भूगोल / Geography

डेविस की संकल्पना | डेविस का अपरदन-चक मॉडल | डेविस के अपरदन-चक मॉडल का आलोचनात्मक मूल्यांकन | अपरदन चक्र का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन | डेविस के भौगोलिक चक्र की आलोचना

डेविस की संकल्पना | डेविस का अपरदन-चक मॉडल | डेविस के अपरदन-चक मॉडल का आलोचनात्मक मूल्यांकन | अपरदन चक्र का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन | डेविस के भौगोलिक चक्र की आलोचना | Davis’s Concept in Hindi | Davis’s erosion-chuck model in Hindi | Critical evaluation of Davis’s erosion-chuck model in Hindi | Graphic representation of the erosion cycle in Hindi | Criticism of Davis’ Geographical Circle in Hindi

डेविस की संकल्पना

अपरदन के चक्र की संकल्पना के जनक महान अमेरिकन भूगोलवेता और भू-वैज्ञानिक विलियम मौरिस डेविस (1850-1934) हैं। उन्होंने इस संकल्पना का प्रतिपादन पहली बार 1984 में किया था ये हारवर्ड विश्वविद्यालय में भौतिक भूगोल के प्रोफेसर थे और उन्होंने 1904 ई. में एसोशियसन ऑफ अमेरिकन ज्योपॉफर्स (Association of American geographers) की स्थापना की। उन्होंने इस संकल्पना को 1899 में विकसित रूप में प्रकाशित किया और इसे भौगोलिक चक्र (Geographical cycle) की संज्ञा दी। इस संकल्पना के अनुसार किसी भी भू- दृश्य का एक निश्चित जीवन इतिहास होता है, और उसके जीवन काल में भू-तक्षण (Land sculpture) के प्रक्रम (Process) जैसे-जैसे इस पर काम करते हैं, इसकी धरातलीय आकृति में समय के साथ अनेक परिवर्तन होते जाते हैं। धरातलीय आकृति में परिवर्तन एक निश्चित या सुव्यवस्थित क्रम (Sequence) में होता है जिसके अनुसार प्रारंभिक आकृति (Initial forms) अनुक्रमिक आकृतियों (Sequential forms) से गुजरते हुए अन्त में अन्तिम आकृति (Ultimate form) की अवस्था में पहुंचती है। अतः भू-दृश्य का विकास कए चक्र से गुजरता है, और इस चक्र का एक निश्चित विकास क्रम होता है। विकास क्रम की विभिन्न अनुक्रमिक अवस्थाओं  (Successive stages) को तीन मुख्य अवस्थाओं में बाँटा गया है जिन्हें युवाकाल, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था (Youth, Maturity and Old age) कहते हैं। डेविस का विश्वास था कि आर्द्र शीतोष्ण क्षेत्रों में भू-दृश्य का निर्माण एक निश्चित विकास क्रम के अन्तर्गत होता है जिसमें संरचना प्रक्रम और अवस्था तीनों की पारस्परिक क्रिया प्रतिबिंबित होती है। चक्रीय संकल्पना के तीन भाग हैं नदी विकास का चक्र, ढाल-विकास का चक्र और भू-दृश्य विकास का चक्र। इन तीनों के विकास में तीन अवस्थायें हैं जिन्हें डेविस ने युवाकाल, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था कहा है।

भू-आकृति विज्ञान के इतिहास में अपरदन चक्र की संकल्पना कए अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है। यद्यपि अब लोग इसे इसके मौलिक रूप में पूर्णतः स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, किन्तु लगभग 50 वर्षों तक अंग्रेजी भाषी देशों में व्यापक रूप से लोग इसे स्वीकार करते रहे। और इसकी मान्यता पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगा। वास्तव में यह विकासशील संकल्पना अपने समय की उपज थी, क्योंकि उस समय डार्विन के विकास सिद्धान्त का बोलबाला था। डेविस ने भू-दृश्य के विकास का मानव जीवन के युवास्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था से तुलना कर अपने सिद्धान्त को अत्यन्त रोचक और सजीव ढंग से प्रस्तुत किया और वैज्ञानिक जगत इससे बहुत प्रभावित हुआ।

किसी भू-दृश्य के विकास को समझने के लिए ‘विकास की अवस्था’ का महत्व सर्वोपरि है। किन्तु साथ-साथ तक्षण अथवा अपरदन के पक्रम (Process of sculpture) और भू- वैज्ञानिक संरचना तथा चट्टानों के स्वरूप का भी भू-दृश्य के निर्माण पर अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर डेविस ने कहा है कि भू-दृश्य संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का फलन है (Landscape is a function of structure, process and stage)। वास्तव में किसी भी भू-दृश्य के विकास में यही तीन प्रमुख नियंत्रक कारक हैं। इन्हें डेविस ने तीन महान भौगोलिक नियंत्रक (The trio of geographic controls) बतलाया है।

संरचना (Structure) :

यहाँ संरचना शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया है। इसका तात्पर्य न केवल प्रादेशिक भू-वैज्ञानिक संरचना, वलन, भ्रंश या अन्य स्थूल भू-रचनाओं से है बल्कि इसमें चट्टानों की प्रकृति और विशेषतायें, उनके भौतिक तथा रासायनिक गुण, उनकी पारगम्यता, घुलनशीलता, संभेद का रूप इत्यादि सभी सम्मिलित हैं। हमने देखा है कि चट्टानों की संरचना किस प्रकार स्थलाकृति को प्रभावित करती है। पारगम्य चट्टानों पर अपारगम्य चट्टानों की तुलना में अपवाह (Run-off) कम होता है, अतः पारगम्य चट्टानों पर अपरदन अपेक्षाकृत धीमा होता है। मुलायम शेल कठोर क्वार्टजाइट की तुलना में आसानी से अपरदित होता है। चूना पत्थर जिप्सम के क्षेत्रों में सतही सरिता भों के अतिरिक्त भूमिगत जल की विलयन क्रिया अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। प्रायः चट्टानों का प्रभाव स्थलाकृति पर बहुत ही स्पष्ट रहता है, किन्तु इससे इस निष्कर्ष पर पहुँचना गलत होगा कि जहाँ चट्टानों की संरचना का प्रभाव स्पष्ट नहीं है, वहाँ इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। कभी-कभी ऐसा इसलिए होता है कि बहुत बड़े क्षेत्र में संरचना एक ही प्रकार की होती है, और इसलिए इसका प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता।”

एक स्थल की संरचना का निर्माण पहले होता है और तब बाद में विभिन्न अपरदन की प्रक्रियाओं के प्रभाव से विभिन्न भू-आकृतियाँ उस पर विकसित होती हैं। अर्थात् संरचना भू- आकृति से पुरानी है और एक प्रकार से आधार का काम करती है। इस पर विभिन्न अपरदन की प्रक्रियायें काम करती हैं जिसके फलस्वरूप विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।

प्रक्रम (Process) :

प्रक्रम के अन्तर्गत वे सभी प्रक्रियायें आती हैं जिनसे पृथ्वी के  धरातलीय रूप में परिवर्तन होता रहता है। इनमें से कुछ अन्तजात या आन्तरिक शक्तियों से संबंधित हैं। ये अर्न्तजात (endogenic) प्रतिमायें भू-संचलन या ज्वालामुखीय क्रिया द्वारा पर्वत, पठार या पहाड़ियों का निर्माण कर स्थल के ऊपर विषमता उत्पन्न करती हैं। इसके विपरीत कुछ बर्हिजात (exogenic) प्रतियायें या शक्तियों हैं जो समतल स्थापक है। अर्न्तजात शक्तियों द्वारा जैसे ही धरातल के ऊपर विषमता उत्पन्न होती है, वैसे ही उस पर समतल स्थापक शक्तियों काम करने लगती हैं। समतल स्थापक शक्तियों में मुख्य हैं-नदी या बहता हुआ जल, भूमिगत जल, वायु, हिमानी और सागरीय तरंगें उठे हुए भागों को काट कर ये अपरदन द्वारा नीचा करती हैं, साथ-साथ कटे हुए पदार्थों का इन्हीं शक्तियों द्वारा परिवहन और अन्यत्र निक्षेप भी होता रहता है। एक लम्बे काल तक इन प्रक्रियाओं के चलते रहने से ऊँचा उठा भाग धीरे- धीरे नीचा होता जाता है और अन्त में आकृतिहीन और समतल प्रायः हो जाता है। भूदृश्य के विकास में प्रक्रम इसलिए महत्वपूर्ण है कि प्रक्रम के अनुसार भू-दृश्य में भिन्नता आती है। अर्थात् विशिष्ट प्रक्रम विशिष्ट स्थलाकृतियों को उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए जलोढ़ पंखे (Alluvial fans), बाढ़ मैदान और डेल्टा उन क्षेत्रों में पाये जाते हैं जहाँ अपरदन नदियों द्वारा होता है, आतभौम नदियाँ और कन्दरायें भूमिगत जल की क्रिया से उत्पन्न होती हैं, और ग्लेशियर वाले क्षेत्रों में ही मोरेन, ड्रमलिन इत्यादि आकृतियाँ देखने को मिलती हैं। अर्थात् प्रत्येक भू-आकृति पर प्रक्रम की स्पष्ट मुहर होती है, और इस प्रकार भू-आकृतियों का उनको उत्पन्न करने वाले प्रक्रम के आधार पर वर्गीकरण किया जा सकता है। डेविस के अनुसार बहता हुआ जल सबसे व्यापक प्रक्रम है। अतः उन्होंने अपरदन चक्र की को बहते हुए जल द्वारा अपरदन पर आधारित किया, किन्तु बाद में उन्होंने अन्य प्रक्रमों को भी शामिल किया।

अवस्था (Stage) :

जब पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न अपरदन के दूत काम करते हैं, तो भू-आकृतियों का एक अनुक्रमिक विकास होता है जिसे मुख्य रूप से तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है। अपरदन-चक्र की इन अवस्थाओं को युवाकाल, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था की संज्ञा दी गई है। जैसे प्रत्येक प्रक्रम एक विशिष्ट स्थलाकृति को जन्म देता है, उसी प्रकार अपरदन-चक्र की प्रत्येक अवस्था में भी स्थलाकृति के विशिष्ट लक्षण मिलते हैं जिनकी सहायता से भू-दृश्य के विकास की अवस्था को पहचाना जा सकता है। विकास की अवस्था और स्थलाकृति की विशेषताओं में बहुत स्पष्ट सम्बन्ध है। डेविस ने अपने अपरदन-चक्र की संकल्पना में इस बात पर बहुत जोर दिया है। उनके अनुसार किसी-भूदृश्य की आयु उसकी आकृति से बतलायी जा सकती है। अर्थात् भू-आकृति समय आश्रित (Time dependent) है।

यद्यपि इन अवस्थाओं का सम्बन्ध काल-क्रम (Sequence of time) से है, किन्तु ऐसा समझना गलत होगा कि इन तीन अवस्थाओं की अवधि बराबर होती है या दो प्रदेया जहाँ भू-दृश्य समान अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, वहाँ इस अवस्था को प्राप्त करने में बराबर समय लगा है। साथ-साथ दो प्रदेशों में समान अवस्था रहते हुए भी भू-दृश्य की सूक्ष्म आकृतियों में भिन्नता हो सकती है। मुख्य रूप से बात याद रखने की यह है कि अपरदन-चक्र का अवस्थाओं में विभाजन भू-आकृतियों के क्रमबद्ध विकास पर बल देता है। उदाहरण के लिए, यदि हम ऐसे स्थलखण्ड को लें जिसका उत्थान अभी तुरंत समुद्र तल से हुआ है, तो अपरदन से उत्पन्न स्थलाकृतियों का क्या अनुक्रम होगा उसे बतलाया जा सकता है।  प्रारंभिक अवस्था में उठे हुए भाग में विषमतायें कम होंगी, किन्तु नदी की घाटी का नीचे की ओर कटाव अधिक तीव्र रहता है। दो नदियों के बीच की भूमि (Inter stream areas or Inr-fluves) चौड़ी, समतल और उठी हुई होगी और प्रारंभिक धरातल की बनी होगी। समय के साथ घाटी का विस्तार होता है और नदी की  घाटी के चौड़ी होने से दो नदियों के बीच की भूमि संकीर्ण होती जाती है। पाटी में नीचे की ओर होने पर भी अपति नदी में कम-स्थापन (rading) होने के बाद भी, घाटी के चौड़े  होने की क्रिया चलती रहती है, और इस प्रकार आसमाप्त हो जाता है। यही युवाकाल का अन्त और प्रौढ़ावस्था आ आरा है। अतः युवाकाल के आरंभ में उच्चावच सर्वाधिक होता है। दो नदियों के बीच की भूमि के कटान और पाडियों के जमाव के कारण विषमतायें घटती जाती है। अतः प्रौढावस्था घटते हुए उच्चावच का काल है।

युवाकाल कितनी शीघ्रता से प्रौढावस्था में बदल जायगा यह कुछ हद तक प्रवाह प्रणाली की गठन (texture of the drianage) पर निर्भर करता है, अर्थात नदियों की संख्या और उनकी पारस्परिक दूरी पर यह निर्भर करेगा कि कितनी तेजी से जल विभाजक क्षेत्रों का कटाव हो रहा है। इसी काल में सहायक नदियों के विकास के साथ प्रावह प्रणाली का भी विकास होता है, और नदी अपहरण (River piracy), जल विभाजक का स्थानान्तरण (Migration of divides) इत्यादि होते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि युवाकाल का अंत और प्रवाह- प्रणाली का प्रथम क्रम-स्थापन (Grading) दोनों एक साथ नहीं होते। हैं, क्योंकि पूरी नदी प्रणाली में एक साथ क्रम-स्थापन नहीं होता है और विशेष रूप से ऊपरी प्रावह की नदियों (head water) में क्रम-स्थापन होने में बहुत समय लगता है। अतः प्रौढ़ावस्था में भी नदियों के क्रम-स्थापन (Grading of the streams) का कार्य जारी रहता है, और साथ-साथ नदियाँ बाढ़ मैदान बनाती हैं और उनके मार्ग विसर्पी (Meandering) हो जाते हैं।

युवाकाल में घाटी की ढाल तीव्र होती है और शैल-मलवा (Rock-waste) ढालों से सरक कर नीचे जाता रहता है। अतः घाटी के पार्श्व की चट्टानें प्रायः नग्न होती हैं। बाद में जब ढाल धीमी हो जाती है, तब उन पर, मलवे जमा होने लगते हैं जो साथ-साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर खिसकते भी जाते हैं। अतः ढाल में भी क्रम-स्थापन हो जाता है। यही कारण है कि जहाँ युवाकाल में जल-विभाजक तीव्र ढाल वाले होते हैं, वहाँ प्रौढ़ावस्था में जल-विभाजकों का रूप गोलाकार या उत्तल (Rounded or Convex) हो जाता है, जबकि नदी के अपरदन का वक्र (Grade line or Curve of water erosion) नातेदार रहता है। इस प्रकार मध्य या अन्तिम प्रौढ़ावस्था में घाटियों में पार्टिवय कटाव और जमाव की क्रियायें चलती रहती हैं, और साथ-साथ गोलाकार जल-विभाजक नीचे होते जाते हैं। प्रौढ़ावस्था धीरे-धीरे वृद्धावस्था में बदल जाती है, और समस्त क्षेत्र एक नीचा, लगभग समतल समप्राय मैदान में बदल जाता है जिसे पेनिप्लेन (Peneplain) कहते हैं।

पेनिप्लेन वास्तव में समतल धरातल का मैदान नहीं है, बल्कि एक उर्मिल निम्न भूमि (Rolling lowlana) है जिसमें नदियों एक दूसरे से हल्की ऊँची भूमि द्वारा पृथक रहती हुई, मन्द  गति से अत्यन्त धीमी ढालों पर बहती हैं। ऐसी स्थिति में चट्टानों में अन्तर का स्थलाकृति पर प्रभाव लगभग समाप्त हो जाता है, किन्तु कहीं-कहीं स्थानीय प्रतिरोधी चट्टानें (resistant rocks) ऊंचे टीलों अथवा अवशिष्ट पहाड़ियों के रूप में वर्तमान पाई जाती हैं जिन्हें मोनाडनॉक (Monadnocks) कहा जाता है। डेविस ने इस प्रकार की अवशिष्ट पहाड़ियों का नाम मोनाडनॉक न्यू हैम्पशायर स्थित माउन्ट मोनाडनॉक के नाम पर दिया है।

इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए एक ऊँचा उठा हुआ स्थलखण्ड अपरदन की प्रक्रिया द्वारा अन्ततः एक आकृतिहीन समतल प्रायः मैदान में परिवर्तित हो जाता है। अपरदन- चक्र की संकल्पना का यह मूलभूत सिद्धन्त है। अपरदन-चक्र को डेविस ने ‘भौगोलिक-चक्र’ (Geographical cycle) का भी नाम दिया है, किन्तु इन दोनों से अब अधिक प्रचलित ‘भ्वाकृति-चक्र’ है। ‘अपरदन-चक्र’ और ‘भ्वाकृति-चक्र’ में कुछ विद्वानों के अनुसार अन्तर है। अपरदन-चक्र समय की वह अवधि है जिसमें एक उत्थित भू-खण्ड अपरदन की प्रक्रिया द्वारा एक आकृतिविहीन समतल-प्राय मैदान में परिवर्तित हो जाता है। अपरदन-चक्र से उत्पन्न स्थलाकृतियों के क्रमिक विकास को ‘भ्वाकृति-चक्र’ कहते हैं। वरसेस्टर के अनुसार ‘भ्वाकृति- चक्र’ स्थलाकृति होती है जो कि अपरदन-चक्र के समय विभिन्न अवस्थाओं में निर्मित होती है। किन्तु वास्तविक प्रयोग में इस सूक्ष्म अन्तर को ध्यान में नहीं रखा गया है, और ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में व्यवहार होते रहे हैं। चूँकि नदियाँ भू-तल पर अपरदन द्वारा समतल-स्थापक शक्तियों में सबसे प्रमुख है, इसलिए नदी द्वारा सम्पादित अपरदन-चक्र को डेविस ने ‘अपरदन का सामान्य चक्र’ (Normal Cycle of Erosion) कहा है, हालांकि कुछ विद्वानों के विचार में केवल नदी द्वारा सम्पादित अपरदन-चक्र को ही सामान्य मानना सही नहीं है।

अपरदन चक्र या भौगोलिक चक्र की वृद्धावस्था का प्रमुख लक्षण डेविस ने समप्राय मैदान (Peneplian) तथा मोनाडनॉक का पाया जाना बतलाया है। यद्यपि समप्राय मैदान की संकल्पना के बारे में विद्वानों में मतभेद है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि जब ऊँचे उठे भाग- का इतना कटाव हो जाता है कि वह भाग अपदन के आधार-तल को प्राप्त होकर एक निम्न समतल भाग में बदल जाता है जिसमें कहीं-कहीं ऊँची भूमि टीलों के रूप में अवशिष्ट रह जाती है, तो उस निम्न समतल प्राय भूमि को समप्राय मैदान या पेनिप्लेन कहते हैं।

अपरदन चक्र का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन

(Graphical Representation of the Cycle of Erosion)

डेविस के अपरदन-चक्र को निम्न-दर्शित ग्राफ की सहायता से अच्छी तरह समझा जा सकता है। स्थलखण्ड उत्थान को टूटी हुई रेखाओं से दिखलाया गया है। A धरातल के ऊँचे भागों की औसत प्रारंभिक ऊँचाई प्रदर्शित करता है, और B निचले भागों की औसत ऊँचाई। अतः दूरी AB प्रारंभिक औसत उच्चावच को प्रदर्शित करती है। अपरदन की प्रथम अवस्था में नीचे की ओर तीव्र कटाव के कारण घाटियों का तल नीचा होता जाता है किन्तु जल-विभाजक के शीर्ष (ridge tops or divide tops) पर अपरदन नहीं के बराबर होता है। अतः उच्चावच निरन्तर बढ़ता जाता है, जिसे कि ग्राफ में दो रेखाओं के बीच की दूरी में बढ़ाव या अपसरण (Divergence) से दिखलाया गया है। प्रौढ़ावस्था के शुरू होने तक उच्चावच अधिकतम हो जाता है जिसे रेखा CD से दर्शाया गया है। उसके बाद से खड़ा अपरदन (Vertical corrasion) में कमी आ जाती है, और घाटी-तल की तुलना में ऊँचे भाग अधिक तेजी से कटने लगते हैं। अतः उच्चावच में लगातार कमी आते जाती है। इसलिए दोनों वक्र एक  दूसरे के समीप होते जाते हैं। अपरदन वक्र के और भी बाद की अवस्था में यह प्रवृत्ति अधिक बढ़ती जाती है, अर्थात् दोनों वक्रों का अभिसरण (Convergence) बढ़ता जाता है। यह प्रक्रिया बहुत ही लम्बी अवधि तक चलती रहती है, और अन्त में वृद्धावस्था में स्थलखण्ड एक नीचा और आकृतिहीन धरातल में परिणत हो जाता है।

चित्र डेविस की संकल्पना का ग्राफ द्वारा प्रदर्शन

डेविस के भौगोलिक चक्र की आलोचना

डेविस ने अपनी संकल्पना में सरलता के लिए मान लिया है कि पूर्णतः उत्थान हो जाने के बाद ही अपरदन प्रारंभ होता है। उनके आलोचकों का कहना है कि डेविस ने अपरदन-चक्र की संकल्पना को आवश्यकता से अधिक सरल बना दिया है। वास्तव में उत्थान और अपरदन दोनों साथ-साथ चलते रहते हैं और वास्तविकता तो यह है कि उत्थान एक लम्बी प्रक्रिया है, और शायद ही कभी उत्थान इतना शीघ्र होता है कि उस पर अपरदन पूर्ण उत्थान हो जाने के बाद शुरू हो। जैसे ही कोई स्थल भाग ऊपर उठने लगता है वैसे ही अपरदन का कार्य उस पर शुरू हो जाता है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि डेविस ने शीघ्र उत्थान और उसके बाद लम्बी अवधि की शान्ति ( rapid uplift followed by long stillstand) को सामान्य स्थिति और सामान्य प्रक्रिया माना है। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, डेविस ने केवल समझने की सरलता के लिए ऐसा माना है, और भू-संचलन द्वारा उत्पन्न विभिन्न प्रकार के उत्थान की संभावनाओं को नजर अन्दाज नहीं किया है। साथ-साथ मोटे तौर पर यह कहना भी सत्य होगा कि उत्थान, विश्राम और अपरदन-यह एक सामान्य क्रम (Normal sequence) है, और अन्य संभावनायें आपवादिक है।

एक दूसरी आलोचना इस संकल्पना की यह की गई है कि अपरदन-चक्र वास्तव में कभी भी पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि किसी स्थलखण्ड को पेनिप्लेन बनने में इतनी अवधि चाहिए कि इतनी लम्बी अवधि तक किसी स्थलखण्ड का स्थिर रहना और भू-संचलन से अप्रभावित रहना असंभव है। इन आलचकों के विचार में पेनिप्लेन न कभी पहले बना है और न इसके बनने की कभी संभावना है; यह एक कल्पना मात्र है। इस विचार के पक्ष में यह बतलाया जाता है कि अभी किसी भी महाद्वीप में, वर्तमान समुद्री तह से संबंधित विस्तृत पेनिप्लेन के उदाहरण नहीं मिलते हैं। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि अभी प्लायोसीन-प्लाइस्टोसीन युग का भू-संचलन (Pilocene – Pleistocene diastrophism) और उत्थान भू-वैज्ञानिक काल के हिसाब से, एक बहुत ही हाल की घटनायें हैं, और पृथ्वी के भू-खण्ड अभी सक्रिय निम्नकरण (active degradation) की अवस्था से गुजर रहे हैं। यदि हम और भी पुराने भू-वैज्ञानिक काल में अपनी दृष्टि ले जायें, तो हम देखेंगे कि ऐसे निम्न उच्चावच के धरातल अभी मिलते हैं जो पहले पेनिप्लेन थे और ऊपर उठ जाने से वे अब पठार बन गये हैं।, अथवा बाद की तलछटों के नीचे वे ढक गये हैं और भू-वैज्ञानिकों के विषम विन्यास (Planes of unconformity) के रूप में पाये जाते हैं, और ऊपर की चट्टानों के अनावृत्तीकरण के बाद कहीं-कहीं ये धरातल पर भी दृष्टिगोचर होते हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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