इतिहास / History

औद्योगिक क्रांति का अर्थ | ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति क्यों हुई?

औद्योगिक क्रांति का अर्थ | ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति क्यों हुई?

औद्योगिक क्रांति का अर्थ

(Meaning of the Infactrial Revolution)

लोहे, कांसे, कोयले और दूसरे मालों के पैदा करने के बा आमूल परिवर्तन को औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) को संज्ञा दी जाती है। पहले वे माल हाथ से मानव अपने श्रम के द्वारा पैदा करता था, लेकिन अब इस सामानों का उत्पादन वाप्प या बाद में बिजली की शक्ति से चलने वालो मशीनों से होने लगा। पहले उत्पादन छोटे पैमाने पर होता था, लेकिन यह कार्य अब बड़े स्तर पर होने लगा। जिस देश में औद्योगिक क्रांति हुई वह देश अपना वाणिज्य-व्यापार बड़े पैमाने पर करने लगा और अपनी आवश्यकता की पूर्ति भी विश्वव्यापी व्यापार द्वारा करने लगा।

क्रांति का प्रचलित अर्ध अकस्मात परिवर्तन होता है। इंगलैंड में 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अकस्मात उत्पादन के तौर तरीके में परिवर्तन हुआ जिससे सामान का उत्पादन तीव्र गति से बढ़ा। प्राचीन काल से चली आ रही तकनीकी क्रियाओं में थोड़ा बहुत हेर-फेर कर 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक उत्पादन किया जा रहा था। लेकिन, 19वीं शताब्दी में तकनीकी क्रियाओं में आश्चर्यजनक रूप से अकस्मात् परिवर्तन हुआ जिसका प्रभाव राजनीति, समाज और अर्थतंत्र पर पड़ा । इससे राज्य की नीति भी प्रभावित हुई और आम आदमी भी। उत्पादन के तौर-तरीके में परिवर्तन कपड़े, लोहे तथा कोयले के उत्पादन तथा आवागमन के साधन के क्षेत्र पाया जाता है।

औद्योगिक क्रांति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांस के समाजवादी नेता ब्लॉकी ने 1837 ई० में किया था और उसके बाद ही यह शब्द अन्य कई लोगों द्वारा प्रयोग किया गया। इस क्रांति के आरंभ की कोई निश्चित तिथि निर्धारित करना संभव नहीं है। पिछली सदियों को तकनीकी प्रक्रियाओं तथा प्रचलनों के गर्भ से इसका जन्म हुआ। औद्योगिक क्रांति एक प्रक्रिया है जो अनवरत चल रही है। यदि पिछड़े राष्ट्रों में अभी औद्योगिक क्रांति शुरू हुई तो उन्नत राष्ट्रों में यह क्रांति किसी विशेष चुरण से गुजर रही है। प्रत्येक राष्ट्र उद्योग-धन्धों में नई मशीनों का उपयोग कर उत्पादन के तौर-तरीके को और सुगम बनाना चाहता है और यह क्रिया सदेव लगी हुई है। अत: यह क्रांति अब भी समाप्त नहीं हुई है और आने वाली सदियों में भी पलती रहेगी।

18वीं शताब्दी के पूर्वाई तक वस्तुओं के उत्पादन का कार्य मनुष्य और पशु द्वारा होता था, लेकिन उसी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्पादन मशीनों के द्वारा किया जाने लगा, इसलिए औद्योगिक क्रांति को बहुधा ‘मशीन युग’ की शुरुआत भी कहा जाता है। वास्तव में 1750 ई. से पहले भी बहुत सी मशीनें काम में लाई जाती थीं। हल, पंप, छापाखाना, चरखा आदि मशीनें इस प्रकार के उदाहरण हैं। सैकड़ों वर्षों से प्रत्येक सभ्यता में लोग प्राचीन तकनीकी कौशल को सुधारने और नए तकनीकी कौशल का विकास करने का प्रयत्न कर रहे थे। किंतु, 1750 ई. के पश्चात् नए अविष्कार शीघता से होने लगे और वे इस प्रकार के आविष्कार थे कि उनके कारण अधिक मनुष्यों के जीवन में तेजी से परिवर्तन हुए। औद्योगिक क्रांति ने समस्त संसार के निवासियों के जीने के ढंग और उनके विचारों में आमूल परिवर्तन लाया।

पहले उत्पादन श्रेणी-पद्धति के द्वारा होता था जिसमें मजदूर, मालिक, उत्पादक और व्यापारी सभी कुछ होते थे। लेकिन, बाद में व्यापारियों ने उत्पादन बढ़ाने के लिए कारीगरों को कच्चा माल और पेशगी भी देना आरंभ किया। इस पद्धति के अनुसार कारीगर सामान बनाता था जिसके लिए उसने पहले ही पेशगी ले लिया होता था और बने हुए सामान को व्यापारी इकट्ठी कर बेचता था। इस पद्धति को ‘घर उत्पादन पद्धति (putting out system) या घरेलू पद्धति’ (domestic system) कहते थे। लेकिन, औद्योगिक क्रांति के बाद धनवानों ने कारखाने लगवाए, जहां अनेक मजदूरों को एक कारखाने में काम करना पड़ता था और उनका स्वामी उन सब वस्तुओं का प्रबंध करता था जिनकी आवश्यकता मजदूरों को उत्पादन के लिए पड़ती थी। कारखाने का स्वामी अपने कारखाने की प्रत्येक वस्तु का स्वामी होता था। उत्पादन की इस प्रणाली को ‘कारखाना पद्धति (factory system) कहते हैं।

ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति क्यों हुई?

Why did the Industrial Revolution first Occur in England?

औद्योगिक क्रांति सर्वप्रथम ब्रिटेन में हुई और बाद में यह दुनिया के अन्य देशों में भी हुई ! यह क्रम आज तक चल रहा है। कुछ देशों में उद्योगीकरण ब्रिटेन की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से हुआ, जैसे मेजी पुनर्स्थापना के बाद जापान में और 1917 ई. की क्रांति के बाद रूस में। 20वीं शताब्दी में तो कई देश ब्रिटेन से भी आगे निकल गए। फिर भी, ब्रिटेन का औद्योगिक क्रांति के क्षेत्र में अपना अलग महत्व है; क्योंकि सर्वप्रथम क्रांति यहीं हुई और 19वीं शताब्दी तक वह औद्योगिक देशों का आमणी था। साथ ही वह अन्य देशों का पथ-प्रदर्शक भी बना, क्योंकि ब्रिटेन में ये परिवर्तन किसी दूसरे देश की सहायता के बिना हुए। इसलिए बिटेन को ‘संसार की उद्योगशाला’ कहा गया है।

अब सवाल उठता है कि यह क्रांति इंगलैंड में ही सर्वप्रथम क्यों हुई? इसके पीछे इंगलैंड में उपलब्ध कुछ परिस्थितियां थीं जिन्होंने उसे औद्योगिक क्रांति होने के लिए उपयुक्त बनाया।

भौगोलिक सुविधाएँ- औद्योगिक क्रांति के लिए आवश्यक था कि आरंभिक अवस्था में प्राकृतिक साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहे। 18वीं एवं 19वीं शताब्दियों के प्रारंभ में यह और भी अधिक आवश्यक था; क्योंकि यातायात के साधन इतने पर्याप्त एवं सुगम नहीं थे कि उत्पादन के साधनों से संबद्ध जरूरतों को आयात द्वारा पूरा किया जा सके। यह ब्रिटेन का सौभाग्य था कि विटेन में कपड़े के उत्पादन के लिए उपयुक्त जलवायु, कोयला तथा लोहे की खानें, आवागमन के योग्य नदियाँ आदि साधन उपलब्य थे। फिर भी ये भौतिक साधन अपने-आप औद्योगिक क्रांति को आमंत्रित नहीं कर सकते थे क्योंकि कमोबेश ये परिस्थितियां और देशों में भी उपलब्ध थीं। इंगलैंड में कुछ और प्रेरक तत्व उस समय मौजूद थे जिन्होंने औद्योगिक विकास में सहयोग किया।

लोहा और कोयले के उत्पादन में वृद्धि- औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने के लिए आवश्यक था कि लोहा और कोयला प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों। लोहे से ही किसी कारखाने की मशीन बनाई जा सकती थी और कोयला से ऊर्जा प्राप्त किया जा सकता था। ब्रिटेन में कोयले का प्रचुर भंडार था। अभी तक् लकड़ी के कोयले से लोहा गलाया जाता था, लेकिन जंगल के कटने से लकड़ी महंगी हो गई थी। ऐसी हालत में लोहा गलाने के लिए पत्थर के कोयले का प्रयोग होने लगा। परंतु, खान खोदने पर पानी निकलने से यह कार्य कठिन हो रहा था। टॉमस न्यूकॉम के बनाए वाष्प इंजन का प्रयाग कोयले की खानों से पानी निकालने के लिए किया जाता था। बाद में जेम्स वाट् ने न्यूकॉम के वाष्प के इंजन में सुधार कर एक कम खर्चीला इंजन बनाया, जिसकी उपयोगिता अधिक थी। ब्रिटेन की खानों में लोहे की कमी नहीं थी, लेकिन इस्तेमाल करने के पहले उन्हें गलाना आवश्यक था। लकड़ी के कोयले से लोहा गलाना खर्चीला था। इस क्षेत्र में डार्बी ने पहल की और उसने लकड़ी के कोयले की जगह पर पत्थर के कोयले से लोहा गलाने के तरीके को अपनाया। लेकिन, डार्बी के तरीके से गलाया लोहा शुद्ध नहीं होता था इसलिए इसका उपयोग बहुत नहीं बढ़ा। हेनरी कोर्ट ने कोक कोयले का इस्तेमाल कर कच्चे लोहे से सभी अशुद्धियां दूर कर उससे फोर्ज में व्यवहार करने के योग्य शुद्ध लोहा निकालने का तरीका निकाला। इससे लोहे के उद्योग में सफलता मिली और लोहे का उत्पादन बढ़ा।

कृषि के क्षेत्र में परिवर्तन- इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति के लिए एक प्रेरक तत्व वहां पर आई कृषि-क्रांति थी औद्योगिक क्रांति से पहले हुई। 18वीं शताब्दी में लोगों की जीविका का प्रधान साधन कृषि था। इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन होने के कारण देहाती आबादी में जमीनवालों की संख्या बढ़ी और ऐसी अवस्था पैदा हुई, जिससे औद्योगिक क्रांति संभव हो सकी। खेती करने के तौर-तरीके में परिवर्तन 17वीं शताब्दी में ही शुरू हुआ। चार्ल्स प्रथम के फाँसी के समय इंगलैंड वालों ने हॉलैंड से शलजम और कंदमूल की खेती करना सीखा। 1688 ई. के बाद खेती में और भी कई परिवर्तन हुए।

परम्परा के अनुसार अभी तक इंगलैंड के किसान फसल उपजाने के बाद तीसरे साल खेत परती छोड़ देते थे, ताकि वह भूमि अपनी उर्वरा शक्ति पुनः प्राप्त कर सके। इससे सारे इंगलैंड की एक-तिहाई भूमि सदैव परती पड़ी रह जाती थी जिसमें उत्पादन नहीं हो पाता था। एक समय वालपोल के मंत्रिमंडल के मंत्री और धुनी किसान टाउनशेण्ड ने अपने खेत में लगातार चार साल तक गेहूं, शलजम, जौ और धान पैदा किए। इससे खेत के कभी खाली नहीं रहने पर भी पैदावार बहुत बढ़ गई। साथ ही, खाद का उपयोग कर उसने पैदावार को और भी अधिक बढ़ाया। जहां अभी तक प्रति एकड़ 6 बूशल गेहूँ होता था, वहाँ अब प्रति एकड़ 24 बुशल होने लगा।

नये तरीके से की गई खेती में जाननरों के लिए पर्याप्त घास उपजती थी। अब पहले से पशुओं और भेडों का वजन दुगने से अधिक हो गया। जानवरों से खेती के काम निकलते थे। उनकी गोबर से खाद प्राप्त किया जाता था और अब लोगों को मांस खाने के लिए पर्याप्त पशु उपलब्य थे। भेड़ के रोएँ से ऊन की भी अधिक प्राप्ति होने लगी।

किंतु, नए ढंग से खेती करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता थी। इसमें मशीनों और खाद् के उपयोग की जरूरत थी, जो साधारण किसान की औकात् के बाहर थी। बिना पूजी के नई खेती नहीं चल सकती थी। वैज्ञानिक ढंग से खेती करने के लिए बिना घेरे के छोटे छोटे हलके में मशीन का उपयोग नहीं किया जा सकता था। इसके लिए बड़े-बड़े खेतों की आवश्यकता थी, जो चारों ओर से घिरा हो, जिसमें मवेशी घुसकर फसल को नुकसान न कर दें, अतएव, केवल धनी किसान और बड़े-बड़े भूमिपति ही इस ढंग से खेती कर सकते थे। वास्तव में खेती के नए तरीकों को अपनानेवाले काफी संपन्न व्यक्ति थे।

संपन्न व्यक्तियों ने बड़े बड़े खेत बनाने आरंभ किए। छोटे-छोटे किसानों पर दबाव डालकर और घूस देकर उन्हें अपना-अपना खेत छोड्ने को कहा गया। ऐसे छोटे खेतों को मिलाकर चारों ओर से घेरकर बड़े खेत बनाए गए। इसे अंग्रेजी में ‘इन्क्लोजर’ (enclosure) कहा गया। 14वीं और 15वीं शताब्दियों में बड़े-बड़े चरागाह बनाए गए थे, क्योंकि उस समय ऊन से अधिक मुनाफा होता था और भेड़ों के लिए चरागाह की जरूरत थी। लेकिन, 18वीं शताब्दी में खेती में ही ज्यादा फायदा दिखाई देने लगा। परिणामत: धनी किसान और पूंजी-संपन्न लोग इन्क्लोजर द्वारा बड़े-बड़े खेत बनाकर कृषि करने लगे और अधिक मुनाफा कमाने लगे। बड़े खेत में पुराने किसानों को बहुत कम हिस्सा दिया गया और जहां- तहां उन्हें अपनी जमीन बेचने को मजबूर किया गया। उन्हें जो थोड़ा-बहुत पैसा मिला उसे वे खा-पीकर बैठ गए। रोजी के लिए उन्हें मजदूरी का सहारा लेना पड़ा। इस तह, 1730 और 1788 ई० के बीच 40 हजार छोटे-छोटे खेतों का अंत हुआ और उनसे जीविका कमाने वाले बहुत से लोग बेघर और बेरोजगार होकर मजदूरी करने के लिए विवश हुए।

इसके अलावा देहातों में चरागाहों को भी घेरकर बड़े-बड़े खेत बनाए गए। गांव में बहुत से ऐसे लोग थे जो कुछ समय अपने घर में छोटे-छोटे घरेलु उद्योग-धंधों में हाथ बंटाते थे और फालतू समय में आम चरागाह में अपने दो-चार मवेशियों को चराते थे। इसी से उनको जीविका चलती थी। चरागाहों के समाप्त हो जाने से उनकी जीविका का आधा साधन समाप्त हो गया और अब उनका एकमात्र सहारा घरेलू धंधों से मिलने वाली मजदूरी ही रह गई। यह मजदूरी उन लोगों को परिवार चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी और फिर मशीन की प्रतियोगिता के आरंभ होने पर घरेलू उद्योगों को काफी बड़ा धक्का लगा। अतएव ऐसे लोगों को जीविका का दूसरा साधन खोजना पड़ा।

कृषि के क्षेत्र में परिवर्तन होने और कृषि क्रांति के औद्योगिक क्रांति के पहले हो जाने से औद्योगिक क्रांति को बहुत फायदा हुआ। खेती में आमूल परिवर्तन से बहुत अन्न उपजने लगा जिससे नए औद्योगिक मजदूरों को खिलाने में सहायता मिली। शहरी मजदूरों को तभी खिलाया जा सकता था जब देहाती क्षेत्र में पर्याप्त अन्न उपजता हो और कृषि-क्रांति ने इसे संभव बना दिया। यह सुविधा यूरोप के दूसरे देशों में उपलब्ध नहीं थी, परिणामतः औद्योगिक क्रांति इंगलैंड पहले हुई।

कृषि क्रांति के कारण बहुत से किसान गृहविहीन और भूमिहीन हो गए। वे अब ऐसे स्वतंत्र मजदूर बन गए थे जो रोजी प्राप्त करने के लिए कहीं भी जा सकते थे। स्वतंत्र मजदूरों के कारण कारखानों में बने हुए माल के लिए अपने देश में आसानी से बाजार मिल सका । जब तक ये मजदूर किसान थे, अपनी जरूरत की चीजें स्वयं पैदा करते थे-कुछ खेत से और कुछ गांव के घरेलू उद्योग-धंधों से। किंतु, जब साधनसंपन्न पूंजीपति किसानों ने उनकी जमीन को हथियाकर अपने मुनाफे के लिए अनाज़ पैदा करना शुरू किया तो छोटे-छोटे किसान मजदूर बम गए। अब उनकी जरूरतें घट गई, लेकिन जो कुछ भी जरूरत थी, उसे वे खरीदकर ही पूरा कर सकते थे। इन नए खरीदारों के कारण इंगलैंड के उद्योग-धंधों को अपने घर में बाजार मिला, जिसके आधार पर वे बाहर भी बाजार खोजने लगे।

जनसंख्या में वृद्धि- इस समय की एक विशेषता जनसंख्या की वृद्धि थी। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जनसंख्या में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और 19वीं शताब्दी के प्रथम तीन दशकों में 50 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चिकित्सा पद्धति में सुधार के कारण मृत्यु दर में कमी हुई थी और इसी कारण जनसंख्या की वृद्धि हुई। लेकिन यह सिद्ध किया जा चुका है कि 1850 ई० के बाद चिकित्सा पद्धति में सुधार हुआ। इस काल में बाहर से भी लोग आकर इंगलैंड में नहीं बसे । जनसंख्या में वृद्धि का कारण जन्म-दर में वृद्धि थी और यह इसलिए संभव हो सकी कि बच्चों की मजदूरों के रूप में मांग बढ़ी थी, मजदूरी बढ़ी थी और जल्दी विवाह होने से भी जनसंख्या की वृद्धि में मदद मिली । साबुन तथा सस्ते कपड़े की उपलब्धि के कारण व्यक्तिगत सफाई तथा पहले की तुलना में अधिक पौष्टिक भोजन का भी इस पर प्रभाव पड़ा।

जनसंख्या में वृद्धि से औद्योगिक क्रांति में मदद मिली। जनसंख्या में यह वृद्धि उस समय हुई जब कुत्पादित वस्तुओं की संख्या में वृद्धि हो रही थी। इससे कई बार यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उद्योगीकरण के कारण यह वृद्धि हुई। लेकिन, हकीकत तो यह है कि जनसंख्या की यह वृद्धि औद्योगिक क्रांति होने के पहले ही शुरू हो गई थी और यदि जनसंख्या बढ़ी तो यूरोप के दूसरे देशों में भी बढ़ी। ऐसी स्थिति में निष्कर्ष निकाला जाता है कि जनसंख्या में वृद्धि के कारण वस्तुओं की मांग को बढ़ावा मिला। लेकिन, इसका एक दूसरा परिणाम तो यह भी हो सकता है कि प्रति व्यक्ति वास्तविक आय घट जाए और ऐसी स्थिति में जीवन-स्तर घटने से जनसंख्या घट जाए। यह घटना इन दिनों विकासशील देशों में घट रही है।

वास्तव में जनसंख्या में वृद्धि तथा आत्मनिर्भर आर्थिक विकास इस समय एक चक्र के समान थे। ये एक-दूसरे पर आश्रित थे। जनसंख्या में वृद्धि से वस्तुओं की मांग बढ़ी जिससे उत्पादन-क्षमता बढ़ाने में सहायता मिली। यह उत्पादन क्षमता उन क्षेत्रों में बढ़ी जहां ज्यादा श्रमिकों को लगाने से प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ रहा था। इस कारण मजदूरी बढ़ाना संभव हो गया। मजदूरी बढ़ने से जनता अधिक चीजें खरीद सकती थी जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला । जनसंख्या में वृद्धि से कृषि उत्पादन को बढ़ाने में सहायता मिली।

वस्तुओं की मांग में विस्तार- उद्योगपति उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिनकी बाजार में मांग होती है। जिन परिस्थितियों के चलते उत्पादन के ढंग का निर्णय हो रहा था, वे थीं- (1) स्वदेशी बाजार में मांग का विस्तार (2) विदेशों से बढ़ती हुई मांग और (3) सरकार द्वारा की गई मांग। इसमें प्रथम दो उत्पादन के प्रेरक तत्वों के विषय में इतिहासकारों में काफी विवाद रहा है और तीसरे के विषय में ई०जे० हाब्सबाम ने विशेष ध्यान आकर्षित किया है।

स्वदेशी बाजार में आमतौर पर तीन तरीकों से मांग बढ़ती है-जनसंख्या बढ़ने से उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ती है, प्रति व्यक्ति आय की बढ़ोत्तरी से उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति बढ़ती है तथा पारंपरिक वस्तुओं के स्थान पर औद्योगिक वस्तुओं के प्रयोग से भी मांग बढ़ती है। 18वीं शताब्दी में जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई और प्रति व्यक्ति आय में भी काफी वृद्धि जिससे जनता की क्रयशक्ति बढ़ी। इस शताब्दी के मध्य में इस बात का संकेत मिलता है कि मजदूर अपनी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद हाथ पर हाथ रखकर बैठने के स्थान पर अधिक परिश्रम करके जूते, कपड़े इत्यादि खुरीदने लगे थे जिससे उपयोग की वस्तुओं की मांग में वृहत वृद्धि हुई। वास्तव में औद्योगिक क्रांति से पूर्व भी विटेन में जनसंख्या का बहुत कम भाग जीवन निर्वाह स्तर के नीचे रहता था। समाज के लगभग सभी अंग किसी-न-किसी रूप में मंडी से जुड़े हुए थे। ये लोग या तो विक्री के लिए उत्पादन करते थे या फिर मजदूरी करके जीविका कमाते थे तथा छोटी-छोटी बचत करके निवेश करते थे। इस स्वदेशी बाजार की विशेषता यह थी कि यह बहुत व्यापक और स्थिर था।

ब्रिटेन में उत्पादित माल का विदेशों में खपत होना शुरू हुआ। राष्ट्रीय बाजार की तुलना में इस बाजार का विस्तार बहुत तेजी से हुआ। विटेंन ने अपने उपनिवेशों तथा दुनिया के पिछड़े हुए देशों’ की मांग का पूरा लाभ उठाया और अपने प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करने के लिए हर संभव प्रयल किया। इससे उत्पादको पर दबाव बढ़ा और उन्होंने उत्पादन के नए नए तरीके सहर्ष अपनाए। 1750 से 1770 ई. तक की अवधि में स्वदेश में 7 प्रतिशत मांग बढ़ी, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में यह मांग 80 प्रतिशत बढी! इसलिए यह कहा गया कि देशी बाजार में तो यह मांग बढ़ी ही, लेकिन विदेशी बाजार में तो यह कई गुना गई। सूती कपड़े का उत्पादन, जिसमें सबसे पहले क्रांति आई, विदेशी बाजार की मांग के साथ जुड़ा हुआ था। इसके लिए कच्चा माल गर्म जलवायु, वाले देशों से आता था तथा अधिकतर माल विदेशों में ही बिकता था। 1805 ई. में कुल कपड़े का दो तिहाई भाग विदेशों में बेचा गया। विदेशों में मांग में बढ़ोतरी का कारण विदेशी तथा आंतरिक प्रतिद्वंदियों को राजनीतिक तथा अर्द्धराजनीतिक तरीकों का प्रयोग कर नष्ट करना था। इस कार्य में व्यापारियों को सरकार का पूरा सहयोग मिला। इस समय अंगरेजों ने भारत तथा वेस्टइंडीज में अपना साम्राज्य बढ़ाया जिससे अफ्रीका एवं अमेरिका के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। परंतु इस विदेशी बाजार की विशेषता यह थी कि वह स्थिर नहीं था।

मांग बढ़ने का तीसरा स्रोत तत्कालीन सरकार की आवश्यकताएँ थीं। दूसरे देशों के मुकाबले ब्रिटेन की सरकार अपनी विदेश नीति को देश के आर्थिक हितों के अनुसार ढालने को अधिक तैयार थी। ब्रिटिश कपड़ा उद्योगपतियों ने 1700 ई० तक भारत से आनेवाले कपड़े पर आयात कर लगवाकर संरक्षण प्राप्त कर लिया। ब्रिटिश जलसेना कच्चे लोहे का सबसे अधिक उपयोग करती थी। युद्धों के समय युद्ध से संबद्ध वस्तुओं की मांग हमेशा ही बढ़ जाती है। 1700 से 1815 ई. तक के विटेन ने पांच युद्धों में सक्रिय भाग लिया। इन युद्धों से विटिश उद्योगों ने लाभ उठाया।

मांग के अधिक बढ़ने से उद्योगपतियों में उद्योग बढ़ाकर उत्पादन बढ़ाने की मनोवृत्ति बड़ी। उत्पादन के पारंपरिक तरीकों से वे इस मांग को पूरा नहीं कर पा रहे थे। यह कहना पूर्णत: तर्कसंगत होगा कि नए प्रयोग एवं आविष्कार उसी समय हुए, जब मांग के दबाव के कारण उद्योगपति तथा उद्यमी नए-नए तरीकों को ढूंढने तथा उन्हें स्वीकारने के लिए उद्यत हुए।

पूँजी की उपलब्धता- संयोग से इस समय इगलैंड में पूंजी काफी मात्रा में उपलब्ध थी जिसका उपयोग कारखाना खोलने में किया गया। इस समय विटेन में विदेशों से काफी धन लाया गया। दास-व्यापार और भारतीय लूट से लाए गए धन का निवेश इंगलैंड में हुआ। बड़े कारखानों की स्थापना द्वारा ही नए आविष्कारों को अपनाया जा सकता था और इन बड़े कारखानों की स्थापना के लिए उधार लेना आवश्यक था। उद्योगों को स्थापित करने हेतु लिए गए ऋण में काफी भाग व्यापारियों द्वारा दिए गए ऋण का होता था। जमींदारवर्ग अपनी पूंजी भूमि तथा यातायात के साधनों में लगाते थे और व्यापारी उद्योगों में। कभी-कभी व्यापारी स्वयं उद्योगपति वन जाते थे। पूर्ण स्वामित्ववाली संपत्ति को गिरवी रखकर भी अक्सर उधार लिया जाता था। मित्रों तथा संबंधियों से लिए गए उधार के भी कई उदाहरण मिलते हैं। धन इकट्ठा करने का एक अन्य स्रोत छोटी-छोटी बचतों को संगठित करना था। सूद को दर कम होने और स्थिर होने से उद्योगी ऋण लेने में हिचकिचाते नहीं थे। परिणामतः कारखाना स्थापित करने के लिए पूंजी की उपलब्धता की कभी कमी नहीं हुई और यदि पूंजी नहीं होती तो कारखाने स्थापित नहीं पाते। इस तरह की पूंजी अन्य देशों में इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं थी।

परिवहन के क्षेत्र में क्रांति- 18वीं शताब्दी में परिवहन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन  हुए। औद्योगिक क्रांति के लिए आवश्यक था कि कच्चे माल को कारखानों में तथा उत्पादित माल को बाजार में कम लागत में लाया जा सके। 18वीं शताब्दी के मध्य एक टन का सामान 20 मील की दूरी ले जाने पर उस सामान का दाम दुगुना हो जाता था। घोडागाड़ी से लोहा और कोयला जैसे सामान को ढोना मढुंगा पड़ता था। ऐसी स्थिति में ब्रिजवाटर ने जेम्स ब्रिडले नामक इंजीनियर की सहायता से 1761 ई० में एक नहर बनाई जिससे सामान होना आसान हो गया। बाद में इंगलैंड में नहरों का जाल बिछ गया। लेकिन, इसकी तुलना में याद में रेल लाइनों के माध्यम से सामान ढोना सस्ता पड़ने लगा। इसी बीच सड़कें पक्की हो गई, जिनपर घोडागाड़ी से भी सामान ढोना आसान हो गया।

सरकार तथा सामाजिक व्यवस्था का योगदान- तत्कालीन बिटिश सरकार व्यापर की बढ़ोत्तरी के लिए हर संभव प्रयास करती थी। सरकार की तरफ से आर्थिक क्रियाकलाप में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं हो रहा था, परिणामतः उद्यमी धन कमाने के लिए किसी प्रकार की बाधा का सामना नहीं कर रहे थे। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश समाज गतिशील था और इसी गतिशीलता के कारण नए उद्यमियों के बनने में सहायता मिली। पियर वर्ग के लोगों में केवल बड़े संतान को ही खानदानी उपाधि मिलती थी, बाकी संतानों को कोई दूसरा कार्य करना पड़ता था। इसके अलावा, राजधर्म विरोधी (dissenters) सरकार से बिना सहायता लिए कुछ करना अपना धर्म समझते थे। क्वेकर तो सरकारी सहायता लेने वाले को अपने समुदाय से छाँट देते थे। उस समय अनिश्चितता एवं जोखिम में परस्पर सहयोग की यह भावना महत्वपूर्ण थी। औद्योगिक क्रांति के संदर्भ में धर्म की भूमिका किसी धर्म-विशेष के नियमों के कारण नहीं है. गल्कि सांप्रदायिक संघों को संगठित करने की दिशा में इसका स्थान महत्वपूर्ण है।

नए आविष्कार अपनाने की तत्परता- इंगलैंड में जेम्स वाट, रिचर्ड आर्कराइट, जेम्स हारग्रीव्ज, स्टीफेंस आदि व्यक्तियों ने तरह-तरह के आविष्कार किए। ये आविष्कार दूसरे देशों में न हुए। इसके साथ ही इंगलैंड में पूंजी, सरकारी उत्साह, अतिरिक्त जनसंख्या और उद्योगों में लगी जनसंख्या को खिलाने के लिए अन्न की मौजूदगी जैसे प्रेरक तत्व मौजूद थे। यदि बढ़ी जनसंख्या उद्योग में काम करने के लिए तैयार थी तो पूंजीपति पूंजी लगाकर उन आविष्कारों को साकार रूप प्रदान करने में लगे थे। ये सारी परिस्थितियों यूरोप के दूसरे देशों में उपलब्ध नहीं थीं। इसलिए यूरोप के दूसरे देशों में पहले औद्योगिक क्रांति नहीं हुई और यह सर्वप्रथम इंगलैंड में ही संभव हो सकी।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!