अर्थशास्त्र / Economics

भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त | माँग-पूर्ति प्रति सापेक्षता एवं विनिमय दर निर्धारण | विनिमय दर निर्धारण के भुगतान शेष सिद्धान्त की आलोचना

भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त | माँग-पूर्ति प्रति सापेक्षता एवं विनिमय दर निर्धारण | विनिमय दर निर्धारण के भुगतान शेष सिद्धान्त की आलोचना

भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त

जिस प्रकार टकसाली समता सिद्धान्त मुद्रा के टकसाली मूल्य तथा क्रय-शक्ति समता सिद्धान्त मुद्रा की आन्तरिक शक्ति पर आधारित है उसी प्रकार विनिमय दर निर्धारण का भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त माँग एवं पूर्ति के सिद्धान्त पर आधारित है।

इस सिद्धान्त के अनुसार किसी देश की मुद्रा की विनिमय दर उस देश के भुगतान सन्तुलन पर आधारित होती है। भुगतान सन्तुलन किसी देश के एक निश्चित समय के सम्पूर्ण विदेशी लेन-देन का विवरण होता है। यह सिद्धान्त इस मूल तथ्य पर आधारित है कि “निर्यात ही आयातों का. भुगतान करते हैं।” (Exports pay for imports) इसका अर्थ यह है कि सन्तुलित विनिमय दर के निर्धारण के लिये किसी देश की वस्तुओं व सेवाओं के कुल आयातों के मूल्य उसके द्वारा किये गये वस्तुओं और सेवाओं के कुल आयातों के मूल्य के बराबर होना चाहिये। इसलिये इस सिद्धान्त को विदेशी विनिमय का भुगतान सिद्धान्त भी कहा जाता है।

सामान्य रूप से आयातों का भुगतान निर्यातों के द्वारा किया जाता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी देश का व्यापार सन्तुलनं सदैव सन्तुलित रहे। इसका कारण यह है कि भुगतान सन्तुलन में व्यापार सन्तुलन के अतिरिक्त लेन-देन की अन्य अदृश्य मदें भी सम्मिलित होती हैं। अत: व्यापार सन्तुलन के अनुकूल भी हो सकता है और प्रतिकूल भी इस सिद्धान्त के अनुसार, भुगतान की अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता विनिमय दर में परिवर्तन को प्रभावित करती है।

माँग-पूर्ति प्रति सापेक्षता एवं विनिमय दर निर्धारण

भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने पर उस देश के लिये विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ जाती है जिससे विदेशी मुद्रा में विनिमय मूल्य बढ़ जायेगा और देशी मुद्रा का विदेशी मूल्य कम हो जायेगा इसके विपरीत भुगतान सन्तुलन के अनुकूल होने पर इस देश की मुद्रा की माँग विदेशों में बढ़ जायेगी, जिससे देशी मुद्रा का विदेशी मूल्य बढ़ जायेगा और विनिमय दर इस देश के अनुकूल हो जायेगी। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विनिमय दर विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त वास्तव में विदेश विनिमय की समान्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों द्वारा ही निर्धारित होती हैं। प्रो० हैबरलर के शब्दों में, “भुगतान सन्तुलन सिद्धान्त अपने सीधे रूप में केवल स्वीकार करता है कि विनिमय दरों का निर्धारण भुगतान सन्तुलनों द्वारा (माँग और पूर्ति के अर्थ में) होता है।”

किसी भी देश की विदेशों में मुद्रा की माँग इस देश के निर्यातों की मात्रा तथा मूल्य, पूर्ति खाते की प्राप्तियों तथा विदेशों में विनियोजित पूँजी पर लाभाँश व ब्याज आदि की राशि पर निर्भर करती है। इसके विपरीत, इस देश की मुद्रा की विदेशों में पूर्ति इसके आयातों की मात्रा व मूल्य तथा लाभांश व ब्याज आदि के देय भुगतानों पर निर्भर करती है।

प्रस्तुत रेखाचित्र में DD, D1D2 तथा D2D2 वक्रों द्वारा मांग तेथा पूर्ति को SS वक्र द्वारा दिखाया गया है। DD वक्र SS को F बिन्दु पर काटता है। इस बिन्दु पर साम्य विनिमय दर OR तथा साम्य माँग और पूर्ति OQ है। भुगतान सन्तुलन अनुकूल होने पर इस देश की मुद्रा की माँग विदेशों में बढ़ जायेगी। इस स्थिति में माँग वक्र दायीं ओर खिसककर D1D1 होगा जिसके फलस्वरूप विनिमय दर बढ़कर OR1 हो जायेगी। इसके विपरीत, भुगतान सन्तुलन के प्रतिकूल होने पर मुद्रा की विदेशों में माँग कम हो जायेगी तथा फलस्वरूप मुद्रा की विनिमय दर भी गिर जायेगी। अत: वक्र नीचे बायीं ओर खिसककर D2D2 हो जायेगा और विनिमय दर गिरकर OR2 हो जायेगी।

आलोचना (Criticism)

  1. यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है- इस सिद्धान्त का मूलभूत दोष यह है कि यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता (जिसमें एक देश से दूसरे देश की वस्तुयें, सेवायें व मुद्रा के बिना हस्तक्षेप आवागमन शामिल है) की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है।
  2. भुगतान सन्तुलन एक स्थिर अथवा निश्चित मात्रा नहीं है- इस सिद्धान्त में भुगतान संतुलन को एक निश्चित व स्थिर मात्रा मान लिया गया है। यह गलत है, क्योंकि भुगतान संतुलन विवरण के देनदारी या लेनदार मदों में परिवर्तन होता रहता है।
  3. आयातित वस्तुओं की माँग पूर्णतया बेलोच नहीं होती- इस सिद्धान्त में विदेशों से आयात की जाने वाली अनेक वस्तुओं की माँग को पूर्णतया बेलोच मान लिया गया है जबकि वास्तविकता यह है कि वस्तु की माँग चाहे वह कितनी भी आवश्यक क्यों न हो, पूर्णतया बेलोच नहीं होती। उसकी माँग में कुछ न कुछ लोच का अंश अवश्य होता है।
  4. यह सिद्धान्त विनिमय दर पर कीमत स्तर के प्रभाव की उपेक्षा करता है- देश में कीमत स्तर में उतार चढ़ाव विदेशी व्यापार में आयात तथा निर्यात की मात्रा को प्रभावित करते हैं। विदेशी व्यापार की मात्रा में ये परिवर्तन अन्ततः भुगतान सन्तुलन को प्रभावित कर देते हैं जिसका विनिमय दर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
  5. विनिमय दर भी भुगतान सन्तुलन को प्रभावित करती है- विदेशी विनिमय दर भी भुगतान सन्तुलन को प्रभावित करती है। विनिमय दर गिर जाने पर भुगतान सन्तुलन अनुकूल होने लगता है तथा ऊँचा होने पर प्रतिकूल।
  6. अन्य प्रभावों की उपेक्षा- विदेशी मुद्राओं की माँग व पूर्ति के अतिरिक्त अन्य तत्व भी विनिमय को प्रभावित करते हैं जैसे चलन सम्बन्धी दशायें, राजनीतिक दशायें, सट्टा बाजार की स्थिति, बैंकिंग क्रियायें आदि यह सिद्धान्त इन तत्वों की उपेक्षा करता है।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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