इतिहास / History

विध्य क्षेत्र की नव पाषाणकालीन संस्कृति | Neolithic culture of the Vindhya region in Hindi

विध्य क्षेत्र की नव पाषाणकालीन संस्कृति | Neolithic culture of the Vindhya region in Hindi

विंध्य क्षेत्र की नव पाषाणकालीन संस्कृति

उत्तर प्रदेश में गांगेय क्षेत्र के दक्षिण में स्थित पठारी भाग को प्रायः बुन्देलखण्ड तथा बघेल खण्ड इन दो भौगौलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है। यह क्षेत्र मध्य भारत के पठारी भाग और गांगेय मैदान के मध्यवर्ती क्षेत्र में स्थित है किसी एक उपयुक्त तथा सार्थक नाम के अभाव में इस क्षेत्र को यहाँ पर फिलहाल ‘उत्तरी-विन्ध्य क्षेत्र’ के नाम से अभिहित किया जा रहा है। इस क्षेत्र से दो प्रकार की नव पाषाणिक कुल्हाड़ियाँ समय-समय पर प्रतिवेदित होती रही हैं। मिर्जापुर और बाँदा जिलों तथा इनके समीपवर्ती क्षेत्रों से नुकीले समन्तान्त वाली त्रिभुजाकार कुल्हाड़ियाँ खोजी गई हैं। दक्षिण भारत की नवपाषाण काल की कुल्हाड़ियों से आकारगत समता होते हुए भी इनके वास्तविक पुरातात्त्विक परिप्रेक्ष्य के विषय में जानकारी नहीं है।

इलाहाबाद जिले के दक्षिणी भाग और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त गोलाकार समन्तान्त वाली नव पाषाण काल की कुल्हाड़ियाँ पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भारत से मिलने वाली नव पाषाणिक कुल्हाड़ियों से आकारगत तादात्म्य रखती है। सन् 1972-73 और उसके बाद किये गए पुरातात्त्विक अन्वेषणों के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के दक्षिणांचल में विद्यमान मेजा तहसील में स्थित बेल घाटी में कोलडिहवा, पँचोह, महगड़ा तथा बेलन की सहायक सरिता अदवा की घाटी में इन्दारी और मध्य प्रदेश के सीधी जिले में सोन नदी की घाटी में स्थित कुन्झुन एवं ललनहिया नामक पुरास्थल प्रकाश में आ चुके हैं। इन पुरास्थलों में से कोलडिहवा, पँचोह और महगड़ा का उत्खनन हो चुका है। इस प्रकार इस क्षेत्र से मिलने वाली गोलाकार समन्तान्त वाली नव पाषाणिक कुल्हाड़ियों के पुरातात्विक सन्दर्भ के विषय में जानकारी प्राप्त हो चुकी है।

इलाहाबाद नगर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में लगभग 85 किमी दूरी पर बेलन नदी के बायें तट पर कोलडिहवा, दाहिने तट पर महगड़ा तथा इन दोनों पुरास्थलों से लगभग 2.50 किमी की दूरी पर पश्चिम में कोलडिहवा तथा पँचोह नामक पुरास्थल स्थित हैं। इन पुरास्थलों की खोज तथा उत्खनन करने का श्रेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग को है। सन् 1964 में किये गए, पुरातात्विक अन्वेषण के फलस्वरूप कोलडिहवा का टीला प्रकाश में आया जो पूर्व से पश्चिम 500 मीटर लम्बा और उत्तर से दक्षिण 200 मीटर चौड़ा है। बरसाती नालों के कटाव के कारण कोलडिहवा का टीला कई भागों में बँट गया है। इनमें से पूर्वी, पश्चिम, उत्तरी, दक्षिणी टीलों पर सन् 1972-73 से 1975 के बीच में उत्खनन हुआ। कोलडिहवा के टीले का 1.90 मीटर मोटा सांस्कृतिक जमाव अपने अन्तस्तल में तीन संस्कृतियों से सम्बन्धित सामग्री छिपाये हुए हैं। ये संस्कृतियाँ हैं-

  1. नव पाषाणिक संस्कृति (45 सेमी मोटा जमाव),
  2. ताम्र पाषाणिक संस्कृति,
  3. आरम्भिक ऐतिहासिक काल की लौह युगीन संस्कृति ।

आवास

कोलडिहवा तथा महगड़ा के नव पाषाणिक पुरास्थलों पर एक निश्चित क्रम-विन्यास में स्तम्भ-गर्त मिले हैं जिनके आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि रहने के लिए लकड़ी के लट्ठों को जमीन में गाड़ कर गोलाकार या अण्डाकार झोपड़ियों का निर्माण किया जाता था। उत्खनन से प्राप्त सरकण्डों की छाप-युक्त जली हुई मिट्टी के टुकड़ों से यह इंगित होता है कि छाजन घास-फूस तथा सरकण्डों आदि का बनवाया जाता था। महगडा के उत्खनन से अभी तक बीस झोपड़ियों के साक्ष्य ज्ञात हो चुके हैं। झोपड़ियों का व्यास (Diameter)4.30 मीटर से 6.40 मीटर तक मिलता है। झोपड़ियों के फर्श पर हस्त-निर्मित मिट्टी के बर्तनों के ठीकरे, गोलाकार समन्तान्त वाली नव पाषाणिक कुल्हाड़ियाँ, हथौड़े, गदाशीर्ष, सिल-लोढ़े, गोफन-पत्थर (Sling-ball), लघु पाषाण उपकरण, मिट्टी की बनी हुई गुरियाँ और पशुओं की अधजली हड्डियाँ मिली हैं। दो या तीन झोपड़ियों को मिलाकर एक घर बनता था। घरों का निर्माण भी एक सीधी पंक्ति में न केवलयाकार (Ring shaped) ढंग से करते थे।

मिट्टी के बर्तन

विध्य क्षेत्र के सभी नव पाषाणिक पुरास्थलों से हस्त-निर्मित मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। मृद्भाण्डों में सालन (Degraissant) के रूप में धान की भूसी एवं पुआल के टुकड़ों का उपयोग किया गया है। प्राप्त मृद्भाण्ड चार प्रकार के हैं- 1. डोरी-छाप मृद्भाण्ड, (Cord- impressed pottery), 2. खुरदरे मृद्भाण्ड (Rusticated ware), 3. चमकाये लाल मृद्भाण्ड (Burnished Red ware), 4. चमकाये काले मृद्भाण्ड। डोरी-छाप मृद्भाण्ड इस नव पाषाणिक संस्कृति के विशिष्ट मृद्भाण्ड हैं। इनकी बाहरी सतह पर डोरी अथवा बटी हुई रस्सी की छाप मिलती है। इस वर्ग के मृद्भाण्ड हल्के लाल रंग तथा अधिकांशतः मोटी गढ़न (Thick fabric) के हैं। प्रमुख पात्र-प्रकारों में छिछले एवं गहरे कटोरे, टोंटीदार कटोरे (Spouted bowls) तथा घड़े विशेष उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग के पात्रों का रंग भी हल्का लाल है लेकिन इनके बाहरी भाग-विशेषकर निचले हिस्से को जानबूझ कर खुरदरा बनाया गया है। इस श्रेणी के बर्तनों को आड़े-तिरछे तथा अंगुष्ठ-नख डिजाइनों से अलंकृत किया गया है। विविध प्रकार के कटोरे, छिछले तसले तश्तरियाँ, चौड़े मुँह की हाण्डियाँ तथा घड़े प्रमुख पात्र-प्रकार हैं। तीसरे एवं चौथे वर्ग के बर्तनों की भीतरी एवं बाहरी दोमों सतहों को पकाने के पूर्व किसी चीज से रगड़कर चमकाया गया । लाल एवं काले दोनों ही प्रकार के मृद्भाण्ड इन श्रेणियों में मिलते हैं। कटोरे, तश्तरियाँ, तसले तथा घड़े प्रमुख पात्र-प्रकार हैं जिन पर उत्कीर्ण एवं चिपकवाँ दोनों प्रकार के अलंकरण मिलते हैं।

उपकरण

विन्ध्य क्षेत्र के पुरास्थलों के ऊपरी धरातल के अन्वेषण और उत्खनन से गोले समन्तान्त वाली नवपाषाणिक कुल्हाड़ियाँ सबसे ज्यादा संख्या में प्राप्त हुई हैं, इनकी औसत लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई क्रमशः 5.3 सेमी, 4.45 सेमी तथा. 1.90 सेमी है। इनके अलावा बसूले, छेनी, हथौड़े, सिल-लोढ़े, गोफन-पाषाण एवं चक्रिक प्रस्तर (Bored Stone) आदि उल्लेखनीय हैं। चर्ट, चाल्सेडनी, अगेट, कार्नेलियन, क्वार्ट्ज आदि के ब्लेजों पर बने हुए लघु पाषाण उपकरण भी मिलते हैं। दन्तुरित तकनीक पर निर्मित लघु पाषाण उपकरण नहीं मिले हैं।

पशु-पालन तथा कृषि

पालतू पशुओं में मवेशियों तथा भेड़ और बकरियों की हड्डियाँ प्राप्त हुई है। पशु-पालन के प्रसंग में महगड़ा से प्राप्त पशुओं के बाड़े (Cattle-pen) का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा। महगड़ा की बस्ती के पूर्वी छोर पर अट्ठाइस स्तम्भ-गर्तों के निशान खोज निकाले गये हैं। आयताकार इस बाड़े का आकार 12.5×7.5 मीटर है। इसके प्रत्येक स्तम्भ-गर्त्त की औसत दूरी 1.08 मीटर है। पूर्व दिशा में दो तथा दक्षिण दिशा में एक, इस प्रकार कुल मिलाकर इस बाड़े में तीन दरवाजे थे। बाडे के अन्दर मवेशियों तथा भेड़ बकरियों के खुरों के निशान मिले हैं, ऐसा दावा किया गया है कि जंगली जानवरों में सुअर तथा हिरण की हड्डियों का उल्लेख किया जा सकता है। इनसे यह अनुमान किया जा सकता है कि इन जानवरों का शिकार किया जाता था। जल-जीवों में कछुआ की खोपड़ी तथा मछलियों की हड्डियाँ भी महगड़ा में मिली हैं। इनके अतिरिक्त चिड़ियों की हड्डियाँ भी मिलती हैं।

कालानुक्रम

उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र की नव पाषाणिक संस्कृति का कालानुक्रम सापेक्ष तथा निरपेक्ष विधियों के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है। बेलन नदी की उपत्यका में स्थित कोलडिहवा, पँचोह तथा महगड़ा नामक पुरास्थल-त्रयी का अभी तक उत्खनन किया गया है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि कोलडिहवा तथा पंचोह को नव पाषाणिक लोगों ने पहले आबाद किया। कुछ काल के पश्चात् महगड़ा में आकर ये लोग बस गये। कोलडिहवा में नवपाषाणिक स्तरों का केवल 45 सेमी मोटा जमाव मिला हैं जबकि महगड़ा में यह जमाव 2.60 मीटर मोटा है। यहाँ पर अपेक्षाकृत बाद तक आबादी कामय रही। वह क्रम कितने वर्षों तक चलता रहा, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कहना सम्भव नहीं है। भारत के पूर्वी तथा पूर्वोत्तर क्षेत्रों में बिहार, उड़ीसा, असम, मेघालय तथा नागालैंड से गोल समन्तान्त वाली नव पाषाणिक प्रस्तर कुल्हाड़ियाँ मिली हैं। असम के दओजली हैडिंग, सफ़तरु एवं मरकडोला आदि पुरास्थलों के उत्खनन से प्रस्तर-कुल्हाड़ियों के अतिरिक्त डोरी-छाप हस्त-निर्मित मृद्भाण्ड भी मिले हैं।

भारत के बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया के क्षेत्रों से भी नव पाषाणिक परिप्रेक्ष्य में डोरी-छाप मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं, बर्मा में स्पिरिट गुफा (Spirit Cave), नॉन-नॉक-था (Non- Nok-Tha) और पदाह-लिंक/adah-lin) नामक पुरास्थलों से प्राप्त डोरी-छाप मृद्भाण्डों से युक्त नवपाषाणिक संस्कृति का समय पाँचवीं-चौथी सहस्त्राब्दी ई०पू० निर्धारित किया गया है। इसी प्रकार वियतनाम में स्थित होआबिन्ह (Hoabinh) तथा कम्पुचिया में स्थित लांग स्पीन (Laang Spean) नामक पुरास्थलों से भी डोरी-छाप मृद्भाण्ड छठी-पाँचवीं सहस्राब्दी ई०पू० के परिप्रेक्ष्य में मिले हैं। इस आधार पर उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र की नव पाषाणिक संस्कृति का कालानुक्रम पाँचवीं-चौथी सहस्राब्दी ई०पू० में रखा जा सकता है क्योंकि यहाँ से दक्षिण पूर्व एशिया के पुरास्थलों से मिलती-जुलती पुरातात्त्विका सामग्री प्राप्त हुई है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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