अर्थशास्त्र / Economics

विकासशील अर्थव्यवस्था | विकासशील अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की प्रमुख बाधायें | अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास की प्रमुख बाधायें

विकासशील अर्थव्यवस्था | विकासशील अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की प्रमुख बाधायें | अर्द्ध-विकसित देशों के आर्थिक विकास की प्रमुख बाधायें | Developing economy in Hindi | Major barriers to economic development of a developing economy in Hindi | Major barriers to economic development of under-developed countries in Hindi

विकासशील अर्थव्यवस्था

अल्पविकसित देशों के आधारभूत लक्षणों को ही उनके विकास की मुख्य बाधयें माना जा सकता है। गैलब्रिथ (Gailbreth) के अनुसार, “अल्प-विकास (निर्धनता) का न तो कोई अकेला कारण है और न कोई अकेला समाधान।” मायर (Meier) और बाल्डविन (Baldwin) के अनुसार, “मूलरूप से बाजार सम्बन्धी अपूर्णताओं के कारण अल्पविकसित देशों में साधनों का अनुकूलतम आवंटन नहीं हो पाता है।” आर्थिक दुश्चक्रों के कारण संस्थागत परिवर्तन नहीं हो पाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियाँ निर्धन देशों की दृष्टि से लाभप्रद नहीं होतीं। जिस सीमा तक ये बाधायें एक-दूसरी पर छा जाती है और बल प्रदान करती हैं, उस सीमा  तक निर्धन देश की अर्थव्यवस्था को सुधारना तथा उसका विस्तार करना कठिन हो जाता है। परिणामतः ऐसे देश में दरिद्रता स्थायी बनी रहती है। अल्पविकसित देशों के आर्थिक विकास में विद्यमान मुख्य बाघायें (आर्थिक और अनार्थिक) निम्नलिखित हैं-

  1. निर्धनता का दुश्चक्र-

अल्पविकसित देशों में विद्यमान ‘निर्धनता के दुश्चक्र’ का पता पूँजी की न्यूनता बाजार सम्बन्धी अपूर्णताओं, आर्थिक पिछड़ेपन और अलप-विकास के अस्तित्व से लगता है। निम्न उत्पादकता’ निम्न वास्तविक आय के रूप में परिलक्षित होती है। नीची आय का अर्थ बचत एवं निवेश की नीची दर होता है। परिणामतः उत्पादकता का नीचा स्तर पूर्ववत् बना रहता है। यह निर्धनता के दुश्चक्र का पूर्ति-पक्ष है। माँग-पक्ष इस प्रकार है: वास्तविक आय का नीचा स्तर माँग के नीचे स्तर को जन्म देता है, जो बदले में निवेश की नीची दर तथा उसके माध्यम से पूँजी की न्यूनता और निम्न उत्पादकता को जन्म देता है।

निर्धनता का दुश्चक्र अल्पविकसित देशों को आय के निम्न स्तर से मुक्ति नहीं देता और फलस्वरूप इन देशों में पूँजी निर्माण की दर बहुत कम रहती है। पूँजी निर्माण की दर के निम्न होने के कारण निवेश की मात्रा में वृद्धि नहीं हो पाती, जिससे अर्थव्यवस्था पिछड़ी रहती है। इस निर्धनता के दुश्चक्र को तोड़ने के लिये प्रोफेसर रेगनर नर्क्स ने सन्तुलित विकास पद्धति अपनाने की सलाह दी है अर्थात् अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में भारी मात्रा में पूँजी निवेश एक साथ किया जाना चाहिये, जिससे विकास की गति को तीव्रता प्राप्त हो सके।

मुद्रा

  1. पूँजी-निर्माण की नीची दर-

पॉल एल्बर्ट (Paul Albet) के अनुसार, “विनियोग हेतु उपलब्ध घरेलू बचतों की न्यूनता द्रुत आर्थिक विकास में प्रमुख एकाकी बाधा है।” के. मेण्डिलबॉम (K. Mandelbam) के अनुसार, “निर्धन कृषि प्रधान देशों में औसत आय इतनी कम तथा औसत उपभोग-क्षमता इतनी अधिक है कि विनियोग हेतु बहुत कम बच पाता है।” रागनर नक्सें (Ranger Nurkse) के अनुसार “अल्पविकसित देशों के धनी व्यक्ति (भूस्वामी और व्यापारी) अपनी बचतों को प्रयोग सट्टा कार्यों, वस्तु-संग्रह, ऋणों के लेन-देन, विदेशी संग्रह और दिखावटी उपभोग में करते हैं।” इन देशों में बचत और विनियोग की प्रेरणा का अभाव अनेक कारणों से पाया जाता है, जैसे- कानून और व्यवस्था की खराब स्थिति, राजनीतिक अस्थिरता, अस्थिर मौद्रिक दशायें, आर्थिक जीवन में निरन्तरता का अभाव, संयुक्त परिवार प्रणाली आदि। विनियोग-वृद्धि में अन्य बाधक तत्व हैं- सरल जीवन, घरेलू बाजार का सीमित क्षेत्र, विनियोग उद्देश्य से कोष प्राप्त करने में कठिनाई, निपुण श्रमिकों और साधन- गतिशीलता का अभाव, आधारभूत सुविधाओं (परिवहन, शक्ति जल-आपूर्ति आदि) की अनुपस्थिति या अपर्याप्तता, उद्यमी योग्यता का अभाव आदि। उच्च आय वर्ग और निम्न-आय वर्ग के बीच छोटा-सा मध्यम आय वर्ग होता है। यह कम जोखिमपूर्ण कार्यों में संलग्न रहता है, जैसे- विपणन तथा अन्य सेवायें उपलब्ध कराना। इस वर्ग में भी उद्यमी योग्यता का अभाव होता है। संस्थागत वित्त, उन्नत तकनीक, प्रशिक्षित श्रम और प्रबन्ध की प्राप्ति में कठिनाई के कारण यह वर्ग विनिर्माणी-उद्योगों में निवेश करने से हिचकिचाता है। ये समस्त कठिनाइयाँ परस्पर मिलकर पूँजी की वृद्धि में बाधक बनती हैं।

अल्पविकसित देशों में पूँजी निर्माण को बढ़ावा देने के लिये प्रोफेसर नक्सें तथा कुजनेट्स ने कृषि कार्यों में संलग्न फालतू जनसंख्या को औद्योगिक क्षेत्र में हस्तान्तरित करने की सलाह दी। क्योंकि ऐसा करने से कृषि उत्पान पर तो प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि इन फालतू श्रमिकों को औद्योगिक क्षेत्र से मिलने वाली आय पूँजी निर्माण के लिये प्रयुक्त की जा सकती है। इसके अतिरिक्त इन देशों में ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय संस्थाओं की स्थापना करके फालतू बचतों को विकास की ओर मोड़ा जा सकता है।

  1. जनसंख्या की तीव्र वृद्धि-

अल्पविकसित देशों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि आर्थिक विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। जनसंख्या के अत्यधिक दबाव के कारण एक तरफ तो खाद्यान्त्रों का अर्थव्यवस्थाओं में अभाव बना रहता है और इस अभाव की वजह से आय की अधिकांश मात्रा उपभोग पर व्यय हो जाती है, जिसकी वजह से पूँजी निर्माण सीमित मात्रा में हो पाता है। दसरे, बढ़ी हुई जनसंख्या को रोजगार दिलाना सम्भव नहीं हो माता और अधिकांश जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न रहती है। इस जनसंख्या का एक बड़ा माग अल्प रोजगार तथा छिपी बेरोजगारी से पीड़ित रहता है, जिसकी वजह से निवेश के लिये कृषि से बहुत कम अतिरेक प्राप्त होता है, और फलस्वरूप आर्थिक विकास को प्रोत्साहन नहीं मिलता।

अल्पविकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर 2 से 3.5 प्रतिशत के बीच है, जिसे कम किया जाना जरूरी है। जब तक ये देश अपनी जनसंख्या वृद्धि की दर को घटाकर 1.5 प्रतिशत नहीं कर लेते, तब तक इन देशों में विकास का मार्ग बाधित ही रहेगा जनसंख्या पर नियंत्रण के लिये इन राष्ट्रों परिवार नियोजन कार्यक्रमों को कड़ाई से लागू करना होगा। इसके अतिरिक्त देश की जनसंख्या के साक्षरता स्तर को भी उन्नत बनाना होगा, जिससे सीमित परिवार के प्रति स्त्री तथा पुरुषों में जागरूकता उत्पन्न हो जाये।

  1. सामाजिक-सांस्कतिक बाधायें-

अल्प-विकसित देशों में विद्यमान सामाजिक संस्थायें और अभिरुचियाँ आर्थिक विकास के अनुकूल नहीं होती। दोषपूर्ण व्यावसायिक विभाजन, रूढ़िवादी परम्परायें और विश्वास समाज का जातियों और वर्गों के बीच विभाजन, धार्मिक भिन्नतायें, नातेदारी सम्बन्ध और क्षेत्रीय पहचान आदि घटक सामाजिक एवं भौगोलिक गतिशीलता में बाधक बनते हैं। अलपविकसित देशों के निवासी नव-प्रवर्तनों के प्रभाव द्वारा सृजित नये मूल्यों का सर्वथा विरोध करते हैं। मुख्य सामाजिक और आर्थिक इकाई ‘परिवार’ की अभिरुचियाँ जनसंख्या के दबाव और भूमि से लगाव के प्रति उत्तरदायी होती हैं। संयुक्त परिवार प्रथा व्यक्ति की आर्थिक निर्णय लेने की स्वतन्त्रता सीमित कर देती है, जिसका बचत और विनियोग की प्रेरणाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बचत या तो दबाकर रखी जाती है या स्वर्ण, भूसम्पत्ति आदि में निवेश की जाती है या सामाजिक-धार्मिक उत्सवों पर खर्च कर दी जाती है। धनी वर्गों का दिखावटी उपभोग उनकी बचत और विनियोग की क्षमता परिमित कर देता है।

ऐसे समाज में सम्बन्ध सार्वभौमिक होने की बजाय व्यक्तिगत या पैतृक होते है। व्यक्ति नातेदारी या जाति द्वारा निर्धारित सामाजिक स्थिति से प्रभावित होते हैं। प्रत्येक जाति का व्यवसाय निश्चित होने के कारण विशिष्ट योग्यतायें अप्रयुक्त रह जाती है। सामाजिक परम्परायें अच्छी सरकार, स्वच्छ प्रशासन तथा विशाल-स्तरीय उपक्रमों के कुशल संचालन में बाधक बनती हैं। इनसे भाई-भतीजावाद, घूसखोरी, पक्षपात और क्षेत्रफल को बढ़ावा मिलता है। बुरा प्रशासन, चाहे वह निजी उपक्रमों में हो या सार्वजनिक उपक्रमों में, आर्थिक विकास को अधिक कठिन बना देता है। शिक्षा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण भी आर्थिक विकास के अनुकूल नहीं होता। अल्पविकसित देशों में तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा की बजाय सामान्य शिक्षा को वरीयता दी जाती है। शिक्षित व्यक्ति शारीरिक श्रम से घृणा करते हैं। शिक्षा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण इन देशों को तकनीकी दृष्टि से पिछड़ा बनाये रखता है। इन देशों में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वास मितव्ययता और कठोर परिश्रम का विरोधी होता है। व्यक्तियों को यह विश्वास नहीं होता कि प्रयत्न द्वारा प्रगति सम्भव हे तथा भाग्य की अन्धी शक्तियों के आगे वे असहाय नहीं है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थायें जो अल्पविकसित देशों में विकास के मार्ग को अवरूद्ध रखती है, इनसे छुटकारा पाने के लिये जनसंख्या को शिक्षित करना होगा। वर्तमान शिक्षा के स्तर में सुधार लाने के लिये अल्पविकसित देशों को अपनी सकल राष्ट्रीय आय का 6 से लेकर 8 प्रतिशत तक शिक्षा पर व्यय करना होगा जिससे साक्षरता का स्तर उन्नत हो सके। साक्षर व्यक्ति धार्मिक अंधविश्वास व पुराने रीति-रिवाजों को त्यागने के लिये तत्पर रहते हैं।

  1. उद्यमशीलता तथा प्रबन्धकीय-दक्षता का अभाव-

अधिकांश अल्पविकसित देशों में उद्यमी योग्यता एवं प्रबन्धकीय दक्षता स्वल्प साधन रही है। जो थोड़े बहुत उद्यमी पाये जाते हैं, वे स्वयं को निवेश में निहित जोखिम से दूर रखते हैं। व्यापारी और व्यवसायी स्वयं को प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादनकर्त्ता निर्यात-उद्यमों में संलग्न रखते हैं। फलतः पूँजी के वास्तविक स्टॉक में कोई वृद्धि नहीं हो पाती। वौर और यामी (Baur and Yamey) के अनुसार, आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुये समाजों में उद्यमी गुणों के विकास एवं प्रयोग में बाधायें उपस्थित हैं। नये विचारों और नये ज्ञान की पिपासा के प्रति अविश्वास से ऐसा वातावरण बन गया है, जो प्रयोगों (Experiments) और आविष्कारों के प्रतिकूल है।

इन देशों में उद्यमी गुणों के विकास तथा प्रबन्धकीय दक्षता में वृद्धि के लिये सरकार ऐसे प्रतिष्ठानों की स्थापना करे, जहाँ व्यावसायिक प्रशिक्षण की सुविधायें उपलब्ध हो सके।

  1. अस्थिर राजनीतिक वातावरण-

अल्पविकसित देशों में राजनीतिक अस्थिरता विकास के रास्ते में सबसे बड़ी अड़चन है। इन देशों में निर्वाचित सरकारें अपना कार्यकाल शायद ही पूरा कर पाती हों और फलस्वरूप आर्थिक नीतियों में शीघ्र परिवर्तन होते रहते हैं। आर्थिक नीतियों में तेजी से बदलाव पूँजी निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। विदेशी निवेशक अपनी पूँजी को असुरक्षित मानकर इन देशों से निकाल कर ऐसे देशों से निकाल कर ऐसे देशों में ले जाने के लिये आतुर रहते हैं, जहाँ उनकी पूँजी को सुरक्षा मिल सके। इतना ही नहीं अल्पविकसित देशों में आन्तरिक सुरक्षा का अभाव, हड़ताल प्रदर्शन तथा भ्रष्टाचार आदि का बोलबाला रहता है और जिनकी वजह से विकास में बाधा उत्पन्न होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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