इतिहास / History

रूस के पुनर्गठन में लेनिन एवं स्टेलिन की भूमिका | कान्ति के पश्चात् रूस का पुनर्गठन | नयी आर्थिक नीति

रूस के पुनर्गठन में लेनिन एवं स्टेलिन की भूमिका | कान्ति के पश्चात् रूस का पुनर्गठन | नयी आर्थिक नीति

रूस के पुनर्गठन में लेनिन एवं स्टेलिन की भूमिका

शरद, 1920 में सुप्रसिद्ध अंग्रेज लेखक एच. जी. वेल्स ने रूस की यात्रा की थी और फिर एक पुस्तक लिखी थी – ‘अंधकारपस्त रुस’। रूस में जो भयानक तबाही और गरीबी छायी हुई थी उसके सम्बन्ध में वेल्स ने लिखा था, “अंग्रेज या अमरीकी पाठक उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। यह एक कटु सत्य था क्योंकि सारा देश सचमुच राख और खण्डहरों का तेर बना हुआ था। पहले महायुद्ध और फिर गृहयुद्ध के वर्षों में आबादी में 2 करोड़ की कमी हो गयी थी। 1920 ई० में भारी उद्योगों का कुल उत्पादन 1913 के मुकाबले सातवें हिस्से जितना, सूती कपड़ों का उत्पादन उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य जितना और कच्चे लोहे का उत्पादन 200 वर्ष पहले जितना ही रह गया था। परिवहन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। कृषि उत्पादन आधा ही रह गया था। सभी आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी थी। इस बरबादी और तबाही के लिए एकमात्र उत्तरदायी अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद और आन्तरिक प्रतिक्रान्ति थी।”

ऐसी कठिन और भीषण परिस्थितियों में सोवियत जनता को पुनर्निर्माण का कार्य आरम्भ करना पड़ा। किन्तु लेनिन के कुशल नेतृत्व में कुछ ही वर्षों में रूस प्रगति के पथ पर अग्रसर हो गया।

युद्धकालीन साम्यवाद (1918-1921)- गृह युद्ध के दौरान सोवियत शासन ने जो नीति अपनायी, उसे ‘युद्ध-साम्यवाद’ के नाम से जाना जाता है। यह नीति जुलाई, 1918 से मार्च, 1921 तक लागू रही। बोल्शेविको ने सत्ता हस्तगत करते ही मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुकूल आर्थिक व्यवस्था लागू करने का प्रयास आरम्भ कर दिया। साथ ही शान्ति स्थापना के लिए सबसे पहले जो काम करना था, वह था शहर और गाँव के बीच समुचित आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना । गृहयुद्ध के समय ये सम्बन्ध कटु बन गये थे। इस समस्या को हल किये बिना अर्थ-व्यवस्था का पुनरूद्धार तथा विकास असम्भव था।

किसानों से जबरदस्ती अनाज लेने की नीति-  नयी नीति के अनुसार सर्वप्रथम् भूमि जमींदारों से छीन कर राज्य की भूमि घोषित कर दी गयी और फिर उसको किसानों में बांट दिया गया। अब किसान अपने-अपने खेतों में उसी प्रकार काम करने लगे जैसे पहले किया करते थे। सरकार को यह हक था कि वह किसान के पास उसके खाने लायक अनाज छोड़कर बाकी अनाज उससे प्राप्त कर सके। उसे अब जमीदारों को कोई कर नहीं देना पड़ता था। सरकार लगान अनाज के रूप में प्राप्त करती थी किन्तु, उस समय रूस का किसान अपना उत्पादन काले बाजार में बेचना चाहता था। जहाँ उसे अधिक दाम प्राप्त हो सकते थे। सरकार इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए श्रमजीवियों को सशस्त्र टुकड़ियों को किसानों के अनाज को जब्त करने के लिए भेजने लगी। अनाज का संग्रह करने वालों को कठोर सजा दी गई। इससे रूस में असंतोष बढ़ा। मार्च, 1921 में नयी कर-प्रणाली लागू की गई, जिसके अनुसार कर निर्धारण सम्पत्ति के परिमाण के अनुसार किया जाता था अर्थात् गरीब किसान से कुछ नहीं और अमीर किसान (कुल्क) से बहुत अधिक ।

किन्तु ग्रह-युद्ध के कारण हजारों एकड़ भूमि पर खेती नहीं की जा सकी थी। इसके अतिरिक्त बोल्शेविक सरकार के बलपूर्वक अनाज लेने की नीति की प्रति कृषकों के विरोध के कारण भी कृषि उत्पादन राष्ट्रीय आवश्यकता से बहुत कम हो रहा था। 1916 ई. में जहाँ 7,40,00,000 टन् अनाज उत्पन्न हुआ था, वहीं 1917 ई० में उपज 3,00,00,000 टन ही रह गयी और देश में भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस पर 1920 और 1921 ई० में सूखा पड़ा और 1921 ई० में दक्षिण-पूर्वी भाग में फसल बिल्कुल नहीं हुई, जिसके परिणामस्वरूप भयंकर अकाल पड़ा। इस भयंकर अकाल में लगभग 50 लाख व्यक्ति मारे गये। उस समय यदि अमेरिका धन, खाद्य-सामग्री तथा औषधियों से सहायता नहीं करता तो और भी अधिक संख्या में लोग मारे जाते ।

उद्योगों का राष्ट्रीयकरण- कृषि की तरह औद्योगिक उत्पादन भी इस समय में कम होता जा रहा था। 1921 ई० में वह युद्ध पूर्व-उत्पादन का केवल 14 प्रतिशत ही रह गया था। बहुत से कारखाने बंद हो गये थे। 1920 ई० के एक आदेश के द्वारा वे समस्त कारखाने जिनमें 5 मजदूरों से अधिक काम करते थे एवं जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग नहीं करते थे और वे कारखाने जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग करते थे परन्तु जिनमें दस मजदूरों से अधिक काम करते थे, सरकार के नियंत्रण में ले लिये गये। धीरे-धीरे निजी उद्योग अदृश्य हो गये और इनमें से 5000 ऐसे उद्योग थे, जिनमें केवल एक ही व्यक्ति काम करता था। इससे यह पता चलता है कि राष्ट्रीयकरण की नीति कितनी तर्कहीन बना दी गयी थी। इस प्रकार कारखानों का समस्त उत्पादन सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर जनता को अपनी ओर से माल देना आरम्भ किया। जनता के काम में आने वाली समस्त वस्तुएँ, मकान, सवारी आदि कार्ड्स पर मिलने लगीं। इस व्यापार बंद हो गया। बैंकों का कार्य भी लगभग समाप्त हो गया था। मुद्रा बंद तो नहीं की गयी किन्तु नोटों के अनाप-शनाप प्रचलन और उपर्युक्त व्यवस्था के कारण यह बेकार-सी हो गयी। 1920 ई० तक सरकार ने प्रयत्न किया कि बजट का प्रबन्ध भी बिना पूँजी के किया जाय। सभी कार्यों को आतंक और स्वेच्छाचारिता से किया गया ।

रूस की सरकार अनुशासन लाने के लिये व्यापार संघों पर पार्टी के नियंत्रण को स्थापित करने को उद्यत थी। यह एक प्रकार की “सैनिक अर्थनीति” थी, जिसमें साम्यवादी सिद्धान्तों को कार्यान्वित करने का प्रयास किया गया।

युद्ध-साम्यवाद् की शासन व्यवस्था के अन्तर्गत रूसी जनता में जो असंतोष व्याप्त था, वह 1920-21 के समय एक के बाद एक कृषक विद्रोह के रूप में प्रकट हुए। मार्च, 1921 के आरम्भ में क्रोन्सटाट (Cronstadt) में, जो पहले बोल्शेविकों का गढ़ माना जाता था, सोवियत नौ-सेना के नाविकों ने विद्रोह कर दिया । यद्यपि बोल्शेविक सरकार ने लाल-सेना के दस्ते भेज़ कर विद्रोह को कुचल दिया किन्तु लेनिन और उसके सहयोगियों ने इस विद्रोह को शासन के प्रति बढ़ते हुए असंतोष एवं विरोध का लक्षण माना। स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए सोवियत नेताओं ने एक ओर तो असंतोष के कारणों का निराकरण करने और दूसरी और विरोधी आन्दोलनों के उन्मूलन हेतु कठोर नीति अपनाने का निश्चय किया।

नयी आर्थिक नीति

(New Economic Policy-NEP)

1920-21 ई. में होने वाले विद्रोहों का लेनिन ने बड़ी क्रूरता से दमन तो कर दिया था परन्तु वह इस स्थिति को देखकर चिंतित था। वह बड़ा दूरदर्शी और यथार्थवादी था। उसने मार्च, 1921 ई० में साम्यवादी दल के दसवें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहा था, हम ऐसी दरिद्रता तथा ऐसे विनाश की अवस्था में पहुँच गये हैं और हमारे किसानों तथा मजदूरों की उत्पादक शक्ति का इतना ह्रास हो गया है कि हमें उत्पादन बढ़ाने के लिए सभी बातों (सिद्धांतों) को अलग रख देना चाहिये । उसने साम्यवादी व्यवस्था में परिवर्तन करने और पूंजीवादी व्यवस्था की ओर वापस लौटने का निश्चय करके “नयी आर्थिक नीति” बनायी। लेनिन ने महसूस किया कि साम्यवाद को बचाने के लिए थोड़ा-सा पूँजीवाद को अपनाना पड़ेगा। उसने कहा, “हमें एक कदम पीछे हटाना होगा, जिससे कि हम दो कदम आगे बढ़ सकें।” परन्तु चह इसे पराजयपूर्ण नहीं अपितु आगे चलकर पूरी शक्ति से आगे बढ़ने की दृष्टि से अपनी शक्ति को संगठित करने के लिए पीछे हटना समझता था। नई आधिक नीति के मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के पहले लेनिन ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सोवियत सरकार द्वारा उस समय तक उठाये गये कदमों का विश्लेषण किया, जनता की आवश्यकताओं और मन स्थिति के बारे में जानने के लिए उन्होंने मजदूरों और किसानों से बातें की बेदनोत (दीन हीन) समाचार-पा में प्रकाशित किसानों के पत्रों को मनोयोगपूर्वक पढ़ा । लेनिन किसानों के अन् पों को सच्चे मानवीय दस्तावेज समझते थे। इन सब सामग्रियों ने उन्हें नयी आधिक नीति के आधारों और उराके क्रियान्वयन के तरीकों का निर्धारण करने में बड़ी मदद की।

इस प्रकर नई आधिक नीति का उद्देश्य श्रमिक वर्ग और कुपकों के आर्थिक सहयोग को सुदृढ़ बनाना, नगरों और गांवों के समस्त श्रमजीवी वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए प्रोत्साहित कना तथा अर्थव्यवस्था के प्रमुख सूत्रों को शासन के अधिकार में रखते हुए, आंशिक रूप से पूँजीवादी व्यवस्था को कार्य करने की अनुमति देना था।

  1. कृषि का पुनरुद्धार- रूस में किसानों ने नयी आर्थिक नीति का स्वागत किया। वे बड़े उत्साह के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का पुन निर्माण करने में लग गये। सर्वप्रथम यह कार्य किया गया था कि कृषकों में उनकी अतिरिक्त उपज की अनिवार्य वसूली बन्द कर दी गई और उनके स्थान पर कृषि उत्पादन कर लिया जाने लगा। कृषकों को अपनी अतिरिक्त उपज़ को बाजार में बेचने और उससे अर्जित धन को अपने पास रखने की अनुमति दी गई। इससे फुटकर व्यापार भी आरम्भ हो गया यद्यपि विदेशी व्यापार पर से नियंत्रण नहीं हराया गया। अब फुटकर व्यापारी बाजार में लाभ की दृष्टि से क्रय-विक्रय करने लगे। 1924 ई० में सरकार ने अनाज के स्थान पर रूबल में कर लेना आरम्भ कर दिया। यह परिवर्तन उस समय किया गया था, जब मुद्रा में स्थायित्व आ गया।

कुषि के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं या यह भी कह सकते हैं कि कृषि के क्षेत्र में दो क्रान्तियाँ हुई थीं-पहली क्रान्ति से भू-स्वामी समाप्त हुए और दूसरी से व्यक्तिगत खेती के स्थान पर सामूहिक खेती स्थापित की गयी। पहला परिवर्तन तो एक आदेश प्रसारित कर देने से ही हो गया। सरकार ने आदेश जारी करके जमीन का राष्ट्रीयकरण कर दिया और यह सिद्धान्त निश्चित कर दिया कि इसको किसानों में बांट दिया जाय। इस आदेश का अभिप्राय यह था कि अब जमीन पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहा परन्तु फिर भी जमीन रही व्यक्तिगत कब्जे में ही । भू-स्वामियों के बेदखल करने का गह मतलब नहीं हुआ कि सारी जायदाद किसानों में बाँटने के लिए मिल गई क्योंकि इसमें से कुछ जमीन पहले ही किराए पर किसानों के कब्जे में थी, जैसे फ्रांस में 1789 ई० की क्रान्ति से पहले थी और इसका कुछ हिस्सा कभी-कभी रियासत के खेत के रूप में काम आता था। भू-स्वामियों की जमीन किसानों में विभक्त कर देने का कवेल इतना प्रभाव पड़ा कि किसानों के हाथ में जो जमीन पहले ही थी, उसमें अब एक तिहाई की वृद्धि हुई लेकिन उनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। आबादी के बढ़ जाने और भूमिहीन किसानों के शामिल हो जाने से खेतों की संख्या 1,60,00,000 में बढ़कर 2,50,00,000 हो गई। इसलिए ज्यादा भूमि प्राप्त होने पर भी प्रति व्यक्ति औसत भूमि 11 एकड़ के करीब थी। इस प्रकार प्रथम कृषि क्रान्ति ने व्यक्तिगत बड़ी-बड़ी जमीदारिया ही समाप्त की थीं।

किंतु कृषि के क्षेत्र में किये गये परिवर्तनों से भी देश की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। इस परिवर्तन से पूर्व जमीदारों की जागीरों में इतना अन्न उत्पन्न होता था कि खाने के बाद उसका काफी हिस्सा बाजार में बिकने के लिए आता था। रूस संसार का अन्न भण्डार कहलाता था। अब आवश्यकता इस बात की थी कि बड़े पैमाने पर खेती की जाय, जिसमें वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग किया जाय । प्रथम कृषि क्रान्ति के दस वर्ष पश्चात् दूसरी क्रान्ति हुई, जिसने व्यक्तिगत किसानों से भूमि लेकर समूह के सुपुर्द कर दी इस प्रकार की नीति अपनाने के दो उद्देश्य थे-प्रथम तो बहुत से कम्युनिस्ट नेताओं को डर था कि कहीं मालदार कृषकों का एक नया पूंजीपति वर्ग उत्पन्न न हो जाय, जो पूँजीवादी सोसायटी का नया आदर्श खड़ा कर दे और ऐसे दल के होते हुए फिर कृषि प्रधान देश  रूस सोशियलिस्ट कामनवेल्थ न माना जाय। इस नीति को अपनाने का दूसरा कारण यह था कि 1920 ई. में रूस में अनाज की बड़ी कमी आ गई थी और सरकार में विदेशों से गेहूँ मंगवाना पड़ा था और राशनिंग प्रणाली जारी करनी पड़ी। इस प्रकार अपने उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए रूस में कृषि का सरकारीकरण किया गया।

  1. कृषि का राष्ट्रीयकरण- रूस की सरकार कृषि के क्षेत्र में डुयौदा उत्पादन बढ़ाना चाहती थी। इसके लिए स्टालिन ने दिसम्बर, 1927 ई० को पन्द्रहवा पार्टी कांग्रेस में कृषि के राष्ट्रीयकरण एवं उसके सामूहिकीकरण का प्रस्ताव रखा। रूस में सरकारी कार्म खोलने का उद्देश्य तो मुख्यत: यह था कि देश की विस्तृत वीरान या ऊसर भूमि को खेटो के काम में लाने का प्रबन्ध सरकार की ओर से किया जाय। सामूहिक फार्म का निर्माण गर्न किसानों के खेतों को एक साथ मिलाकर सहयोगपूर्वक काम करना था। यह कार्य बड़ी तीव्र गति से हुआ। अपनी भूमि तथा कृषि के समस्त औजार छिन जाने से किसान, विशेषकर धनी किसान, बड़े असंतुष्ट हुए। किन्तु सरकार ने निर्दयता के साथ उनका दमन किया। उनकी जमीन, पशु, कृषि के औजार आदि छीन लिये गये। बहुत से किसानों को गोली से उड़ा दिया गया और कई लोगों को गांव से निकाल दिया गया। छोटे किसानों पर भी सामूहिक फार्मों में सम्मिलित होने के लिए कई प्रकार से दबाव डाला गया। यह काम भी इतनी तीव्र गति से हुआ कि एक वर्ष 1929-30 के भीतर ही आधे से अधिक खेतों का सामूहिकीकरण हो गया। परन्तु गति बहुत ती थी। इससे एक ओर तो किसान विद्रोही हो गये। दंगे करने लगे तथा दूसरी ओर सरकार इतने सामूहिक फामों के लिए आवश्यक संख्या में मशीनें उपलव्ध नहीं कर सकी। फिर भी 1937 ई. तक 92 प्रतिशत खेत,जो 2,20,00,000 कृषक परिवारों के अधिकार में थे, शामिल करके ढाई लाख सामूहिक फार्म बना दिये गये। अब केवल 20 लाख कृषक परिवारों के पास अपने खेत वचे थे।
  2. सामूहिक खेती- सामूहिक फार्मों को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं- पहले वे फार्म जिनमें किसान अपनी भूमि सम्मिलित करके सामूहिक खेती करते थे और पैदावार को आपस में बाँट लेते थे। जमीन तो सब की शामिल रहती थी परन्तु कृषि उपकरण, पशु आदि किसानों के अपने ही होते थे। ऐसे फार्मों में केवल भूमि और श्रम का हो सामूहिकीकरण हुआ था। दूसरी प्रकार के फार्म आर्टल (Artel) कहलाते थे, जिनमें भूमि और श्रम के साथ-साथ पूजी का भी सामूहिकीकरण हुआ। तीसरे प्रकार के फार्म कम्यून कहलाते थे, जिनमें सभी वस्तुओं का सामूहिकीकरण कर दिया गया। किसानों की कोई निजी वस्तु नहीं थी। मकान, पशु, औजार सभी सम्मिलित सामग्री मानी जाती थी, उन्हें सम्मिलित भण्डार से अपनी आवश्यकता की वस्तु प्राप्त हो जाती थीं।

सामूहिक खेती की व्यवस्था द्वारा बोल्शेविक सरकार ने समाजीकरण की ओर बहुत बड़ा कदम उठाया। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1928-32 ई०) के दौरान 1, 50,00,000 किसान परिवार (कुल परिवारों का 61.5 प्रतिशत 2,10,000 सामूहिक फार्मों में संगठित हुए थे। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1933-37 ई.) के अन्त तक सारे रूस में सामूहिक कृषि प्रणाली विजयी हो चुकी थी। 1937 ई० में 1,85,00,000 किसान प्रिवर (कुल संख्या का 93 प्रतिशत) सामूहिक फार्मों के सदस्य थे। इन सामूहिक फामों के पास 4,56,000 ट्रैक्टर लगभग 1,29,000 हार्वेस्टर कम्बाइने 1,46,000 ट्रक और बहुत सी दूसरी मशीने थीं। इस प्रकार अनेक कठिनाइयों एवं विरोध के बावजूद सोवियत सरकार ने कृषि के क्षेत्र में भी क्रान्ति लाने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की। अब सोवियत संघ बड़े पैमाने की कृषि वाला देश बन चुका था।

  1. उद्योगों का राष्ट्रीयकरण- युद्ध सामग्री और उत्पादन के स्तर को ऊंचा करने के लिए आवश्यक था कि औद्योगिकरण तेजी से किया जायु किन्तु दुर्भाग्य से रूस के पास बहुत कम भारी मशीनें थी, उधार लेना मुश्किल था और जहाँ भी थोड़ा-बहुत उधार लिया गया, उसको लौटाने की शर्ते काफी कठिन थीं। स्टालिन रूस को मशीन आयात करने वाले देश से मशीन निर्माण करने वाला देश बनाना चाहता था। योजनाओं को बनाते समय इस बात पर विशेष ध्यान रखा गया था, जिससे लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठे। साथ ही सोवियत संघ पूँजीवादी देशों के आर्थिक एवं यांत्रिक स्तर के समकक्ष, पहुंचकर विश्व के सम्मुख एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत कर दे कि समाजवाद ने पूंजीवादी व्यवस्था पर विजय प्राप्त कर ली है। नवम्बर, 1917 में शक्ति प्राप्त करने के पश्चात् बोल्शेविक सरकार ने एक आदेश प्रसारित करके कारखानों पर से पूंजीपतियों का स्वामित्व समाप्त कर दिया और उनका संचालन मजदूरों की एक प्रबन्ध समिति को सौंप देने का निर्णय लिया। ये प्रबन्ध सुमितियाँ, माल की उत्पत्ति, कच्चे माल का क्रय, तैयार माल का विक्रय, माल की सम्भाल और धन का प्रबन्ध ये सभी कार्य करती थीं। इन कमेटियों का निर्वाचन कारखाने में काम करने वाले मजदूर करते थे। जिन पूंजीपतियों से उद्योग छीने गये, उन्हें हर्जाने के तौर पर कुछ भी नहीं दिया गया। जिस तरह जमीनों पर से जमींदारों के स्वामित्व समाप्त कर दिया गया था, वैसे ही व्यवसायों और कारखानों पर से पूंजीपतियों का स्वामित्व का अन्त कर दिया गया था, किन्तु ये समितियाँ उद्योगों का सफलतापूर्वक संचालन नहीं कर सकीं। बोल्शेविक सर्कार ने नयी आर्थिक नीति में राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ पूँजीवादी व्यवस्था भी स्थापित करने का निर्णय लिया। जिन छोटे कारखानों या औद्योगिक इकाइयों में 20 से कम् मजदूर काम करते थे, उन व्यवसायों को उनके मालिकों के हाथों में ही रहने दिया। इन छोटे पूंजीपतियों को अपने उत्पादन को बेचने की भी स्वतंत्रता दी गयी। बड़े उद्योगों का नियंत्रण सरकार ने अपने नियंत्रण में रखा, किन्तु उत्पादन की व्यवस्था में आंशिक विकेन्द्रीकरण किया गया। बोल्शेविक सरकार ने व्यवसाय का संचालन करने के लिए प्रत्येक औद्योगिक ईकाई में सरकारी प्रतिनिधि नियुक्त किया। एक ही व्यवसायों के कारखानों को एक सूत्र में संगठित किया गया। उदाहरणार्थ, कपड़े की सब मिलों को मिलाकर एक केन्द्रीय संस्था के अधीन किया गया, जिसे सिण्डीकेट या ट्रस्ट कहते थे। इस सिण्डीकेट की ओर से प्रत्येक मिल को सूचित किया जाता था कि उसे कितनी कपास दी जायेगी ? कपास की कीमत क्या होगी? मजदूरों को कितनी मजदूरी दी जायेगी और उसे क्या माल तैयार करना है ? इससे मिलों की प्रतिस्पर्धा की भावना समाप्त हो गई। इसी तरह की सिण्डीकेट लोहा, इस्पात, कागज, चीनी, रासायनिक द्रव्य आदि के उद्योगों में भी बनायी गयी। विभिन्न सिण्डीकेटों को मिलाकर एक केन्द्रीय व्यवसाय संस्थान की भी रचना की गई ताकि विविध व्यवसाय आपसी सहयोग में अपना विकास कर सके।

नई औद्योगिक नीति के परिणामस्वरूप रूस के उद्योग-धन्धों का कायाकल्प हो गया। कोयले का उत्पादन, जो 1922-23 ई० में 11,500,000 टन था, वह 1925-26 ई. में 24,500,000 टन तक बढ़ गया। इसी अवधि में सूती वनों का उत्पादन भी दो गुना हो गया। खनिज तेल के उत्पादन को भी बढ़ाने का भरसक प्रयास किया गया। सोवियत सरकार ने बड़े उद्योगों, विशेष रूप से भारी उद्योगों, के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया। पुराने कारखानों का पुनःनिर्माण किया गया और कुछ नये कारखाने आरम्भ किये गये।

  1. मुद्रा सुधार एवं व्यवस्था- नई आर्थिक नीति के अन्तर्गत जो प्रगति हुई, उससे आर्थिक क्षेत्र में स्थिरता आई, जिससे मुद्रा प्रणाली में भी सुधार करना सम्भव हो सका। किन्तु गृह-युद्ध के कारण देश की मुद्रा का पूरी तरह अवमूल्यन हो चुका था। अतः 1922 ई० में शासकीय बैंक को “चवोनेत्स (10 स्वर्ण रूबल के बराबर) बैंक नोट जारी करने के लिए प्राधिकृत किया गया। 1924 में एक और मुद्रा सुधार करके रूबल की विनिमय दर स्थिर बना दी गयी।

व्यवसायों के लिए धन की व्यवस्था तीन साधनों द्वारा की जाती थी- (i) मुनाफे में जो रकम रिजर्व फण्ड में डाली जाती, उसे व्यवसाय की उन्नति के लिए प्रयोग में लाया जा सकता था। (ii) सरकारी बैंक से कर्ज कारखानों को दिया जा सकता था। (iii) राज्य की ओर से सहायता देने की व्यवस्था भी की गयी थी।

नयी आर्थिक नीति के अनुसार कारखानों को जो लाभ होता था, उस्का एक निश्चुित भाग सरकार प्राप्त करती थी। एक भाग कारखाने के अपने रिजर्व फण्ड में जाता था और शेष मजदूरों की शिक्षा स्वास्थ्य तथा अन्य भलाई के कार्यों के लिए व्यय किया जाता था। अब रूस में व्यवसायों का संचालन लाभ के उद्देश्य से नहीं होता था, अपितु देश की उन्नति, सार्वजनिक हित और श्रमिकों के कल्याण को ही लक्ष्य मान कर किया जाता था।

औद्योगिक उन्नति के लिए साम्यवादी दल की एक शाखा प्रत्येक कारखाने में स्थापित की जाती थी। इस शाखा की स्थापना के पीछे उद्देश्य यह था कि कारखाने में कोई मजदूर, शिल्पी, तकनीकी कर्मचारी बोल्शेविक सरकार के विरुद्ध किसी तरह का प्रचार न करे। यह कार्य उत्पादन की वृद्धि के लिये भी आवश्यक था, ताकि सभी कर्मचारी नियंत्रण में रहकर उत्पादन वृद्धि में अपनी शक्ति लगा दें।

इस प्रकार उद्योगों पर सरकारी तथा मजदूरों का नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। इससे देश के औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई। प्रथम योजना के अन्तर्गत औद्योगिक क्षेत्र में द्रुतगति से प्रगति हुई। खनिज तेल का उत्पादन बढ़ाने के लिए काकेशस में ग्राजनी Grozny) से तुआप्स (Tuapse) बन्दरगाह तक तथा बाकू से बाटुंमी तक पाइप लाइन बनाने का कार्य निर्धारित समय से पहले ही पूरा किया गया। कोयला, लोहा, इस्पात, चीनी आदि का उत्पादन योजना द्वारा निर्धारित समय से पूरा किया गया। खानों और बिजलीघरों का पुनरुद्धार भी उत्तरोत्तर तीव्र गति से होने लगा। फलस्वरूप 1923 ई० में राजकीय औद्योगिक इकाई 1920 ई. के मुकाबले तीन गुना अधिक माल उत्पादित करने लगी। इसी कारण 1925 ई० में सोवियत संघ की सर्वोच्च राष्ट्रीय अर्थ परिषद् के अध्यक्ष फेलिक्श दुजेरजीस्की ने कहा था, “अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में दिखाया गया यह पराक्रम हमारे मजदूरों और किसानों द्वारा युद्ध के मोर्चे पर दिखाये गये पराक्रम से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है।”

  1. छोटे उद्योगों को विशेष छूट- रूस में सभी बड़े उद्योग सरकारी नियंत्रण में थे। बडे-बड़े उद्योग, जैसे, रेल, खान आदि पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण था। कुछ छोटे उद्योगों का विराष्ट्रीयकरण किया गया था। 1922 ई. चार हजार छोटे उद्योगों को लाइसेंस जारी किये गये। विदेशी कम्पनियों को भी कई रियायतें देकर वहाँ उद्योग लगाने के लिये प्रोत्साहित किया गया। बहुत से छोटे व्यवसाय व्यक्तिगत अधिकार में थे। इन निजी कारखानों में औसत 2 व्यक्ति काम करते थे और कुल उत्पादन का 5 प्रतिशत भाग ही इनमें निर्मित होता था।
  2. श्रम और मजदूर संघ नीति- नवीन आर्थिक नीति के लागू होने से जबरदस्ती श्रम करवाने और बराबर वेतन न देने की नीति समाप्त हो गई। युद्धरत-साम्यवाद के काल में सरकार औद्योगिक श्रमिक को राशन और अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध करवाती थी लेकिन नवीन आर्थिक नीति के अन्तर्गत अब श्रमिकों को कुछ नगर मुद्रा भी दी जाने लगी, जिससे अब निजी व्यापार बढ़ गया। समाजवादी औद्योगिक व्यवस्था में मजदूरों का महत्वपूर्ण स्थान हो गया था। अतः उद्योगों पर त्रिकोण नियंत्रण स्थापित किया गया था, जिसके अनुसार प्रत्येक कारखाने में एक प्रबन्धक होता था, जो उसके काम का संचालन करता था। एक पार्टी की समिति भी होती थी, जिसमें कम्युनिस्ट दल के सदस्य हुआ करते थे। साथ ही एक फैक्ट्री कमेटी होती थी, जो ट्रेड यूनियन का प्रतिनिधित्व करती थी। उद्योगों के त्रिकोण नियंत्रण पर व्यापार संघ का कोई नियंत्रण नहीं था। इस व्यवस्था से कारखाने पर चाहे मजदूरों का नियंत्रण न हो लेकिन नियंत्रण उनके हित को ध्यान में रखकर किया जाता था। 1922 ई. की श्रमिक संहिता द्वारा मजदूरों को कई लाभ दिये गये, जैसे कि प्रतिदिन 8 घन्टे ही काम करना, दो सप्ताह का वेतन सहित अवकाश सामाजिक बीमा लाभ आदि।

नवीन आर्थिक नीति, जिसको लेनिन ने मिली-जुली परिवर्तनशील व्यवस्था और राजकीय पूँजीवाद को संज्ञा दी थी, के हास की तिथि स्पष्ट नहीं बताई जा सकती है। यह नीति 1925 में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। बोल्शेविक पार्टी ने 1929 में औपचारिक तौर पर इसका परित्याग कर दिया। कुल मिलाकर नई आर्थिक नीति ने प्रथम महायुद्ध और क्रान्ति के समय तथा गृहयुद्ध की अवधि में हुए विनाश से अर्थव्यवस्था को शीघ्र ही सुधारने में बड़ी मदद की।

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Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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