भाषा विज्ञान

ग्रिम के ध्वनि-नियम के दोष | ध्वनि परिवर्तन के बाह्य कारण | ध्वनि-यन्त्र का महत्व | वैदिक भाष तथा लौकिक संस्कृत को ध्वनियों का परिचय | ध्वनि-नियम और ध्वनि-प्रवृत्ति में अन्तर

ग्रिम के ध्वनि-नियम के दोष | ध्वनि परिवर्तन के बाह्य कारण | ध्वनि-यन्त्र का महत्व | वैदिक भाष तथा लौकिक संस्कृत को ध्वनियों का परिचय | ध्वनि-नियम और ध्वनि-प्रवृत्ति में अन्तर

ग्रिम के ध्वनि-नियम के दोष

ग्रिम के ध्वनि-नियम में निम्नलिखित तीन दोष बताये जाते हैं-

(1) काल-दोष- ग्रिम महोदय के ध्वनि-नियम के अनुसार भिन्न-भिन्न दो कालों के दो वर्ण परिवर्तनों को एक साथ रखा गया है, क्योंकि प्रथम वर्ण-परिवर्तन ईसा से बहुत पहले प्रागैतिहासिक काल में ही हो गया था, जबकि द्वितीय वर्ण-परिवर्तन जर्मन भाषाओं में ही हुआ था और इसका कोई सम्बन्ध आदिकाल यूरोपीय भाषाओं से नहीं था।

(2) क्षेत्र दोष- ग्रिम के उक्त ध्वनि-नियम में जिन दो वर्ण-परिवर्तनों का उल्लेख किया गया है, उनमें से प्रथम वर्ण-परिवर्तन का क्षेत्र तो अवश्य व्यापक था, किन्तु द्वितीय वर्ण-परिवर्तन का क्षेत्र उतना व्यापक नहीं था, जितना कि ग्रिम महोदय समझते थे, क्योंकि द्वितीय वर्ण-परिवर्तन केवल निम्न जर्मन एवं जन अर्थात जर्मन भाषाओं में ही हुआ था तथा इसका कोई सम्बन्ध आदिकाल की यूरोपीय भाषाओं से नहीं था।

(3) अपूर्णता- ग्रिम ने अपने उक्त ध्वनि-नियम में जिन निम्न जर्मन और उच्च जर्मन भाषाओं से इस द्वितीय वर्ण-परिवर्तन का सम्बन्ध स्थापित किया है, उसमें भी यह पूर्णतया प्राप्त नहीं होता यहाँ यह बात स्मरण रखने योग्य है कि जर्मन भाषा के जो दो भाग- निम्न जर्मन और उच्च जर्मन, किये गये हैं, केवल भौगोलिक आधार पर ही है, क्योंकि जर्मनी का उत्तरी भाग समतल और दक्षिणी भाग पहाड़ी है। अतः उत्तर के समतल भाग में बोली जाने वाली भाषा को निम्न जर्मन और पहाड़ी क्षेत्र की भाषा को ‘उच्च जर्मन’ कहा गया है। निम्न जर्मन भाषा की शाखाएँ अंग्रेजी, डच, डेनी, नार्वेद, स्वीडी आदि है। अतः निम्न और उच्च जर्मन नाम भाषा की विशेषता या हीनता के आधार पर नहीं दिये गये हैं।

ध्वनि परिवर्तन के बाह्य कारण

बाह्य कारणों के द्वारा ध्वनि परिवर्तन का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-

(1) भौगोलिक प्रभाव- प्रायः शीत प्रदेश के निवासी स का श, त का ट, थ का ट, द का ट बोलते हैं। इसी प्रकार, जो भूभाग अधिक उर्वरक एवं समृद्ध होते हैं और वहाँ अधिक आवागमन के कारण उस भू-भाग की ध्वनियों में विकार उत्पन्न हो जाता है। जहाँ की भूमि ऊसर, पंकिल, मरुस्थली एवं बंजर होती है वहां आवागमन प्रायः कम होता है, अतः वहाँ की ध्वनियों में परिवर्तन नहीं होता है। जैसे-लिथुआनिया की भूमि अधिक पंकिल एवं आर्द्र है और दुर्लध्य पर्वत है, इसलिए वहाँ जाना कोई पसन्द नहीं करता है। अतः वहाँ की ध्वनियाँ अभी तक अपरिवर्तित हैं। इसके कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण इस प्रकार हैं-सिन्धु का हिन्दु, सप्ताह का हफ्ता, समाचार का पहाड़ी क्षेत्र से शमाचार, सन्देश का शन्देश सुखी का शुखी।

(2) सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ- भारत में संस्कृत भाषा की ध्वनियाँ आभीरी के आगमन के साथ ही परिवर्तित होने लगीं और कालान्तर में प्राकृत और अपभ्रंश की ध्वनियों के रूप में बोली जाने लगी, जिसके प्रभाव से अग्नि का अग्गि, कर्म का कम्म, धर्म का धम्म, अद्य का अज्ज हो गया। मुसलमानों के सम्पर्क में आने के कारण भी कितने ही ध्वनि-परिवर्तन हुए। उदाहरण के रूप में प्रकाश का परकाश, प्रसाद का परसाद। अंग्रेजी के प्रभाव के कारण भी यहाँ ध्वनि-विकार हुए हैं। केरल का केरला, गुप्त का गुप्ता, मिश्र का मिश्रा, राम का रामा, दिल्ली का देहली, वाराणसी का बनारस आदि।

(3) काल प्रभाव या स्वाभाविक विकास- परिवर्तन का कारण स्वाभाविक विकास भी है। इसी आधार पर वैदिक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं वर्तमान भारतीय भाषाओं का विकास हुआ।

(4) लिपि-दोष- लिपियों की अपूर्णता के कारण ध्वनि-परिवर्तन देखा जाता है। यह अन्तर उर्दू, अंग्रेजी आदि के कारण हुआ है। जैसे-राम का रामा (Rama), कृष्ण का कृष्णा (Krishna) आर्य का आर्या (Araya), आर्य समाज का आर्या समाज, प्रचार का परचार, अर्जुन का अरजुन, इन्द्रजीत का इन्दरजीत आदि।

ध्वनि-यन्त्र का महत्व

भाषा ध्वनियों से निर्मित होती है। मुख में निर्मित अथवा मुख से निःसृत सार्थक ध्वनियाँ ही भाषा बनाती हैं और उन्हीं पर भाषा-विज्ञान आधारित है। इस प्रकार ध्वनि-यन्त्र और भाषा- विज्ञान का सम्बन्ध घनिष्ठ है।

मानव शरीर में प्रकृति ने जो अंग बनाये हैं, उन सभी का अपना महत्व है। भाषा-विज्ञान भाषा पर आधारित है और भाषा का सम्बन्ध बोलने और सुनने से है। ध्वनि-यन्त्र का सम्बन्ध भी ध्वनि उत्पन्न करने अथवा बोलने से है। ध्वनि-यन्त्र अथवा उच्चारण करने से सम्बन्धित अवयव

इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि ये ही ध्वनि को उत्पन्न करते हैं, जिससे शब्द आकार ग्रहण करता है। इस प्रकार ध्वनि-यन्त्र भाषा और भाषा-विज्ञान दोनों का मूलाधार सिद्ध होता है। ध्वनि- यन्त्र में गड़बड़ी आने अथवा विकास न होने से लोग गूंगे, तोतले और हकले हो जाते हैं। गूंगा तो भाषा या शब्दों का उच्चारण कर ही नहीं पाता तोतला क-वर्ग के स्थान पर त-वर्ग का प्रयोग करता है। तोतला ‘कदा’ के स्थान ‘तदा’, ‘कस्य’ के स्थान पर ‘तस्य’ तथा ‘केषाम्’ के स्थान पर ‘तेषाम् का उच्चारण करता है। इस प्रकार अर्थ का अनर्थ हो सकता है। हकला व्यक्ति अटक-अटककर बोलता है, जो सुनने में बहुत भादा लगता है।

भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत आने वाली भाषा की परिभाषा में स्पष्ट किया गया है कि मुख के अन्तर्गत जो उच्चारणावयव है भाषा-विज्ञान उन्हीं से उत्पन्न भाषा पर विचार करता है। सांकेतिक आदि भाषाओं से भाषा-विज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं है। संस्कृत व्याकरण भी मुख के अन्तर्गत स्थित उच्चारणावयवों कठ, तालू, मूर्धा आदि की सहायता से उच्चरित होने वाली भाषा से सम्बन्धित है। संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण पाणिनि ने अपने धातु पाठ में बोलना अर्थ वाली ‘वद्’ धातु का अर्थ ‘व्यक्त-वाणी’ किया है वद् व्यक्तायां वाचि। अर्थात् वद् धातु का अर्थ ‘व्यक्त-वाणी’ किया है। स्पष्ट है कि मुख के अन्तर्गत जो उच्चारणावयव हैं, उनकी सहायता से उच्चरित होने वाली वाणी ही व्यक्त अर्थात् स्पष्ट होती है। पाणिनि के सूत्रों में उच्चारणावयवों तथा उनसे उच्चरित होने वाले वर्णों का स्पष्ट वर्णन मिलता है।

वैदिक भाष तथा लौकिक संस्कृत को ध्वनियों का परिचय

प्राचीन आर्य भाषा, जिसे पुरावैदिक भाषा भी कहा जाता है, का विकसित रूप ‘संस्कृत’ भाषा है। ‘संस्कृत’ शब्द इस ओर संकेत करता है कि यह भाषा संस्कार के द्वारा निर्मित हुई है। यही कारण है कि आर्य भाषा की वर्णमाला का प्रभाव संस्कृत वर्णमाला पर स्पष्ट प्रतीत होता है। डॉ. मंगलदेव शास्त्री के अनुसार संस्कृत वर्णमाला के विषय में सबसे पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वह वर्णमाला पहले लिखित संकेतों की कल्पना से बहुत पहले अपने रूप में आ चुकी थी। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की ध्वनियों की पूरी-पूरी विवेचना करने के बाद ही इस वर्णमाला की कल्पना की गयी है। भारतवर्ष में प्राचीन तथा आधुनिक (ब्राह्मी, खरोष्ट्री, देवनागरी आदि) लिपियों के लिखित वर्णों की कल्पना करके वस्तुतः उस प्राचीन उच्चरित वर्णमाला के अनुसार ही  की गयी है। पीछे से ऐसे वर्णों के लिए जो संस्कृत में नहीं पाये जाते, अन्य लिखित संकेतों की कल्पना कर ली गयी, जैसे-देवनागरी में फ, ज़,क, इद आदि।

ध्वनि-नियम और ध्वनि-प्रवृत्ति में अन्तर

प्रत्येक ध्वनि-नियम अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ध्वनि प्रवृत्ति के रूप में देखा जाता है। अपने घटित होते रहने के काल में वह ध्वनि-प्रवृत्ति के रूप में रहता है। और पूर्ण हो जाने पर ध्वनि-नियम की संज्ञा प्राप्त करता है। इसलिए यह कहा जाता है कि ध्वनि-नियम का सम्बन्ध भाषा की ध्वनियों के वर्तमान या भविष्य-काल के परिवर्तन से न होकर उसके अतीत काल के परिवर्तन से होता है। कुछ विद्वानों ने प्राकृतिक नियमों की अपेक्षा ध्वनि-नियम में स्थिरता न पाकर ध्वनि-नियम को ध्वनि-प्रवृत्ति अथवा ध्वनि-फॉर्मूला कहा है, किन्तु यह मत उचित नहीं है।

भाषा विज्ञान – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!