भारत एक भौगोलिक स्वरूप का विभाजन

भारत एक भौगोलिक स्वरूप का विभाजन | भारत की भौगोलिक स्थिति, स्वरूप, विस्तार

भारत एक भौगोलिक स्वरूप का विभाजन | भारत की भौगोलिक स्थिति, स्वरूप, विस्तार

भारत की भौगोलिक स्थिति ने उसके प्राचीन इतिहास पर किस सीमा तक प्रभाव डाला है?

भारत स्पष्ट विचार, मन की चमक वाला देश है। इन्द्र, सूर्य, चन्द्र वरुण- भौगोलिक प्रकरण हैं परन्तु भारत के मन, कल्पना, दर्शन एवं विचार में वे देवता हैं। मन, कल्पना दर्शन एवं विचार ही वे पृष्ठभूमि हैं जिसमें भारतीय इतिहास अबाध गति से सृजित होता आ रहा है। अतः भौगोलिक पृष्ठभूमि का इतिहास पर केवल गहरा ही नहीं अपितु अमिट प्रभाव पड़ता है। प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान बर्कले ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है ‘मानव के कार्यकलापों पर जितनी गहरी छाप उस देश की भौगोलिक दशा की पड़ती है उतनी गहरी छाप स्वयं उसके अपने चिन्तन एवं विचारों की भी नहीं पड़ती।”

मानव का प्रत्येक कार्यकलाप उसके चारों ओर छाये हुए वातावरण से प्रभावित रहता है। यदि सभी देशों की भौगोलिक दशा एक-सी रही होती तो निःसन्देह विश्व के सभी देशों का इतिहास भी लगभग समान रहा होता। परन्तु विश्व का भौगोलिक वातावरण भिन्नता से भरा पड़ा है। कहीं पर अधिक उद्यम करने पर फल प्राप्त होता है तो कहीं पर प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता के कारण जीवन अधिक सरल है। जलवायु, प्राकृतिक साधनों एवं स्थिति के आधार पर ही मानव केखान-पान, वेश-भूषा, चरित्र एवं चिन्तन का निर्धारण एवं विकास होता है। रिचार्ड हकलुइत (Richard Hakluyt) ने ठीक ही लिखा है कि “भूगोल तथा तिथिक्रम इतिहास-चन्द्र-सूरय जैसे, या दाहिनी बायीं आँखें जैसे हैं।” यदि इतिहास-मानव चरित्र, कार्यकलापों एवं उपलब्धियों की गाथा है तो ये मानवचरित्र, कार्यकलाप एवं उपलब्धि भौगोलिक पृष्ठभूमि का परिणाम हैं। उपरोक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि “भौगोलिक वातावरण के मंच पर ही मानव इतिहास रूपी नाटक अभिनीत होता है।”

भारत की भौगोलिक स्थिति, स्वरूप, विस्तार

भारत उत्तरी गोलार्द्ध के दक्षिण एशिया में 8 और 37° अक्षांश तथा पूर्वी देशान्तर के 68° एवं 97° के मध्य स्थित है। कर्क रेखा भारत के मध्य में से होकर जाती है तथा इस प्रकार यह भारत को दो भागों में विभाजित करती है। दक्षिणी भाग ऊष्ण-कटिबन्ध तथा उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबन्ध में स्थित होने के कारण दक्षिणी भारत की जलवायु अपेक्षाकृत गर्म है तथा उत्तरी भारत की जलवायु ग्रीष्म तथा शीत प्रधान है। भौगोलिक स्वरूप में भारतवर्ष त्रिकोण के आकार का प्रायद्वीप है। विश्व के मानचित्र में यह मध्य में स्थित है। कुछ विद्वान् इसे ‘विश्व हृदय’ के नाम से पुकारते हैं। प्राचीन समय में यह पूर्व से पश्चिम की ओर 2500 मील तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 2000 मील तक फैला हुआ था। भारत की स्थल सीमा 6000 मील लम्बी तथा जलसीमा 5000 मील लम्बी थी। इसका क्षेत्रफल बीस लाख वर्ग मील था। स्वतन्त्रता प्राप्ति (1947) के पश्चात् इसका एक तिहाई भाग कम हो गया। वर्तमान भारत उत्तर से दक्षिण तक 3,220 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम की ओर 2,977 किलोमीटर तक विस्तृत है तथा इसकी स्थल सीमा 9,425 मील तथाजल सीमा 3,535 मील है। भारतीय गणतन्त्र का कुल क्षेत्रफल 12,61,597 वर्ग मील है।

भारत के उत्तर में गगनचुम्बी हिमालय पर्वत की श्रृंखलाएँ इसे अन्य एशियाई देशों से पृथक् करती हैं। इन सीमाओं के उस पार चीन, नेपाल, सिक्किम तथा भूटान अवस्थित हैं। इन पर्वत श्रेणियों के बीच कई प्रसिद्ध दर्रे हैं जिनमें बोलन, खैबर तथा गैमल विशेष महत्त्व रखते हैं। हिमालय की पूर्वी पर्वत मालायें भारत को हिन्दचीन(Indo-China), स्याम, मलाया तथा बर्मा आदि देशों से पृथक् करती हैं। अफगानिस्तान तथा फारस हिमालय की पश्चिमी श्रृंखलाओं द्वारा पृथक् हैं। पूर्व में बंगलादेश हैं जिसके सात पश्चिमी बंगाल, आसाम तथा त्रिपुरा की सीमाएँ छूती हैं। दक्षिण दिशा में भारत तीन ओर से हिन्दमहासागर द्वारा घिरा हुआnहै।

भारत एक भौगोलिक स्वरूप का विभाजन

प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक सामग्री में भारत के भौगोलिक स्वरूप का निम्नलिखित भागों में उल्लेख किया गया है-

1. उत्तरापथ, 2. मध्य देश, 3. प्रातीच्य, 4. दक्षिणापथ एवं 5. प्राच्य अथवा पूर्व देश। उक्त विभाजन के आधार पर इन विभिन्न प्रदेशों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है।

(1) उत्तरापथ अथवा उत्तरी पर्वतीय प्रदेश

भारत की उत्तरी सीमा पर हिमालय पर्वत की ऊंची श्रेणियाँ तथा दूर-दूर तक विस्तृत श्रृङ्खलाएँ हैं। इसकी लम्बाई लगभग 1500 मील तथा चौड़ाई 150 से लेकर 200 मील की दीवार के रूप में हैं। इस उत्तरी दीवार के उस पार तिब्बत की ओर तीन महानदियों-यथा सिन्धु, सतलज एवं ब्रह्मपुत्र का उद्गम । दक्षिणी भाग की ओर भारतीय क्षेत्र में गंगा तथा उसकी अन्य सहायक नदियों का उद्गम स्थल है। हिमालय की अर्गला के पूर्वी कोने परकई पर्वत श्रृङ्खलाएँ हैं जिनमें नाग, लुशाई तथा पटकोई पहाड़ियाँ हैं जो चीन से भारत आने के मार्ग को दुर्गम, जटिल एवं असंभव बनाती हैं। हिमालय के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में पहाड़ों का एक कोना- सा बनता है। यहीं पर कुराकुर्रम पर्वत है जिसकी चोटी विश्व की उच्चतम चोटियों में दूसरे स्थान पर है। इसी के निकट हिन्दूकुश है। लेह, गिलगित तथा चित्राल के प्रदेश इन दोनों के मध्य स्थित है। हिन्दूकुश के उस पार सफेद कोह तथा दक्षिण में सुलेमान पर्वत है जो भारत को अफगानिस्तान से अलग करता है। प्राचीन काल में इन प्रदेशों की गणना प्रायः भारतीय सीमाओं के अन्तर्गत की जाती थी। हिमालय पर्वत की पूर्वि श्रृंखलाएँ भारत को बर्मा से अलग करती हैं।

प्रभाव- यह निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि हिमालय तथा उसकी हिमाच्छादित श्रृङ्खलाओं से निकलने वाली नदियों ने उत्तरी भाग को शस्य-श्यामला एवं उर्वर बनाया! ऊँची श्रृङ्खलाओं ने मानसूनी हवाओं को रोककर विस्तृत उत्तरी मैदान को वर्षामृत प्रदान किया। यही कारण है कि भारत के उत्तरी भाग में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक उपज हुई तथा यह क्षेत्र समृद्ध बना। इसके अतिरिक्त उत्तरी पर्वतीय प्रदेश वन सम्पदा, दुर्लभ जीवनरक्षिणी औषधियों का उपलब्धि स्थान भी है। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण इस क्षेत्र के स्थान पृथ्वी पर स्वर्ग’ के नाम से अलंकृत है। इन सब विशेषताओं का प्रबाव एवं पारणाम दुःख-सुख से परिपूर्ण है। समृद्ध, उपजाऊ तथा धनी प्रदेश होने के कारण विदेशी आक्रमणकारियों की दृष्टि सदैव से इस क्षेत्र पर लगी रही। यह भौगोलिक प्रकरण तत्कालीन भारतीय इतिहास में कतिपय दुःखद संस्मरणों का आधार रहा है। परन्तु इसके विपरीत इन क्षेत्र की वह सम्पदा अद्वितीय है जिसने भारतीय मानस पटल पर अपना गौरवपूर्ण प्रभाव छोड़ा है। भारतीय आध्यात्मवाद एवं धर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध इसी क्षेत्र से है। भगवान बुद्ध, महावीर एवं शंकराचार्य जैसी महान् विभूतियों ने इसी क्षेत्र में आध्यात्म की अवस्था को प्राप्त किया था। सच तो यह है कि हिमालय की स्वयं अपनी विशालता ने भारतीय मन, कर्म एवं विचार को अपना रूप प्रदान किया है।

(2) मध्य देश अथवा सिन्धु एवं गंगा यमुना के मैदान

इस भूभाग में सिन्धु, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र एवं अन्य सहायक नदियाँ बहती हैं। इस क्षेत्र के मैदान को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला वह जिसे सिन्धु नदी तथा उनकी अन्य सहायक नदियाँ सींचती हैं तथा दूसरा वह जिसे गंगा, यमुना तथा उसकी अन्य सहायक नदियाँ सींचती हैं। इन दोनों भागों के मध्य अरावली पर्वत तथा राजस्थान का मरुस्थल है। अरावली पर्वत के उत्तर में कुरुक्षेत्र के बाँगर के रूप में वह तंग मार्ग स्थित है जिसके द्वारा पंजाब से गंगा यमुना के मैदान में प्रवेश किया जा सकता है। यह मार्ग भारतीय इतिहास को कई विचित्र एवं सुखदायी अध्याय प्रदान कर चुका है। पानीपत तथा कुरुक्षेत्र के अनेक युद्ध इसी मार्ग में लड़े गये थे। डा० बेनीप्रसाद ने इस क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखा है, “कोलकोता से पेशावर तक चले जाइये कहीं कोई पहाड़ी या पर्वत नहीं मिलेगा। कहीं कोई रेगिस्तान नहीं मिलेगा। हर जगह हरे-भरे खेकत लहराते हैं, खेती के लिये उतना परिश्रप नहीं करना पड़ता जितना इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि ठण्डे और कुछ पहाड़ी देशों में करना पड़ता है। इस मैदान में कोई प्राकृतिक रुकावट न होने के कारण सभ्यता, संगठन, धर्म भी एक से ही रहे, छोटी-मोटी बातों में थोड़ा बहुत फर्क जरूर था, पर सिद्धांत का कोई अन्तर नहीं था।”

प्रभाव- विश्व की महानतम् सभ्यताओं का जन्म नदियों के किनारे या उनके मध्य स्थित घाटियों में हुआ। यह क्षेत्र भी इस बात का अपवाद नहीं है। इस क्षेत्र के सारे जीवन पर नदियों का प्रभाव पड़ना जरूरी ही था। उत्तर में स्थित हिमालय की पर्वत श्रृङ्खलाओं से विस्फुटित नदियों द्वारा लाई गई उर्वरक मिट्टी ने इस क्षेत्र को शस्यश्यामला वस्त्र पहनाए। सारे वर्ष जीवनदायी जल से प्लावित होने के कारण प्राचीन काल से ही यह क्षेत्र व्यापार एवं संस्कृति का केन्द्र बना रहा। फलतः सारे भारत की अर्थ व्यवस्था एवं मानसिक विकास में इस क्षेत्र का विशेष महत्त्व रहा है। भारतीय इतिहास के स्वर्णयुगीन साम्राज्यों की नींव इसी क्षेत्र में पड़ी तथा इसी कारण यह क्षेत्र सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागरूकतो का केन्द्र बना रहा है। भारत को कृषि प्रधान देश कहलाने का श्रेय इसी क्षेत्र द्वारा प्राप्त है। दार्शनिक मीमांसा, मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा के लिये आतुर भारतीय मनीषियों ने इसी क्षेत्र को अपनाया। जहाँ प्रकृति तथा सभ्यता की इतनी एकात्मकता हो वहाँ सर्वांगीण विकास होना स्वाभाविक होता है। भूगोल एवं इतिहास का ऐसा समन्वयकारी चमत्कार इसी क्षेत्र में परिलक्षित होता है।

(3) प्रातीच्य अथवा राजस्थान की मरुभूमि

इस भाग में मेवाड़, मारवाड़ जयपुर, जैसलमेर आदि राजपूताना के क्षेत्र हैं। मरुस्थल होने के कारण इस क्षेत्र की जलवायु सरल सह्य नहीं है। संचार एवं जल का कष्ट होने के कारण यहाँ जीवन कठोर परिश्रमी तथा कठिन रहा है। अपनी इन भौगोलिक विशेषताओं के कारण यद्यपि यह क्षेत्र विदेशी आक्रमणकारियों के चंगुल से लगभग मुक्त-सा रहा तथापि यहाँ की जातियों की वीरता, शौर्य, पराक्रम तथा आदर्श भारतीय इतिहास में सर्वमान्य एवं सम्मानीय हैं। सारे भारत को राजपूत जाति पर गर्व है। इन्होंने न केवल अपने क्षेत्र वरन् भारत के उत्तरी भाग के बलशाली एवं सैन्य सम्पन्न विदेशी शासकों को निश्चित अतवा निश्चिन्त नहीं होने दिया।

प्रभाव- भारत की रक्षा के लिये राजस्थान की मरुभूमि की सैनिक महत्ता का बखान सदैव ही कम रहेगा। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के कारण इस क्षेत्र में विदेशियों को अपना पैर जमाने में हिचक होती रही तथा इस क्षेत्र का जनजीवन भी बहुत कुछ उत्तरी भाग की अपेक्षा भित्र-सा रहा। यहाँ के जातिगत आदर्शों तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं को भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। राजपूती शौर्य एवं वीरगाथाएं आज भी भारतवासियों को गौरवमयी अनुभूति प्रदान करती हैं।

(4) दक्षिणापथ अथवा विन्ध्याचल पर्वत श्रृङ्खलाएँ एवं दक्षिण का पठार

उत्तरी भारत के मैदान के दक्षिण की और विन्ध्याचल पर्वत श्रङ्गलाएँ तथा मध्य प्रदेश के पठार हैं। ये पर्वत उत्तरी तथा दक्षिण भारत के बीच एक प्राकृतिक प्राचीर की भाँति अवस्थित हैं। विन्ध्याचल की पर्बत मालाएँ पूर्व से पश्चिम की ओर फैली हुई हैं। इसके उत्तर में स्थित प्रदेश मध्य भारत तथा दक्षिण की ओर का प्रदेश दक्षिण भारत कहलाता है। तीन ओर सागर तथा उत्तर की ओर विन्ध्याचल से घिरे प्रदेश को दक्षिणी पठार के नाम से जाना जाता है। इस प्रदेश में पूर्वी तथा पश्चिमी घाट और उनके मध्यवर्ती पठार सम्मिलित हैं। इसी ओर कृष्णा नदी के नीचे जो प्रदेश हैं उसे ‘धुर दक्खिन’ कहा जा सकता है। यह प्रदेश पूर्व में चौरस तथा पश्चिम में पहाड़ों से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र का पश्चिमी तट बन्दरगाहों के लिये तो अधिक उपयोगी नहीं है। परन्तु मानसूनी हवाओं के अत्यधिक क्रियाशील होने के कारण यहाँ पर वर्षा खूब होती है। फलतः भूमि उपजाऊ है। उत्तर में महाराष्ट्र तथा दक्षिण में कर्नाटक का प्रदेश स्थित है। महाराष्ट्र में हरी-भरी पहाड़ियाँ अधिक हैं जिसके कारण भूमि ऊबड़-खाबड़ है फलतः उपज अपेक्षाकृत कम है। सम्पूर्ण दक्षिणी प्रदेश प्राकृतिक रूप में सुन्दर हैं।

प्रभाव- विंध्याचल पर्वत श्रृङ्खला की प्राचीर ने उत्तर तथा दक्षिण में भेद बनाये रखा। डा० बेनी प्रसाद के अनुसार, “उत्तर और दक्षिण की सभ्यता के मूल सिद्धांत एक ही थे पर उनके इतिहास चक्र कभी-कभी अलग-अलग घूमते रहे।” विन्ध्याचल पर्वततथा दक्षिण के पठार का भारतीय इतिहास पर सर्वप्रथम भौगोलिक प्रभाव तो यह पड़ा कि यहाँ के निवासियों को कतिपय जीवनोपयोगी सामग्रियों की प्राप्ति हेतु उत्तरी भारत की अपेक्षाकृत अधिक संघर्ष करना पड़ा। इस कारण यहाँ के निवासी उद्यमी बने, उनमें स्वतन्त्रता की भावना प्रबल रही। फलतः किसी भी आक्रमण का सामना करने के लिये उन्होंने दुर्लभ स्थानों में अद्भुत एवं अजेय दुर्गों का निर्माण किया। ‘गुरल्ला युद्ध’ प्रणाली अपनाकर वे वर्षों तक संघर्ष करने में सक्षम थे। अपने सर्वस्व को निछावर करके उन्होंने कलिंग-युद्ध में अशोक का हृदय परविर्तन कर दिया। हर्ष-वर्द्धन जैसा शक्ति सम्पन्न सम्राट् इस क्षेत्र के पुलकेशिन को परास्त नहीं कर पाया। सभ्यता अपने विशिष्ट गुणों के कारण बहुत कुछ उत्तरी भारत से भिन्न रही। उत्तरी भारत में विदेशी आक्रमणकारियों ने इस क्षेत्र की सभ्यता को प्रभावित किया जबकि दक्षिणी भारत विशुद्ध हिन्दू सभ्यता का पोषक बना रहा। इस्लाम के अनुयायी इस ओर अधिक प्रभाव नहीं डालपाये। कला के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक स्पष्ट है। उत्तरी भारत की कला पर विदेशी प्रभाव पड़ता रहा परन्तु दक्षिणी कला इससे अछूती रही। इस तरह यहाँ की सभ्यता कुछ अंगों में उत्तर से अलग रही। मन्दिर, भवन, मूर्तियाँ इत्यादि का रूप भिन्न रहा। राजनैतिक संगठन में उत्तर भारत की अपेक्षा यहाँ की भिन्न मान्यतायें रहीं। इस प्रकार दक्षिण का इतिहास भारत का इतिहास होते हुए भी अपनी अलग विशेषता रखता है।

(5) प्राच्य (पूर्व देश) अथवा पूर्वी तथा पश्चिमी घाट एवं तटीय मैदान

भारत के पूर्वी तट पर मैदान अधिक विस्तृत है। पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणियाँ दक्षिण भारत के अरब सागर तट के समान्तर तटीय मैदान की लगभग 45 मील की पट्टी को छोड़कर उत्तर से दक्षिण तक लगभग 650 मील तक फैली हुई हैं। इस मैदान का दक्षिणी भाग मलाबार अथवा केरल कहलाता है तथा उत्तरी भाग में कोंकण स्थित है। इस क्षेत्र में मानसून-शेष भारत की अपेक्षाकृत अधिक पहले आ जाता है फलतः यह भाग सदैव से उपजाऊ रहा है।

प्रभाव- इस क्षेत्र के तटीय बन्दरगाहों द्वारा प्राचीनकाल से ही भारत का व्यापार विदेशों से होता रहा है। जावा, सुमात्रा, लंका, हिन्द चीन, स्याम, बर्मा इत्यादि देशों से व्यापार द्वारा निर्यात अधिक होता रहा तथा इसके बदले स्वर्ण की प्राप्ति होती रही। साथ ही साथ इस ओर से भारतीय सभ्यता ने विदेशों की ओर चरण बढ़ाये। सागरीय मार्गों से होकर भारतीय व्यापारी अपनी सामग्री, सभ्यता एवं संस्कृति लेकर पूर्वी एशिया, हिन्द चीन और पूर्वी द्वीप समूहों की ओर गये तथा वहाँ पर भारतीय उपनिवेशों की स्थापना हुई। मध्यकाल में अरब तथा तत्पश्चात यूरोपीय जातियों ने इसी मार्ग से भारत में प्रवेश किया जिसके कारण इस देश के इतिहास ने नये मोड़ लिये।

(6) भारतीय इतिहास पर भौगोलिक प्रभाव का विवेचन

भारत की भौगोलिक अवस्था के उपरोक्त वर्णन से हमें पाँच विशेषताओं की प्राप्ति होती है यथा-(1) पृथकत्व,(2) सम्पर्क, (3) विशालता, (4) विविधता और (5) एकता। इन विशेषताओं से विश्व के मानचित्र में भारत को संसार का संक्षिप्त प्रतिरूप’ कहा जाता है। प्रसिद्ध विद्वान हूकर के अनुसार भारत के वृक्ष, वनस्पति यदि समस्त विश्व में नहीं तो पूर्वी गोलाई में इतने ही बड़े किसी भी अन्य देश से अधिक है। लिली ने लिखा है कि ‘सत्य तो यह है कि भारतवर्ष की उपज में सभी मानव जीवनोपयोगी वस्तुएँ सम्मिलित हैं।’ डा० बेनीप्रसाद के शब्दों में ‘इंग्लैण्ड इत्यादि की तरह हिन्दुस्तान में ज्यादा कुहरा नहीं पड़ता, खूब उजाला रहता है। इसका असर मन पर यह पड़ सकता है कि विचार स्पष्ट तथा तर्क की प्रबलता हो कुछ भी हो, तर्क का प्रेम हिन्दुस्तानी सभ्यता में अवश्य दिखाई देता है। धर्म और साहित्य की कल्पनाओं का भी सम्बन्ध शायद भूगोल से है। हिमालय की ऊँची चोटियाँ, हजारों मील लम्बे मैदान, झूम कर बहने वाली नदियाँ, मूसलाधार मेह और तूफान, आकाश में नक्षत्र-मण्डलों के ढेर-यह सारा प्राकृतिक कौतुक कल्पना को उत्तेजित करता है।”

जब हम भारतीय इतिहास पर भौगोलिक पृष्ठभूमि की बात सोचते हैं तो इतना तो निश्चय पूर्वक कह सकते हैं कि भारत की विशालता तथा भौगोलिक परिस्थितियों को अनेकरूपता ने भारत के इतिहास पर स्वाभाविक प्रभाव डाला है। राजनैतिक क्षेत्र में भौगोलिक अवस्था ने देश को एकता के रूप में प्रशासित करने के तन्त्र की स्थापना को असंभव बना दिया। परिणामतः भारतीय इतिहास के राजनैतिक क्षितिज पर फ्रांस, या इंग्लैण्ड जैसी एकसूत्रता नहीं है। भारत प्राचीन काल से लेकर गणतन्त्र की स्थापना तक छोटे-छोटे गौण तथा विश्रृङ्खल टुकड़ों में विभाजित रहा। इस कारण भारत की एकता पृथक् स्थानीय इतिहासों में खो जाती है। किन्तु इस बात से हमें तनिक भी कष्ट नहीं होना चाहिये कि भारत में राजनैतिक एकता नहीं थी। केन्द्रीय शासन की स्थापना में भौगोलिक अवस्था की बाधकता ने स्थानीय जीवन तथा छोटी- छोटी लघु राजनैतिक इकाइयों को सबलता प्रदान की। जब आज रेल हड़ताल हो जाने से सारे देश का एक दूसरे प्रान्त से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो उस समय की कल्पना कीजिये जबकि संचार, यातायात के साधन न हो द्रुतगामी, न दूरगामी और अत्यल्प थे। अतः राजनैतिक अनेकता तत्कालीन परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम थी।

जब हम भारतीय इतिहास पर भौगोलिक पृष्ठभूमि के प्रभावों का सांस्कृतिक क्षेत्र में विवेचन करते हैं तो हमें एक आश्चर्यजनक सत्य के दर्शन होते हैं। राजनैतिक-पर सांस्कृतिक क्षेत्र की एकात्मकता-भारतीय इतिहास में अत्यन्त दुर्लभ विरोधभाष है। डा० राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार-“यह स्मरण रखने की बात है कि प्रत्येक स्थान के अलावा इतिहास के उस गडबलझाले के पीछे, अखिल भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि सदा से रही, जो राजनैतिक न होकर सांस्कृतिक थी। वह एकता भारतीय विचार और दर्शन के इतिहास में पिरोई हुई है, जो प्रादेशिक सीमाओं और शासन की छोटी-छोटी इकाइयों के ऊपर है। समस्त भारतवर्ष पर विचार और जीवन के एक जैसे आन्दोलनों की छाप पड़ी है, जिससे एक जैसे आदर्श और एक-सी संस्थाओं का यहाँ उदय और विकास हुआ, जिनके कारण भारतीय सभ्यता संसार की अन्य सभ्यताओं के अलग पहचानी जाती है।”

निष्कर्ष

प्रत्येक देश का व्यक्ति अपने देश के वातावरण तथा परिस्थितियों के प्रभाव के अन्तर्गत विकास करता है। यही कारण है कि विश्व के भिन्न प्रदेशों के इतिहास समान नहीं हैं। इन इतिहासों में मानव के आचार-विचार कला-कौशल, संस्कृति, भाषा, दर्शन, धर्म, रीति-रिवाज एवं राजनैतिक संगठनों आदि के रूप और प्रकार में भिन्नता है। इसी सन्दर्भ में हम यह स्पष्ट कर सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश पर यहाँ के भौगोलिक वातावरण एवं पृष्ठभूमि का काफी प्रभाव पड़ा है। डा० मजूमदार के अनुसार-

“The wild and sublime beauty of nature, in which India is rich, gave a philosophic and poetic turn to the Indian mind and remarkable progress was made in religion, philosophy, art and literature.

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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