अर्थशास्त्र / Economics

भारत में निर्धनता | निर्धनता का दुष्चक्र | निर्धनता के दुष्चक्र का विश्लेषण

भारत में निर्धनता | निर्धनता का दुष्चक्र | निर्धनता के दुष्चक्र का विश्लेषण

भारत में निर्धनता

भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था का चित्रण यों तो सहज व लुभावना दिखाई देता है, क्योंकि गाँव का सादा जीवन व लहलहाते खेत अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ होने का दावा करते हैं। आज स्वतंत्रता के 55 वर्षों बाद भी भारतीय किसान कितने संकटों में जीवन व्यतीत कर रहा है। इस पर ध्यान दें तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विगत पाँच दशाब्दी से निर्धनता व बेरोजगारी का जो कहर टूटा है वह किसी भी अर्थविद से छिपा नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में गाँववासियों की गरीबी व बेकारी यह स्वतः स्पष्ट कर देती है कि 65% कृषक गरीबी के दुष्चक्र में हैं। स्वतंत्रता के बाद आर्थिक नियोजन का जो मूल उद्देश्य गरीबी निवारण व रोजगार के अवसर सृजित करना था, वह ग्रामीण क्षेत्रों तक आखिर क्यों नहीं पहुँच सका? इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त गरीबी व बेकारी का विश्लेषण करते हुए समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP) व राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रमों (NREP) का अध्ययन आवश्यक है।

भारत में निर्धनता का अनुमान (Estimate of Poverty In India) –

भारतवर्ष में योजना आयोग के अनुसार वर्ष 1980 में 31.68 करोड़ लोग अर्थात् कुल जनसंख्या का 48.1% लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे, जो 1988 ई0 में घटकर 23.2 करोड़ रह गई।

अर्थशास्त्रियों का मत है कि उक्त ऑकड़े असत्य हैं। देश में आज तक 50% जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे हैं। वर्तमान समय में लगभग 80% (22 करोड़) ऐसे लोग केवल गाँवों में हैं।

गाँवों की कुल जनसंख्या का यह 40% है। अतः प्रत्येक 100 लोगों में 40 लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं जिन्हें 2400 कैलोरी प्राप्त नहीं होती है, शेष 5 करोड़ गरीब जनसंख्या जो शहरी क्षेत्रों में जीवन-यापन कर रही है, कुल शहरी जनसंख्या की लगभग 28% है।

देश में सर्वाधिक गरीबी बिहार में 49.6% है, लेकिन जनसंख्या की दृष्टि से गरीबी उत्तर प्रदेश में अधिक है। इस राज्य में लगभग 4.5 करोड़ लोग गरीब हैं।

ग्रामीण निर्धनता के अनुपात में कमी (Deficiency in Ratio of Rural poverty)-

देश में निर्धनता सम्बन्धी संतोषजनक आँकड़ों का अभाव है। वर्तमान शताब्दी के सातवें दशक के अन्त तक भारत की लगभग 54% जनसंख्या न्यूनतम जीवन-स्तर के नीचे रही हैI (On the incidence of poverty in rural India, Economic and Political Weekly- Annual Issue Feb. 1973.)

जबकि वर्तमान समय में सरकार का मत है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे व्यक्तियों की संख्या कम करने में निर्धनता उन्मूलन के कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की विशेष उपलब्धियाँ परिलक्षित होती हैं, क्योंकि सन् 1977-78 में ग्रामीण निर्धनता का प्रतिशत 51.2 था, जो 1984-85 में घटकर 39.9% रह गया । अनुमान है कि 2009-2010 में निर्थनता घटकर केवल 37.2% हो जायेगी।

निर्धनता का दुष्चक्र

भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘निर्धनता का दुष्चक्र’ है। अब प्रश्न है कि निर्धनता का दुष्चक्र क्या है? इस परिप्रेक्ष्य में वह निर्धन व्यक्ति जो आर्थिक दुष्चक्र अथवा क्रिया-प्रक्रिया में रहकर निर्धन हो जाये तो इसे निर्धनता का दुष्चक्र कहते हैं।

प्रो. रेगनर नर्कसे के अनुसार, “निर्धनता के दुष्चक्र से तात्पर्य तारामण्डल के समान शक्तियों का इस प्रकार घूमने से लगाया जाता है कि वे परस्पर क्रिया-प्रक्रिया करती हुई गरीब देश को गरीबी की श्रेणी में बनाये रखें।”

प्रो. नर्कसे ने कहा है कि जैसे तारामण्डल घूमता है, उसी प्रकार निर्धनता का दुष्चक्र भी घूमता है परिणामस्वरूप निर्धन देश सदैव निर्धन ही बना रहता है। जैसे एक गरीब मनुष्य को भोजन न मिलने पर वह दुर्बल हो जाता है, फलतः कार्यक्षमता क्षीण होने पर कम काम के बदले कम आय प्राप्त कर पाता है, यह क्रम उस मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता है।

निर्धनता के दुष्चक्र का विश्लेषण (Analysis of Vicious Circle of Poverty)-

जब किसी समाज की आय कम होगी तो बचत स्तर हीन रहेगा जिससे विनियोग हेतु पूँजी का अभाव रहेगा। फलतः नवीन उपक्रमों की स्थापना कठिन व आधुनिक उत्पादन तकनीक विकसित न हो सकेगी। इसका कुप्रभाव यह होगा कि उपक्रमों की उत्पादकता अत्यन्त कम रह जायेगी। फलतः श्रमिक गरीबी के दुष्चक्र में फँसा रहेगा। यदि इस तथ्य को भारत में लागू करें तो कोई भी अर्थविद ‘पूँजी के अभाव’ को देखकर इस बात से इन्कार नहीं कर सकता है कि भारत ‘गरीबी के दुष्चक्र’ से मुक्त है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नर्कसे ने गरीबी के दुष्चक्र का अहम् कारण पूँजी निर्माण की कमी बताया है। इसके लिए अबाध गति से विकास प्रक्रिया अपनानी चाहिए।

निर्धनता दुष्वक्र कैसे तोड़ने चाहिए?

जब देश निर्धनता के दुष्चक्र में है तो उसका समाधान निम्नवतु है-

(अ) सर्वप्रथम बचतों को प्रोत्साहित करना चाहिए, देशवासी उपभोग व्ययों में कटौती करके बचत में अपना योगदान दे। अंतः ‘ऐच्छिक बचत’ पर बल देना चाहिए।

बचतों के अनुत्पादक व्यय, जैसे-भोज, विवाह, रीति रिवाजों आदि पर न करके उत्पादक कार्यों पर व्यय होना आवश्यक है।

(ब) निवेश वह प्रक्रिया है जिस पर आर्थिक विकास निर्भर होता है। इसलिए निवेदश को इस प्रकार प्रतिबन्धित करना चाहिए कि निवेश से अधिकतम लाभ मिले। अतः अल्पकालीन व दीर्घकालीन योजनाओं से जहाँ अल्पकालीन योजनाओं द्वारा कृषि क्षेत्र में सिंचाई, यंत्र, खाद, उन्नत बीज आदि पर निवेश करना चाहिए, वहीं दीर्घकालीन निवेश योजनाओं में भारी उद्योग, उपभोक्ता सम्बन्धी उद्योगों पर निवेश होना चाहिए। इससे रोजगार के नवीन अवसर सृजित होगे, देशवासियों को आय प्राप्त होगी, फलतः गरीबी का दुष्चक्र स्वतः टूट जायेगा।

(स) बाजार का विस्तार गरीबी उन्मूलन के लिए दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि बाजार विकसित होने पर निवेश-कर्त्ता प्रोत्साहित होते हैं। यदि भारतीय परिप्रक्ष्य में ‘निर्धनता का दुष्वक्र’ तोड़ना है तो यह नितान्त आवश्यक है कि शहरों की अपेक्षा गाँवों पर विशेष बल देना चाहिए जिससे गाँववासियों की ‘आय’ में वृद्धि हो और वे माँग में वृद्धि कर सकें।

(द) अर्द्ध विकसित देशों की मानव पूँजी गरीबी के कारण अविकसित रहती है। अतः जनसंख्या में तकनीकी शिक्षा का प्रसार, स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, सुविधाओं में वृद्धि परिवहन व संचार साधनों का प्रसार आदि महत्वपूर्ण कदम उठाये जाने चाहिए।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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