इतिहास / History

राष्ट्रसंघ | राष्ट्रसंघ के उद्देश्य | राष्ट्रसंघ के प्रमख अंग | राष्ट्रसंघ के कार्य

राष्ट्रसंघ | राष्ट्रसंघ के उद्देश्य | राष्ट्रसंघ के प्रमख अंग | राष्ट्रसंघ के कार्य

राष्ट्रसंघ

इसकी (League of Nations) की स्थापना मानव को प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं से रोकने के लिए की गई थी। वास्तव में पेरिस शांति समझौते की यह विशिष्ट देन है। युद्ध के समय ही अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने एक ऐसी संस्था के निर्माण के विषय में कहा था, जो विश्व में शाति-स्थापना के कार्य में सक्षम हो सके। फलतः इंगलैंड और फ्रांस के प्रधानमंत्रियों की अनिच्छाओं के बावजूद राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई, जो बहुत दिनों तक शांति-स्थापना में सहयोग देती रही। लेकिन, कुछ आंतरिक कमजोरियों, साम्राज्यवादी राष्ट्रों के हितों की टकराहट और फासिज्म के उत्थान के कारण अतत: राष्ट्रसंघ असफल हो गया।

राष्ट्रसंघ के उद्देश्य

(Objectives of the League of Nations)

अंतरराष्ट्रीय सद्भाव में वृद्धि करना, युद्ध के कारणों को मिटाना तथा विश्व में शांति बनाए रखना राष्ट्रसंघ के मुख्य उद्देश्य थे। शांति की रक्षा के हेतु वह कोई भी कदम उठा सकता था। राष्ट्रसंघ के निर्माण सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त के आधार पर हुआ था। सभी सदस्य राज्यों ने अपनी साथी सदस्य-राज्यों की प्रादेशिक अखंडता बनाए रखने की शर्त स्वीकार की थी तथा वचन दिया था कि किसी एक राज्य पर आक्रमण को सभी सदस्य-राज्यों पर आक्रमण माना जाएगा। अतरराष्ट्रीय युद्धों को छिड़ने से रोकने के लिए राष्ट्र संघ के विधान में कई व्यवस्थाएँ की गई थीं। पंच-निर्णय, परस्पर विचार-विमर्श, कौंसिल के हस्तक्षेप आदि के द्वारा राष्ट्रसंघ को छिड़ने से रोकता था। यदि कोई राज्य इन कदमों की अवहेलना कर युद्ध कर देता तो राष्ट्रसंघ को आक्रामक के विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकार था। यह कार्यवाही कूटनीतिक, आर्थिक और सैनिक होती थी। राष्ट्रसंघ पहले अपने सदस्यों को आक्रामक राज्य से दौत्य संबध तोड़ लेने की सिफारिश कर सकता था। यदि इसका भी कोई असर आक्रामक राज्य पर नहीं पड़ता तो वह उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता था। अंत में, वह आक्रामक राज्य के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही कर सकता था। इसके लिए सदस्य राज्य राष्ट्रसंघ को सेना देते थे।

युद्ध के निवारण के लिए राष्ट्रसंघ के विधान के अंतर्गत शस्त्रात्रों को घटाने की बात कही गई थी। शांति के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करने के लिए शस्त्रात्रों की होड़ मिटाने की बात को भी आवश्यक बताया गया। इसके लिए विस्तृत योजना बनाने का कार्य राष्ट्रसंघ को सौंपा गया। इस दिशा में कई कदम भी उठाए गए, लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें सफलता नहीं मिली। राष्ट्रसंघ को मानवीय कार्यों में सहयोग देना था। सभी सदस्यदेशों के व्यापार और यातायात की स्वतंत्रता का ख्याल राष्ट्रसंघ को रखा था। राष्ट्रसंघ को औरतों और बच्चों का क्रय-विक्रय, अफीम और दूसरे मादक द्रव्यों के व्यापार और हथियार बारूद के व्यापार को भी रोकना था। इसके साथ ही राष्ट्रसंघ को ध्यान रखना था कि औरत और बच्चों को उचित काम और मजदूरी मिले और उपनिवेशवासियों के साथ उचित बर्ताव हो।

यह अंतरराष्ट्रीय श्रमसंघ (ILO) की भी देखभाल करता था। दास-प्रथा का उन्मूलन करना, मानव स्वास्थ्य की रक्षा करना, बीमारियों की रोकथाम करना इत्यादि भी राष्ट्रसंघ के उद्देश्य थे। मजदूरों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को लागू करवाना और उनके हित संबद्ध बातों को सुझाना भी राष्ट्रसंघ का उद्देश्य था। इसके अलावा अल्पसंख्यक जातियों के हितों का ख्याल रखना और मैंडेटरी देशों के प्रशासन की देखभाल भी करना राष्ट्रसंघ के कार्य थे।

राष्ट्रसंघ के प्रमख अंग

(Main Organs of the League of Nations)

इसके निम्नलिखित अंग थे-

(i) व्यवस्थापिका-सभा,

(ii) परिषद्,

(iii) स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय,

(iv) सचिवालय और

(v) अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ।

(i) व्यवस्थापिका-सभा- (Assembly)- व्यवस्थापिका-सभा में सभी सद्स्य-राष्ट्रों को कम-से-कम एक और अधिक-से-अधिक तीन सदस्य भेजने का अधिकार था, लेकिन प्रत्येक सदस्य का एक ही मत होता था। सभा का अधिवेशन जेनेवा (स्विट्जरलैंड) में होता था और प्रत्येक वर्ष कम-से-कम एक बार होता था। कार्यवाही की भाषा फ्रेंच अथवा अंगरेजी थी और निर्णय सर्वसम्मति से लिया जाता था। दो-तिहाई के बहुमत से नए राष्ट्रों को सदस्यता प्रदान की जाती थी। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सदस्यों का निर्वाचन इसी सभा द्वारा होता था। इस सभा के बहुमत द्वारा स्वीकार करने पर ही कोई महासचिव (Secretary Genera) बन सकता था। एसेम्बली का काम केवल निर्णय करना था। निर्णय को कार्यन्वित करने की जिम्मेवारी कौंसिल (पुरिषद) या राष्ट्रसंघ के महासचिव की थी। ऐसेम्बली संघ का बजट पास करती थी तथा कौंसिल के कार्यों की जाँच, कौंसिल के अस्थायी सदस्यों की. नियुक्ति, शांति-भंग की आशंकाओं पर विचार आदि जैसे कार्यों को भी करती थी ।व्यवस्थापिका-सभा को सदस्य राज्यों की गृह-नीति में दखल देने को अधिकार नहीं था।

(ii) परिषद् (Council)- परिषद् में दो प्रकार के सदस्य होते थे-(क) स्थायी और (ख) अस्थायी। इंगलैंड, फ्रांस, इटली और जापान इसके स्थयी सदस्य थे। संघ के शेष सदस्य चार प्रतिनिधियों को चुनते थे जो अस्थायी थे। परिषद् कार्यकारिणी का काम करती थी इसके अधिवेशन वर्ष में कई बार अवश्य होते थे। 1922 ई० के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि परिषद की बैठकें जनवरी, मई और सितंबर में हुआ करेंगी। आवश्यक होने पर विशेष बैठक भी बुलाई जा सकती थी। परिषद के सम्मुख कई अंतरराष्ट्रीय झगड़े आए, जिनका इसने दक्षतापूर्वक निदान निकाला।

(iii) स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (World Court)- अंतरराष्ट्रीय झगड़ों को सुलझाने के लिए हॉलैंड के नगर हेग (The Hague) में एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना हुई। इस न्यायालय में ग्यारह न्यायाधीश और चार उपन्यायाधीश होते थे। कार्यभार बढ़ जाने पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह कर दी गई। इनकी अवधि नौ वर्षों की होती थी। इस न्यायालय का निर्णय अंतिम माना जाता था। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का मुख्य कार्य संविधान की व्याख्या करना, अंतरराष्ट्रीय संधि पर विचार करना तथा अंतरराष्ट्रीय कर्तव्य निर्धारित करना था।

(iv) सचिवालय (Secretariat)- राष्ट्रसंघ का सचिवालय जेनेवा में था। इसका प्रधान सेक्रेटरी जनरल होता था। इसका चुनाव परिषद से होता था और स्वीकृति व्यवस्थापिका-सभा के बहुमत से होती थो। सचिवालय का काम बारह विभागों में विभक्त था । प्रत्येक विभाग एक-एक सेक्रेटरी के अधीन था। इसके अतिरिक्त बहुत-से कर्मचारी होते थे जो विभिन्न देशों से लिए जाते थे।

(v) अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ (International Labor Organization)- श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए राष्ट्रसंघ में अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ खोला गया। इसके तीन विभाग थे-साधारण श्रमिक सभा, शासन परिषद् और अंतरराष्ट्रीय श्रम कार्यालय अंतराष्ट्रीय श्रम संघ संसार के श्रमिकों का सबसे महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली संगठन था।

राष्ट्रसंघ के कार्य

(Activities of the League)

राष्ट्रसंघ की स्थापना का मुख्य लक्ष्य विश्व में शांति कायम रखना और मानव-हित हेतु अन्यान्य कार्यों को करना था। इस प्रकार राष्ट्रसंघ के दो प्रकार के कार्य थे- गैर राजनीतिक और राजनीतिक ।

(क) गैर-राजनीतिक कार्य- राष्ट्रसंघ को गैर-राजनीतिक कार्यों के संपादन में अभूतपूर्व सफलता मिली। सर्वप्रथम इसने प्रथम विश्वयुद्ध के युद्धबंदियों को मुक्त कराया और अपने संरक्षण में उन देशों को पहुंचाया जहाँ के वे निवासी थे। युद्ध द्वारा स्थापित लोगों की समस्याओं का निराकरण किया।

राष्ट्रसंघ ने विभिन्न प्रकार की बीमारियों को भी दूर किया। युद्ध के कारण ही अनेक प्रकार की छुआ-छूत वाली बीमारियाँ फैल गई थी। टायफस (एक प्रकार की बीमारी) के निवारण के लिए राष्ट्रसंघ ने प्रशंसनीय कार्य किया।

युद्ध के कारण अनेक देशों की आर्थिक स्थिति डावाँडोल थी। ऐसे राज्यों को राष्ट्रसंघ ने अनेक प्रकार की आर्थिक सहायता दी। ऑस्ट्रिया को उधार अन्न दिया गया और विभिन्न देशों तथा विश्व-कोष से धन लेकर उसे कर्ज भी दिया गया। इसी प्रकार हंगरी को भी आर्थिक सहायता दी गई। यूनान और बुलगारिया भी राष्ट्रसंघ की आर्थिक सहायता से लाभान्वित हुए।

मादक वस्तुओं के विरुद्ध राष्ट्रसंघ ने कदम उठाया। स्त्रियों एवं शिशुओं की स्वास्थ्य वृद्धि के लिए उनके शोषण को रोका गया और रोग से पीड़ित लोगों को चिकित्सा-संबंधी सहायता दी गई। मानव जगत् के आध्यात्मिक एवं बौद्धिक स्तर को उन्नतिशील बनाने के लिए, शांति की गांरटी देने के लिए तथा अल्पसंख्यक जाति के लोगों के दृष्टिकोण को विस्तृत करने में भी राष्ट्रसंघ ने सफलता प्राप्त की।

(ख) राष्ट्रसंघ के राजनीतिक कार्य- राष्ट्रसंघ का प्रमुख कार्य युद्ध रोकना और शांति स्थापित करना था। यदि कोई भी राष्ट्र राष्ट्रसंघ में प्रवेश करता था तो उसे प्रतिज्ञाओं पर हस्ताक्षर करना पड़ता था। उनमें उन्नीस प्रतिज्ञाओं का संबंध युद्ध रोकने के साथ था। इसकी दसवीं धारा में यह कहा गया था कि राष्ट्रसंघ के सभी सदस्यों को प्रादेशिक अखंडता का आदर और पालन किया जाए। ग्यारहवीं धारा के अनुसार कौंसिल को अधिकार था कि वह आक्रमण के खिलाफ राज्य को सुरक्षित करने के लिए किसी भी प्रकार की कार्रवाई कर सकती है। संभवतः युद्ध रोकने की दृष्टि से सोलहवीं धारा सर्वाधिक महत्व की थी।उसमें कहा गया था कि यदि कोई राज्य राष्ट्रसंघ के संविधान का उल्लंघन कर युद्ध छेड़ दे तो वह राष्ट्रसंघ के सारे सदस्यों का शत्रु समझा जाएगा। सभी सदस्यों को ऐसे राज्य में केवल अपना ही सारा संबंध विच्छेद नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि राष्ट्रसंघ के विधान तोड़ने वाले राज्य और दूसरे राज्य के नागरिक के बीच किसी प्रकार का संबंध नहीं रहने देना चाहिए। अतएव इस धारा द्वारा आक्रमणकारी राज्य के पूर्ण बहिष्कार और नाकेबंदी की व्यवस्था की गई। राष्ट्रसंघ के संविधान में सैनिक शक्ति के प्रयोग की भी व्यवस्था थी, किंतु राष्ट्रसंघ के इस अंतिम अस्त्र का प्रयोग उसी अवस्था में हो सकता था जब कोई सदस्य राष्ट्रसंघ की सिफारिशों को मान ले और उस पर हमला हो।

(ग) छोटे राष्ट्रों के झगड़े में सफलता- यद्यपि राष्ट्रसंघ का प्रथम कार्य युद्ध रोकना था, किंतु उसमें उसे सफलता न मिल सकी। वह बड़े-बड़े राष्ट्र के झगड़ों को नहीं सुलझा सका। छोटे राज्यों के झगड़े सुलझाने में उसे सफलता अवश्य मिली।

1920 ई० में आलैंड द्वीपसमूह को लेकर स्वीडेन और फिनलैंड में झगड़ा हुआ । वहाँ के निवासी स्वीडिश् भाषा बोलते थे, किंतु फिनलैंड का कहना था कि इन द्वीपों पर उसका अधिकार था। खोज-पड़ताल करने के बाद राष्ट्रसंघ ने इस फैसले को मान लिया।

जर्मनी और पोलैंड में साइलेसिया को लेकर विवाद हुआ। राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में इस मामले पर साइलेसिया की जनता की राय ली गई। जनमत संग्रह (plebiscite) में साठ प्रतिशत जनता ने जर्मनी के पक्ष में और चालीस प्रतिशत जनता ने पोलैंड के पक्ष में मत दिया । ऊपरी साइलेसिया के शहरों ने जर्मनी के पक्ष में वोट दिया और देहातों ने पोलैंड के पक्ष में । राष्ट्रसंघ के दो शक्तिशाली सदस्य् ग्रेटब्रिटेन और फ्रांस में इस बात पर मतभेद था कि साइलेसिया किसको मिले। फ्रांस अपने पड़ोसी जर्मनी को कमजोर बनाकर रखना चाहता था, किंतु विटेन नहीं चाहता था कि जर्मनी कमजोर हो और फ्रांस शक्तिशाली बने। इसलिए फ्रांस पोलैंड के पक्ष में था और ब्रिटेन जर्मनी के पक्ष में। ऐसी परिस्थिति में 1922 ई० में राष्ट्रसंघ ने फैसला किया कि साइलेसिया को दो भागों बाँट दिया जाए। एक-तिहाई जिसमें खनिज पदार्थ अधिक थे, पोलैंड को मिले और दो-तिहाई जर्मनी को। जर्मनी और पोलैंड को यह मान्य नहीं था, किंतु उन्हें राष्ट्रसंघ के फैसले को मानना पड़ा।

1919 ई. में लिथुआनिया की राजधानी विलना (Vilna) को लेकर एक झगड़ा उठ खड़ा हुआ। यह स्थान रूस के पड़ोसी नए देश लिथुआनिया, को दिया गया था। विलना पर पोलैंड ने दावा किया। लिथुआनिया ने राष्ट्रसंघ के सामने इस मामले को पेश किया, किंतु पोलैंड को फ्रांस का शक्तिशाली समर्थन प्राप्त होने के कारण विलना 1922 ई० में पोलैंड को दिया गया। इसी प्रकार पेरिस शांति सम्मेलन में मेमेल को स्वतंत्र नगर घोषित करने की चेष्टा को गई, परंतु जब लिथुआनिया ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया तो राष्ट्रसंघ ने इस पर अपनी स्वीकृति दे दी।

1925 ई० में दो पड़ोसी देश यूनान और बुलगारिया के बीच झगड़ा हुआ। उस साल यूनान ने बुल्गेरिया पर हमला कर दिया। बुलगारिया ने राष्ट्रसंघ से निवेदन किया जिस पर राष्ट्रसंघ ने यूनान को अपनी सेना हटा लेने को कहा। इस कार्य के लिए यूनान की भर्त्सना की गई और उसे क्षतिपूर्ति करनी पड़ी। यह राष्ट्रसंघ की बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि इससे बाल्कन प्रायद्वीप में युद्ध होना रुक गया।

1932 ई० में दक्षिणी अमेरिका के पेरू राज्य ने अपने पड़ोसी राज्य कोलंबिया की सीमा पर स्थित एक नगर पर अधिकार जमा लिया। कोलंबिया ने राष्ट्रसंघ की शरण ली। राष्ट्रसंघ की परिषद् ने पेरू पर दबाव डालकर उक्त नगर कोलंबिया को वापस दिला दिया।

(घ) बड़े राष्ट्रों के झगड़े में असफलता- छोटे-छोटे राष्ट्रों के झगड़ों को सुलझाने में राष्ट्रसंघ को जो सफलता प्राप्त हुई, वह बड़े राष्ट्रों के झगड़े सुलझाने में नहीं मिली।

मोसल मामला- लाओसाने की संधि (Treaty of Laussane, 1923) के अनुसार निश्चित हुआ था कि तुर्की और विटिश शासनादेश के अधीन इराक के बीच की सीमा राष्ट्रसंघ निर्धारित करेगा। राष्ट्रसंघ ने 1925 ई० में मोसल डुराक को दिया, किंतु तुर्की ने आरंभ में इसे मानने से इंकार कर दिया। बाद में जब इंगलैंड ने तुर्की को कुछ सुविधाएँ प्रदान की तो तुर्की ने इस निर्णय को स्वीकार किया।

यूनान और इटली का संघर्ष- इस प्रकार दूसरा झगड़ा 1923 ई० में शक्तिशाली इटली और कमजोर यूनान के बीच हुआ। इटली के कुछ नागरिकों पर यूनानी डाकुओं ने बमबारी की। बदले में इटली की जलसेना ने कोर्पू द्वीप पर बम गिराए, उस पर अधिकार कर लिया और बमबारी के लिए क्षतिपूर्ति की मांग की। यूनान ने राष्ट्रसंघ के सामने मामला उपस्थित किया। मुसोलिनी ने कहा कि यह विषय बिल्कुले इटली और यूनान के बीच का है और किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का अर्थ इटली को सार्वभौम सत्ता पर आघात करना है। अंत में राष्ट्रसंघ की मध्यस्थता ही नहीं, बल्कि इंगलैंड और फ्रांस के कहने-सुनने पर इटली ने कोर्पू से अपनी सेना हटाई।

अमेरिका में असफलता- 1926 ई० अमेरिका महादेश में निकारागुआ और मेक्सिको के बीच होनेवाले झगड़े में राष्ट्रसंघ ने अपनी असमर्थता का प्रदर्शन किया। यद्यपि दोनों राष्ट्र संघ के सदस्य थे, तथापि उनके बीच झगडा होने पर अपने नागरिकों की जानमाल की हिफाजत के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपना जहाजी बेड़ा भेजा। अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया कि महादेश में शांति कायम करने में राष्ट्रसंघ को दखल नहीं देना चाहिए, यह संयुक्त राज्य के प्रभाव क्षेत्र में है।

नि:शस्त्रीकरण का मामला- राष्ट्रसंघ का यह भी कार्य था कि हथियारबंदी कम की जाए। काफी विचार विनिमय के बाद 1922 ई० में एक सभा बैठी, पंतु कोई फल नहीं निकला। अपनी सुरक्षा बनाए रखने के लिए फ्रांस इस बात पर जोर देता था कि जर्मनी की तुलना में उसको सैनिक प्रधानता कायम रहे। दूसरी ओर, जर्मनी इस बात पर जोर देता था कि उसे फ्रांस के बराबर सेना रखने दी जाए। जर्मनी की माँग नामंजूर कर दी गई, इसलिए उसने निःशस्त्रीकरण सभा से अपने प्रतिनिधियों को वापस बुला लिया । सभी राष्ट्र अस्त्र-शस्त्र बढ़ाने लगे। अतएव निःशस्त्रीकरण के मामले में भी राष्ट्रसंघ को सफलता नहीं मिली।

मंचूरिया पर जापानी आक्रमण- साम्राज्यवादी जापान ने 1931 ई० में मंचूरिया पर आक्रमण कर अपनी कठपुतली सरकार कायम की। चीन की प्रार्थना पर लिटन कमीशन बैठा। लेकिन, जापान ने लिटन रिपोर्ट की परवाह किए बगैर ही 1933 ई० में अपना शिकंजा वहाँ जमा लिया और राष्ट्रसंघ कुछ नहीं कर सका।

इटली का अबीसिनिया पर आक्रमण- इटली अफ्रीका में अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था और इसके लिए उसने अबीसिनिया (Abissinia) को चुना। उसने 1935 ई० अबीसिनिया पर आक्रमण किया और अबीसिनिया के सम्राट ने राष्ट्रसंघ से अपील की, फिर भी राष्ट्रसंघ की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए 1936 ई. में इटली ने अबीसिनिया को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। इस परीक्षा की घड़ी में राष्ट्रसंघ की कौंसिल और एसेम्बली ने इटली को आक्रमणकारी घोषित किया और इटली के हमलावरों को रोकने के लिए उनके आर्थिक बहिष्कार का निर्णय किया, किंतु आर्थिक बहिष्कार की नीति को पूर्णरूपेण कार्यान्वित नहीं किया गया। जापान, जर्मनी, हंगरी इत्यादि ने बहिष्कार में साथ नहीं दिया। उधर संयुक्त राज्य अमेरिका ने मुनाफा कमाने के चक्कर में इटली का आर्थिक बहिष्कार नहीं किया और अंत में जुलाई, 1936 में राष्ट्रसंघ ने इटली के आर्थिक बहिष्कार और नाकेबंदी को उठा लिया। इस घटना ने राष्ट्रसंघ की नपुंसकता साबित कर दी।

नाजी जर्मनी- वर्साय की संधि को जर्मनी से पालन कराने की जिम्मेवारी राष्ट्रसंघ की थी। जर्मनी को वर्साय की संधि के अनुसार एक लाख सेना रखनी थी, लेकिन 1935 ई० में हिटलर ने जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा लागू कर दी और राष्ट्रसंघ मूक दर्शक बनकर रह गया। सोवियत संघ 1934 ई० में राष्ट्रसंघ का सदस्य बना और उसने राष्ट्रसंघ के सदस्यों के समक्ष सामूहिक सुरक्षा का प्रस्ताव रखा, लेकिन पाश्चात्य देशों ने इसमें उसका साथ नहीं दिया, फलतः जर्मनी का मनसूबा बढ़ गया और जर्मनी फतह-पर-फतह करता गया और राष्ट्रसंघ उस पर कोई रोक लगाने में अक्षम रहा।

स्पेन का गृहयुद्ध- 1936 ई० में स्पेन में गृहयुद्ध की शुरुआत हुई। वहाँ के प्रजातंत्रीय सरकार के खिलाफ राजतंत्रपक्षी लोगों ने विद्रोह किया। सोवियत संघ के कहने पर भी राष्ट्रसंघ इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सका क्योंकि इंगलैंड और फ्रांस हस्तक्षेप की नीति के विरोधी बन गए, यद्यपि हिटलर और मुसोलिनी ने अपनी सेना भेजकर स्पेन के गृहयुद्ध में भाग लिया। परिणामस्वरूप विद्रोहियों की विजय हुई और तानाशाह फ्रैंको का शासन वहाँ शुरू हुआ।

चीन पर जापानी हमला- जापान ने जर्मनी और इटली के कार्यों से प्रोत्साहित होकर 1937 ई० में मंचूरिया (Manchuria) पर हमला कर दिया। राष्ट्रसंघ ने हमले की निंदा की, किंतु उसको रोकने के लिए सामूहिक रूप से कुछ नहीं किया। 1938 ई० में चीन ने राष्ट्रसंघ से पुनः अपील की, लेकिन इस बार भी राष्ट्रसंघ हमला रोकने में अक्षम रहा।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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