भाषा विज्ञान

लौकिक संस्कृत का परिचय | वाक्य-विज्ञान | वाक्य की आवश्यकताओं की विवेचन | वाक्य के अंग | प्राचीन आर्य-भाषा | ध्वनि प्रक्रिया

लौकिक संस्कृत का परिचय | वाक्य-विज्ञान | वाक्य की आवश्यकताओं की विवेचन | वाक्य के अंग | प्राचीन आर्य-भाषा | ध्वनि प्रक्रिया

लौकिक संस्कृत का परिचय

लौकिक संस्कृत के अन्य नाम संस्कृत, क्लासिकल संस्कृत तथा देव-भाषा भी है। वैदिक संस्कृत में भाषा के तीन स्तर उपलब्ध है-उत्तरी, मध्यदेशीय और पूर्वी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन ऐतिहासिक और भौगोलिक रूपों के समानान्तर बोलचाल के भी उत्तर, मध्यदेशीय और पूर्वी-इन तीन रूपों का चलन रहा होगा। लौकिक संस्कृत का आधार इन तीनों में प्रथम अर्थात् उत्तरी रूप बोलचाल का ही माना जाता है। वैसे आगे चलने पर वह शेष दो रूपों से भी प्रभावित हुई होगी। साहित्य में प्रयुक्त भाषा के रूप में संस्कृत का प्रारम्भ 8वीं शताब्दी ईस-पूर्व से होता है। साहित्यिक या क्लासीकल संस्कृत की आधार भाषा का बोल-चाल में प्रयोग लगभग 5वी शताब्दी ई.पू. या कुछ क्षेत्रों में उसके पश्चात्वर्ती काल तक प्रचलित रहा। उस समय तक उत्तरी भारत के आर्य भाषा-भाषियों में कई भौगोलिक बोलियाँ जन्म ले चुकी थी। ये आगे चलकर विभिन्न प्राकृतों, अपभ्रंशों तथा आधुनिक आर्य भाषाओं के जन्म का कारण बनीं। पाणिनि ने जो स्वयं उत्तरी भाग में तक्षशिला के समीप शालातुर नामक स्थान के थे, 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास ही इस भाषा को व्याकरणबद्ध किया। संस्कृत नाम कदाचित् उसी काल में प्रचलित हुआ होगा। विकसित होती भाषा पण्डितों को बिगड़ती लगी, अतः उसे संस्कृत किया गया। संस्कृत के बोलचाल की भाषा होने के अनेक प्रमाण पाणिनि के सूत्रों में प्राप्त होते हैं।

वाक्य-विज्ञान

भावाभिव्यक्ति दृष्टि से स्वतः पूर्ण सार्थक शब्द-समूह का नाम ‘वाक्य’ है। पाणिनि ने ‘वाक्यं-पद-समुच्चयः’ अर्थात् सही रूपों, सार्थक शब्दों के समुच्चय को वाक्य कहा है। यूरोपीय विद्वान् थैंक्स और भारतीय मनीषी पतञ्जलि द्वारा दी गई वाक्य की परिभाषाओं का सार इस प्रकार है-

“पूर्ण अर्थ की प्रतीति करने वाले शब्द-समूह का नाम वाक्य है।”

आज का भाषा-वैज्ञानिक इस परिभाषा को मानने को प्रस्तुत नहीं, क्योंकि आज यह सिद्ध हो चुका है कि भाषा की इकाई वाक्य है। अतः वाक्य को पदों का समूह मानकर पदों को वाक्य के कृत्रिम अवयव मानना ही अधिक उपयुक्त है।

पद अथवा वाक्य को भाषा की इकाई मानने का विवाद मीमांसकों में भी मिलता है। जहां अभिहितान्वयवादी मीमांसक पदों की सार्थक सत्ता को स्वीकार करते हुए पदों के समूह से वाक्य की रचना मानते हैं, वहाँ अन्विताभिधानवादी वाक्य की सार्थक सत्ता स्वीकार करते हैं और पदों को वाक्य के अवयवों के रूप में ग्रहण करते हैं। भर्तृहरि ने भी वाक्य की सत्ता को ही वास्तविक माना है और आज का भाषा-वैज्ञानिक भी इसी धारणा को मान्यता देता है।

वाक्य की आवश्यकताओं की विवेचन

वाक्य की आवश्यकताएँ- भारतीय आचार्यों ने वाक्य को पद समुच्चय’ कहकर उसके दो अनिवार्य तत्त्वों-सार्थकता और अन्विति का तो परोक्ष रूप से उल्लेख किया ही है, साथ ही अन्य तत्त्व-योग्यता, आकांक्षा आसक्ति का भी उल्लेख किया है। डॉ) भोलानाथ तिवारी ने इन तत्त्वों को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

(1) सार्थकता- इसका आशय यह है कि वाक्य के शब्द सार्थक होने चाहिए।

(2) योग्यता- इसका आशय है कि शब्दों की आपस में संगति बैठे। शब्दों में प्रसंगानुकूल भाव का बोध कराने की क्षमता हो। ‘वह पेड़ को पत्थर से सींचता है’ वाक्य में शब्द तो सार्थक है, किन्तु पत्थर से सींचना नहीं होता, इसलिए शब्दों की परस्पर योग्यता की कमी है, अतः यह सामान्य अर्थ में वाक्य नहीं है, उलटवाँसी भले हो ।

(3) आकांक्षा- इसका अर्थ है ‘इच्छा’ अर्थात् ‘जानने की इच्छा’ अर्थात् ‘अर्थ की अपूर्णता’ । वाक्य में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह पूरा अर्थ दे। उसे सुनकर भाव पूरा करने के लिए कुछ जानने की आकाक्षा न रहे।

(4) सान्निध्य या आसक्ति- इसका अर्थ है समीपता। वाक्य के शब्द समीप होने चाहिए। उपर्युक्त सभी बातों के रहने पर भी यदि एक शब्द आज कहा जाए, दूसरा कल और तीसरा परसों तो उसे वाक्य नहीं कहा जाएगा।

(5) अन्विति- इसका अर्थ है-व्याकरणिक दृष्टि से एकरूपता। अंग्रेजी में इसे ‘Concordance’ कहते हैं। विभिन्न भाषाओं में इसके विभिन्न रूप मिलते हैं। यह सामान्य रूपता प्रायः वचन, कारक, लिंग और पुरुष आदि की दृष्टि से होती है।

वाक्य के अंग-

वाक्य के दो अंग हैं-उद्देश्य और विधेय।

(1) उद्देश्य- जिसके सम्बन्ध में चर्चा की जाती है या वाक्य का वह अंश जिसके बारे में वाक्य के शेषांश में कुछ कहा गया हो। यथा-‘राम रोटी खाता है।’ इसमें ‘राम’ उद्देश्य है। साथ ही ‘उद्देश्य’ में ‘केन्द्रीय शब्द’ तथा ‘उसका विस्तार’ आ जाता है।

(2) विधेय- उद्देश्य से सम्बन्धित सूचना विधेय कहलाती है। इसमें क्रिया और उसका विस्तार होता है। ‘राम रोटी खाता है’ में ‘रोटी खाता है’ विधेय है।

वाक्य-विज्ञान का स्वरूप- कपिल मुनि के अनुसार वाक्य-विज्ञान में वाक्यों की रचना, वाक्यों के प्रकार, वाक्यों में परिवर्तन, वाक्यों में पद-क्रम (पद-विन्यास) और वाक्यों के विश्लेषण का अध्ययन होता है- वाक्यानां रचना, भेदाः परिवृत्तिः पदक्रमः।

वाक्य-विश्लेषणं चैव, वाक्य विज्ञानमिष्यते ॥

डा. कपिलदेव द्विवेदी (भाषा विज्ञान एवं भाषाशास्त्र) के अनुसार-“वाक्य-विज्ञान में भाषा में प्रयुक्त पदों के परस्पर सम्बन्ध का विचार किया जाता है। अतएव वाक्य-विज्ञान में इस सभी विषयों का समावेश हो जाता है वाक्य का स्वरूप, वाक्य की परिभाषा, वाक्य की रचना, वाक्य के अनिवार्य तत्त्व, वाक्य में पदों का विन्यास, वाक्यों के प्रकार, वाक्य का विभाजन, वाक्य में निकटतम अवयव, वाक्य में परिवर्तन, परिवर्तन की दिशाएं, परिवर्तन के कारण, पादिम आदि।”

प्राचीन आर्य-भाषा

प्राचीन आर्य भाषा: आर्यों के भारत आगमन समय इनकी भाषा ईरानी से अधिक भिन्न नहीं थी, परन्तु आर्येतर लोगों के सम्पर्क में आने पर अनेक प्रत्यक्ष- प्रभावों के फलस्वरूप उसमें परिवर्तन आने लगा और वह अपनी भगिनी भाषा ईरानी से भिन्न रूप ग्रहण करने लगी।

आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संहिताएँ हैं, जिनमें नियमितता के अभाव के कारण रूपों की विविधता है तथा परवर्ती साहित्य में लुप्त अनेक प्राचीन शब्दों का प्रयोग है।

वैदिक संहिताओं का काल 1200 से 900 ई0पू0 के लगभग माना जाता है और इनमें भाषा के दो रूप-जिन्हें सुविधा के लिए प्राचीन और नवीन नाम दिया जाता है, मिलते हैं। प्राचीन रूप अवेस्ता के निकट है। वेदों की भाषा काव्यात्मक होने के कारण बोल-चाल की भाषा से भिन्न है। परवर्ती साहित्य ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों आदि (रचना-काल 900 ई0पू0) की भाषा अपेक्षाकृत व्यवस्थित है। उसमें न तो रूपाधिक्य है और न ही जटिलता है। इन ग्रन्थों की गद्य-भाषा तो तत्कालीन बोलचाल की भाषा के निकट है। ऐसा प्रतीत होता है कि वेदों की रचना के समय तक आर्यों का निवास सप्त-सिन्धु पंजाब प्रदेश था और ब्राह्मणों तथा उपनिषदों की रचना के समय वे मध्य प्रदेश में आ गये थे। सूत्र ग्रन्थों (रचना-काल लगभग 700ई०पू०) में भाषा के विकसित रूप के दर्शन होते हैं। इसी भाषा के उत्तरी रूप अपेक्षाकृत परिनिष्ठित एवं पंडितों में मान्य को पाणिनि ने ई० पाँचवीं शताब्दी में नियमबद्ध किया, जो सदा के लिए लौकिक संस्कृत का सर्वमान्य आदर्श रूप बन गया। पाणिनि द्वारा संस्कृत भाषा को व्याकरण के नियमों में बांध दिये जाने पर बोलचाल की भाषा पालि, प्राकृत तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के रूप में विकास करती चली गई। इधर संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा न रहने पर भी कुछ परिवर्तित होती रही, जिसकी झलक रामायण, महाभारत, पुराण-साहित्य और कालिदास के काव्यों में मिलती है।

ध्वनि प्रक्रिया

ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया में वायु मुख या नाक दोनों ही भागों से निकलती है। इस प्रकार ध्वनि को अनुनासिक तथा निरनुसासिक दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। ध्वनियों के उच्चारण में वायु मुख विवर के साथ नासिका विवर से भी निकलती है। उसे अनुनासिक ध्वनि कहते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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