तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत दृष्टिकोण

तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत दृष्टिकोण | तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत दृष्टिकोण की विशेषताएँ

तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत दृष्टिकोण | तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत दृष्टिकोण की विशेषताएँ | तुलनात्मक राजनीति से सम्बन्धित परम्परागत उपागम | परम्परागत तुलनात्मक राजनीति की आलोचना

तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत दृष्टिकोण

(Traditional Perspective of Comparative Politics)

तुलनात्मक राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण के समर्थक विद्वान भी यह स्वीकार करते हैं; कि तुलनात्मक राजनति का एक ‘गौरवपूर्ण अतीत’ है। वास्तव में यह तथ्य अपने आप में एक विशेष महत्व रखता है कि तुलनात्मक राजनीति का प्रारम्भ राजनीति के प्रारम्भ से ही है; क्योंकि प्राचीन युग में विभिन्न प्रशासनिक पद्धतियाँ प्रचलित थीं। अरस्तू के समय यूनान में प्रचलित विभिन्न प्रशासनिक पद्धति आगे चलकर अनेक राजनीतिक व्यवस्थाओं में विकसित हुई। ये पद्धतियाँ आज भी अनेक देशों में प्रशासन का मूलाधार बनी हुई हैं। अरस्तू ने इन सब प्रशासनिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर वर्गीकरण प्रस्तुत करके जो परम्परा प्रारम्भ की वह आज तुलनात्मक राजनीति की आधुनिकतम विचारधारा का आधार है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तुलनात्मक राजनीति की विचारधारा राजनीतिशास्त्र के जन्म से ही विद्यमान है और उसके विकास के साथ-साथ विकसित हुई है। इसी कारण तुलनात्मक राजनीति का अपना इतिहास पृथक् अस्तित्व में रहा।

तुलनात्मक राजनीति के मुख्य दो दृष्टिकोण निम्नलिखित प्रकार हैं:-

परम्परागत दृष्टिकोण (Traditional Approach)-

परम्परागत दृष्टिकोण तुलनात्मक राजनीति का प्राचीन विचारों के आधार पर अध्ययन करता है। मुख्य रूप से यह दृष्टिकोण केवल औपचारिक वर्णन ही करता है। राजनीतिक क्षेत्र के अनेक विषयों से इस दृष्टिकोण का कोई मतलब नहीं रहा। ये विषय गैर-राज्यीय विषय कह कर छोड़ दिए गए। अतः परम्परागत दृष्टिकोण अधूरा ज्ञान ही प्रस्तुत कर सका तथा इस पर एकांकी होने का दोष भी लगाया गया। इस आरोप को लगाने का कारण यह है कि औपचारिक राजनैतिक संस्थाओं पर राजनैतिक जीवन के अनेक ऐसे तत्व प्रभाव डालते हैं जो नाम से अराजनैतिक होते हुए भी बहुत प्रभावशाली होते हैं। अतः इन तत्वों के वर्णन के बिना कोई भी राजनैतिक व्याख्या अधूरी है। अतः तुलनात्मक राजनीति का परम्परागत दृष्टिकोण अनेक राजनैतिक व्यवस्थाओं तथा संस्थाओं के विषय में वास्तविक तुलनात्मक विश्लेषण पूर्णरूप से न कर सका। परन्तु परंपरागत-दृष्टिकोण द्वारा आधुनिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ।

परम्परागत दृष्टिकोण की विशेषताएँ-

परंपरागत  दृष्टिकोण की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित प्रकार हैं:-

(1) परम्परागत दृष्टिकोण को संकुचित दृष्टिकोण भी कहा गया है। क्योंकि इसने केवल पश्चिमी यूरोपीय संस्थाओं का ही व्यापक वर्णन किया है। तुलना भी उनमें से ही कुछ राजनैतिक संस्थाओं को चुनकर केवल गुण-दोषों की विवेचना की गई है। इस प्रकार परम्परागत दृष्टिकोण को संकुचित दृष्टिकोण कहा गया है।

(2) परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार समस्त विवरणों में वर्णनात्मक विधि प्रयुक्त की गई है। मुख्य रूप से अधिकांश ग्रन्थों में राजनैतिक ग्रन्थों का वर्णन किया गया है, तुलना तो केवल उन संस्थाओं के गुण दोषों के वर्णन तक ही सीमित रही। परन्तु ये ग्रन्थ तुलनात्मक राजनीति के विषय का परिचय प्राप्त करने के लिए बहुत उपयोगी हैं।

परन्तु परम्परागत दृष्टिकोण में राजनीतिक संस्थाओं की आधारभूत राजनीतिक प्रक्रियाओं, व्यवहार, हित, दबाव आदि के सम्बन्ध में बिल्कुल अध्ययन नहीं किया जाता। इसके अतिरिक्त इस दृष्टिकोण में कुछ देशों की ही राजनैतिक पद्धतियों का वर्णन मात्र किया गया है। इसलिए इसे “Europe Oriented Studies” भी कहा गया है। इसके साथ ही जिन पुस्तकों में वर्णनात्मक विधि का प्रयोग किया गया है, उनमें राजनैतिक संस्थाओं की तुलना बहुत कम की गई है। श्री आर० सी० मैक्रोडिस ने इस विषय में आलोचना करते हुए कहा है कि इन पुस्तकों की रचना में ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक ढंग से अपनाया गया है।

(3) परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार लिखित समस्त विवरणों में तुलनात्मक अध्ययन बहुत कम है। अधिकतर विवरण एक या अधिक देशों की राजनैतिक संस्थाओं के विषय में परिचयात्मक विवरणमात्र है। मात्र देश-विदेश के विवरण होने के कारण इसे ‘देश-विदेश अध्ययन’ कहा गया है। मैक्रोडिस ने इस विषय में कहा है-“यदि हम किसी भी परम्परागत उच्च स्तर के सन्दर्भ ग्रन्थ या पाठ्य-पुस्तक को उठाकर देखें तो उसमें अधिकांशतः उपरोक्त दृष्टिकोण में केवल देश-विदेश की पद्धतियों के विवरण मात्र प्रस्तुत किए गए हैं।”

(4) परम्परागत दृष्टिकोण में केवल उन्हीं विषयों का उल्लेख होता है जो किसी देश की राजनैतिक संस्थाओं का इतिहास केवल उसके संविधान तथा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दृष्टिगोचर होते हैं। इस दृष्टिकोण में आधुनिक राजनीति के विभिन्न पहलू नहीं होते। इसीलिए इस दृष्टिकोण में स्थैतिकी का गुण आ गया है।

(5) परम्परागत दृष्टिकोण सदा ही प्रजातन्त्र का प्रशंसक रहा है। क्योंकि उन सभी पश्चिमी देशों में, जिनकी राजनैतिक संस्थाओं का वर्णन यह दृष्टिकोण अध्ययन करता है, राजतंत्रीय व्यवस्था का अन्त करके प्रजातन्त्र की स्थापना की गई।

(6) परम्परागत दृष्टिकोण ने जो विवरण प्रस्तुत किया वह राजनैतिक क्षेत्र की वैधानिक संस्थाओं तक ही सीमित रहा। इस दृष्टिकोण से सदा ही अराजनैतिक विषय दूर रहे।

तुलनात्मक राजनीति से सम्बन्धित परम्परागत उपागम

(Traditional Approaches of Comparative Politics)

तुलनात्मक राजनीति से सम्बन्धित परम्परागत उपागमों में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के औपचारिक अध्ययन पर अधिक बल दिया गया। राजनैतिक अध्ययन में ऐतिहासिक तथा कानूनी पद्धतियों की प्रतिक्रियास्वरूप संरूपण पद्धति को अपनाया गया। कालान्तर में अनेक नए राज्यों के उत्थान के फलस्वरूप क्षेत्रीय अध्ययन लोकप्रिय हुआ। कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने किसी एक विशेष समस्या के आधार पर राजनैतिक संस्थाओं का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया।हेरी एक्सटाइन के अनुसार प्रमुख परम्परागत उपागम निम्नलिखित हैं-

(1) ऐतिहासिक उपागम (Historical approach),

(2) औपचारिक एवं कानूनी उपागम (Foram legal approach),

(3) संरूपण उपागम (Configurative approach),

(4) समस्यागत उपागम (Problem approach),

(5) क्षेत्रीय उपागम (Area approach),

(6) संस्थागत कार्यात्मक उपागम (Institutional functional approach)।

(1) ऐतिहासिक उपागम- शासन एवं राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन में ऐतिहासिक उपागम का विशेष महत्व है। ऐतिहासिक उपागम का प्रयोग करनेवाले विद्वानों में अरस्तू, मॉण्टेस्क्यू, हेगल, हेनरी मेन, जैक्स, मैकाइवर इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। इन विचारकों ने ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर कुछ राजनैतिक सिद्धान्तों को जन्म दिया। उदाहरणार्थ, हेगल का मत था कि “राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का अवतरण है।” तथा “इतिहास का विकास अन्तिम वास्तविकता की प्राप्ति की दिशा में हो रहा है।”

कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इतिहास की आर्थिक व्याख्या की। उसके अनुसार भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक व्यवस्था, धर्म, नैतिकता तथा राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन हो जाता है।

कालान्तर में ऐतिहासिक उपागम ने राजनैतिक विकासवादी उपागम का रूप धारण कर लिया। सर हेनरी मेन, एडवर्ड जैक्स तथा मैकाइवर इत्यादि विचारकों की रचनाओं में विकासवादी सिद्धान्तों की स्पष्ट झलक दृष्टिगोचर होती है। तुलनात्मक राजनीति के विकास में इन विकासवादी राजनैतिक सिद्धान्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वस्तुत: इन सिद्धान्तों ने तुलनात्मक अध्ययन को जीवित रखने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है।

शासन एवं राजनीति के अध्ययन में ऐतिहासिक उपागम का प्रयोग केवल एक सीमा तक ही किया जा सकता है। विभिन्न लेखकों द्वारा ऐतिहासिक घटनाओं की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ की जाती हैं; अत: विभिन्न लेखकों द्वारा दी गई जानकारी का लाभ उठाने के लिए निष्पक्ष विश्लेषण की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त भूतकाल की घटनाओं एवं अनुभवों को आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए । इतिहास की पुनरावृत्ति सदैव नहीं होती। अत: ऐतिहासिक पद्धति जितने प्रश्नों को हल करती है उससे कहीं अधिक नए प्रश्नों को जन्म भी दे देती है।

(2) औपचारिक एवं कानूनी उपागम- उन्नीसवीं शताब्दी को संविधानों का युग कहा जाता है। इस युग में बहुत से नए राज्यों ने अपने लिए स्वयं संविधान बनाए। अतः अधिकांश लेखकों ने राजनैतिक संस्थाओं को अपने अध्ययन का आधार बनाया। इसके अतिरिक्त लोक प्रशासन, शिक्षा, नौकरशाही इत्यादि विषयों पर भी विचार किया गया। औपचारिक तथा कानूनी उपागम को अपनानेवाले लेखकों में थिओडर बुल्से, वुडरो विल्सन, डायसी इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। आधुनिक शताब्दी में कार्टर, हर्ज, न्यूमैन इत्यादि लेखकों ने भी इस उपागम को अपनाया।

औपचारिक तथा कानूनी पद्धति की कई कारणों से आलोचना की जाती है। औपचारिक तथा कानूनी उपागम में औपचारिक संस्थाओं, कानूनों तथा संविधानों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक अथवा मनोवैज्ञानिक कारकों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता । प्रायः कानूनी सत्य राजनैतिक दृष्टि से असत्य सिद्ध होते हैं।

(3) संरूपण उपागम- ऐतिहासिक तथा कानूनी पद्धतियों की प्रतिक्रियास्वरूप संरूपण अध्ययन का विकास हुआ। इसमें प्रत्येक राज्य की राजनैतिक व्यवस्था को अद्वितीय मानकर उसका अलग से अध्ययन किया जाने लगा। यह एक अत्यधिक सरल उपागम है। इस अध्ययन के द्वारा बहुत से आँकड़े तथा अन्य आवश्यक सामग्री एकत्रित हो गई, जिनके आधार पर तुलनात्मक अध्ययन सम्भव हो सका। इस उपागम का प्रयोग करनेवाले लेखकों में न्यूमैन, फार्टर, हर्ज, रोशर तथा फिश्टे इत्यादि लेखकों का उल्लेख किया जा सकता है।

अन्य उपागमों की भाँति संरूपण-पद्धति की भी तीव्र आलोचना की गई। बहुत से विचारक इसे तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं मानते। उनके मतानुसार यह उपागम वर्णनात्मक, प्रादेशिक तथा गैर-तुलनात्मक है। संरूपण-उपागम में अनेक दोषों के होने पर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस उपागम ने तुलनात्मक राजनीति को ठोस आधार तथा पर्याप्त सामग्री प्रदान की है।

(4) समस्यागत उपागम- बहुत से लेखकों ने समस्यागत क्षेत्रों का अध्ययन करने के लिए परम्परागत उपागम को अपनाया। ‘प्रजातंत्र तथा आर्थिक नियोजन में सम्बन्ध’, ‘प्रशासकीय निकायों का विकास’, ‘द्विसदनी व्यवस्था का ह्रास’ इत्यादि इनके प्रमुख विषय थे। इस प्रकार के अध्ययन मुख्यतः औपचारिक संस्थाओं एवं संरचनाओं से सम्बन्धित थे। कुछ लेखकों ने औपचारिक संस्थाओं में सुधार के सुझाव भी दिए जैसा कि लॉर्ड्स सभा का पुनर्गठन, कार्यात्मक प्रतिनिधि सभाओं का विकास, आर्थिक संघ की स्थापना, कार्यपालिका को शक्ति का सौंपा जाना, व्यावसायिक समूहों को नीति-निर्माण में भाग लेने का अवसर प्रदान करना, नीति- निर्माण में संलग्न अंगों का एकीकरण तथा प्रजातांत्रिक प्रणालियों में प्रजातंत्र विरोधी दलों के विकास को रोकने के लिए उपाय ढूँढ़ना । समस्यागत उपागम का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इसने परम्परागत औपचारिक वर्गों को त्यागने में सहायता प्रदान की।

(5) क्षेत्रीय उपागम- तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन में क्षेत्रीय उपागम विशेष रूप से सहायक सिद्ध हो सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त अधिकांश लेखकों ने विकासशील देशों की राजनीति को अपने अध्ययन का विषय बनाया और इस प्रकार क्षेत्रीय उपागम अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। मेक्रीडीज के अनुसार, “कुछ देशों के ऐसे समूह को एक क्षेत्र माना जा सकता है जिनमें पर्याप्त सांस्कृतिक एकरूपता हो ताकि उनकी राजनैतिक संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।”

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के लिए क्षेत्रीय उपागम ही एकमात्र उपागम अथवा सर्वोत्तम उपागम नहीं है। केवल भौगोलिक सामीप्य के आधार पर राजनैतिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक एकरूपता सम्भव नहीं है। प्राय: क्षेत्रीय उपागम के द्वारा विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं का वर्णनात्मक विश्लेषण ही किया गया है अथवा किसी एक राज्य की विशेष समस्याओं पर ही विचार किया गया है।

अन्य उपागमों की भाँति क्षेत्रीय उपागम भी पूर्णत: दोषमुक्त नहीं है। भौगोलिक सामीप्य किसी भी प्रकार ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अथवा जातीय एकरूपता का परिचायक नहीं हो सकता। इस उपागम का प्रयोग केवल राज्यों के एक विशेष समूह के अध्ययन के लिए ही किया गया। अतः यह उपागम तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों को विकसित करने में सफल सिद्ध नहीं हो सका।

(6) संस्थागत-कार्यात्मक उपागम- संस्थागत कार्यात्मक उपागम में राजनैतिक संस्थाओं के संगठनात्मक एवं कार्यात्मक अंगों पर एक जैसा बल दिया जाता है। इसमें राज्य अथवा शासन को एक इकाई के रूप में नहीं देखा जाता अपितु समस्त राजनैतिक व्यवस्था को ही एक इकाई माना जाता है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्पादित कार्यों का तुलनात्मक अध्ययन विभिन्न संस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है। विभिन्न संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन केवल वर्णनात्मक होता है। संस्थागत कार्यात्मक उपागम के समर्थकों में हर्मन फाइनर, कार्ल फ्रीड्रिच, मॉरिस दुवर्जर, के० सी० ह्वीयरे इत्यादि लेखकों के नाम प्रमुख हैं।

तुलनात्मक राजनीति को आधुनिक रूप प्रदान करने में संस्थागत-कार्यात्मक उपागम ने विशेष योगदान दिया। किन्तु फिर भी इस उपागम में कुछ दोष हैं जो निम्नलिखित हैं-(1) इस उपागम में राजनीति के गतिशील कारकों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। इसमें केवल विभिन्न राजनैतिक व्यवस्थाओं के स्थायी सम्बन्धों पर विचार किया जाता है। (2) एक संस्था भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न कार्य सम्पादित कर सकती है। उदाहरणार्थ, राजनैतिक दल प्रत्येक देश में एक जैसा कार्य सम्पादित नहीं करते।

परम्परागत तुलनात्मक राजनीति की आलोचना

(Criticism of Traditional Comparative Politics)

मेक्रीडीज ने परम्परागत तुलनात्मक उपागम की प्रमुख कमियों की ओर संकेत किया है उन्होंने इसकी आलोचना निम्नलिखित प्रकार से की है:-

(1) राजनीति का परम्रागत अध्ययन पश्चिमी देशों से सम्बन्धित था । पश्चिमी देशों की संस्कृति के अन्तर्गत केवल प्रतिनिध्यात्मक प्रजातांत्रिक प्रणालियों का ही समावेश किया गया। इस अध्ययन में प्रजातांत्रिक प्रतिमानों से भिन्न प्रणालियों की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। अत: अनेक अविकसित देशों तथा भिन्न संस्कृतियों से युक्त समाजों, जैसे भारत, जापान इत्यादि का क्रमबद्ध अध्ययन नहीं किया गया। केवल कुछ शासन-प्रणालियों पर आधारित होने के कारण परम्परागत अध्ययन को तुलनात्मक अध्ययन नहीं कहा जा सकता।

(2) राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन अत्यधिक औपचारिक था। उसमें शासन की औपचारिक संस्थाओं की ओर ध्यान दिया गया, किन्तु अन्य गैर-राजनैतिक कारकों की उपेक्षा की गई। सभी तुलनाएँ संसद्, प्रशासन, कानून, नागरिक सेवा इत्यादि जैसे औपचारिक शब्दों में की गई जो कि वास्तविक तुलनात्मक अध्ययन लिए उपयोगी धारणाएँ नहीं हैं।

(3) परम्परागत उपागम वर्णनात्मक अधिक था और विश्लेषणात्मक कम। इसमें राजनैतिक व्यवहार की एकरूपताओं तथा सा गन्य सिद्धान्तों को खोजने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसी प्रकार आनुपातिक प्रतिनिधित्व, आपातकालीन व्यवस्थापन इत्यादि कुछ विषयों को छोड़कर अधिकांश परिकल्पनाओं के सत्यापन की ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया।

(4) परम्परागत उपागमों के आधार पर किया गया अध्ययन क्रमबद्ध अथवा वैज्ञानिक नहीं था। इसमें राजनैतिक संस्थाओं तथा अन्य कारकों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। फलस्वरूप, क्रांति, स्थायित्व अथवा परिवर्तन से सम्बन्धित समस्याओं का समुचित अध्ययन नहीं किया जा सका और न ही परिकल्पनाओं का निर्धारण किया जा सका।

(5) यद्यपि परम्परागत उपागम का अभिमुख नीतियों की ओर था, तथापि इसमें अनेक दोष थे। इसमें तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए सुझाव नहीं दिए गए। यहाँ तक कि विभिन्न समस्याओं का समुचित अध्ययन भी नहीं किया गया।

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