इतिहास / History

कुषाण कालीन भारत की दशा | कुषाणकालीन सभ्यता एवं संस्कृति

कुषाण कालीन भारत की दशा | कुषाणकालीन सभ्यता एवं संस्कृति

कुषाण कालीन भारत की दशा

कुषाण वंश का सबसे महान् सम्राट कनिष्क था जिसके शासन काल में उसके साम्राज्य के सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय उन्नति हुई। राजनीति के साथ सांस्कृतिक विकास उसके युग की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। कनिष्क के काल में साहित्य, कला, व्यापार, धर्म तथा ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से पर्याप्त प्रगति हुई है। कुषाण लोग विदेशी थे, परन्तु कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों ने अपने आपको पूर्ण रूप से भारतीय बना लिया। भारतीय भी कनिष्क को भारत का एक महान् सम्राट मानकर गौरवान्वित महसूस करते हैं।

कुषाणकालीन सभ्यता एवं संस्कृति

कुषाण युग की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

  1. प्रशासन-

कुषाणोंइ की प्रशासन पद्धति में कुछ विदेशी लक्षण थे और कुछ भारतीय। क्षत्रप प्रान्तों के वायसराय या गवर्नर होते थे। कुछ कर्मचारियों के नाम विदेशी थे। जैसे “स्ट्रोटेजस’ (सेनानी या सैनिक गवर्नर), “मैरिडिच” (जिला न्यायाधीश) आदि। “अमात्य” और “महासेनापति” नामक कर्मचारी भारतीय उद्भव के थे।

कुषाण काल में राजतन्त्र ही प्रचलित पद्धति थी, यद्यपि गणतन्त्र भी उस समय विद्यमान थे। कुषाण शासकों ने “महीश्वर”, “देवपुत्र” “शाही शाहानुशाही” आदि की उपाधियाँ धारण की थीं। कुषाणवंशीय राजाओं की देवताओं के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति थी। अधिकांश विद्वानों का मत है कि कुषाण निरंकुश शासक थे।

क्षत्रप- क्षत्रपों को अपने सिक्के जारी करने का अधिकार था। ये लगभग स्वतन्त्र होते थे। संस्कृत साहित्य में क्षत्रप पद का प्रयोग अधिराज्य के लिए किया गया है जिस पर देवताओं और मनुष्यों का शासन हो। कुषाणों ने अपने पूर्ववर्ती लोगों की क्षत्रप प्रणाली को अपनाया। कनिष्क के शिलालेखों में उसके अनेक क्षत्रपों का उल्लेख है।

विभिन्न पदाधिकारी- “दण्ड-नायक” और “महादण्ड-नायक” पद कुषाण के प्रशासकीय ढाँचे की मुख्य कड़ी थे। दण्डनायक का अनुवाद “मजिस्ट्रेट'”, “दण्ड प्रशासक”, “फौजदारी मजिस्ट्रेट”, “सेना का महान नेता”, “पुलिस अधिकारी’ और “पुलिस कमिश्नर’ के रूप में किया गया है। डॉ० पुरी के मतानुसार, “दण्ड-नायक सामन्ती सरदार थे, जिन्हें सम्राट नियुक्त करता था।” वे सम्राट के प्रति निष्ठावान होते थे तथा नागरिक व सैनिक सेवा करते थे। नागरिक सेवा के रूप में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिये कर्मचारी नियुक्त करते थे। ग्रामिक को गाँव का मुखिया माना जाता था। “पद्रपाल” भी स्थानीय मुखिया होता था।

शान्ति व सुरक्षा- डॉ० पुरी के अनुसार, कुषाण प्रशासन ने सुरक्षा की व्यवस्था की थी, क्योंकि मथुरा से अभिसार, नागरा, ओडयाना और बोखाना (बादक्षा) आने-जाने का उल्लेख है। विस्तृत प्रशासन कुछ भी रहा हो प्रगति और समृद्धि के लिए सुरक्षा का होना अनिवार्य था, जिसका प्रमाण सामान्य जनता के जीवन तथा सभी धर्मों के लिए दिए गए दान से मिलता है।

  1. आर्थिक दशा-

व्यापार- विदेशों के साथ भारत का व्यापार काफी प्रगति पर था। देश में शान्ति सुरक्षा स्थापित हो जाने के कारण आन्तरिक व बाह्य व्यापार की बहुत उन्नति हुई। साम्राज्य के विभिन्न भागों से विदेशों को माल भेजा जाता था। पश्चिमी तट से समुद्री मार्ग भी थे। रोमन साम्राज्य के साथ भारत का व्यापार बहुत लाभदायक था। वहाँ से बड़ी मात्रा में भारत में सोना आता था। भारत की मलमल की विदेशों में बहुत माँग थी।

कृषि- देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी। कृषकों को फसलें उगाने व सुधारने का ज्ञान प्राप्त था। पशु-पालन की ओर काफी ध्यान दिया जाता था। उससमय में अकाल पड़ने के भी कई उल्लेख मिलते हैं, जिसका सामना करने के लिए भण्डारों की व्यवस्था की गई थी। इन भण्डारों से उचित मात्रा में अनाज का वितरण किया जाता था।

उद्योग- धन्धे व जनता की आर्थिक दशा- सामान्य जनता की कुषाण काल में आर्थिक दशा ठीक थी। साधारण लोग भी दान दिया करते थे। व्यापार श्रेणियों में स्थायित्व व विश्वास था। उस काल में ये श्रेणियाँ थीं-सुनार, वस्त्र-निर्माता, तेली, गन्धी, चूड़ी निर्माता, दही निर्माता, हलवाई, गेहूँ के आटे के विक्रेता, फल विक्रेता, आटा पीसने वाले, खाद्य-सामग्री के विक्रेता, कुम्हार, बाँस का सामान बनाने वाले, ठठेरे आदि थे। श्रेणी के अध्यक्ष को श्रेष्ठिन कहा जाता था। श्रेणियाँ निश्चित अवधि के लिए धन जमा करती थीं तथा सौदे की शर्तों को पूरा करती थीं।

धातुकारों में लुहार, सुई निर्माता, सुनार तथा ताम्बे, सीसे, काँच, टिन, पीतल, हाथी दाँत, लोहे आदि की वस्तुयें बनाने वाले थे। आदिवासी जंगलों में रहते थे, जो शिकारी, सपेरे, वृक्षों की छाल बेचने वाले थे, पक्षियों को पकड़ने वाले थे, सूअर-विक्रेता आदि थे। मनोरंजन-वर्ग में नाटककार, नर्तक, विदूषक तथा वेश्यायें थीं। विद्वत-जगत् में लेखक, वैद्य, शल्य-चिकित्सक तथा चित्रकार थे। महिलाओं की देखभाल के लिए दासियाँ तथा बच्चों की देखभाल के लिए धाय थीं ।

  1. सामाजिक जीवन-

समाज धन या व्यवसाय पर नहीं, अपितु जन्म के आधार पर बँटा हुआ था। विभिन्न व्यवसायों को अपनाने वाले तथा विभिन्न स्तर के एक ही जाति के लोगों में विवाह होते थे। अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित नहीं थे। कुषाण काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूट चार जातियों का ही उल्लेख मिलता है। ब्राह्मणों को उच्च स्थान प्राप्त था और उनका अत्यधिक सम्मान किया जाता था।

वस्त्र- पोशाक में एकरूपता नहीं थी। प्रत्येक क्षेत्र तथा जाति की पोशाक भिन्न थी। गान्धार क्षेत्र में लोग प्रायः धोती पहनते थे। सिर पर रूमाल या साफा बांधते थे और कमर में फेंटा लगाते थे। महिलायें लहंगा और चोली पहनती थीं तथा कभी-कभी साड़ियाँ भी बाँधती थीं। अंगोछा और शाल भी प्रयोग में लाये जाते थे। महिलाओं के आभूषण हार बाजूबन्द, चूड़ियाँ, पायजेब, बुन्दे आदि थे। वस्त्र सूती, सिल्क तथा सादी खादी के होते थे।

खानपान- जनता में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों ही प्रकार के लोग होते थे। शाकाहारी भोजन में रोटी, चावल, जौ, सरसों, दूध-दही, मिठाइयाँ, शहद आदि थे। मांसाहारी भोजन में माँस-मछली प्रमुख थे। कुछ जातियाँ प्याज नहीं खाती थीं।

मनोरंजन के साधन- मनोरंजन के साधनों में स्वच्छ व सुन्दर उद्यान, सैर करने के स्थान, अखाड़े व व्यायामशालायें थीं। वाद्य-यन्त्रों, नृत्य, संगीत, शिकार, पांसों का खेल आदि से भी लोग मनोरंजन करते थे। त्यौहार और जादू के खेल भी मनोरंजन के साधन थे।

  1. धार्मिक स्थिति-

कुषाण काल में बौद्ध धर्म में महायान सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ व कुषाणों की धार्मिक नीति सहिष्णुता की थी। ब्राह्मण धर्म, जैन-धर्म और बौद्ध धर्म साथ-साथ प्रचलित थे। कुषाण सम्राटों ने अपना कोई राज्य धर्म नहीं बनाया और सभी धर्मों के लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया। इस काल में बौद्ध धर्म की भाषा संस्कृत बन गई।

ब्राह्मणों का बहुत आदर किया जाता था। उन्हें खूब दक्षिणा मिलती थी तथा भोजन कराया जाता था। ब्राह्मण धर्म के प्रमुख देवता विष्णु, वरुण, ब्रह्मा, शिव, चन्द्र, सूर्य आदि थे। जैन धर्म भी इस काल में उन्नति पर था।

  1. साहित्य-

कुषाण काल में साहित्य की बहुत उन्नति हुई। कुषाण शासक साहित्यकारों के संरक्षक थे। इस काल का सबसे प्रमुख लेखक अश्वघोष था, जिसने “बुद्ध चरित्र” और “सौन्दरानन्द” की रचना की। ये ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गये थे। अश्वघोष ने केवल काव्य की दृष्टि से ही अपने ग्रन्थ नहीं लिखे, उसके सामने मुक्ति का उच्च आदर्श था। उसने कविता को धर्म-दर्शन की चेरी बनाया और इसके माध्यम से मानवीय भावना को सजग किया।

इसी काल में नागार्जुन ने “प्रज्ञापारमिता-सूत्र” लिखा, वसुमित्र ने “महाविभाष शास्त्र” लिखा, चरक ने भारतीय औषधियों पर अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा। इसी काल मेंइ “महावस्तु”, “ललित-विस्तार”, “दिव्यावदान”, “सुधर्म-पुण्डरीक” और “मिलिन्द- पन्हो’ लिखे गये।

  1. मुद्रा-

कुषाण शासकों ने सोने तथा ताम्बे के सिक्के चलाये। कुषाण सिक्कों पर विभिन्न धर्मों के देवी-देवताओं की आकृतियाँ अंकित होती थीं, जो उनकी धार्मिक सहिष्णुता की परिचायक थीं। ईरान, बैक्ट्रिया और निकटवर्ती प्रदेशों के देवताओं के चित्र भी कुषाण मुद्रा पर अंकित किये गये थे। उस समय भारत के अन्य स्वायत्त राज्यों में ताम्बे के अतिरिक्त चाँदी के सिक्के भी प्रचलित थे।

  1. कला-

कनिष्क प्रथम ने पेशावर में एक मीनार तथा बौद्ध विहार का निर्माण करवाया। उसने सिरमुख व कनिष्कपुर दो नगर बसाये। उसके काल में कई स्तूपों का भी निर्माण हुआ। कुषाण के युग में मूर्ति कला की खूब प्रगति हुई। उनके समय यूनानी एक भारतीय मूर्तिकला का सम्मिश्रण हुआ, जिसके फलस्वरूप एक विशेष ”गान्धार-शैली” का जन्म हुआ। गान्धार शैली की महात्मा बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ इस काल में निर्मित हुई। इस मूर्तियों के बाह्य अलंकरण प्रदर्शन में यूनानी प्रभाव दिखाई देता है, किन्तु भावनाओं के अंकन भारतीय परम्पगनुसार किया गया है। गान्धार-शैली की मूर्तियाँ, कला की दृष्टि से वह उच्चकोटि की हैं।

गान्धार शैली के अतिरिक्त कुषाण काल में ‘’मथुरा शैली” का भी जन्म हुआ और वे भी अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया। मृर्तिकला के साथ-साथ कुषाण काल में  चित्रकला की भी खूब प्रगति हुई।

पॉल मेसन आरसैल तथा अन्य लेखकों के अनुसार, गान्धार कला का प्रभाव द्विरूपी था। इसका प्रभाव मध्य एशिया के रास्ते चीन तथा जापान पहुँचा तथा दूसरी ओर भारत में होकर समुद्र के रास्ते इण्डोनेशियाई द्वीपों तथा हिन्द-चीन पहुँचा । मध्य एशिया के बौद्ध स्मारकों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इस शैली का प्रभाव भारत के बाहर बहुत समय तक रहा।

निष्कर्ष-

इस प्रकार कुषाण काल में भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। डॉ० डी० सी० सरकार के शब्दों में, “कुषाण युग भारत के इतिहास में युग प्रवर्तक काल है। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् पहली बार एक महान् साम्राज्य बना, जिसमें न केवल समस्त उत्तरी भारत ही सम्मिलित था, बल्कि उसके बाहर के कई प्रदेश भी सम्मिलित थे जो मध्य एशिया तक फैले थे। इस प्रकार भारत बाहरी दुनिया के सम्पर्क में आया। इस युग में धर्म, साहित्य और मूर्तिकला का महत्त्वपूर्ण विकास हुआ, विशेषकर महायान बौद्ध धर्म का उदय, गान्धार कला और बौद्ध मूर्ति का आगमन ।” इस युग ने अश्वघोष और नागार्जुन जैसी महान् साहित्यिक विभूतियाँ प्रदान की। संस्कृत भाषा का भी इस युग में पर्याप्त विकास हुआ। आर्थिक दृष्टि से इस काल में देश की जनता सुखी थी तथा कुषाण शासकों का प्रशासन भी काफी अच्छा था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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