इतिहास / History

चीन में साम्यवाद का उदय | चीन में साम्यवाद की स्थापना | साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’ | साम्यवादियों की सफलता के कारण

चीन में साम्यवाद का उदय | चीन में साम्यवाद की स्थापना | साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’ | साम्यवादियों की सफलता के कारण

चीन में साम्यवाद का उदय

डॉल सनयातसेन के प्रयासों से चीन में 1911 ई. में राज्य क्रान्ति सम्पन्न हुई थी किन्तु उसके पद त्याग के पश्चात् युआनशिकाई ने स्वेच्छाचारी शासन स्थापित करने का प्रयास किया। डॉ० सनयातसेन ने अपने तीन सिद्धान्तों- ‘राष्ट्रीयता, जनतंत्र और समाजवाद’ के आधार पर चीन का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया था। किन्तु 12 मार्च, 1925 को उनकी मुत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु, दो महत्वपूर्ण किन्तु परस्पर विरोधी परिणाम हुए। प्रथम डॉ० सनयातसेन रातों-रात राष्ट्रीय चीन व कुओमिंगतांग दल के जननायक बन गये, उनका वसीयतनामा दल के लिए पवित्र सिद्धान्त बन गया और जनता के तीन सिद्धान्त राष्ट्रवादियों का धर्म प्रन्थ हो गया।

दल विभाजन- जब रूस ने स्पष्ट रूप से चीन में साम्यवादी और बोल्शेविक कार्यक्रम चलाने का प्रयास किया तो कुओमिंगतांग दल के नेता रूस के विरुद्ध हो गये। अब चीन के लोग विटेन तथा अन्य पश्चिमी शक्तियों का सहारा लेने लगे। इससे कुओमिंगतांग दल में विभाजन होने लगा। नवम्बर, 1925 में कुओमिंगतांग दल के व्यापारी तथा जमींदार दुर्ग के लोगों ने पीकिंग को पश्चिमी पहाड़ियों में एक बैठक की और रूसी सलाहकारों और साम्यवादी सदस्यों को संस्था से निकालने का कार्यक्रम बनाया और संस्था के दूसरे सम्मेलन साम्यवादी सदस्यों को दल से अलग कर दिया। फिर भी 1927 ई. तक किसी तरह कुओमिंगतांग और साम्यवादियों में सहयोग रहा किन्तु जब साम्यवादियों ने हैंकाउ सरकार तथा उसके द्वारा कुओमिंगतांग पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया तो च्यांगकाईशेक ने साम्यवादियों को कुओमिगतांग दल से निष्कासित कर दिया। जब कम्युनिस्ट लोग कुओमिंगतांग दल से अलग हो गये, तो उन्होंने चीन के अनेक प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। 1931 ई० में उनकी शक्ति का प्रधान केन्द्र कियांग्सी था। यह प्रान्त क्वाग्तुंग प्रान्त के उत्तर में स्थित है जहाँ कम्युनिस्ट लोगों ने अपनी सरकार स्थापित कर ली थी। धीरे-धीरे किएन, हुनान व आन्हुई प्रान्तों के अनेक भागों में भी इनकी शक्ति स्थापित हो गई थी। कियांग्सी की कम्युनिस्ट सरकार नानकिंग को कुओमिंगतांग सरकार की सत्ता को स्वीकार नहीं करती थी। इस समय वहाँ च्यांगकाईशेक शक्ति में था। 1932 ई० में चीन की इस कम्युनिस्ट सरकार के अधीनस्थ प्रदेशों का क्षेत्रफल, 3,30,000 वर्ग मील के लगभग था और उनमें निवास करने वाले लोगों की संख्या 9 करोड़ थी। वर्ष 1933 में चीन में तीन प्रमुख सरकारें थीं-

(1) च्यांग-काई-शेक की अध्यक्षता में नानकिंग में कुओमिंगतांग दल की सरकार।

(2)  कैप्टन में कुओमिंगतांग दल की ही बामपंथी सरकार। इसके प्रमख नेता वांग-चिंग-वेहं व चेन-कुंग-पो थे। इस वामपंथी दल के सदस्य च्यांगकाइशेक की नीति को डा० सनयातसेन के सिद्धान्तों के विरोध में समझते थे। इस कारण से उन्होंने कैण्टन में पृथक सरकार का निर्माण कर लिया था।

(3) कियांग्सी, आन्हुई तथा किएन प्रान्तों में साम्यवादी सरकार। यह सरकार अपने को देश की राष्ट्रीय सरकार कहती थी तथा साम्यवादी ढांचे पर देश में शासन स्थापित करना चाहती थी।

रुस का विरोध- च्यांग- काई-शेक के अधीन नानकिंग सरकार कम्युनिस्ट विरोधी थी। चीन की राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक था कि कियांग्सी की कम्युनिस्ट सरकार को युद्ध द्वारा प्रास्त कर उसे अधीनता में लाया जाय। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1933 ई० में महासेनापति च्यांगकाईशेक ने चार बार कियांग्सी की कम्युनिस्ट सरकार पर आक्रमण किये किन्तु उसे को सफलता नहीं मिली। इस समय कम्युनिस्ट लोग निरंतर अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। च्यांगकाईशेक की सरकार ने 1934 ई० में अपनी सम्पूर्ण शक्ति कम्युनिस्ट लोगों के दमन में लगा दी। अब कम्युनिस्ट लोगों के लिये यह सम्भव नहीं रह गया कि वे नानकिंग सरकार की शक्ति का मुकाबला कर सकें। 1934 ई. में लाखों की संख्या में कम्युनिस्ट लोगों को मौत के घाट उतारा गया। सैन्य शक्ति के अतिरिक्त च्यांगकाईशेक ने फासिस्ट ढंग पर नीलीकुर्ती नाम से एक आतंकवादी दल का गठन किया, जिसका उद्देश्य कुओमिंगतांग दल के विरोधियों का विनाश करना था। कुओमिंगतांग सरकार ने सेना में राजनीतिक शिक्षा का प्रचार भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि च्यांगकाईशेक की सरकार कम्युनिस्टों (साम्यवादियों) को देश का शत्रु समझने लगी इसके अतिरिक्त जिन प्रदेशों को नानुकिंग सरकार साम्यवादियों से विजय करती जाती थी, उनके पुराने जमीदारों व पूंजीपतियों को संगठित किया जाता था, ताकि वे कुओमिंगतांग दल की सहायता कर सकें। चीन में एक नये आंदोलन का सूत्रपात किया गया, जिसे ‘नवजीवन आन्दोलन’ कहा जाता था। इस आंदोलन का उद्देश्य था कि चीन के प्राचीन आदर्शों के प्रति निष्ठा की भावना उत्पन्न करना, जिससे लोग मार्क्स की अपेक्षा कन्फ्यूशियस के सिद्धान्तों की ओर अधिक आकृष्ट हों।

साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’

लाल सेना का महान् अभियान- च्यांगकाईशेक जिस ढंग से साम्यवादियों पर अत्याचार कर रहा था उससे यह सम्भव नहीं था कि वे कियांग्सी प्रान्त व उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर साम्यवादी अपने प्रभाव को स्थापित रख सकें। इसी बीच 1931 ई० में चीन पर जापान का आक्रमण हो गया, जो एक लम्बे ‘युद्ध का प्रारम्भ’ था। च्यांगकाईशेक ने इस समय जापानी खतरे से बड़ा साम्यवादी ख़तरा समझा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति साम्यवादियों के दमन में लगा दी। अतः साम्यवादियों ने यही उचित समझा कि वे च्यांगकाईशेक की सेनाओं का मुकाबला करने की अपेक्षा उत्तर में शेन्सी प्रान्त की ओर प्रस्थान कर दें और वहाँ जाकर अपनी शक्ति का पुनर्गठन करें। जब च्यांगकाईशेक को माओ के महाप्रस्थान के निर्णय की सूचना मिली तो उसने साम्यवादियों को कुचलने का यह स्वर्णिम अवसर समझा एवं इसको मृत्यु प्रस्थान’ का नाम दिया। कियांसी से शेन्सी तक का हान् अभियान इतिहास में ‘महाप्रस्थान कहलाता है, जो 16 अक्टूबर, 1934 ई० में आरम्भ हुआ और 20 अक्टूबर, 1935 ई० में पूरे एक वर्ष बाद समाप्त हुआ। विश्व इतिहास के आधुनिक चरण में यह अभियान रोमांचकारी था। इस पुरे यात्रा काल में केवल 100 दिन इस सेना ने विश्राम किया था। शेष समय संघर्ष करते हुए व चलते हुए व्यतीत किये गये। अभियान आरम्भ होने के समय 90 हजार व्यक्ति इस यात्रा में थे, जो येयान पहुंचने तक 20 हजार ही रह गये। लगभग 6 हजार मील की यात्रा करके 1936 ई० में साम्यवादी लोग शेन्सी पहुंचे और वहाँ येयान नगर को राजधानी बनाकर उन्होंने अपनी सरकार का पुनर्गठन किया। शेन्सी का उत्तरी भाग और कांगसू प्रान्त का उत्तर-पूर्वी भाग उनके अधिकार में धा। इस ऐतिहासिक वीरता का समस्त श्रेय माओत्सेतुंग व कमाण्डर सूते को है। अपने इस राज्य में साम्यवादियों ने समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की और च्यांगकाईरोक की कुओमिंगतांग सरकार से संघर्ष की तैयारी आरम्भ कर दी

साम्यवादियों का यह नया राज्य जापान द्वारा अधिकृत उत्तरी चीन के निकट था। अतः यह स्वाभाविक ही था कि साम्यवादियों का ध्यान चीन पर निरन्तर बढ़ते हुए जापानी प्रभुत्व की ओर आकृष्ट होता। वे यह महसूस करते थे कि चीनी लोगों को अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर परस्पर मिलकर जापान के साम्राज्यवाद का मुकाबला करना चाहिये। 1936 ई० में साम्यवादी सरकार ने अपने उद्देश्यों को इस प्रकार प्रकट किया-

(1) विदेशी आक्रमणकारी का मिलकर मुकाबला करना,

(2) जनता को शासन सम्बन्धी अधिकार प्रदान करना और

(3) देश की आर्थिक उन्नति करना ।

साम्यवादियों के उक्त उद्देश्यों के कारण चीन की जनता का बहुमत उनके साथ हो गया। इससे साम्यवादियों को अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिला।

चीन में गृह-युद्ध की स्थिति- किन्तु च्यांगकाईशेक साम्यवादियों के साथ किसी भी प्रकार समझौता नहीं करना चाहता था। वह शेन्सी प्रान्त में भी उन्हें परास्त कर सम्पूर्ण चीन पर कुओमिंगतांग दल का शासन स्थापित कर्ना चाहता था। उसने क्वांगतुंग तथा क्वांर्गसू को साम्यवादियों के स्थानान्तरण के बाद अपने प्रभुत्व में ले लिया था। च्यांगकाईशक का विचार था कि जापान का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक था कि पहले साम्यवादियों को परास्त किया जाय ताकि चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सके। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने अपनी सेनाएँ साम्यवादियों से संघर्ष हेतु भेजीं। इन सेनाओं का प्रधान चांगहसूएहलिआंग था। साम्यवादी अपने चीनी भाइयों से नहीं लड़ना चाहते थे। उन्होंने च्यांगकाईशेक द्वारा भेजी गुयों सेनाओं को युद्ध न करने के लिए तैयार कर लिया जब यह बात च्यांगकाईशेक तक पहुँची तो वह स्वयं शेन्सी प्रान्त की ओर बढ़ा। उसके इस रुख को देखकर चांगहसुएहलिआंग ने साहस दिखा कर च्यांगकाईशेक को गिरफ्तार कर लिया और च्यांगकाईशेक को अपनी नीति में परिवर्तन करने के लिए कुछ मांगें रखीं जिनमें-‘चीन में लोकतंत्र शासन की स्थापना साम्यवादियों को इस बात के लिए तैयार किया जाये कि आपसी लड़ाई को समाप्त कर जापान के विरुद्ध शीघ्र युद्ध आरम्भ किया जाये आदि थीं। पर च्यांगकाईशेक किसी भी प्रकार से इन शर्तों को मानने के लिए तैयार नहीं था। उसकी गिरफ्तारी के तेरह दिन बाद उसे रिहा किया गया तो साम्यवादियों और नानकिंग सरकार के बीच युद्ध बन्द हो गया। इस समय चीन का लोकमत गृहयुद्ध को बन्द कर जापान के विरुद्ध संघर्ष को शुरू करने के पक्ष में था। च्यांगकाईशेक के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह लोकमत की उपेक्षा करे। अतः उसने साम्यवादियों के साथ बातचीत आरम्भ की।

कुओमिंगतांग और साम्यवादी दल में समझौता सह-अस्तित्व का प्रयास- काईशेक साम्यवादियों की इस बात से सहमत था कि चीन के विविध दलों को आपसी मतभेदों को भुलाकर जापान के प्रभुत्व नष्ट करने के लिए सम्मिलित प्रयास करने चाहिए। उसने अब महसूस किया कि साम्यवादियों के साथ समझौता करने में ही चीन का लाभ है। अत: दोनों पक्षों के बीच 1937 ई० में एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार-

(i) उत्तर-पश्चिमी चीन के जिन प्रदेशों (शेन्सी और कांगसू) पर साम्यवादियों का अधिकार है, वहाँ उनका शासन ही स्थापित रहेगा,

(ii) इन प्रदेशों में साम्यवादियों का अपना स्वतंत्र व् पृथक राज्य रहेगा, जो चीन के अन्तर्गत रहता हुआ भी शासन को दृष्टि से साम्यवादियों के अधीन होगा,

(iii) साम्यवादी सेना को चीन की राष्ट्रीय सेना का ही एक अंग मान लिया गया और साम्यवादी सेनापति जापान के साथ युद्ध करते हुए महासेनापति च्यांगकाईशेक के आदेशों का पालन करेंगे। साम्यवादी सेना को चीन की राष्ट्रीय सेना में आठवीं सेना का नाम दिया गया।

चीन के आधुनिक इतिहास में कुओमिगतांग और साम्यवादियों का यह समझौता महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इस प्रकार 1937 ई० में चीन-जापान युद्ध आरम्भ होने के समय

चीन में दो पृथक-पृथक सरकारें विद्यमान थी। दोनों की अपनी अपनी पृथक सेनाएँ थी और दोनों अपने अपने गोगों में अपने भादों के अनुसार शासन और सामाजिक व्यवस्था के विकास में तत्पर थी।

1937 में चीन जापान सुख हुभा जिसमें चीन जापान द्वारा पराजित हुआ। उत्तरी चीन के कुछ प्रदेश जापान के अधीन चले गये। यहाँ जापान के प्रभुत्व में एक चीनी सरकार का गठन किया गया था।

द्वितीय विश्व युद्ध और चीन- जब द्वितीय विश्वयुद्ध आराम हुआ तो चीन में तीन तरह की सरकारे थी मंचूरिया में एक स्वतंत्र व पृथक राज्य था, जिसे ‘मंचूकाओं’ कहा जाता था। यह राज्य जापान के प्रभाव में था और नानकिंग को राजधानी बनाकर वहाँ एक स्वतंत्र चीनी सरकार की स्थापना कर दी गई थी। दूसरी चीनी सरकार महासेनापति च्यांगकाईशेक के नेवल में ‘राष्ट्रीय सरकार कहलाती थी उसकी राजधानी चुगकिंग थी। तीसरी सरकार साम्यवादियों की पी जो उत्तर पश्चिमी चीन में स्थित थी, इसकी राजधानी येयान था। इसका नेतृत्व माओत्सेतुंग कर रहे थे। साम्यवादी सरकार चुंगकिंग की सरकार की अधीनता में रहते हुए जापान के विरुद्ध युद्ध में सहयोग देने को तैयार थी पर च्यांगकाईशेक जापान के विरूद्ध संघर्ष की अपेक्षा चीन की आन्तरिक राजनीति को अधिक महत्व देता था। चीन के सम्पूर्ण तट पर जापान का अधिकार हो जाने के कारण च्यांगकाईशेक को सरकार का अन्य देशों के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रह गया था। अत: अमेरिका और ब्रिटेन ने उसे वायुयान द्वारा सहायता पहुंचाने का प्रयास किया। वे यह नहीं चाहते थे कि जापान या रूस का प्रभाव चीन में बढ़े । हिमालय की उच्च पर्वतमाला को पार कर अमेरिका व बिटेन के हवाई जहाज भारत होते हुए चुंगकिंग जाने लगे। जनवरी, 1944 में 13,399 टन युद्ध सामपी भारत से चीन पहुंचाई गयी। हवाई जहाजों द्वारा इतनी अधिक युद्ध सामग्री प्रतिमाह पहुंचाना इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका और ब्रिटेन च्यांगकाईशेक की सरकार को कितना अधिक महत्व देते थे।

इस विकट स्थिति में भी येयान की साम्यवादी सरकार इस बात के लिए प्रयलशील थी कि जापान के विरूद्ध लड़ाई में चुंगकिंग सरकार के साथ सहयोग करे। किन्तु च्यांगकाईशेक और कुओमिंगतांग दल के सदस्य साम्यवादियों के साथ सहयोग की अपेक्षा उनके विरुद्ध संघर्ष को अधिक महत्व देते थे। यही कारण था कि चुंगकिंग तथा येयान की सरकारों में सहयोग निरन्तर कम होता जा रहा था और च्यांगकाईशेक की सेनाएँ जापान के विरुद्ध लड़ाई में न लगकर साम्यवादियों के विरुद्ध युद्ध करने में अपनी शक्ति का उपयोग करने में लगी हुई थीं। इसी समय ब्रिटेन और अमेरिका दक्षिण-पूर्वी एशिया में जापान के विरूद्ध युद्ध करने में संलग्न थे।

समझौते के प्रयास- अमेरिका और ब्रिटेन ने चुंगकिंग सरकार को अपने पक्ष में करने के लिए 11 जनवरी, 1943 को च्यांगकाईशेक के साथ एक संधि की, जिसके अनुसार एक्स्ट्रा टेरिटोरिएलिटी की पद्धति का चीन में अन्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त इन दोनों देशों को चीन में जो अन्य अनेक प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे उन्हें भी समाप्त कर दिया गया। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया कि चीन राजनीतिक दृष्टि से पाश्चात्य देशों के समकक्ष है और संसार का एक प्रमुख व शक्तिशाली राज्य है। इसलिए जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन किया गया, तो उसकी सुरक्षा परिषद् में चीन को भी स्थायी रूप से सदस्यता प्रदान की गयी थी। मित्र राज्य इस बात के लिए बहुत अधिक उत्सुक थे कि च्यांगकाईशेक की सरकार जापान के विरुद्ध युद्ध जारी रखे और किसी भी प्रकार उसके साथ समझौता नहीं करे। अमेरिका की ओर से जो सेनाएँ चीन में विद्यमान थीं, वे चाहती थीं कि चीन की राष्ट्रीय सेनाएँ येयान की साम्यवादी सरकार के विरुद्ध युद्ध न करके जापान से युद्ध करें तथा साम्यवादी सरकार भी जापान के विरुद्ध च्यांगकाईशेक को सरकार की मदद करे। अमेरिका के प्रधान अधिकारी जनरल स्टिलवेल और उसके बाद अमेरिकी राजदूत हर्ले ने बहुत प्रयास किया कि चीन की च्यांगकाईशेक की सेनाओं तथा साम्यवादी सेनाओं में समझौता हो जाये किन्तु अमेरिका के ये समझौता प्रयास असफल रहे।

इसी बीच अगस्त, 1945 में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और महायुद्ध का अन्त हो गया। किन्तु महायुद्ध की समाप्ति के साथ ही चीन की समस्या का अन्त नहीं हुआ। जापान की पराजय के कारण नानकिंग की उस सरकार का स्वयंमेव अन्त हो गया, जो वागचिंग वेई के नेतृत्व में स्थापित की गई थी। महायुद्ध की समाप्ति पर यह समस्या उत्पन्न हुई कि नानकिंग सरकार द्वारा अधिक्त प्रदेशों पर अब किसका आधिपत्य स्थापित हो-चुंगकिंग को कुओमिंगतांग सरकार का या येयान की साम्यवादी सरकार का।

लोकतंत्र की स्थापना के प्रयास- दिसम्बर, 1945 में अमेरिका के राष्ट्रपति टूमेन् ने जनरल मार्शल को विशेष रूप से चीन इसी उद्देश्य से भेजा था कि वह चीन के दोनों प्रमुख दलों में समझौता कराये। उन्हें यह भी कार्य सौंपा गया कि वे चीन के दोनों दलों को वहाँ लोकतंत्र की स्थापना के लिये तैयार करें। जनरल मार्शल 10 जनवरी, 1946 को एक संधि कराने में सफल हुए, जिसमें यह तय किया गया कि दोनों पक्षों को सेनाएँ आपसी संघर्ष समाप्त कर दें और चीन वा जो प्रदेश जिस सेना के अधिकार में है, वह उसी सेना के अधिकार में रहेगा। साम्यवादियों ने संचार साधनों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया और मंचूरिया प्र राष्ट्रीय सरकार द्वारा पुनः कब्जा करने का अधिकार स्वीकार किया। इस प्रकार अमेरिका के प्रयल से चीन का गृह-युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित हो गया।

किंतु 10 जनवरी, 1946 समझौते से चीन की वास्तविक समस्या का हल नहीं हुआ था। चीन में स्थायी शान्ति के लिए यह आवश्यक था कि वहाँ ऐसी सरकार स्थापित हो, जो लोकतंत्रवाद के सिद्धांतों पर आधारित हो, राजनीतिक दलों की सेनाओं के स्थान पर एक राष्ट्रीय सेना का पुनर्गठन किया जाये, जिसका किसी भी दल से कोई सम्बन्ध न हो किन्तु इन बातों को क्रियान्वित करना असम्भव था। 7 जनवरी, 1947 को जनरल मार्शल ने अमेरिका लोट्ने पर एक वक्तव्य में कहा था-“शान्ति स्थापना में सबसे बड़ी कठिनाई यह रही कि कुओमिंगतांग और चीनी साम्यवादी दल एक दूसरे के प्रति बहुत अधिक सन्देह करते हैं।

साप्यवादियों द्वारा सैनिक सत्तारोहण- अमेरिका के अथक प्रयासों के बावजूद भी कुओमिंगतांग और साम्यवादियों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। किन्तु जापान के आत्मसमर्पण करते ही अब उत्तरी व पूर्वी चीन पर पुनः अधिकार स्थापित करने का प्रश्न उत्पन्न हुआ तो, चुंगकिंग और येयान् सरकारों के पारस्परिक विरोध ने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया। कुछ ही समय बाद् दोनों दलों की सेनाओं में गृह-युद्ध आरम्भ हो गया और इस गृह-युद्ध में साम्यवादियों को सफलता प्राप्त हुई ।

साम्यवादियों की सफलता के कारण-

चीन के गृह-युद्ध में साम्यवादियों की सफलता के कई कारण थे-

(1) साम्यवादियों को देश रक्षा की भावना और उनके द्वारा जापान के विस्तार को रोकने का प्रयास करना, उनकी सफलता का मुख्य कारण धा। जबकि च्यांगकाईशेक ने सदैव अपनी शक्ति को आंतरिक शत्रु के दमन में पहले खर्च किया और जापानी विस्तार को गौण समझा। चीन की जनता इस कारण च्यांगकाईशेक से असंतुष्ट होती जा रही थी।

(2) साम्यवादी प्रभाव क्षेत्र में जो विकास की तीव्र गति थी, उसने भी जनता को साम्यवाद की ओर प्रेरित किया, जबकि च्यांगकाईशेक की सरकार के अधिकार क्षेत्र में आर्थिक समस्या विकराल रूप में खड़ी थी।

(3) साम्यवादियों के सिद्धान्त-जनता की आवाज सुनना व निम्न वर्ग से सुहानुभूति रखना जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त करने को काफी थे, जबकि कुओमिंगतांग दल वैयक्तिक उन्नति व पूंजीवादी व्यवस्था में मान थे।

(4) साम्यवादियों की स्थिति ऐसी थी कि उन्हें निरन्तर रूस की सहायता मिलती जा रही थी और उनकी शक्ति का विस्तार हुआ था, जबकि चुंगकिंग की सरकार असहाय स्थित में थी । पश्चिमी राष्ट्रों की सहानुभूति के बावजूद भी उनकी सहायता के सभी मार्ग बन्द थे, अतः उनकी शक्ति का हास्य हो रहा था।

द्वितीय विश्व युद्ध में रूस ने मित्रराष्ट्रों का साथ दिया था और जर्मनी की शक्ति को परास्त करने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसी कारण उसने जापान के विरूद्ध युद्ध की घोषणा नहीं की थी। अप्रैल, 1941 में जापान और रूस के बीच एक संधि हुई जिसके अनुसार दोनों देशों ने तटस्थ रहना स्वीकार किया। यह संधि पाँच वर्ष के लिये की गई थीं। इस संधि से पूर्व फरवरी, 1941 में मित्रराष्ट्रों के प्रमुख नेताओं का एक सम्मेलन याल्टा नामक स्थान पर हुआ। इस सम्मेलन में रूस ने यह स्वीकार किया कि जब जर्मनी युद्ध में प्रास्त हो जायेगा तो उसके दो या तीन माह बाद रूस जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करेगा ताकि जापान को परास्त करने में वे भी उसकी सहायता कर सकें। याल्टा सम्मेलन में ही विटेन और अमेरिका ने रूस के साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार उन्होंने यह स्वीकार किया था कि जापान को पराजय के बाद पूर्वी एशिया के सम्बन्ध में नयी व्यवस्था स्थापित करते हुए रूस की निम्नलिखित बातों को स्वीकार किया जायेगा।

(i) मंगोलिया पीपुल्स रिपब्लिक को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वीकृत किया जायेगा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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