक्ति के तीन महान् गुण विद्यमान हो । उनमें इतनी बुद्धि हो कि वे समुदाय के वास्तविक हितों को समझ सकें, उनमें इतनी भलाई हो कि वे वास्तविक हितों की प्राप्ति के लिये सदैव प्रयत्न करते रहें और उनमें इतनी शक्ति हो कि वे अपने ज्ञान को क्रियात्मक रूप में परिणित कर सकें । लोकतंत्र में भलाई का गुण अधिक होता है कुलीनतंत्र में बुद्धि के गुण भी तथा राजतंत्र में शक्ति के गुण की प्रधानता होती है। किन्तु इन तीनों में लोकतंत्र या गणतंत्र की व्यवस्था श्रेष्ठ है क्योंकि यह अन्य शासकों की अपेक्षा अधिकतम संख्या के अधिकतम हित को अधिक अच्छी तरह से पूरा करती है। राजतंत्र और कुलीनतंत्र इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकते । अत: बेन्थम गणराज्य की स्थापना करके इस बुरी दुनिया को अच्छा बनाना चाहता था।
(4) ब्रिटिश शासन-पद्धति में सुधार-
तत्कालीन ब्रिटिश शासन-पद्धति को वह पूर्ण नही मानता था और उसमें कई सुधार करना चाहता था। पहला सुधार सार्वभौम पुरुष मताधिकार (Universal manhood suffrage) का था। उस समय कामन्स सभा के सदस्य चुनने का अधिकार बहुत ही कम व्यक्तियों को था तथा यह भ्रष्टाचार का प्रधान स्रोश था । बेन्थम प्रत्येक निरक्षर बालिग पुरुष को मत देने का अधिकार देने के पक्ष में था। उसका विचार था कि अधिक से अधिक व्यक्तियों को मताधिकार देकर ही अधिकतम लोगों के हित को सुरक्षित बनाया जा सकता था।
उसका दूसरा सुधार कामन्स सभा के निष्पक्ष वार्षिक चुनाव कराने का था। वह यह मानता था कि यदि कामन्स सभा के प्रतिवर्ष चुनाव होंगे तो सदस्य अधिक क्रियाशील रहेंगे, उन्हें अपनी स्वार्थ-सिद्धि का अधिक अवसर नहीं मिल सकेगा। इसके अतिरिक्त निर्वाचकों को सदस्यों की योग्यता जानने का अधिक अवसर मिलेगा।
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उसका तीसरा सुधार गुप्त मतदान प्रणाली का था। उसका विचार था कि इससे चुनाव निष्पक्ष रीति से हो सकेंगे। मतदाताओं को डरा-धमकाकर अथवा खिला-पिलाकर उनसे वोट नहीं लिये जा सकेंगे। इससे भ्रष्टाचार भी कम होगा।
बेन्थम लार्ड सभा का उग्र विरोधी था। इसे वह विशिष्ट स्वार्थों का अड्डा और प्रगति का विरोधी मानता था। वह इंगलैण्ड में राजतन्त्र को भी समाप्त करना चाहता था क्योंकि उसके विचार में गणतन्त्रीय शासन-प्रणाली में शासक एवं शासितों के हितों में एकरूपता रहती है और इससे अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख मिलता है; अतः उसने राजतंत्र के स्थान पर गणतंत्र का समर्थन किया।
(5) संप्रभुता-
बेन्थम का कहना था कि संप्रभुता की शक्ति उन्नत नहीं है लेकिन वह अनिश्चित अवश्य रहनी चाहिये। संप्रभुता की सीमा लोकमत है। यदि लोकमत किसी विधेयक का विरोध करता है तो संप्रभु शक्ति को उसे विधि का रूप नहीं देना चाहिये । बेन्थम का कहना था कि व्यक्ति के अधिकारों को निश्चित करने वाली केवल एक ही शक्ति है और वह है संप्रभुता । हम किसी भी राज्य की संप्रभुता को इस बात के लिये विवश नहीं कर सकते कि वह व्यक्ति के अधिकारों को माने ही। नागरिक का यह वैधानिक कर्त्तव्य है कि वह संप्रभु शक्ति की आज्ञाओं का पालन करे। संप्रभुता राज्य में सर्वोच्च शक्ति है और यह प्रत्येक विषय पर कानून बना सकती है।
(6) सरकार का स्वरूप-
बेन्थम राज्य के लक्ष्य में ही विशेष रुचि रखता है सरकार के स्वरूप में नहीं। उसके अनुसार प्रत्येक राज्य जो अपनी आज्ञाओं का पालन कराने की क्षमता रखता है वही पर्याप्त है। राजतन्त्र हो या लोकतन्त्र दोनों अपना कार्य कर सकते हैं। वह कुलीनतन्त्र को राजतंत्र की तुलना में हानिकारक मानता है। वह लोकतन्त्र को श्रेष्ठ शासन- प्रणाली स्वीकार करता है।
(7) प्राकृतिक अधिकारों का खण्डन-
बेन्थम के समय में थामस पेन तथा गाडविन जैसे विचारकों ने मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों पर बहुत बल दिया था। यह कहा जाता था कि मनुष्य को स्वतन्त्रता और समानता के अधिकार प्रकृति के नियमों से मिले हुये हैं। बेन्थम प्रकृति को एक अस्पष्ट शब्द मानता था। इसीलिये वह प्राकृतिक कानून और प्राकृतिक अधिकारों को बिल्कुल निरर्थक समझता था। उसकी दृष्टि में कानून सर्वोच्च सत्ता रखने वाली इच्छा होती है। यह इच्छा भगवान या मनुष्य में ही सम्भव है। प्रकृति में ऐसी कोई इच्छा नहीं होती, अत: प्राकृतिक कानून या प्राकृतिक अधिकार नाम की कोई वस्तु नहीं है। उसने समानता और स्वतन्त्रता के अधिकारों का उपहास करते हुये लिखा था-“पूर्ण स्वतन्त्रता पूर्ण रूप से असम्भव है। क्या सब मनुष्य स्वतन्त्र रूप में उत्पन्न होते हैं। क्या वे स्वतन्त्र रहते हैं। एक भी आदमी ऐसा नहीं है। इसके विपरीत सब मनुष्य पराधीन पैदा होते हैं।” अधिकार प्राकृतिक नहीं है, किन्तु उपयोगिता पर आधारित कानून से बनाये जाते हैं।
(8) आर्थिक विचार-
बैन्थम अपने आर्थिक विचारों में कुछ अर्थों में एडम स्मिथ का अनुयायी था। उसके अनुसार सरकार को आर्थिक विषयों में यथासंभव कम से कम हस्तक्षेप करना चाहिये। किन्तु सूद या ब्याज के सम्बन्ध में यह एडम स्मिथ से सहमत नहीं था। उसके मतानुसार राज्य को सूदखोरी के विरुद्ध कानून नहीं बनाना चाहिए। उसने 1787 में प्रकाशि “सूदखोरी का समर्थन” (Defence of usuary) नामक पुस्तक में इस मत का प्रतिपादन किया था। वह व्यापार की सब बाधाओं और प्रतिबन्धों को हटाकर स्वतन्त्र अथवा मुक्त व्यापार) की नीति अपनाने का प्रबल समर्थक था। उसके मत में प्रतिबन्ध रहित प्रतियोगिता समाज के लिए हितकर थी तथा सरकारी सहायता देने की प्रणाली का वह विरोधी था।
(9) साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद-
उसे साम्राज्यवाद का विचार तनिक भी पसन्द नहीं था। इस कारण वह व्यापार की दृष्टि से उपनिवेशों को प्राप्त करना ठीक नहीं मानता था। इन कार्यों में लगाया जाने वाला धन अन्य कार्यों में अधिक उपयोगी रूप से व्यय किया जा सकता था। उसने 1793 ई० में “उपनिवेशों को मुक्त कीजिये” (Emancipate Your Colonies) मेंnअपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था। उपनिवेशों का. ब्रिटिश नियन्त्रण में रहना वह मानव जाति के लिए हितकर समझता था, किन्तु उसके मत के अनुसार इङ्गलैंड के लिए उपनिवेश सम्पत्ति का स्रोत नहीं बन सकते थे। 1828 में बेन्थम ने कनाडावासियों द्वारा पूर्ण पार्थक्य की माँग करने वाले एक आवेदन का प्रारूप तैयार किया था। उपयोगितावादियी में उपनिवेशों का परित्याग करने में तनिक भी झिझक नहीं थी, किन्तु अपने जीवन के संध्याकाल में बेन्थम साम्राज्य के भीतर उपनिवेशों को स्वायत्त शासन का अधिकार देने के विचार का समर्थन करने लगा था।
(10) व्यक्तिवाद-
बेन्थम अन्य व्यक्तिवादी (Individualist) विचारकों की भाँति राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता था। उपयोगिता की दृष्टि से राज्य के नियम मनुष्य की स्वतन्त्रता में बाधा पहुंचाते हैं, अत: वे नियम बुरे हैं किन्तु इन नियमों के बिना सभ्य जीवन बिताना असम्भव है; अत: राज्य की सत्ता मानना आवश्यक हो जाता है। किन्तु राज्य को नागरिकों की स्वतन्त्रता बनाये रखने के लिये कम सके कम नियम बनाने चाहिए। राज्य के नियम औषधि के समान होते हैं जिस प्रकार स्वस्थ मनुष्य औषधि का प्रयोग कम से कम करना चाहता है वैसे ही मनुष्य यह चाहता है कि राज्य के नियम कम से कम हो; अत: यह राज्य का कर्त्तव्य है कि वह कम से कम नियम बनाये और व्यक्ति को अधिकाधिक स्वतन्त्र वातावरण में छोड़े। उसके मत में समुदाय काल्पनिक संस्था है, यह इसकी रचना करने वाले व्यक्तियों का हित है। व्यक्ति के हित को समझे बिना समष्टि या) समुदाय की हित की कल्पना करना कोरी बकवास है। जो वस्तु व्यक्ति के हित और सुख को बढ़ाने में सहायक होती है वह समष्टि के हित में भी होती है। इसका यह भी कारण है कि मनुष्य स्वयं अपने सुख दुख को जानता है, समुदाय या राज्य इनका कभी इतना अच्छा ज्ञाता नहीं हो सकता। अतः राज्य को शान्ति स्थापना और सुरक्षा के लिए ही नियमों का निर्माण करना चाहिये, अन्य क्षेत्रों में ‘यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दे देनी चाहिये। राज्य को चिकित्सक की भाँति सोच समझ कर किन्हीं भीषण विकारों (चोरी, हिंसा, विदेशी आक्रमण) को रोकने के लिये ही नियम बनाने चाहिये। राज्य का हस्तक्षेप तभी आवश्यक और उचित जब वह वियक्तिक स्वतंत्रता की सुरक्षा में सहायक हो।
(11) कानून-
जीवन का एक प्रधान लक्ष्य तत्कालीन कानून की पद्धति में सुधार करना था। वह कानून को सर्वोच्च शासक की इच्छा की. अभिव्यक्ति मानता था औ प्रकृति के कानून की सत्ता को स्वीकार नहीं करता था। उसके मतानुसार कानून एवं न्याय का उद्देश्य राज्य में सुख की वृद्धि करना था। उस समय इंगलैण्ड के कानून में और न्याय की व्यवस्था में कई गम्भीर दोष थे, जिनको अविलम्ब दूर किया जाना आवश्यक था। कानून में अस्पष्टता दुर्बोधिताः अव्यवस्था, संदिग्धता, दुरुहता, दकियानूसीपन, जटिलता, अनावश्यक और अप्रचलित शब्दो के. प्रयोग आदि दोष पैदा हो गए थे। इसके लिए यह आवश्यक था कि कानून को सरल, सुबोध एवं सुगम शब्दों में अभिव्यक्त किया जाय। विभिन्न नियमों और कानूनों को एक कानून संहिता में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया जाय ताकि इन्हें किसी को समझने में कोई कठिनाई या संदेह न हो। बेन्थम कानूनों के संहिताकरण (Codification) का प्रबल समर्थक थाऔर उसने स्वयमेव अन्तर्राष्ट्रीय कानून, दीवानी, फौजदारी और संवैधानिक कानूनों की ऐसी संहितायें तैयार की थी। उसने विधि शास्त्र (Jurisprudence) को राजनीति से पृथक् करना आवश्यक बताया परन्तु इस कार्य को उसके शिष्य जॉन आस्टिन (John Austin) ने पूरा किया।
(12) न्याय-व्यवस्था-
इंगलैंड की तत्कालीन न्याय व्यवस्था में कई गम्भीर और भीष दोष थे। यह बड़ी व्यवसाध्य थी। न्याय प्राप्त करने में बहुत समय लगता था। यह अनिश्चित थी, न्याय का क्रय-विक्रय होता था। बेन्थम के शब्दों में, “इस देश में न्याय देचा जाता है और बडे मँहगे दामों पर बेचा जाता है। जो व्यक्ति व्यय नहीं कर सकता वह न्याय नहीं प्राप्त कर सकता।” दंड विधान बहुत कठोर था। 200 से अधिक अपराधों के लिये प्राणदंड की व्यवस्था थी। 1801 में 12 वर्ष के एक बालक को एक चम्मच चुराने के अपराध में प्राणदंड दिया गया था। बेन्थम ने उस समय के जजों और वकीलों की बड़ी कटु-आलोचना की है। उसके मत में उस समय के न्यायाधीशों में दुष्टता की कमी न थी। वकीलों के बारे में उसकी यह सम्मति थी कि वे आलसी, सत् असत् का विवेक करने में असमर्थ, अदूरदर्शी, जिद्दी, सार्वजनिक उपयोगिता के सिद्धान्त की परवाह न करने वाले, स्वार्थी तथा अधिकारियों के इशारों पर नाचने वाले होते हैं।” बेन्थम की उग्र आलोचनाओं के कारण 19वीं शदाब्दी में इंग्लैंड की कानून एवं न्याय के प्रशासन की व्यवस्था में अनेक क्रान्तिकारी सुधार और परिवर्तन हुए।
(13) दंड व्यवस्था-
वेन्यम के मतानुसार दंड-व्यवस्था का उद्देश्य समाज में अपराधों को रोकना है न कि अपराधी से बदला लेना। उसके विचार में दंड न तो बहुत कठोर होना चाहिये और न अत्यन्त हल्का । यह परिस्थितियों के अनुसार ही दिया जाना चाहिये। किन्तु इसके साथ अपराधी को ऐसा दंड दिया जाना चाहिये कि उससे भयभीत होकर अन्य लोग ऐसे अपराध न करें। दंड अपराध के अनुरूप और उसका समानुपाती होना चाहिये। दंड देते समय अपराधी के सुधार का भी ध्यान रखना चाहिये । दण्ड देते समय अपराधी के व्यवहार, उसके पहले जीवन, उसके उद्देश्य, उसके द्वारा हानि पहुँचाये जाने वाले व्यक्ति की तथा अपराध किये जाने की परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिये। दंड निश्चित और निष्पक्ष होना चाहिये । बेन्थम के ये सभी विचार शनैः शनै: सभी सभ्य देशों ने स्वीकार कर लिये हैं और इनके अनुसार दण्ड पद्धति में सुधार किए गए। उदाहरण के लिए बेन्थम के समय इंगलैंड में 200 से अधिक अपराधों के लिये प्राण दंड देने की व्यवस्था थी। बाद में यह केवल राजद्रोह तथा हत्या के दो अपराधों के लिए ही दिया जाने लगा।)
(14) जेलखानों में सुधार-
बेन्थम अपने मायके मेलखानों की शोचनीय दशा से बड़ा दुःखी था। उस समय बन्दियों के साथ पाशविक व्यवहार किया जाता था। उन्हें अंधेरी कोठरियों में ठूस कर रखा जाता था, रद्दी से रद्दी भोजन दिया जाता था, बाल अपराधी और बड़ी आयु के पक्के अपराधी एक साथ रखे जाते थे। इससे बच्चे कारावास से पक्के अपराधी बनकर निकलते थे। उस समय हावर्ड ने बन्टियों की दशा सुधारने का प्रयास आरम्भ किया, बेन्थम ने उसे पूरा सहयोग दिया और बन्दियो को सुधारने की अपनी व्यापक योजना बनाई। वह इसे दुष्ट अपराधियों को पीसकर ईमानदार व्यक्ति बनाने वाली चक्की समझता था। बेन्थन की इस योजना के अनुसार बन्दीगृह के भवन का निर्माण एक चक्र के रूप में किया जाता था। उसके मध्य में ऊँचे स्थान पर रहने वाले जेलर को सब कैदियों पर दृष्टि रखनी थी। इस स्थान से वह अपराधियों द्वारा अपने कमरों में किये जाने वाले कार्यों को देख सकता था। जेलों में कैदियों की दशा सुधारने के लिए प्रयास किया जाना चाहिये, और उन्हें यहाँ ऐसा काम सिखा देना चाहिये कि वे कारागार से मुक्त होने पर सम्मानित जीवन-यापन कर सके। उन्हें खाली समय में प्राथमिक शिक्षा, नैतिक और धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिये। बेन्थम एकान्त कक्ष में अपराधियों को बन्द करने का विरोधी था। “मन को खाली रखकर मन का सुधार नहीं हो सकता; इसे अच्छे विचारों से भरा जाना चाहिये।
बेन्थम की सर्व-दृध कारागार सुधार की योजना यद्यपि पार्लियामेंट ने स्वीकार कर ली किन्तु जार्ज तृतीय के विरोध के कारण यह सफल नहीं हो सकी। बेन्थम ने इस योजना पर 20 वर्ष तथा काफी पैसा लगाया था और उसे उसकी क्षति पूर्ति के लिये 23 हुजार पौंड भी मिले थे। यद्यपि इंगलैंड ने उसकी कारागार योजना को स्वीकार नहीं किया (किन्तु अन्य देशों ने इसका स्वागत किया संयुक्त राज्य अमेरिका में इलिनास राज्य में जोलियट का कारागृह बेन्थम की योजना के अनुसार बक और बेन्थम के विचारों के आधार पर सभी देशों में जेलों में सुधार किए गए। बेन्थम की पैनी दृष्टि इंगलैंड की सभी बुराइयों की ओर गई। यही कारण है कि उसके सुधारों की सूची बड़ी लम्बी है। वास्तव में जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें बेन्थम ने सुधारों की योजना प्रस्तुत न की हो।
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