एकांकी कला की दृष्टि से ‘उत्सर्ग’ का मूल्यांकन | रामकुमार वर्मा की एकांकी उत्सर्ग | एकांकी कला की दृष्टि से डॉ. रामकुमार वर्मा कृत ‘उत्सर्ग’ एकांकी का मूल्यांकन
एकांकी कला की दृष्टि से ‘उत्सर्ग’ का मूल्यांकन | रामकुमार वर्मा की एकांकी उत्सर्ग | एकांकी कला की दृष्टि से डॉ. रामकुमार वर्मा कृत ‘उत्सर्ग’ एकांकी का मूल्यांकन
एकांकी कला की दृष्टि से ‘उत्सर्ग’ का मूल्यांकन
डॉ. रामकुमार वर्मा हिन्दी साहित्य के ख्यातिलब्ध एकांकीकार है, उन्होंने ऐतिहासिक और सामाजिक नाटक लिखे हैं लेकिन ऐतिहासिक नाटक लिखने के प्रति उनका मोह अधिक था। रामकुमार जी कथा का चयन जीवन की पृष्ठभूमि से करते हैं और फिर मनोविाान के पथ से गुजारते हैं। घात-प्रतिघात आते हैं, कथा चरम सीमा पर पहुंचती है और औत्सुक्य के साथ अचानक समाप्त हो जाती है। चरित्र निर्माण का वैज्ञानिक ढंग रामकुमार जी की अपनी विशेषता है। रंग-व्यवस्था अथवा रंग-संकेत पर उनका पूरा अधिकार है। उनकी रंगमंचीय व्यवस्था चरित्र को संकेतात्मक बल देती है, कथा में विस्मय आदि के गुणों का सृजन करती है तथा सफल अभिनय प्रस्तुत करने में सहायता करती है। उनके द्वारा लिखित ‘उत्सर्ग’ एकांकी कला की दृष्टि से पूर्ण सफल है।
पात्र या चरित्र चित्रण-
इस एकांकी में कुल 5 पात्र हैं, डॉ. शेखर, विनय, मंजुल, छाया देवी और सुधीर। डॉ. शेखर एक महान उच्चकोटि के वैज्ञानिक हैं। ये उदात्त चरित्र, आदर्शवादी तथा कर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। विनय डॉ. शेखर का सहायक है। मंजुल दूसरा प्रमुख पात्र है जो डॉ. शेखर की पालित पोषित पुत्री है तथा सुशिक्षित, सुसंस्कृत तथा कलाप्रिय युवती हैं। सितार वादन का उसे बहुत शौक हैं
छाया देवी इस एकांकी की तीसरी प्रमुख पात्र हैं। छाया देवी प्रेम के क्षेत्र में उपेक्षिता है, प्रतिशोध की भावना रखती है। डॉ. शेखर के प्रति उनके हृदय में अटूट अनुरक्ति है, किन्तु वे उससे विवाह नहीं करते। शेखर के द्वारा उपेक्षित होने पर वह, निराश होकर आत्महत्या कर लेती है।
कथावस्तु-
‘उत्सर्ग’ एकांकी में डॉ. शेखर एक मेधावी वैज्ञानिक हैं, जिसने अपने अथक परिश्रम, अविरल अध्यवसाय से एक ऐसा वैज्ञानिक यन्त्र तैयार किया है जो मृत व्यक्ति को एक रूप और आकृति प्रदान कर, उससे प्रत्यक्ष बातचीत करा देने की क्षमता रखता है। डॉ. शेखर का आविष्कृत यच स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरों को अलग करने और जोड़ देने की क्रिया में सक्षम है। उनके अनुसार मृत्यु एक दुखद नहीं बल्कि सुखद स्थिति है। मृत्यु के बाद व्यक्ति अपने सूक्ष्म शरीर में जीवित रहता है। मंजुल उनके एक स्वर्गीय दोस्त की पुत्री है। उस स्वर्गीय मित्र के प्रति अपना कर्त्तव्य मानकर उसकी पत्नी और पुत्री का संरक्षण भार अपने कंधों पर लिया और उसको अपनी पुत्री की तरह पाला। डॉ. शेखर को अपनी पुत्री मंजुल, जो उनकी कर्तव्यनिष्ठा एवं आदर्श का परिचायक थी तथा अपने द्वारा आविष्कृत यन्त्र, जो उनकी एकनिष्ठ साधना का प्रतीक है- से विशेष मोह एवं अनुरक्ति थी। इन दोनों में जब टकराव होता है, इन दोनों अर्थात् साधना और कर्तव्य के बीच जब एक को चुनने की समस्या खड़ा हो जाती है तब डॉ. शेखर कर्त्तव्य और आदर्श को चुनते हैं जब उनका यंत्र एपराइटस मंजुल के लिए घातक बन जाता है और छाया देवी उसे अपने साथ ले जाना चाहती है। एपराइटस के प्रभाव से मृत छाया देवी अपना पुराना आकार धारण कर लेती है। मंजुल और छाया देवी की बातचीत होती है। छाया देवी चार महीने बाद आकार मंजुल को ऋषिकेश ले जाने की बात कर चली जाती है। जब यह बात डॉ. शेखर को पता चलती है तो वे मृत छाया देवी से मंजूल के प्राणों की भीख माँगते हैं। मृत छाया देवी की आत्मा तो खेकर से प्रेम में मिली उपेक्षा और निराशा का बदला लेना चाहती है। चाहती है, अपनी अटूट साधना का प्रतीक यन्त्र तोड़ डाले। डॉ. शेखर के सामने विकट समस्या खड़ी हो जाती है- एक ओर उनकी धर्मपालिता पुत्री है, जो उनके आदर्श और कर्तव्य का प्रतीक है तथा दूसरी ओर उनके जीवन भर की साधना, परिश्रम का प्रतीक एपराइटस है। अन्त में डॉ. शेखर कर्तव्य की बलिबेदी पर अपने साधना एपराटस को चूर- चूर कर डालते हैं। डॉ. शेखर के इस उत्सर्ग के साथ ‘उत्सर्ग’ एकांकी भी समाप्त हो जाता है।
संवाद या कथोपकथन-
संवाद योजना की दृष्टि से ‘उत्सर्ग’ एकांकी पूर्ण सफल एवं विशिष्ट है, इस एकांकी के सार्थक कथोपकथन कथावस्तु को विस्तार देते हैं तथा पात्रों का चारित्रिक विश्लेषण भी स्पष्ट करते हैं। अधिकतर संवाद स्पष्ट तथा संक्षिप्त हैं तथा कहीं-कहीं कथोपकथन लम्बे हो गये हैं। विशेषकर डॉ. शेखर के कथोपकथन। लेकिन यह उन्हीं स्थलों पर हुआ है जहाँ शेखर के वैज्ञानिक आविष्कार का वर्णन प्रस्तुत हुआ है। शेखर तथा छाया देवी के कथोपकथन का उदाहरण निम्नलिखित है-
शेखर- जो हो मैंने मृत्यु के पार देखने की कोशिश की है। जीवन का आदर्श ही सही है कि जीवन के उस पार देखा जाय। मृत्यु तो सूक्ष्म जीवन का प्रवेश द्वार है। आज का विज्ञान सिर्फ ‘मैटर की खोज करता ‘स्पिरिट’ की नहीं। मैंने ‘स्पिरिट’ की खोज की है।
शेखर का संवाद 13 पंक्तियों का है। ऐसे स्थल निस्सन्देह कथा के प्रवाह तथा अभिनेयता में गत्यावरोध उत्पन्न करते हैं। अन्य संवाद मर्मस्पर्शी, कथात्मक तथा भाषा एवं शैली की दृष्टि से उच्च है। इस एकांकी के संवादों में मर्मस्पर्शिता भी मिलती है जैसे-
छायादेवी- तुमने मेरे प्रेम को ठुकराया। तुमने मुझे वचन देकर भी मुझसे विवाह नहीं किया। मैं कुछ नहीं कह सकी। वन में आग लगने पर जमीन पर पड़ी हुई लता की तरह जलती रही, लेकिन तुमने एक कण भी जलने नहीं दिया। तुमने मुझे सपने की तरह हँसकर टाल दिया और मैं नींद के अंधेरे में तड़पती रही।
संकलन त्रय-
इस एकांकी में स्थान, काल और कार्य तीनों की एकता का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया। पूरा एकांकी डेढ़ घण्टे में समाप्त हो जाता हैं, स्थान आरम्भ से अन्त तक डॉ0 शेखर का वैज्ञानिक उपकरणों से युक्त कक्ष है। इस एकांकी में कार्य की दृष्टि से भी एकता है- डॉ0 शेखर के उत्सर्ग का वर्णन उनकी वैज्ञानिक साधना एवं आदर्शवादिता तथा कर्त्तव्यपरायण के बीच संघर्ष है। वर्मा जी के एकांकी संकलन त्रय की दृष्टि से कसौटी पर खरे उतरते हैं।
नाटकीय संकेत या अभिनेयता-
डॉ. वर्मा अपने एकांकी में रंग-संकेत, पात्रों की वेश- भूषा तथा रंगमंच की व्यवस्था आदि को बड़े शिल्प के साथ प्रस्तुत करते हैं। रंगमंच व्यवस्था निर्देश नाटक के शुरू में ही विस्तार से मिलता है। इसके पश्चात् हर पात्र की स्थिति के अनुकूल हावभाव, मुद्रा-संकेत भी मिलता है जेसे-सोचते हुए मन्द स्वर में, आश्चर्य से, विनम्रता और संकोच के स्वर में इत्यादि। पात्रों के रंग संकेत से पात्र तथा निर्देशक दोनों को ही सहायता मिलती है। उत्सर्ग के सभी पात्र अभिनेयता के गुणों का पालन करते हैं तथा उनके हर कार्य में रंगमचीयता की झलक मिलती है।
चरम सीमा-
वर्मा जी चरम सीमा को एकांकी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व मानते थे। उन्होंने लिखा है- “यदि महत्व की दृष्टि से देखा जाय तो एकांकी में प्रथम स्थान पात्र और उसके मनोविज्ञान का है, दूसरा स्थान सम्भावना या कथोपकथन का, तीसरा स्थान चरम सीमा का और चौथा स्थान घटना का हैं।” द्वंद्व जब अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है और दर्शक उसका समाधान सोचने लगता है तभी बिजली की चमक की भाँति स्थिति अचानक करवट लेती है और नाटक समाप्त हो जाता है। इस एकांकी में छाया देवी का मृतात्मा के पुनरागमन से लेकर अन्त में डॉ0 शेखर द्वारा ‘एपराटस’ का जो उनके जीवन की अडिग साधना एवं परिश्रम का फल है, तोड़े जाने तक चरम सीमा का विस्तार है और यही ‘उत्सर्ग’ एकांकी समाप्त हो जाता है।
हिन्दी – महत्वपूर्ण लिंक
- सिरी उपमा जोग सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | शिवमूर्ति – सिरी उपमा जोग
- पुरस्कार सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | जयशंकर प्रसाद – पुरस्कार
- चीफ की दावत सन्दर्भः- प्रसंग- व्याख्या | भीष्मसाहनी -चीफ की दावत
- गुल्ली-डंडा | प्रेमचन्द – गुल्ली डंडा | कहानी कला की दृष्टि से गुल्ली डंडा का मूल्यांकन
- उसने कहा था कहानी की समीक्षा | चन्द्रधर शर्मा गुलेरी – उसने कहा था | कहानी कला की दृष्टि से ‘ उसने कहा था’ का मूल्यांकन | कहानी-कला के तत्वों के आधार पर उसने कहा था’ कहानी की समीक्षा
- ‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ के आधार पर लहनासिंह का चरित्र-चित्रण | लहनासिंह का चरित्र-चित्रण
- प्रेमचन्द का उपन्यास निर्मला | प्रेमचंद- कृत निर्मला उपन्यास नारी जीवन की करुण त्रासदी है।’’-इस कथन की समीक्षा
- हिन्दी नाटक का उद्भव और विकास | भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक | हिन्दी नाटक के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिये
Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- [email protected]
Thank you so much 🙏
This is correct source for study material
Nice