भुगतान शेष में असन्तुलन के कारण | अवमूल्यन | सफल अवमूल्यन की शर्ते

भुगतान शेष में असन्तुलन के कारण | अवमूल्यन | सफल अवमूल्यन की शर्ते

भुगतान शेष में असन्तुलन के कारण

(Causes of Disequilibrium in Balance of payment in Hindi)

विभिन्न देशों में भुगतान शेष में असन्तुलन के विभिन्न कारण हो सकते हैं तथा एक ही देश में भिन्न-भिन्न समय में असन्तुलन के विभिन्न कारण हो सकते हैं।

इस प्रकार भुगतान शेष में कई मदों जैसे दृश्य एवं अदृश्य आयात और एक पक्षीय भुगतान प्राप्ति में एक ही दिशा में होने वाले परिवर्तन असन्तुलन की स्थिति निर्मित कर देते हैं। सामान्य तौर पर निम्न कारण भुगतान शेष में असन्तुलन पैदा कर देते हैं।

  1. विकास एवं विनियोग कार्यक्रम- विशेष रूप से अर्द्ध विकसित देशों में भुगतान शेष में असन्तुलन होने का मुख्य कारण वहाँ भारी मात्रा में विकास एवं विनियोग सम्बन्धी कार्यक्रम है।ये देश द्रुतगति से औद्योगीकरण एवं आर्थिक विकास करना चाहते हैं। किन्तु इसके लिए; इनके पास पर्याप्त मात्रा में पूँजी एवं अन्य साधनों का अभाव होता है। अत: इन चीजों का इन्हें विदेशों से आयात करना होता है। इस प्रकार इन देशों का आयात बढ़ जाता है। किन्तु उसी अनुपात में इनके निर्यात में वृद्धि नहीं हो पाती है। क्योंकि प्राथमिक उत्पादक होने के नाते ये केवल इनी-गिनी वस्तुओं का निर्यात करते हैं। इसके साथ ही जब इन देशों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तो वस्तुओं की खपत देश में ही बढ़ जाती है जिनका कि पहले निर्यात किया जाता है। इस प्रकार इन देशों के भुगतान शेष में संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं। जिनके फलस्वरूप संरचनात्मक असन्तुलन हो जाता है।
  2. चक्रीय उच्चावचन- व्यापार चक्र के फलस्वरूप विभिन्न देशों में भिन्न अर्थव्यवस्था में चक्रीय उच्चावचन होते हैं। जिनकी अवस्थाएँ भिन्न देशों में अलग-अलग होती हैं। जिनके फलस्वरूप भुगतान शेष में चक्रीय असन्तुलन पैदा हो जाता है। 1930 की अवधि के आस-पास विश्व के भुगतान शेष में इस प्रकार का असन्तुलन पैदा हुआ था।
  3. आय प्रभाव एवं कीमत प्रभाव- विकासशील देशों में आर्थिक विकास के फलस्वरूप लोगों की आय वृद्धि होती है, जिससे कीमतों में वृद्धि होती है। जिसका इन देशों में भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आय में वृद्धि होने से इन देशों के आयातों में वृद्धि होती है। क्योंकि इनकी सीमान्त आयात प्रवृत्ति (Marginal Propensity to Import) ऊँची होती है। इसके साथ ही देश में सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति भी ऊँची होती है। लोगों की घरेलू वस्तुओं के उपभोग की माँग में भी वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह होता है कि इनके पास निर्यात की वस्तुओं में कमी हो जाती है।

जब इन देशों में भारी उद्योग में विनियोग किया जाता है, तो इसका मुद्रास्फीतिक प्रभाव होता है क्योंकि अन्तिम उत्पादन होने में काफी समय लगता है। जबकि बढ़ी हुई मुद्रा लोगों के हाथ में पहुँच जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि वस्तुओं की माँग में वृद्धि होने से उनकी कीमतें बढ़ने लगती हैं जिससे आयातों को प्रोत्साहन मिलता है तथा निर्यात हतोत्साहित होता है। देश के भुगतान शेष में असन्तुलन पैदा हो जाता है।

  1. निर्यात माँग में परिवर्तन- विकासशील देश के भुगतान शेष में असन्तुलन होने का प्रमुख कारण यह है कि इनके द्वारा निर्यात की गयी वस्तुओं की माँग में परिवर्तन हुआ है। आज विकासशील देश खाद्यान्न, कच्चे माल एवं निर्यात अन्य वैकल्पिक वस्तुओं का उत्पादन करने लगते हैं जिनका कि पहले से वे विकसित देशों में आयात करते थे। इसके फलस्वरूप विकासशील देशों का निर्यात कम हो गया है एवं भुगतान शेष में असन्तुलन पैदा हो गया है। जहाँ तक विकसित देशों का प्रश्न है, उनके निर्यात में भी पहले की तुलना में कम हो गये हैं।

जिसका कारण यह है कि एक तो उनके उपनिवेश बाजार समाप्त हो गये हैं एवं दूसरे विकासशील देशों में अधिक आत्मनिर्भर होने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है। किन्तु इसे ध्यान में रखना चाहिए कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों के भुगतान शेष में असन्तुलन की समस्या अधिक व्यापक एवं चिन्तनीय है।

  1. विकसित देशों में आयात प्रतिबन्ध- प्रायः विकसित देशों में अनुकूल व्यापार शर्तों एवं अन्य कारणों के फलस्वरूप उनका भुगतान शेष अतिरेक की स्थिति में रहता है और यदि विकासशील देशों में आयात करते रहें तो विकासशील देशों की भुगतान शेष की स्थिति में सुधार हो सकता है। किन्तु वे देश तरह-तरह के आयात प्रतिबन्ध लगा देते हैं जिससे विकासशील देशों के निर्मातों में वृद्धि नहीं हो पाती एवं उनके भुगतान शेष में असन्तुलन हो जाता है।
  2. विकासशील देशों में अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि- विकासशील देशों में जनसंख्या की वृद्धि की दर बहुत अधिक है। जिसका इन देशों के आर्थिक विकास एवं उनके फलस्वरूप भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या में वृद्धि के कारण एक तो इन देशों को आयात की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। दूसरी ओर घरेलू उपयोग में वृद्धि होने से निर्यात क्षमता कम हो जाती है। यह तथ्य इन देशों की स्थिति को भीषण बना देती है। विकसित देशों की घटती हुई जनसंख्या से विकासशील देशों के निर्यात में कमी हो जाती है। क्योंकि इन वस्तुओं की माँग में कमी हो जाती है। फलस्वरूप विकासशील देशों के भुगतान शेष में असन्तुलन की समस्या और कठिन हो जाती है।
  3. प्रदर्शन प्रभाव- प्रो० नर्कसे ने अपनी पुस्तक में प्रदर्शन प्रभाव की व्यापक चर्चा की है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार राजनीतिक एवं अन्य सामाजिक कारणों से जब अर्द्ध विकसित देशों के सम्पर्क में आते हैं, तब वहाँ के लोगों की उपभोग आदतों को अपनाने के लिए प्रवृत्त होते हैं तथा पश्चिमी तड़क-भड़क को अपनाना चाहते हैं। ऐसी वस्तुओं का विदेशों से आयात किया जाता है। जबकि दूसरी ओर या तो उनकी निर्यात की मात्रा स्थिर रहती है, अथवा उसमें कमी हो जाती है। इसके फलस्वरूप विकासशील देशों के भुगतान शेष में असन्तुलन की स्थिति पैदा हो जाती है।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय ऋण एवं विनियोजन- अपने विकास कार्यक्रम की वित्तीय व्यवस्था के लिए, बहुत विकासशील देश विकसित देशों से भारी मात्रा में ऋण लेते हैं। जिसके लिए विकासशील देश को ब्याज एवं मूलधन की वापसी के लिए बहुत अधिक विदेशी विनिमय खर्च करना पड़ता है जिससे उनके भुगतान शेष में असन्तुलन पैदा हो जाता है।

दूसरी ओर जो देश ऋण लेते हैं उनका भुगतान शेष अनुकूल रहता है। क्योंकि उन्हें ब्याज आदि के रूप में विदेशी विनिमय प्राप्त होता है।

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि विशेष रूप से विकासशील देश के भुगतान शेष में असन्तुलन क्यों पैदा हो जाता है एवं विकसित देशों का भुगतान शेष अनुकूल क्यों रहता है।

अवमूल्यन (Devaluation)

भुगतान शेष में असंतुलन असाम्यता की वह स्थिति है जो दी हुई विनिमय दर पर विदेशी विनमय दर की सम्पूर्ण माँग व सम्पूर्ण पूर्ति के मध्य अतिरेक या घाटा को व्यक्त करती है। निर्यातों का विदेशों में मूल्य तथा स्वदेश में आयातों का मूल्य विनिमय-दर के माध्यम से ही अनुदित होता है। वस्तु भुगतान-सन्तुलन की प्रतिकूलता दूर करने का एक लोकविदित यन्त्र देशी मुद्रा का अवमूल्यन (मुद्रा के बाह्य मूल्य को राज्यादेश द्वारा कम करना) माना जाता है। अवमूल्यन से विदेशों में हमारे निर्यात का मूल्य घटता है, जबकि स्वदेश में आयातों के मूल्य में वृद्धि होती है। फलतः यह आशा की जाती है कि निर्यात प्रोत्साहित होंगे और आयात कम होंगे। किन्तु अवमूल्यन का प्रभाव मार्शल लर्नर शर्त. (Marshall Lerner Condition) पर निर्भर करता है। इस शर्त के अनुसार, “विदेशी विनिमय दर का अवमूल्यन देश के भुगतान-सन्तुलन पर अनुकूल प्रभाव डालता है, जबकि विनिमय दर के अधिमूल्यन (Revalualtion) का भुगतान- सन्तुलन पर प्रतिकूल प्रभाव होगा, यदि देश के निर्यातों व आयातों की माँग लोच का योग इकाई से अधिक हो।”

सूत्र रूप में-(Edx‌ x Edy)>1

जबकि Ed = माँग की मूल्य लोच और पदाक्षर x और y निर्यात और आयात को व्यक्त करते हैं।

साथ ही यह भी आवश्यक है कि अवमूल्यन के फलस्वरूप आन्तरिक लागतों एवं मूल्यों में वृद्धि न हो । ऐसी वृद्धि अवमूल्यन के गुणकारी प्रभाव (Benefical Effects) को कम कर देती है। निर्यात पदार्थों की पूर्ति भी लोचदार होनी चाहिए, ताकि बढ़ी हुई माँग को पूरा किया जा सके। विदेशों में प्रतिद्वन्द्वी अवमूल्यन और अन्य प्रतिक्रियायें न हों।

आयातों की माँग की लोच अधिक होने पर ही आयातों में कमी की जा सकती है अन्यथा अवमूल्यन के बाद ऊंचे मूल्य पर आयात करने पड़ेंगे और उनका आर्थिक मूल्य चुकाना होगा जो भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता में वृद्धि करेगा।

यदि देश के निर्यात की माँग बेलोचदार है तो विदेशी विनिमय का पूर्ति वक्र पीछे की ओर मुड़ने वाला होगा। यदि माँग बेलोचदार है तो अवमूल्यन घाटे को तब तक दूर करने में असमर्थ रहेगा जब तक कि विदेशी विनिमय की माँग वक्र इतना अधिक लोचदार न हो कि पूर्ति पक्ष के ऋणात्मक प्रभाव को समाप्त किया जा सके। इसी प्रकार मुद्रा का अधिमूल्यन भुगतान शेष के अतिरेक को समाप्त नहीं कर सकती।

चित्र में दर्शाया गया है कि विनिमय दर में परिवर्तन ह्रास या वृद्धि भुगतान के समायोजन में सहायक है। माना शुरू में भुगतान सन्तुलन साम्यावस्था में है जो चित्र EO बिन्दु से दर्शाया गया है जहाँ विदेशी विनिमय मांग और पूर्ति बराबर है। यदि स्वयं-स्फूर्ति पूंजी के बहिर्गमन में वृद्धि होती है और मांग वक्र बढ़कर D1,D1,D2,D2 हो जाता है तो देश के भुगतान में EoT का घाटा हो जाता है। चूंकि OR1 विनिमय दर पर विदेशी विनिमय की मांग पूर्ति से अधिक है तो विनिमय दर बढ़कर OR2 हो जायेगी और भुगतान शेष में पुन: सन्तुलन स्थापित हो जायेगा। इससे दोतरफा प्रभाव दृष्टिगोचर होंगे। विदेशी विनिमय की माँग OQ1 से बढ़कर OQ2 हो जाती है और पूर्ति OQ1 से बढ़कर OQ2 हो जाती है। परिणामस्वरूप विदेशी विनिमय की अतिरिक्त माँग लुप्त हो जाती है। इस प्रकार विदेशी विनिमय की स्वतंत्र माँग और पूर्ति द्वारा भुगतान शेष स्वत: समायोजित हो जाता है।

(1) बहुल विनिमय दरें (Multiple Exchange Rates) – कोई देश भुगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता दूर करने के लिये बहुल विनिमय दरें (Multiple Exchange Rates) अपना सकता है। इस विधि के अन्तर्गत आयात एवं निर्यात के लिये प्रथम विनिमय दरें निर्धारित की जाती हैं। निर्यात के लिये स्वदेशी मुद्रा का मूल्य नीचा रखा जाता है, कभी-कभी विभिन्न, वस्तुओं के लिये अलग-अलग विनिमय दरें भी रखी जाती हैं, उदाहरण के लिये आवश्यक कच्चे माल के आयात हेतु नीची विनिमय दर और विलासिता की वस्तुओं के लिये ऊंची विनिमय दरें रखी जाती हैं। इस विधि का प्रबन्ध पर्याप्त कठिन होता है। जापान ने इस विधि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है।

(2) मुद्रा संकुचन (Deflation)- स्वदेश में मुद्रा एवं साख की मात्रा का संकुचन (Deflation) करके आन्तरिक मूल्य स्तर को नीचे किया जा सकता है। इस प्रकार विदेशों में हमारे उत्पादन की प्रतियोगी शक्ति बढ़ जायेगी और निर्यात में सुधार होगा, किन्तु जहाँ अवमूल्यन करना अत्यन्त सरल उपाय है (एक आदेश मात्रा), मुद्रा संकुचन एक दुःसाध्य कार्य है। मुद्रा संकुचन के लिये बैंकों और व्यापारियों एवं जनता का सहयोग अपेक्षित होता है, जो प्रायः नहीं मिलता। एक विकासशील अर्थव्यवस्था स्वभावतः स्फीतिकारी होती है, अतएव विकासशील राष्ट्र के लिये विकास करते हुए मूल्य स्तर को नीचा करना प्रायः असम्भव होता है। यद्यपि मुद्रा संकुचन अवमूल्यन की अपेक्षा एक दीर्घकालिक उपचार है, किन्तु अनेक कठिनाइयों के कारण यह एक लोकप्रिय उपाय नहीं है।

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