इतिहास / History

सन् 1917 की रूसी क्रन्ति | Russian Revolution of 1917 in Hindi

सन् 1917 की रूसी क्रन्ति | Russian Revolution of 1917 in Hindi

सन् 1917 की रूसी क्रन्ति

अभावों ने क्रान्ति को जन्म दिया-

रूस में सामाजिक एवं आर्थिक विषमता तथा जार के निरंकुश और भ्रष्ट शासन के कारण क्रान्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियां तो विद्यमान थी ही, प्रथम विश्व युद्ध में मोर्चों पर सेना की पराजुयों और महंगाई ने क्रान्ति के लिए तात्कालिक कारण प्रस्तुत कर दिया। भोजन, कपड़े और ईधन की कीमतें इतनी चढ़ गई कि गरीब लोगों के लिए उन्हें खरीद पाना कठिन हो गया। डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है कि “लोग समझते थे कि रूस में सब चीजें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं, पर स्वार्थी पूंजीपतियों ने उन्हें अपने कब्जे में कर लिया है।” लिप्सन ने भी लिखा है कि “क्रन्ति का तात्कालिक कारण खाद्य सामग्री की कमी पर जनता का असन्तोष था। डबल रोटी खरीदने के लिए लोगों की लम्बी कतारें लगने लगीं, जिनके कारण हड़तालें और उपद्रव होने लगे और उन्होंने अचानक ही युद्ध के और राजतंत्र के विरुद्ध विद्रोह का रूप धारण कर लिया।

दो क्रान्तियां-

सन् 1917 में रूस में दो क्रान्तियां हुई, या और सही कहा जाए तो सन् 1917 में हुई रूसी क्रान्ति तो एक ही थी, किन्तु उसके दो अलग स्पष्ट दिखाई पड़ने वाले दौरे थे। पहला दौर, जिसे राजनीतिक क्रान्ति (मार्च क्रान्ति) कहा जा सकता है,7 मार्च 1917 को शुरू हुआ और दूसरा दौर, जिसे सामाजिक क्रान्ति (नवम्बर क्रान्ति) कहा जा सकता है,7 नवम्बर को शुरू हुआ। इनमें से पहली क्रान्ति के बाद जार को सम्राट के पद से हटाकर शासन सत्ता मध्यम वर्ग ने हथिया ली थी। दूसरी क्रान्ति के बाद प्रशासन सत्ता मध्यम वर्ग से छीन कर मजदूरों ने अपने हाथ में ले ली और रूस में ‘कामगारों ने गणराज्य की स्थापना की।

मार्च क्रान्ति-

प्रो० फिशर ने लिखा है कि “क्रान्ति जो बहुत समय से घुमड़ रही थी, एक उप और संगठित विप्लव के रूप में नहीं, अपितु आकस्मिक और पहले से अचिन्तित घटनाओं के रूप में फूटी। यह आन्दोलन जंगल की आग की तरह फैला।” धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि मध्यमवर्ग, सेना, उदार और समाजवाद, सभी ने जार के प्रति निष्ठा त्याग दी है। 7 मार्च को भूखे गरीब मजदूरों ने पैत्रोपाद् (अब लेनिनपाद) की सड़कों पर गिरोह बना कर घूमना और दुकानों पर से डबल रोटियों को लूटना शुरू कर दिया। सरकार ने सेना को इन भूखे लूटेरों पर गोली चलाने का आदेश दिया, परन्तु सैनिकों ने गोली चलाने से इन्कार कर दिया। मार्च को पैत्रीपाद को कपड़ा मिलों में काम करने वाली मजदूरनियों ने हड़ताल कर दी और ‘रोटी दो’ के नारे लगाये। 9 मार्च को बाकी मजदूर भी इस हड़ताल में सम्मिलित हो गये। ‘रोटी दो’ के नारों के साथ ‘युद्ध बन्द को’, ‘निरंकुश शासन का नाश हो’ के नारे लगने लगे। 10 मार्च को शहर में आम हड़ताल हो गई और उसने क्रान्ति का रूप ले लिया। शोषित-पीडित वर्ग भड़क कर उठ खड़े हुए। सैनिकों के रुख से उनका हौसला बढ़ गया। शुरू में सैनिक तटस्थ रहे, परन्तु शीघ्र ही वे विद्रोहियों से मिल गये। कुछ रेजीमेन्ट खुल्लम-खुल्ला विद्रोह करके प्रदर्शनकारियों से जा मिली। संसद् (द्युमा) ने उत्तरदायी शासन की मांग को । जार ने रुष्ट होकर 11 मार्च को द्युमा को भंग कर दिया। पर द्युमा ने विसर्जित होने से इन्कार कर दिया। इसके चार दिन बाद, अर्थात् 15 मार्च को क्रान्ति अपने चरम शिखर पर पहुंच गई और जार निकोलस द्वितीय ने निरुपाय होकर राजसिंहासन त्याग दिया। तीन सौ वर्षों से चला आ रहा रोमानोफ वंश शासन समाप्त हो गया।

अन्तःकालीन (Provisional) सरकार- जब तक देश की भावी व्यवस्था निश्चित न हो जाए. तब तक काम् चलाने के लिए सरकार बनाई गई, जिसका अध्यक्ष प्रिंस ल्वोफ (Prince Lvov) था, जो रूस के उदार दल का नेता था। गुचकोफ (Gurchkov) युद्धमंत्री, मिल्युकोफ (Mileukov) विदेशमंत्री और कैरेन्सको न्यायमंत्री बना। इसमें केवल करैन्स्की ही समाजवादी था। बाकी सब मंत्री कुलीन अथवा मध्यम वर्ग के थे। इसीलिए लिप्स ने कहा है कि “जार से शासन सत्ता मजदूरों ने छीनी थी, पर उन्होंने उसे तुरन्त मध्यम वर्ग को सौंप दिया।

अन्तःकालीन (Provisional), सरकार के कार्य- (1) रूस की इस अन्तकालीन सरकार ने जनता को अभिव्यक्ति की और सभा करने तथा संगठन बनाने की स्वतंत्रता दे दी।

(2) यहूदियों पर कानून द्वारा 600 से अधिक प्रतिवन्ध लगे हुए थे, वे सब हटा दिये गये।

(3) राजनीतिक बन्दियों को छोड़ दिया गया और जिन लोगों को देश-निर्वासन का दंड मिला हुआ था, उन्हें रूस में लौट आने की अनुमति दी गई। (4) पुलिस की मनमाने ढंग से लोगों को गिरफ्तार करने की शक्ति छीन ली गई । (5) मृत्यु दंड समाप्त कर दिया गया। (6) नया संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा बनाई गई । (7) पोलैंड और फिनलंड को स्वायत्त शासन देने का वायदा किया गया।

अन्तःकालीन सरकार की कठिनाईयां अन्त:कालीन सरकार के सम्मुख अनेक कठिनाइयाँ थीं। लिप्सन के शब्दों में, सैनिकों की दृष्टि में रूसी क्रान्ति का उद्देश्य था युद्ध की समाप्ति; शहरी मजदूरों की दृष्टि में इसका उद्देश्य था पूंजीवाद का यदि उन्मूलन न भी सही, तो नियंत्रण; और किसानों की दृष्टि में इस क्रान्ति का उद्देश्य था भूमि को प्राप्ति । मध्यमवर्गीय अन्तः कालीन सरकार इन तीनों आशाओं में से एक को भी पूरा न कर सकी।” प्रिंस ल्वोफ को सरकार ने युद्ध को और भी उत्साह से चलाने का निश्चय किया; कारखानों के प्रबन्ध में मजदूरों को कोई भाग नहीं दिया और न किसानों को भूमि देने को ही कोई व्यवस्था की। इस कारण क्रान्तिकारी जनता शीघ्र ही सरकार के विरुद्ध हो गई।

सोवियतें (पंचायते)- मार्च क्रान्ति के बाद यद्यपि सरकार के निर्माण में मजदूर वर्ग ने कोई भाग नहीं लिया था, फिर भी सोवियतों के द्वारा उन्होंने सरकार पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखा था। किसानों की, मजदूरों की और यहाँ तक कि सैनिकों की भी सोवियतें बनाई गई थीं। इन सोवियतों का जाल शहर-शहर और गांव-गांव में फैला था। ये सोवियतें रूस में सन् 1905 की क्रान्ति के बाद से ही बनी हुई थीं। अन्तः कालीन सरकार की शक्ति सोवियतों के संगठन के कारण बहुत सीमित रह गई थी। वास्तविक शक्ति इन सोवियतों के हाथ में ही थी। इस्लिए अन्तःकालीन सरकार कोई उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं कर सकी। सोवियतें युद्ध को जारी रखने के विरुद्ध थी। इसलिए मिल्यूकोफ को (जो कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार करने का अभिलाषी था) विदेश मंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। मई 1917 में एक नई मिली-जुली सरकार बनी, जिसमें नरमदली समाजवदी (Moderate Socialist) भी सम्मिलित हुए। कैरैन्स्की को युद्ध मंत्री बनाया गया।

कैरैन्स्की ने मोर्चे पर लाकर सैनिकों से नया उत्साह जगाया और उन्हें एक बड़ा आक्रमण करने के लिए तैयार किया। कैरेन्स्की को प्रधान मंत्री बना दिया गया। जुलाई में रूसी सेना ने बड़ा आक्रमण किया किन्तु जर्मनों ने उसे विफल कर दिया और रूसियों को भारी हानि उठाकर पीछे हटना पड़ा। इससे कैरैन्स्की की सरकार की प्रतिष्ठा बहुत गिर गई। युद्ध विरोधी बोल्शेविक दल 7 नवम्बर 1917 को दूसरी क्रान्ति की और शासन सत्ता पर अधिकार कर लिया।

बोल्शेविक और मैन्शेविक- बोल्शेविक दल और मैन्शेविक दल समाजवादी लोकतंत्र दल के ही दो भाग घे। बोल्शेविक आमूल परिवर्तनवादी (Radical) उग्रपन्थी लोग थे, जबकि मैन्शेविक लोग नरमदली थे। बोल्शेविकों का समाजवादी दल में बहुमत नहीं था। परन्तु वे अपने निपुणतापूर्ण प्रचार से जनता में लोकप्रिय बन गये। उनका सबसे पहला नारा था युद्ध बून्द किया जाए, क्योंकि युद्ध से गरीब जनता को कभी लाभ नहीं होता। युद्ध से ऊबे हुए सैनिक उनके साथ हो गये । उनका दूसरा नारा था कि भूमि उस किसान की है, जो उस पर खेती करता है। उनका तीसरा नारा था कि सबको भरपेट रोटी दी जाएगी। “युद्ध की समाप्ति, खेती के लिए भूमि, खाने के लिए रोटी ” जनता की तीन ही इच्छाएँ थीं, बोल्शेविकों ने उन तीनों को पूरा करने का वचन दिया। जनता उनके साथ हो गई।

लेनिन का नेतृत्व- व्लादीमीर लेकिन बोल्शेविकों का सबसे प्रमुख नेता था। वह कार्ल मार्क्स के साम्यवादी विचारों से बहुत प्रभावित था और उन्हें कार्यन्वित करना चाहता था। उसके उग्र विचारों के कारण जार की सरकार ने उसे देश से निर्वासित कर दिया था। जिस समय मार्च कान्ति हुई, उस समय लेनिनु विट्जरलैंड में था। क्रान्तिकारियों की सरकार ने देश से निर्वासित रूसियों को स्वदेश लौट आने का निमन्त्रण दिया था। लेनिन के सामने समस्या थी कि वह रूस किस प्रकर लौटे। रूस और जर्मनी में युद्ध चल रहा था। अतः सीमा में होकर रूस में पहुंचना कठिन था। इंग्लैंड और फ्रांस की सहायता से रूस पहुँचा जा सकता था, परन्तु लेनिन का मत था कि रूस को युद्ध बन्द कर देना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को इंग्लैण्ड और फ्रांस रूस क्यों जाने देते ? वे चाहते थे कि रूस लड़ता रहे और जर्मन सेना के एक बड़े भाग को पूर्वी मोर्चे पर उलझाये रखे। अन्त में जर्मन सरकार की सहायता से लेनिन एक बन्द रेलगाड़ी में बैठकर अप्रैल 1917 में रूस पहुंच गया। पैत्रोग्राद में पहुंच कर उसने बोल्शेविका दल का नेतृत्व संभाल लिया। वात्सकी (Trotsky) ने लिखा है कि “वह (लेनिन) विश्व के इतिहास के सबसे अधिक क्रान्तिकारी दल का सर्वमान्य नेता बन गया। क्योंकि उसका चिन्तन और दृढ़ संकल्प देश और युग की विपुल क्रान्तिकारी संभावनाओं की मांगों को पूरा करने में समर्थ था।” क्रान्ति को सफलता में लेनिन के व्यक्तित्व का प्रमुख भाग रहा। त्रात्सकी का कहना है कि “यदि लेनिन न होता, तो बोल्शेविक दल मौका चूक जाता और क्रान्ति कई वर्षों के लिए टल जाती।”

लेनिन के विचार- लेनिन का कहना था कि हमें संसदीय गणतन्त्र नहीं चाहिए। हमें मध्यमवर्गीय लोकतंत्र भी नहीं चाहिए। कामगारों, सैनिकों और किसानों के प्रतिनिधियों की पंचायतों की सरकार के सिवाय हमें अन्य कोई सरकार नहीं चाहिए । क्रान्ति के प्रथम दौर में शासन सत्ता जार से छिन कर मध्यम वर्ग के हाथ में आ गई है। अब तुरन्त क्रान्ति के दूसरे दौर की तैयारी करनी चाहिये, जिससे शासन सत्ता सर्वहारा (Proletariat) और गरीब किसानों के हाथ में आ जाए।

बोल्शेविक दल के अन्य नेता लेनिन से सहमत नहीं थे। वे समझते थे कि लेनिन बहुत जल्दबाजी कर रहा है और अंधेरे में छलांग लगा रहा । परन्तु लेनिन के सबल व्यक्तित्व के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा और नवम्बर क्रान्ति की तैयारी शुरू हुई।

जुलाई में क्रान्ति का प्रयत्न-

अन्तःकालीन सरकार देश की समस्याओं को हल करने में सफल नहीं हुई। युद्ध और भुखमरी के भूत अब भी वैसे ही खड़े थे, जैसे वे जार की सरकार के सामने थे। कच्चे माल की कमी के कारण कारखानों में काम नहीं हो रहा था। परिवहन की दशा खराब थी। इस दुर्दशा से लाभ उठाकर बोल्शेविकों ने विद्रोह के दो प्रयत्न किये। जुलाई में उन्होंने एक शसस प्रदर्शन किया। परन्तु सरकार ने उसे कठोरता से दबा दिया। बोल्शोविक दल पर रोक लगा गई। लेनिन फरार हो गया। वात्स्की पकड़ा गया।

बोल्शेविकों के दमन के बाद सितम्बर में प्रधान सेनापति जनरल कोर्तिलोफ ने शासन सत्ता हथियाने का प्रयल किया। यह प्रयल भी विफल कर दिया गया। परन्तु लेनिन के सबल व्यक्तित्व के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा और नवम्बर क्रान्ति की तैयारी शुरू हुई।

जुलाई में क्रान्ति का प्रयत्न-

अन्तःकालीन सरकार देश की समस्याओं को हल करने में सफल नहीं हुई। युद्ध और भुखमरी के भूत अब भी वैसे ही खड़े थे, जैसे वे जार की सरकार के सामने थे। कच्चे माल को कमी कारण कारखानों में काम नहीं हो रहा था। परिवहन की दशा खराब थी। इस दुर्दशा से लाभ उठाकर बोल्शेविकों ने विद्रोह के दो प्रयत्न किये। जुलाई में उन्होने एक सशस्त्र प्रदर्शन किया। परन्तु सरकार ने उसे कठोरता से दबा दिया। बोल्शोविक दल पर रोक लगा दी गई । लेनिन फरार हो गया। त्रात्स्की पकड़ा गया।

बोल्शेविकों के दमन के बाद सितम्बर में प्रधान सेनापति जनरल कोर्तिलोफ ने शासन सत्ता हथियाने का प्रयल किया। यह प्रयल भी विफल कर दियागया। परन्तु इसे क्रान्ति को उलटने का प्रयत्न बताया गया। जनसाधारण में यह आशंका फैल गई कि पुरानी व्यवस्था फिर शासन सता थियाने का प्रयत्न कर रही है। सरकार ने बोल्शेविकों से समझौता करना चाहा और उनके नेताओं को जेल से छोड़ दिया, जिनमें त्रात्सकी प्रमुख था। लिप्सन का कहना है कि “नवम्बर क्रान्ति का संगठन और नेतृत्व पैत्रोग्राद सोवियत के अध्याक्ष के रूप में त्रात्स्की ने ही किया।”

पैत्रोपाद और मास्को की सोवियतों में बोल्शेविकों का बहुमत हो गया। सष्ट था कि जनता नरमदली समाजवादी कैरन्स्की के साथ नहीं रही थी, जो इस समय प्रधानमंत्री बन गया था। इस पर लेनिन ने कहा था कि “अब हमारी विजय का समय आ गया है और हमें शासन सत्ता छीन लेनी चाहिए।” दल में उसके विरोधी अब हिचकिचा रहे थे। पैत्रोग्राद और मास्को हो तो सारा रूस नहीं है। देहातों में बोल्शेविकों को सफलता कैसे मिलेगी। परन्तु लेनिन का कहना था कि हम किसानों को जमीन देंगे। फिर कैसे संभव है कि वे हमारा साथ न दें।

नवम्बर क्रान्ति-

पर लेनिन की विजय हुई। 7 नवम्बर 1917 को प्रातः काल दो बजे वोल्शेविकों की ‘लाल सेना (Red Guard) ने रेलवे स्टेशन, राष्ट्र बैंक, डाक घुर, टेलीफोन केन्द्र आदि सरकारी इमारतों पर अधिकार कर लिया। इसमें खून की एक बूंद भी नहीं बहानी पड़ी त्रात्स्की के शब्दों में, “क्रान्ति आन्दोलनों के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है, जिसमें इतनी बड़ी जनता ने भाग लिया हो और वह इतना रक्तपात रहित रहा हो।”

नवम्बर क्रान्ति से शासन सत्ता बोल्शेविकों के हाथ में आ गई, जो दलित मजदूर और किसान वर्ग के प्रतिनिधि थे। बोल्शेविक सुरकार ने तुरन्त निम्नलिखित महत्वपूर्ण घोषणाएं कीः

(1) युद्ग्रस्त देशों की जनता और शासकों से अनुरोध किया गया कि वे तुरन्त न्यायोचित तथा लोकतंत्रीय शान्ति के लिए वात्चीत शुरू करें। न किसी देश् का कोई प्रदेश छीना जाए और न हर्जाना मांगा जाए। रूस के इस प्रस्ताव को युद्ग्रस्त देशों ने स्वीकार नहीं किया, अतः रूस ने अलग ही जर्मनी से ब्रैस्ट लिंटोवस्क की संधि कर ली।

(2) भूमि पर जमींदारों का स्वामित्व तुरन्त और कोई भी हर्जाना दिये बिना समाप्त कर दिया गया। इससे किसान बोल्शेविकों के पक्ष में हो गये।

इस प्रकार रूस में मजदूरों और किसानों का राज्य स्थापित हुआ। पुरानी व्यवस्था जड़मूल से उखाड़ फेंकी गई।

गृह युद्ध-

यद्यपि र नवम्बर 1917 की क्रान्ति बिल्कुल रक्तपातरहित रही थी, किन्तु उस्के फलस्वरूप रूस में गृह युद्ध शुरु हुआ, इसमें इतना रक्तपात हुआ कि उतना कम हो देशों में हुआ होगा। वात्स्को के ही शब्दों में “लाखो व्यक्ति मारे गये । दक्षिणी और पूर्व रूस लूट में ध्वस्त हो गये। देश में उद्योग लगभग पूरी तरह नष्ट हो गये और क्रान्ति पर लाल आतंक जमा दिया गया।”

इंग्लैंड, फास् आदि सहबद्ध राष्ट्रों ने रूस के क्रान्तिविरोधी लोगों को सहायता दी और बोल्शेविकों को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। परन्तु लेनिन और त्रात्स्की के नेतृत्व में सोवियत रूस ने विदेशी सेनाओं का डट कर मुकाबला किया और तीन वर्ष के गृह युद्ध के बाद पूर्ण विजय प्राप्त की। इस लम्बें गृह युद्ध ने पुरानी व्यवस्था की रही सही जड़ों को भी उखाड़ फेंकने में बड़ी सहायता दी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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