अर्थशास्त्र / Economics

जनसंख्या एवं आर्थिक विकास के मध्य सम्बन्ध | Relationship between population and economic development in Hindi

जनसंख्या एवं आर्थिक विकास के मध्य सम्बन्ध | Relationship between population and economic development in Hindi

जनसंख्या और आर्थिक विकास (Population and Economic Development)-

भारत में सामान्यतया यह माना जाता है कि देश में संसाधनों के सापेक्ष तथा तकनीकी प्रगति की तुलना में, जनसंख्या का आधिक्य है, जो आर्थिक विकास में बाधक है। इसके अलावा, जनसंख्या में वृद्धि अर्थव्यवस्था पर और ज्यादा दबाव बनाएगी क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या की उपभोग आवश्यकताओं को पूरा करने में ज्यादा संसाधनों की आवश्यकता होगी और उत्पादक कार्यों के लिए उपलब्ध संसाधनों की मात्रा कम हां जाएगी। परन्तु कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि जनसंख्या में वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक नहीं है।

नीचे हम दोनों दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं-

जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक है (Population Growths an Obstacle in Economic Development)-

जनसंख्या वृद्धि को आर्थिक विकास में बाधक सिद्ध करने वाले तर्कों को निम्न व्गों में बांटा जा सकता है-

(1) जनसंख्या वृद्धि और गिरता हुआ भूमि-मानव अनुपात,

(2) जनसंख्या वृद्धि और पूंजी निर्माण, तथा

(3) अन्य कारण।

जनसंख्या वृद्धि और गिरता हुआ भूमि-मानव अनुपात (Population Growth and the Declining Land-man Ratio) –

यह कहा जाता है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है, जिससे भूमि-मानव अनुपात लगातार कम होता जा रहा है। यह आर्थिक विकास में बाधक है। 1951 में जनसंख्या का घनत्व 117 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर था, जो 2011 में बढ़कर 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया। यदि हम यह मान्यता लें कि इस अवधि में न तो उपयोग-योग्य संसाधनों में वृद्धि हुई है और न ही प्रौद्योगिक उन्नति, तो निश्चय ही एक गंभीर बात है परन्तु जनसंख्या में वृद्धि को हमेशा उत्पादक शक्ति के विकास के साथ जोड़कर देखना चाहिए।

जनसंख्या वृद्धि तथा पूंजी निर्माण (Population Growth and Capital Formation)-

एक अन्य तर्क जिसका अक्सर सहारा लिया जाता है, यह है कि तेजी से बढ़ती जनसंख्या अनुत्पादक कार्यों के लिए बड़ी मात्रा में संसाधनों की मांग करती है। इससे पूंजी संचयन की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

जनसंख्या वृद्धि के अन्य कुप्रभाव (Other Adverse Effects of Population Growth)-

ऊपर दिए गए तर्क के अलावा, यह कहा जाता है कि तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या रोजगार तथा जीवन स्तर पर बुरा असर डालती है। उसके कारण खाद्यान्नों की कमी हो जाती है। और उनका आयात करना पड़ता है। इसके कारण जनसंख्या के व्यावसायिक वितरण में परिवर्तन लाना भी मुश्किल हो जाता है।

  1. रोजगार स्थिति पर कुप्रभाव-

विकासशील देशों में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी तथा अल्परोजगारी पाई जाती है। क्योंकि अर्थव्यवस्था के द्वितीयक व तृतीयक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में तेजी से वृद्धि नहीं हो पाई है। इसलिए बढ़ती हुई संख्या में लोगों को कृषि पर काम करना पड़ रहा है। इससे कृषि पर दबाव बढ़ता है तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी (disguise unemployment) की समस्या पैदा होती है। भारत जैसे श्रम-आधिक्य वाले देशों में यह समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप श्रम उत्पादकता बहुत कम रह गई है (सम्मवतः शून्य के आसपास)।

2. प्रति व्यक्ति आय और जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव-

विकासशील देशों में तेज जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति आय स्तर तथा जीवन के सामान्य स्तर में वृद्धि कर पाना कठिन हो जाता है। जैसाकि ऊपर कहा गया है, भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ गया है, जिससे कृषि उत्पादकता कम जा गई है तथा प्रच्छन्न बेरोजगारी की स्थिति पैदा हो गई है। स्वाभाविक है कि इसके परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति आय स्तर कम होता है तथा जीवन स्तर में भी गिरावट आती है। विकासशील दशो में निर्भरता भार (dependency burden) भी विकसित देशों की तलना में अधिक है क्याकि उन्हें लगभग दुगुनी संख्या में बच्चों का भार उठाना पड़ता है। इससे भी जीवन स्तर पर प्रातिकूल प्रभाव पड़ता है।

  1. खाद्यान्नों की कमी व आयात-

बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण कई विकासशील देशों में खाद्यान्नों की मांग तेजी से बढ़ रही है। परन्तु कृषि उत्पादकता कम होने के कारण खाद्यान्न की आपूर्ति मांग की तुलना में कम बनी रही है। इससे कई विकासशील दशा में कई बार गंभीर खाद्य संकट की स्थिति पैदा हुई और लाखों लोग भुखमरी के शिकार हुए हैं।

इसके कारण इन देशों की कई वर्षों में खाद्यान्नों का बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ा है।

  1. बढ़ती हुई जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के कुप्रभाव-

तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण, सरकार के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह आम लोगों की बढ़ती हुई खाद्यान्नों की मांग को परा करने के लिए उचित मात्रा में खाद्यान्नों की आपूर्ति सुनिश्चित करे इसलिए उसे किसानों को मूल्य प्रेरणाएं (Price incentives) देनी पड़ती है। ताकि वे खाद्यान्नो का अधिक उत्पादन करें। इसी प्रकार, उसे कम कीमत पर उपयुक्त मात्रा में खाद्यान्नों की मात्रा उपलब्ध करानी पड़ती है ताकि गरीब उपरोक्तओं की मांग पूरी की जा सके।

जनसंख्या वृद्धि विकास में बाधक नहीं है  (Population Growth is not an Obstacle)-

जो लोग इस बात का समर्थन करते हैं कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास में बाधक नहीं है, वे आमतौर पर निम्न तीन तर्क प्रस्तुत करते हैं-

  1. जनसंख्या वृद्धि समस्या नहीं है, समस्याएं अन्य है।
  2. प्रभावी विकसित व धनी देशों ने जानबूझकर विकासशील देशों की जनसंख्या वृद्धि का मुद्दा जोर-शोर से उठाया है ताकि ये विकासशील देश अपनी अल्प विकसित व निर्भरता की स्थिति पर बने रहें।
  3. कई विकासशील देशों व क्षेत्रों में तो जनसंख्या में वृद्धि होना एक अच्छी बात है।”

जहाँ तक पहले तर्क का प्रश्न है, यह कहा जाता है कि असली समस्या जनसंख्या नहीं बल्कि अल्पविकास है। जनसंख्या वृद्धि को हमेशा उत्पादक शक्तियों के विकास के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। जिन अर्थव्यवस्थाओं में पिछड़े सामाजिक-आर्थिक संबंधों के कारण उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं हो पाता, उनमें अनुकूल भूमि-मानव अनुपात भी कोई मदद नहीं कर सकेगा। माल्थस तथा उनके अनुयायियों का यह तर्क कि खाद्य समस्या एक रुकावट बन कर खड़ी हो जाएगी, अब महत्वहीन हो चुका है। मानव ने उत्पादकता वृद्धि के कई साधन खोज निकाले हैं तथा प्रौद्योगिकी में तेजी से सुधार से यूरोप के कई देशों में खाद्य समस्या पर विजय पाई जा चुकी है। कुज्जेत्स तथा स्पैंग्लर जैसे कई अर्थशा्त्रियों ने इस बात पर जोर दिया है कि मानव जाति के सामने अब प्राकृतिक संसाधनो की कमी कोई रुकावट नहीं है।

जहाँ तक दूसरे तर्क का संबंध है, यह कहा जाता है कि ‘अति जनसंख्या’ का ढिंढोरा अकसर धनी देश पीटते हैं ताकि गरीब देशों का विकास रोका जा सके और स्व-हित में धनी देश अपना वर्चस्व बनाए रख सकें। गरीब देशों को उनकी अपनी गरीबी का जिम्मेदार ठहरा कर, ये धनी देश अपनी पिछली करतूतों पर पदों डालने का प्रयास करते हैं जिनके तहत उन्होंने अल्पविकसित देशों को अपने औपनिवेशिक शोषण का शिकार बनाया तथा उनकी अर्थव्यवस्थाओं को कई दशकों तक लूटा। इस ‘औपनिवेशिक शोषण’ के परिणामस्वरूप कई गरीब देश अल्पविकसित बन कर रह गए हैं।

तीसरा तर्क उन कम जनसंख्या वाले अल्पविकसित देशों के लिए है, जिनमें विकास समग्र मांग में कमी के कारण नहीं हो पाया। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में बहुत से देश ऐसे है, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। इन सबमे ‘जनसंख्या का कम आकार’ विकास में बाधक है। क्योंकि इसके कारण कृष्य भूमि पर खेती नहीं हो पाती, कम उपभोग के कारण औद्यागिक वस्तुओं की मांग सीमित रहती है, इत्यादि।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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