तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ | तुलसीदास की काव्यगत विशेषताओं पर आलोचनात्मक निबन्ध
तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ
गोस्वामी तुलसीदास काव्य वह सागर है जो रत्नों से भरा पड़ा है, जिसमें चाहे जहाँ गोता लगाओं रत्न की हत्न हाथ में आते हैं उन्होंने पर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन एवं कार्यों को अपनी अनुभूति में इस प्रकार पचा लिया था कि सारा जग-जीवन उसमें आलोकित होता दिखायी पड़ता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है-
राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि हो जाए सहज संभाव्य है।
इस प्रकार जब एक सामान्य व्यक्ति रामचरित का स्पर्श पाकर कवि बन सकता है, तब महान्, भावक, भक्त, प्रकाण्ड, पंडित, कुशल उपदेशकर, सौम्य संत, साधक, समाज-सुधारक महात्मा तुलसीदास के लिए महान कवि बन जाना कौन-सी बड़ी बात है।
संक्षेप में तुलसीदास के काव्य की विशेषताएं निम्नलिखित है-
(1) राम का लोकरक्षक रूप-
महात्मा तुलसीदास ने भगवान राम को भक्ति, शील और सौन्दर्य से मण्डित करने के साथ ही लोकरक्षक के रूप में भी चित्रित किया है। भगवान् तो जब भक्तों पर विपत्ति आती है तब भक्ति के कष्ट निवारण हेतु ही मानव शरीर धारण करते हैं-
जब-जब होइ धरम ही हानी, बाढ़ाहिं असुर अधम अभिमानी।
सीयहिं विप्र, धेनु सुर, धरनी करइ अनीति जाइ नहि बरनी॥
तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।
(2) व्यापक भक्ति भावना-
महात्मा गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति के क्षेत्र में ऐसी अखण्ड ज्योति जगाई जिससे सारा विश्व चमत्कृत हो उठा। वे तो राम-रूपी मेघ के लिए अपने को तृषित चातक ही बना लेते हैं-
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास,
एक राम घनस्याम हित चालक तुलसीदास॥
(3) उदार भक्ति भावना-
महात्मा तुलसीदास भगवान राम के भक्त थे, किन्तु उन्होंने अपनी भक्ति को किसी सीमा विशेष से मुक्त करके भगवान शिव एवं कृष्ण की भक्ति महिमा का भी वर्णन मुक्त कण्ठ से किया है। इसमें तुलसी की उदार धार्मिक वृत्ति पर प्रबल मिलता है-
शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहूं नहिं भावा॥
(4) मर्यादा का उदान्त स्वर-
महात्मा तुलसीदास ने काव्य में सर्वत्र का पालन किया है जीवन को उच्चतम बनाने के लिए, जीवन में जिन मर्यादाओं की अपेक्षा होती है, उन सब को अपने काव्य में समन्वित करके तुलसी ने एक महान परम्परा की स्थापना की है। इस प्रकार इन मर्यादाओं की स्थापना करके तुलसीदास ने समाज का जितना कल्याण, किया शायद ही इतना किसी अन्य कवि ने किया होगा।
(5) सामाजिक सम्बन्धों में आदर्श की स्थापना-
तुलसी ने अपने काव्य में विशेषतः रामचरित मानव में जिस पारिवारिक सम्बन्ध का निरूपण किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। राजा दशरथ एक आदर्श पिता हैं, जो पुत्र के वियोग में प्राण तक त्याग देते हैं। कौशल्या एक ऐसी आदर्श माता हैं, जिनके व्यक्तित्व में स्वः पर का लेश मात्र भी अंश दिखायी नहीं पड़ता है और सीता एक ऐसी आदर्श पत्नी है जो सुख-दुःख में अपने पति का साथ देती हैं, वन-वन की खाक छानती फिरती हैं भारत का चरित एक आदर्श भाई के रूप में चित्रित किया गया जो अपने भाई की मर्यादा का पालन अन्त तक करते हैं आदर्श भक्त एवं सेवक के रूप में हनुमान हैं जो अपने स्वामी की सेवा दत्तचित होकर करते हैं और सेवा में सब कुछ भूल जाते हैं यही कारण है कि तुलसी का रामचरित मानस, जिसमें भारतीय संस्कृति का इतना पावन, इतना व्यापक एवं इतना उदात्त स्वर भरा है, जो सदियों से भारतीयों और विशेषतः हिन्दू परिवारों द्वारा पूजित रहा है तथा भविष्य में भी पूज्य बना रहेगा।
(6) मर्मस्पर्शी स्थलों का चुनाव-
तुलसी मार्मिक स्थलों के चान में बड़े प्रवीण हैं। उन्होंने रामचरित मानस में मर्म को छूने वाले ऐसे अनेक प्रसंगों का इतनी बारीकी से चित्रण किया है कि उसे देखकर आत्मा सिहर जाती है। बालवर्णन, पुष्प-वाटिका वर्णन, राम-वनगमन एवं दशरथ-मरण, सीताहरण, लक्ष्मण को शक्ति लगना, भरत-राम का चित्रकुट में मिलन ऐसे मार्मिक स्थल है, जो हृदय को सहसा छू लेते हैं मन आहत पक्षी-सा बिंध जाता है।
(7) सफल मुक्तकों की रचना-
तुलसी जहाँ एक ओर रामचरित मानव की रचना करके सफल प्रबन्धकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वहाँ दोहावली, विनय-पत्रिका आदि की रचना करके हमारे समक्ष एक सफल मुक्तककार के रूप में दर्शित हैं तुलसी का तो काव्य में लगभग सभी रूपों (काव्यरूपों) पर अधिकार था।
(8) भाषा-
तुलसीदास की भाषा दो रूपों में पायी जाती है प्रथम संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली युक्त साहित्यिक-भाषा और दूसरी लोक में प्रचलि सामान्य बोल-चाल की भाषा। विशेष रूप से तुलसी ने अवधी और ब्रजभाषा को ही अपने काव्य का माध्यम बनाया है, किन्तु इस दृष्टिकोण से वे बड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाये हैं। यही कारण है कि उनके काव्य में फारसी, अरबी के शब्दों का भी बहुत प्रयोग हमें प्राप्त होता है। तुलसीदास की भाषा परिमार्जित एवं प्रवाहमयी है। इसमें एक ओर यदि मधुरता है, तो दूसरी ओर ओज भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। एक ओर जहाँ सरलता एवं सुबोधता है, वहाँ दूसरी ओर गहन दार्शनिक विचारों के कारण क्लिष्टता है। यही कारण है कि तुलसी की भाषा में यदि एक ओर सामान्य पढ़े-लिखे लोग रस लेते हैं, तो दूसरी ओर मर्मज्ञ पंडित भी भरपूर आनन्द उठाते हैं।
(9) अलंकारों का प्रयोग-
यद्यपि तुलसीदास ने अपने काव्य में अलंकारों का प्रयोग बहुलता के साथ किया है, परन्तु उन्होंने अलंकारों का प्रयोग आचार्य केशव की भाँति मात्र चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं, उनकी कविता में अलंकार सहज रूप से प्रयुक्त हुए है। तुलसीदास ने सांगरूपक अलंकार के वर्णन में तो कमाल ही कर दिया। रामचरित मानस में ज्ञान भक्ति निरूपण में रूपकों की ऐसी शृंखला है, जैसा अन्यत्र मिल पाना दुर्लभ है।
(10) शैली-
तुलसी ने अपने काव्य की रचना विभिन्न शैलियों में की है। उनके काव्य में उस समय की अभी प्रचलित शैलियों का समावेश पाया जाता है। जायसी आदि सन्त कवियों की दोहा-चौपाई शैली कबीर आदि नीतिकारों की दोहा शैली, विद्यापति,सूर आदि गीतकार कवियों की गीत-शैली, गंग आदि कवित्यों की कवित्त-छप्पय शैली, एवं इनके साथ ही गांव में प्रचलित सोहर नचारी आदि लोक-गीत शैलियों का सहज समावेश तुलसी ने अपने काव्य में किया है। इतने व्यापक रूप में शैलियों का अपने काव्य में समाहार अन्य किसी भी कवि ने नहीं किया है।
निष्कर्ष-
इस प्रकार तुलसी की काव्यगत विशेषताओं पर संक्षेप में दृष्टिपात करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि काव्य-जगत् में तुलसी जैसा सर्वतोमुखी प्रतिभा सम्पन्न कोई कवि नहीं हैं आधुनिक युग में प्रसाद, महादेवी वर्मा आदि ने काव्य क्षेत्र में लेखनी का चमत्कार दिखाया अवश्य है, किन्तु तुलसी जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा का स्पष्ट अभाव है। जहाँ प्रसाद ने कुछेक काव्य रूपों का प्रयोग किया है, वहाँ महादेवी ने गीत शैली में काव्य की रचना की है। किन्तु तुलसीदास जैसी सरलता सुबोधता का इन सबों में नितान्त अभाव है जिस कारण तुलसीदास लोकमानस में पूजित, लुलसी का सम्पूर्ण काव्य विशिष्टताओं से आदि से अन्त तक भरा है।
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