अर्थशास्त्र / Economics

स्थिर एवं लोचशील विनिमय दरों का अन्तर | स्थिर विनिमय दर | परिवर्तनशील विनिमय दर | विनिमय दरों के पक्ष और विपक्ष में तर्क | स्थिर-दरों के पक्ष में तर्क | स्थिर दरों के विपक्ष में तर्क | परिवर्तनशील दरों के पक्ष में तर्क | स्वतंत्र दरों के विपक्ष में तर्क

स्थिर एवं लोचशील विनिमय दरों का अन्तर | स्थिर विनिमय दर | परिवर्तनशील विनिमय दर | विनिमय दरों के पक्ष और विपक्ष में तर्क | स्थिर-दरों के पक्ष में तर्क | स्थिर दरों के विपक्ष में तर्क | परिवर्तनशील दरों के पक्ष में तर्क | स्वतंत्र दरों के विपक्ष में तर्क

स्थिर एवं लोचशील विनिमय दरों का अन्तर

स्वतन्त्र विनिमय बाजार में विनिमय दर प्रायः साम्य दर से भिन्न होती है। विनिमय दर की दीर्घकालीन प्रवृत्ति में स्थिरता होने पर भी अल्पकाल में उच्चावचन सम्भव होते हैं इस दृष्टिकोण से विनिमय दरों के स्थिर तथा परिवर्तनशील स्वरूप स्वत: परिकल्पनीय है। विश्व में दोनों ही प्रकार की विनिमय दरों के उदाहरण प्राप्त होते हैं-

स्थिर विनिमय दर- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के विनिमय व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकांश देशों में डालर से निश्चित सम्बन्ध स्थापित कर अपनी मुद्रा कोष की दरें निश्चित कर ली थी। अ० मु० को० द्वारा यह निश्चित किया गया कि सदस्य देशों की मुद्राओं की दरें निश्चत दर से एक प्रतिशत कम या अधिक घट बढ़ सकती थी। सन् 1972 में यह सीमा 2.25% हो गई है। इससे अधिक परिवर्तन होने पर मुद्रा कोष से अनुमति लेनी पड़ती है मुद्रा कोष द्वारा निश्चित यह विनिमय प्रणाली ही स्थिर या निश्चित विनिमय दर कहलाती है।

परिवर्तनशील विनिमय दर- परिवर्तनशील विनिमय दर प्रतिदिन माँग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है इन पर सरकार का नियन्त्रण नहीं होता किन्तु ये परिवर्तन भी एक सीमा के अन्दर ही होते हैं। इस विनिमय व्यवस्था के अन्तर्गत भी समय-समय पर केन्द्रीय बैंक का हस्तक्षेप होता रहता है।

स्थिर एवं लोचशील विनिमय दरों का अन्तर और लोचशील

विनिमय दरों के पक्ष और विपक्ष में तर्क

स्वतंत्र व्यापार नीति का एक सहज निष्कर्ष यह भी था कि विनिमय बाजार भी स्वतंत्र हो। अर्थात् विनिमय-बाजार में निजी व्यापारियों और बैंकों को विदेशी मुद्रायें क्रय-विक्रय करने की पूरी स्वतंत्रता हो तथा मुद्राओं के मूल्य को प्रतियोगिता बाजार में माँग और पूर्ति की क्रिया- प्रतिक्रिया द्वारा निर्धारित होने के लिये छोड़ दिया जाये। इस प्रकार की विनिमय व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप के लिये कोई स्थान नहीं था।

अतएव मुक्त विनिमय दर अथवा स्वतंत्र विनिमय (Free Exchange Rate) दो देशों की मुद्राओं का ऐसा परस्पर विनिमय अनुपात है जो खुले बाजार में माँग और पूर्ति के अन्तर्द्वन्द द्वारा निर्धारित होती है।

इस प्रकार विनिमय दर माँग और पूर्ति तथा बाजार की अन्य परस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ बदलती रहती है। अत: इसे अस्थिर (Unstable) अथवा तैरती हुई (Floating) दर भी कहते हैं।

इसके विपरीत यदि मुद्राओं के बीच कोई विनिमय अनुपात सदैव के लिये अथवा दीर्घकाल के लिये स्थिर कर दिया जाये तो इसे स्थिर विनिमय दर कहते हैं। जब सरकार द्वारा निर्धारित विनिमय दर निश्चित सीमाओं के अन्दर परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील होती है, तब उसे Managed Flexible Rate (प्रतिबन्धित लोचशील दर) कहते हैं। यह लोचशीलता अति संकुचित सीमाओं के अन्दर प्रदान की जा सकती है अथवा पर्याप्त चौड़ी पट्टी (Broad Band) में कीन्स और हॉम का विचार था कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य देशों को अपनी मुद्रा के निर्धारित स्वर्ण अथवा डालर मूल्य को चौड़ी पट्टी में बदलने का अधिकार होना चाहिये। यह पट्टी निर्धारित बिन्दु के दोनों ओर 10% तक फैल सकती है। इस प्रकार प्रत्येक देश को विनिमय दर में 20% तक परिवर्तन करने का अवसर मिल सकेगा। इस प्रकार पर्याप्त स्थिरता के साथ लोचशीलता के लाभ प्राप्त होंगे।

अर्थशास्त्रियों में इस बात पर मतभेद रहा है कि विनिमय-दरें स्थिर होनी चाहिए अथवा स्वतंत्र रूप से परिवर्तनशील।

स्थिर-दरों के पक्ष में तर्क

जो विद्वान स्थिर-दरों के पक्षधर हैं, उनके तर्क इस प्रकार हैं-

(1) स्थिर-दरें व्यापार में सुविधाजनक स्थिर विनिमय दरें अप्रत्यक्ष रूप से एक मुद्रा का लाभ देती है। यदि समस्त विश्व में स्थिर-दरें प्रचलित हों तो विश्व-व्यापार को लगभग एक मुद्रा प्रणाली का लाभ प्राप्त होगा। जिन देशों के बीच स्थिर विनिमय दरें होती हैं, वे एक मुद्रा क्षेत्र का लाभ प्राप्त करते हैं, क्योंकि आयातकर्ता पहले से अपनी आयातित वस्तुओं का मूल्य ज्ञात कर सकते हैं और निर्यातक वह जान सकते हैं कि उन्हें अपने निर्यात का कितना मूल्य मिलेगा। इस व्यवस्था से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वृद्धि होती है।

(2) आर्थिक नियोजन में सहायक स्थिर विनिमय दर के आधार पर किसी देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने में सुविधा होती है। योजना में विदेशी मुद्रा का अंश का पूर्व ज्ञान कर उसका प्रबन्ध किया जा सकता है अथवा विदेशी मुद्रा प्राप्तियों के आधार पर योजना बनाई जा सकती है।

(3) विदेशी विनियोग को प्रोत्साहन स्थिर विनिमय दरों के आधार पर विदेशी विनियोक्ता अपनी पूँजी पर भविष्य में होने वाली आय का पूर्वानुमान सरलता से लगा सकते हैं। अत: विदेशी विनियोग प्रोत्साहित होता है। स्थिर विनिमय दर, स्थिर ब्याज दर का आश्वासन भी देती है, जिससे पूँजी निवेश की उत्पादकता का अनुमान लगाया जा सकता है।

(4) सट्टेबाजी से सुरक्षा जब विनिमय दरें दीर्घकाल के लिये स्थिर कर दी जाती है, तो सट्टे अथवा भविष्य के सौदों की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

(5) पूँजी के उड़ान पर रोक बार-बार बदलने वाली दरें पूँजी को डराकर विदेश जाने के लिये प्रेरित करती हैं। स्थिर दरों के अन्तर्गत पूँजी के बहिर्गमन पर इस प्रकार की रोक लग जाती है।

(6) विनियोग और रोजगार में स्थिरता स्थिर विनिमय दरों के अन्तर्गत विनियोग और रोजगार की स्थिरता बनी रहती है।

स्थिर दरों के विपक्ष में तर्क

दूसरी और स्थिर-दरों के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-

(1) बार-बार समायोजन की आवश्यकता विनिमय दर को एक बार निर्धारित करते समय क्रय शक्ति समता के बराबर रखा जा सकता है। किन्तु मुद्रा की क्रयशक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। फलत: आंतरिक क्रयशक्ति और विनिमय दर में विचलन हो जाता है। ऐसी स्थिति में समय-समय पर विनिमय दर का समायोजन करना पड़ता है। एक ऐसे देश में जहाँ तीव्र गति से मुद्रास्फीति हो रही हो, ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता बार-बार होती है।

(2) समायोजन न करने पर झूठा प्रतिबिम्ब स्वतंत्र विनिमय दर किसी देश की अन्तर्दशा का आईना होती है, किन्तु स्थिर विनिमय दर देश की अर्थव्यवस्था का झूठा प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। इससे दूसरे देश तो धोखा खाते ही हैं स्वयं अपने देश की जनता को भी धोखे में रखा जाता है।

(3) अधिमूलियत मुद्रा एक मंहगी विलासिता है यदि मुद्रास्फीति के कारण मुद्रा की आन्तरिक क्रय शक्ति का ह्रास होने पर स्थिरता के नाम पर विनिमय दर का समायोजन नहीं किया जाता तो मुद्रा अधिमूल्यित हो जाती है। अधिमूलियत मुद्रा (Overvalued Currency) एक मंहगी विलासिता है जो देश की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर देती है।

(4) सट्टे को प्रोत्साहन जब किसी देश की मुद्रा के आंतरिक मूल्य की तुलना में उसका बाह्य मूल्य अधिक होता है, तो उसका अवमूल्यन होने की सम्भावना पर सट्टा होने लगता है। सटोरियों की क्रियायें परिस्थितियों को और विषम बना देती हैं और वास्तविक विनिमय दर गिरने लगती है।

(5) काला बाजार का जन्म जब किसी अधिमूल्यित मुद्रा की विनिमय दर दीर्घकाल तक नहीं बदली जाती तब विदेशी मुद्रा का काला बाजार उत्पन्न हो जाता है। निर्यातक अपने बिलों को चोर बाजार में बेचने लगते हैं, क्योंकि चोर बाजार में विदेशी मुद्रा का ऊँचा मूल्य मिलता है।

(6) आर्थिक संकट का आयात जिन दो देशों के बीच विनिमय दरें स्थिर होती हैं उनकी अर्थव्यवस्थायें एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़ जाती हैं कि एक देश का आर्थिक संकट दूसरे देश में प्रवेश कर जाता है।

(7) व्यापार शेष का समायोजन असम्भव स्थिर दरों को व्यापार सन्तुलन की आवश्यकता के अनुसार समायोजित नहीं किया जा सकता। फलतः प्रतिकूल भुगतान शेष को सुधारना कठिन होता है।

स्थिर विनिमय दरों के उक्त दोषों के कारण ही अनेक विद्वान परिवर्तनशील (Flexible) अथवा तैरती हुई (Floating) विनिमय दरों का समर्थन करते हैं।

परिवर्तनशील दरों के पक्ष में तर्क

(1) बार-बार के अवमूल्यन से छुट्टी यदि विनिमय दर आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ निरन्तर बदलती रहती है तो अवमूल्यन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। शनैः-शनैः होने वाले परिवर्तनों का समायोजन स्वयं हो जाता है।

(2) अर्थव्यवस्था का वास्तविक प्रतिबिम्ब परिवर्तनशील दरें देश की अर्थव्यवस्था का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करती है। विदेशी देश के अर्थव्यवस्था के सही ज्ञान के आधार पर अपने विनियोग व्यापार सम्बन्धी निर्णय करते हैं।

(3) अधिक विश्वसनीय व्यापारियों का स्वतंत्र परिवर्तनशील दरों में अधिक विश्वास होता है। इंग्लैण्ड ने पाठण्ड को तैरता छोड़कर अधिक विश्वास प्राप्त किया है।

(4) स्थिर दर की अपेक्षा कम हानिकारक बदलती हुई विनिमय दर थोड़ी कठिनाई अवश्य उपस्थित करती है किन्तु यदि परिवर्तन स्वचालित या शीघ्र हों तब व्यापारियों को असमंजस का कोई कारण नहीं रहता और न ही किसी सम्भाव्य अवमूल्यन का भय रहता है। यह स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिये अच्छी है।

(5) स्वतंत्र विनिमय बाजार में स्वचालित समायोजन स्वतंत्र विनिमय दर दोनों देशों की आंतरिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के साथ स्वमेव बदलती है। अतएव जानबूझकर उनके ऊँचे और नीचे रखे जाने का भय नहीं रहता।

(6). स्वतंत्र आर्थिक नीति सम्भव स्वतंत्र परिवर्तनशील विनिमय दरें देश को स्वतंत्र आर्थिक नीति अपनाने का अवसर देती है, जो देश की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित की जा सकती है।

(7) स्वतः सुधारित भुगतान शेष स्वतंत्र विनिमय दर प्रणाली में यदि भुगतान शेष में कोई असन्तुलन आता है तो विनिमय दर का परिवर्तन शीघ्र ही स्वतः सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार कोई असन्तुलन स्थाई नहीं रह पाता जबकि स्थिर विनिमय दरें व्यापार शेष के असन्तुलन को स्थायित्व प्रदान करती है।

स्वतंत्र दरों के विपक्ष में तर्क

दूसरी ओर स्वतंत्र विनिमय दर में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-

(1) बार-बार परिवर्तनों से व्यापारी को कठिनाई स्वतंत्र विनिमय दरों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। इनसे व्यापारियों को आयात-निर्यात पर होने वाले लाभ का पूर्वानुमान लगाना कठिन हो जाता है। अत: व्यापार की मात्रा घटती है।

(2) आर्थिक नियोजन में कठिनाई कुछ वर्ष बाद विनिमय दर क्या होगी यह निश्चयपूर्वक नहीं ज्ञात होता जिससे दीर्घकालीन नियोजन (Perspective Planning) में कठिनाई होती है।

(3) सट्टे की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन व्यापारी अपना लाभ सुनिश्चित करने के लिए ‘भविष्य के सौदों’ (Forward Transa- ction) का सहारा पहले तो यह सौदे वास्तविक खतरे से सुरक्षा के लिए होते हैं, किन्तु बाद में सट्टे से लाभ कमाने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और सटोरियों की क्रियायें विनिमय-दरों में भारी उतार-चढ़ाव उत्पन्न करने लगती है।

(4) विदेशी पूँजी के विनियोजन में बाधा विनिमय दर में बारम्बार होने वाले परिवर्तनों के कारण विदेशी विनियोग में बाधा पड़ती है, क्योंकि विनियोक्ता यह निश्चित नहीं कर पाते कि उन्हें पूँजी पर कितना लाभ प्राप्त होगा।

यदि हम उक्त तर्कों पर विचार करें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि न तो बारम्बार बदलने वाली दरें ही देश की अर्थव्यवस्था के लिये लाभकारी होती हैं और न ही दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली दरें । वास्तव में देश के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय विनियोजन की सुविधा के लिये यह आवश्यक है कि जो विनिमय दर एक बार निश्चित हो, उसके लम्बे काल तक स्थिर रहने की सम्भावना हों, परन्तु यदि वस्तुस्थिति में कोई परिवर्तन होता है तो विनिमय दर का समायोजन भी यथाशीघ्र हो। अतः एक चौड़ी पट्टी में लोचशील दरें अधिक उपयुक्त होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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