‘राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन है’ -हेगल
‘राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन है’ –हेगल
“राज्य का अस्तित्व विश्व में ईश्वर का अभियान है।” -हेगल
The existence of State is the movement of God in the world.”-Hegel,
‘राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन है’ –हेगल
चरम वास्तविकता की सच्ची प्रकृति के सम्बन्ध में दो सम्प्रदाय हैं। एक सम्प्रदाय यह विश्वास करता है कि चरम वास्तविकता किसी अमूर्त विचार से बनती है। इस सम्प्रदाय के दार्शनिकों का विश्वास है कि इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु ऐसे किसी भाव से निर्गमित अथवा , व्युत्पन्न है। यह विचार परम्परा सामान्यत: आदर्शवाद के नाम से विदित है। इस सिद्धान्त के प्रमुख उन्नायक हैं प्लेटो, कैंट तथा हेगल। दूसरे सम्प्रदाय का विश्वास है कि वस्तु ही चरम वास्तविकता है। जीवन की सभी अच्छी वस्तुएं, सभी संस्थाएं तथा सभी भाव सब भौतिक वस्तुओं से ही व्युत्पन्न किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे विचार वातावरण तथा उन भौतिक परिस्थितियों के अनुसार बन जाते हैं जिनमें हम रहते हैं। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विचारक हैं, मार्क्स, लेनिन स्टालिन तथा लॉस्की। हेगल आदर्शवादी हैं इस अर्थ में कि उनके मतानुसार अन्तिम वास्तविकता निरपेक्ष भाव अथवा युक्ति अथवा आत्म-चेतना अथवा आत्मा से ही बनती है। हेगल कभी-कभी इन सभी इन शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची शब्दों के रूप में करते हैं। परन्तु उनकी सही और अलग-अलग परिभाषाएं देने की चिन्ता वे नहीं करते। लेकिन हेगल के दर्शन का सबसे मुख्य पहलू जिसे हमें याद रखना चाहिए यह है कि उनके लिए भौतिक वस्तुओं की कोई कीमत ही नहीं है, क्योंकि वे निरपेक्ष भाव से उद्भूत विकास का संचित परिणाम है। निरपेक्ष भाव कोई स्थिर वस्तु नहीं है। निरपेक्ष भाव सबसे गतिशील वस्तु है जिसकी कल्पना कठिन है। निरपेक्ष भाव आत्म-साक्षात्कार के प्रयल में आगे बढ़ता जाता है। हेगल उसे युक्त का अनावरण कहते हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड जो आकर्षक सामग्री और घटनाओं से युक्त हैं, मुक्ति के उस अनावरण , का परिणाम है। यही संक्षेप में हेगल का इतिहास सम्बन्ध दर्शन है अथवा हेगल का ऐतिहासिक तरीका है। हम निम्न पंक्ति में उसकी विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे।
निरपेक्ष भाव धीमी विकासशील प्रकिया में आगे बढ़ता है। हेगल के मतानुसार विश्व इतिहास के विकास की सम्पूर्ण गति पूर्वनिश्चित अथवा व्यवस्थित है। अरिस्टाटल के सोद्देश्यवाद के स्वर में स्वर मिलाकर हेगल कहते हैं कि निरपेक्ष भाव इतिहास के विविध गुणों से होकर किसी महान् ध्येय की ओर बढ़ता रहता है। निरपेक्ष भाव की कार्य योजना में संयोग या आकस्मिक घटना की कोई गुंजाइश नहीं है। सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास में यह संसार एक युक्तिपूर्ण योजना के अनुसार ही चल रहा है। किसी वस्तु की सच्ची प्रकृति वही है जोकि पूर्ण विकास प्राप्त करने पर बनती है। संसार की प्रक्रिया के आरम्भ में निरपेक्षाभाव कुछ नहीं जानता, परन्तु सभी वस्तुओं को जान लेना उसकी अन्तर्निहित प्रकृति है। निरपेक्ष भाव प्रत्येक वस्तु का और स्वयं अपना “पूर्ण ज्ञान करने के नियत ध्येय के आगे बढ़ने लगता है।” प्रो० ह्वेपर के शब्दों में, “हेगल के मतानुसार इतिहास वह प्रक्रिया है जिससे आत्मा (अथवा निरपेक्ष भाव) कुछ न जानने की स्थिति से अपने आपके पूर्ण ज्ञान की ओर जाता है। आत्मा अपने लक्ष्य के रास्ते में बहुत से प्रयोग करती है” लम्बी तथा वैविध्यपर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया में निरपेक्ष भाव अथवा आत्मा अनेक रूप धारण कर लेती है, पहले रूपों को छोड़ देती है तथा नए-नए रूप ग्रहण कर लेती है। “आत्मा द्वारा धारण किया हुआ प्रत्येक रूप आत्म-सम्पूर्ति के उसके लक्ष्य के मार्ग में उसकी सहायता करता है, परन्तु प्रत्येक रूप उस मार्ग पर एक ही कदम का प्रतिनिधित्व करता है और आगे कितने ही और कदम हैं ” (ह्येपर)
निरपेक्ष भाव के विकास की पहली मंजिल भौतिक अथवा अजैव संसार है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जिन भौतिक वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर सकते हैं। वे निरपेक्ष भाव के अपरिष्कृत स्थूल अथवा प्रारम्भिक प्रकाशन हैं। विकास की प्रक्रिया में दूसरी मंजिल जैव संसार पेड़-पौधों और जानवरों के संसार की है। यह मंजिल पहली मंजिल से श्रेष्ठतर है, इस अर्थ में कि पश जगत भौतिक संसार से अधिक जटिल और उलझा हुआ है। तीसरी मंजिल पृथ्वी पर मनुष्य के विकास की है। यह मंजिल पहली मंजिल से अधिक जटिल है क्योंकि मनुष्य में युक्ति का एक तत्व विद्यमान है जो उसे भले को बुरे से अलग करने के योग्य बनाता है । चौथी मंजिल पारिवारिक प्रणाली के विकास की है। परिवार प्रणाली उच्चतर विकास वर्ग की है क्योंकि उसमें युक्ति तत्व के अलावा पारस्परिक सहयोग तथा समायोजन की भावना भी रहती है। निरपेक्ष भाव के विकास की पांचवीं मंजिल बुजुर्आ समाज के अथवा नागरिक समाज से आविर्भाव की है। इस समाज में परिवार में विद्यमान दो तत्वों के अतिरिक्त आर्थिक विचार भी अपनी भूमिका निभाते हैं। अतः विकास की प्रक्रिया में यह मंजिल एक और कदम है। विकास की प्रक्रिया की अन्तिम तथा उच्चतम मंजिल राज्य है। पहले की मंजिलों में निरपेक्ष भाव का आत्म साक्षात्कार करना असम्भव था। केवल राज्य में ही निरपेक्ष भाव को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होता है। जब मंच पर राज्य का प्रवेश होता है तो विकास प्रक्रिया का अन्त हो जाता है। निरपेक्ष भाव के विकास की प्रारम्भ और इति सब राज्य ही है। हेगल यह डींग मारते है कि ऐसे विकास की जानकारी प्राप्त करने से वे ऐसी सभी बातें जान चुके हैं जो जानने योग्य हैं। वे यह भी डींग मारते हैं कि उपरिलिखित ऐतिहासिक तरीके या इतिहास के दर्शन का विकास करके वे दार्शनिक चिन्तन की पराकाष्ठा तक पहुंच गए हैं।
गीस्ट अथवा आत्मा अथवा निरपेक्ष भाव ने हेगल को आदर्श नैतिक व्यवस्था का आधार प्रदान किया था। सम्पूर्ण इतिहास से होकर शनैः शनैः काम करती हुई गीस्ट को राज्य में आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ था जो आदर्श नैतिक व्यवस्था की पूर्ण अवस्था है। जैसे मैक्सी स्पष्ट करते हैं गीस्ट का यह विचार हेगल के सारे राजनीतिक चिन्तन के मूल में स्थित है। वह विविध पहलुओं में प्रत्यक्ष होता है : हेल्टगीस्ट विश्व-आत्मा, वोल्कगीस्ट-राष्ट्र-आत्मा, जीटगीस्ट-काल-आत्मा आदि। यह करीब-करीब उनके सभी राजनीतिक सिद्धान्तों का जनक है और ऐतिहासिक विकास सम्बन्धी उनके विचार पर छाया हुआ है। हेगल हमें बताते हैं कि राज्य दृश्यमान अस्तित्व में गीस्ट द्वारा धारण किया हुआ रूप है जो उसने अपनी पूर्ण आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में ग्रहण किया है। परिवार तथा अन्य प्रकार के संस्थाओं में धीरे-धीरे विकसित होती हुई नैतिक व्यवस्था राज्य में ही अपना पूर्णत्व प्राप्त कर लेती है”। इस प्रकार राज्य नैतिक आत्म-बोध परम वस्तु है, संकल्प (Will) का मूर्त-आकार, गीस्ट अथवा निरपेक्ष भाव, साक्षात्कृत नैतिक विचार है, जो अपने आपको स्पष्ट तथा द्रष्टव्य बनाता है। हेगल ने राज्य की पदवी को इतना ऊपर उठाया कि उन्होंने उसे “पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन” कह दिया। यदि हम हेगल को सही प्रकार समझना चाहते हैं तो हममें साधारण, लौकिक तथा वास्तविक राज्यों तथा उस राज्य के बीच जिसकी वे इतनी बड़ी प्रशंसा करते हैं कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए। वे राज्य की अवधारण या उसके भाव की उस रुप में चर्चा करते हैं जैसा कि वह ऐतिहासिक विकास से, गीस्ट से व्युत्पन्न हुआ है। चूंकि वे आदर्शवादी हैं अत: उनके लिए राज्य की वास्तविक प्रकृति उसके भाव का पर्यायवाची शब्द है। प्रो० डनिंग भी यह सुझाव देते हैं कि, “इस प्रकाशन के लिए हेगल की दी हुई चेनावनी अनावश्यक है कि वे राज्य को एक ऐतिहासिक घटना मानकर नहीं बल्कि बौद्धिक अवधारणा मानकर उस पर विचार कर रहे हैं” हेगल के शब्दों में, “राज्य जैव सम्बन्ध है अर्थात् भाव का विकसित होकर श्रेष्ठता प्राप्त करना।” परन्तु यह कहा नहीं जा सकता कि हेगल ने वास्तिवक ऐतिहासिक प्रक्रिया की समूचे तौर पर उपेक्षा की, यद्यपि उसने इस बात का ध्यान रखा कि ऐतिहासिक प्रक्रिया पूर्व निर्धारित चतुरंगी (Fourfold) क्रम से गुजरती दिखाई दे।
संसार पर ईश्वर के आगमन के तथा राज्य के ऐतिहासिक विकास में छह मंजिलों की चतुरंगी प्रक्रिया के अपने वर्णन में हेगल एक अध्यात्मवादी तथा इतिहासकार दोनों की भूमिका अदा करते हैं। जैसे प्रो० सेबाइन ने कहा है, “हेगल के यौवन की मुख्य दिलचस्पी राजनीति की अपेक्षा धर्म ही था।” प्रो० लकैस्टर ने भी उसका, सुन्दर शब्दों में निम्न प्रकार वर्णन किया है “ऐसे अनुभवातीत दावों की उपस्थिति में जैसा कि, “राज्य वह दैवी भाव है जो कि पृथ्वी पर रहता है” कोई यह प्रश्न पूछे बिना नहीं रह सकता है कि हेगल सामान्य राज्यों की बात करते , हैं अथवा वास्तविक राज्यों की।” इसका उत्तर है कि उनके मन में दोनों तरह के राज्य थे। जो भी हो, यह निर्णय करना गलत होगा कि एक युक्तियुक्त प्रक्रिया के रूप में उनका इतिहास सम्बन्धी विचार अलिखित तथ्यों पर आधारित निष्कर्ष है जैसा कि एक प्रशिक्षित इतिहासकार करता है। यह तथ्य कि इतिहास इस ब्रह्माण्ड में युक्ति का कार्य प्रदर्शित करता है उनके इस आधारभूत आधार-वास (Premise) का एक अनिवार्य परिणाम है कि, वास्तविक युक्ति-युक्त है। हेगल के इस आधार वाक्य की चर्चा हम आगामी पृष्ठों में करेंगे। हेगल में अवश्य ही एक बड़ी भ्रान्ति घर किए हुए है। राज्यों की सामान्य रूप से चर्चा करने के बीच-बीच में वे अचानक अपने राज्य अर्थात् प्रशिया की चर्चा आरम्भ कर देते हैं। गीस्ट अथवा युक्ति के अनावरण की बात करते रहने पर वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि ऐसा अनावरण संसार के ऐतिहासिक लोगों पर हुआ था जैसे कि पूर्वी, यूनानी तथा रोमन लोगों पर जिन्होंने वास्तव में राज्यों की स्थापना की है। हेगल में दो भिन्न प्रवृत्तियों का अर्थात् सार्वत्रिक एवं राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों का एक विचित्र मिश्रण है। उन्होंने यह दिखाना चाहा कि उपर्युक्त लोगों ने सार्वत्रिक आत्मा अथवा युक्ति अथवा निरपेक्ष भाव का प्रतिनिधित्व किया था, परन्तु आंशिक रूप में। जबकि जर्मनी की जनता ने, उनके मतानुसार, उसका पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व किया था। विश्व इतिहास की उनकी व्याख्या में व्यक्ति अथवा शक्तियों की अन्य किसी संस्था की अपेक्षा राष्ट्र में ही सार्थक सत्ता पाई जाती है। विश्व इतिहास गोस्ट के कार्यकलापों के आलेखन के सिवाय कुछ नहीं है जो संसार के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों या जातियों से होकर काल के विभिन्न क्षणों में प्रतिभा अथवा राष्ट्र की आत्मा के रूप में अपने आपको प्रकट करता है।
गीस्ट ने अंशत: अपने आपको विकास की प्रारम्भिक दशाओं इस प्रकार प्रकट किया- (निर्जीव) संसार, जैव संसार, मानव प्राणी, परिवार, नागरिक, समाज अथवा बुर्जुआ समाज, परन्तु उसे अपना सच्चा रूप राष्ट्र-राज्य ही मिला जो कला, विधि, नैतिकता तथा धर्म का सच्चा स्रष्टा है। अतः सभ्यता का इतिहास राष्ट्रीय-संस्कृतियों का एक अनुक्रम है जिसमें प्रत्येक राष्ट्र सम्पूर्ण मानव उपलब्धियों के लिए अपना विशेष तथा सामयिक योगदान देता है। वह एक राष्ट्र राज्य ही है, केवल पश्चिमी यूरोप के आधुनिक इतिहास में ही, जिसकी सर्जन की जन्म-जात प्रेरणा, सचेत तथा युक्तियुक्त रूप में अभिव्यक्त हो जाती है। अतः राज्य राष्ट्रीय विकास का निदेशक एवं ध्येय है।”
हेगल ने अपने तथाकथित ऐतिहासिक तरीके को अपने राजनीति-दर्शन के अध्ययन का केन्द्रीय कील बनाया था। अपने अध्ययन में उन्होंने आनुभाविक तरीके के स्थान पर ऐतिहासिक तरीके (Historical method) को लगाना चाहा। आनुभाविक तरीके को पहले लॉक और ह्यम ने अपनाया था। हेगल स्वयं एक ऐसे इतिहासकार थे, जिनकी पश्चिमी सभ्यता के इतिहास के प्रति अन्त दृष्टि बेजोड़ थी। उनके प्रभाव के कारण धर्म का इतिहास, दर्शन का इतिहास,विधि का इतिहास यदि विषय अनुसन्धान के मुख्य विषय बनाए गए थे। ऐतिहासिक तरीके को राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विधि, धर्म तथा दर्शन पर लागू किया जा सकता था। ऐतिहासिक तरीके से यह अनुमान किया गया था कि वह साधारणीकरण तथा विश्लेषण के तरीकों को प्रतिस्थापित करेगा और आनुभाविक अनुसन्धान का सुधरा हुआ तरीका बन जाएगा। ऐतिहासिक तरीका ध्येयवादी था इतना कि इतिहास के अतीत की तथा भविष्य की गति पूर्व निश्चित थी और कोई भी मानवी संकल्प-शक्ति चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो उसमें कोई परिवर्तन नहीं ला सकती। हेगल के पास पहले से ही कुछपूर्व निश्चित निष्कर्ष थे। यह सिद्ध करने के लिए कि वे निष्कर्ष सही है उन्होंने ऐतिहासिक अन्वेषण की सहायता ढूंढी। उन्होंने इतिहास को केवल हथियार बनाया । हेगल ने एक बार कहा था कि, राजनीतिक प्रतिभा अपने आपको किसी सिद्धान्त से अभिन्न मानने में ही निहित है।”
द्वन्द्ववाद-
हेगले के राष्ट्रवाद सिद्धान्त तथा इतिहास के दर्शन के निकट सम्बन्ध में उनका द्वन्दवाद है तो उनके उज्ज्वल विचारों में एक है। विश्व इतिहास की सही व्याख्या करने के लिए अपनी खोज में उन्होंने जो ऐतिहासिक तरीका अपनाया था उसे एक विशेष प्रकार के उपकरण की आवश्यकता थी। यह उपकरण द्वन्द्ववाद ने प्रदान किया था। हेगल का मुख्य ध्येय “विकास का कम प्रकट करना था जिसमें निरपेक्ष युक्ति भिन्न-भिन्न सभ्यताओं के विचारों और संस्थाओं में स्वयं को प्रकाशित् या अनावृत करता है।” हेगल ने द्वन्द्ववाद के भाव को बहुत अधिक महत्व दिया था। वे डोंग मारते थे कि उन्होंने दर्शन के इतिहास में सबसे बड़ा सूत्र खोज निकाला था। द्वन्द्ववाद एक बिल्कुल तार्किक उपकरण था जो ऐतिहासिक अनिवार्यता को प्रकट करने तथा इतिहास को उसके सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्या करने योग्य है। द्वन्द्ववाद ऐतिहासिक तरीके का केवल एक घटक था अतः वह एक गतिशील शक्ति है क्योंकि द्वन्द्ववाद में अध्ययन की विषय वस्तु अर्थात् निरपेक्ष भाव अथवा युक्ति अथवा गीम्ट सतत् गतिमान है। हेगल के राजनीति-दर्शन में दून्दूवाद प्राथमिक महत्व का है। हेगल ने देखा कि इस उपकरण में ऐसी क्षमता है कि “सामाजिक अध्ययन के नए और अन्यथा अप्रामाण्य निष्कर्ष प्रदान कर सके” (सेबाइन)। हेगल का विश्वास था कि द्वन्द्ववाद में उन्होंने संश्लेषण की एक विधि निकाली थी, जो मन के स्वभाव और वस्तुओं के स्वरूप दोनों में निहित है।
द्वन्द्ववाद के भाव के लिए हेगल प्लेटो के ऋणी हैं जिन्होंने अपने “रिपब्लिक” में इस तरीके का प्रयोग किया था। ‘डायलेक्टिक’ (द्वन्द्ववाद) शब्द यूनानी भाषा के ‘डायलागों से व्युत्पादित किया हुआ है जिसका अर्थ है चर्चा अथवा वादविवाद । वाद-विवाद की अपनी योग्यता के कारण सौक्रटीज ‘रिपब्लिक’ में अपने विरोधियों के दृष्टिकोण के अन्तर्विरोध को वाद-विवाद द्वारा प्रकाश में लाए थे जिसका उद्देश्य सत्य को प्राप्त करना था। हेगल अन्तरकालीन यूनानी विचारकों के भी ऋणी हैं जो यह विश्वास करते थे कि ऐतिहासिक प्रक्रिया विरोधों के साथ चलती है। उन्होंने विश्वास किया था कि किसी भी वस्तु को उसकी चरम बिन्दु तक ढकेल दिया जाय तो उसकी विपरीत शक्ति अस्तित्व में आ जाएगी जिससे उसका नाश सम्भावित है। यूनानी संसार में ही इसके दृष्टान्त थे कि जब निरपेक्ष राजतन्त्र को निरंकुशता के कगार तक धकेला जाता था तो वह भयंकर क्रान्ति को जन्म देती थी जिससे लोकतन्त्र का अविर्भाव होता था। यदि लोकतन्त्र को स्वेच्छाचारिता या भीडतन्त्र बनाया जाए तो फिर एक निरंकुश शासक या तानाशाह अधिकार छीन कर शासन करने लगेगा यही कारण है कि अरिस्टाटल हमेशा अति से बचने की सलाह देते थे और उन्होंने अपने स्वर्णिम मध्यमार्ग’ के या मिले-जुले संविधान के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया था। हेगल को द्वन्द्ववाद के उपर्युक्त दो सूत्र मिला था। उन्होंने इन विचारों को अपने सिद्धान्त में ज्यों का त्यों सन्निविष्ट नहीं किया, परन्तु उन्हें एक भिन्न अर्थ दिया था। परन्तु यह सही है कि उन्होंने यूनानी द्वन्द्ववाद के आधार को आत्मसात कर लिया। दर्शन और इतिहास के अध्ययन से उन्हें यह अनुभव हुआ था कि द्वन्द्व ही इस संसार का वास्तविक गतिमान सिद्धान्त है । जैसे हम ऊपर कह चुके हैं, हेगल इस संसार को एक अन्तहीन गतिमान सन्तुलन मानते थे।
राष्ट्रीय और एकाधिपत्य राज्य के आविर्भाव तक चलती रहती है। यह उल्लेखनीय है कि जब वाद प्रतिवाद सम्वाद का उदय होता है तो दोनों के अनिवार्य तथा स्वभावगत तत्व नष्ट नहीं होते । बल्कि उनका सार अधिक प्रवृत्ति के साथ सम्वाद में आ जाता है। इस प्रकार किसी भी घंटना तथा सभ्यता के अनिवार्य तत्व, विकास की आदिम चरणों से लेकर सम्वाद के आधुनिकतम संरक्षण में विद्यमान कहे जा सकते हैं। इस प्रकार हेगल भौतिक विज्ञानों के सबसे ‘मुख्य सिद्धान्तों का पालन करते हैं विशेषकर रसायन शास्त्र के सिद्धान्तों का, कि इस संसार में कोई भी वस्तु नष्ट नहीं होती, वरन् वह अनगिनत रूपों में बदलती रह सकती है। हेगल के मतानुसार युक्ति या आत्मा को छोड़कर जबकि वे अपना ध्येय प्राप्त कर लेते हैं प्रत्येक वस्तु की प्रवृत्ति में द्वन्द्व विद्यमान है । आत्मा के निरन्तर विकास में कुछ भी नष्ट नहीं होता। प्रो० ह्वेपर के शब्दों में, “द्वन्द्ववाद एक सिद्धान्त है जो यह स्पष्ट करता है कि कैसे इतिहास आत्मा के निरन्तर विकास की कहानी है। चूंकि आत्मा के सभी पहले कदम नए उठे कदमों में सुरक्षित रखे जाते हैं वह आत्मा के उत्तरोत्तर प्रकाशन की कहानी की अनिवार्य श्रृंखलाबद्धता पर जोर डालता है।”
अपने द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त में हेगल विरोधों को बहुत महत्व देते हैं जो उनके मतानुसार हमारे लिए सत्य के समझने में अनिवार्य है। हेगल के विचार में प्रत्येक विचार की दो गतियां ‘होती है-सकारात्मक तथा नकारात्मक । सकारात्मक गति अथवा वाद (थीसिस) में अस्पष्ट द्वन्द्व स्पष्ट हो जाते हैं। नकारात्मक गति अथवा प्रतिवाद में अस्पष्ट अभिकथन भी स्पष्ट हो जाते हैं। इन दोनों के संघर्ष के बाद इन दोनों में निहित सत्य की अभिपुष्टि तथा पुनर्वक्तव्य एक उच्चतर स्तर पर प्राप्त किया जाता है। “द्वन्द्वों का परिष्कार कर उन्हें एक नए सम्वाद में मिलाया जाता है।” इस प्रकार हेगल ने एक संश्लेषक तर्कशास्त्र का एक अभिनव सिद्धान्त प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार एक ही वक्तव्य एक ही समय सत्य और असत्य हो सकता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब तक आत्मा अपनी अन्तिम पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाएगी तब एक इस ब्रह्माण्ड को वस्तु में सत्य और असत्य दोनों में कुछ तत्व होंगे। “समीप वस्तुएं अपने आप में द्वन्द्वात्मक हैं।” वाद (थीसिस) तथा प्रतिवाद में यों कहिए, संघर्ष और विरोध के एक सम्बन्ध में-सीधी टक्कर हो जाती है। प्रत्येक को द्वन्द्वों के सम्वाद (सिन्थीसिज) में परिष्कृत होने से पहले अन्तिम परिणामों तक विकसित किया जाना चाहिए। विरोधों को कोई बाहरी शक्ति नहीं हटा देती। उनमें अन्तःस्थित युक्ति और केवल युक्ति ही विरोधों को हटाकर विकास को बढ़ावा देती है। विरोध अथवा द्वन्द्व इसलिए एक स्वयं निर्माण करने वाली स्वयं संचालन करने वाली प्रक्रिया है जिसकी आगे की गति को बनाए रखने के लिए किसी बाहरी शक्ति को सहायता आवश्यक नहीं है। संक्षेप में द्वन्द्व एक नई प्रक्रिया है जिससे विचार अपने आपको आगे बढ़ाता जाता है, अथवा एक साधन है जिसमें युक्ति स्वयं को संस्थाओं_अथवा इतिहास अथवा समाज के रूप में, अनेकों प्रस्थापनाओं की श्रृंखला में उत्तरोत्तर मूर्त बनाती है। उन प्रस्थापनाओं में पूरा सत्य नहीं होता परन्तु प्रत्येक में त्रुटि के साथ सत्य का अंश होता है। हेगल ने इस प्रणाली में जिस बात की पूर्ति की है वह सम्बाद (सिन्धीसिज) का एक तर्क है जो यह दिखाता है कि द्वन्द्व के ऊपर कैसे उठ सकते हैं और कैसे एक नया और बेहतर सत्य-वाक्य प्राप्त किया जा सकता है, एक ऐसा सत्य-वाक्य (Assertion) जो किसी भी प्रान्ति पहले के दो को भी मिला देता है। उन्होंने द्वन्दू शब्द को एक अभिनव अर्थ दिया है-अर्थात् विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया के आगे बढ़ाने वाली शक्ति-यह अर्थ तर्क विज्ञान के औपचारिक तथा पहले के सिद्धान्तों में कमी नहीं था। हेगल विश्लेषणात्मक तर्क विज्ञान की पुरानी प्रणाली को बड़े शान से दफना कर एक नई प्रणाली का, संश्लेषणात्मक प्रणाली का, आविष्कार करने का दावा करते हैं।
द्वन्द्ववाद केवल सत्य पर पहुंचने का तार्किक तरीका ही नहीं, अपितु वह जर्मनी का एकीकरण सम्पन्न करने और उसे एक महान् राष्ट्र बनाने का एक नैतिक हथियार भी है। सेबाईन ने ठीक ही कहा है, “द्वन्द्ववाद को वास्तव में तर्क विज्ञान की अपेक्षा नीतिविज्ञान के रूप में समझना और भी सरल है। खुले तौर पर उपदेशात्मक हुए बिना वह नैतिक प्रेरणा का सूक्ष्म तथा प्रभावोत्पादक रूप है। मनुष्य के सभी प्रभावयुक्त कार्यों की नींव में हेगल ने नैतिक सामंजस्य का जो बोध देखा था वह एक ही साथ निष्क्रिय और सक्रिय था; वह एक ही साथ त्याग तथा सहयोग है” वह किसी व्यक्ति की भावनाएं या युक्ति नहीं है, परन्तु एक व्यक्ति का संकल्प राष्ट्रीय संकल्प है जो संस्था के ढांचे में वांछित परिवर्तन ला सकता है जिससे किसी भी प्रकार का नैतिक लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। हेगल के विचार में सभी जर्मन-निवासियों के लिए ऐसा नैतिक लक्ष्य जर्मनी का एकीकरण प्राप्त करना था।
द्वन्द्ववाद ने एक ऐतिहासिक आवश्यकता की ही नहीं अपितु एक नैतिक आवश्यकता की भी पूर्ति की थी। दूसरे शब्दों में उसने लक्ष्यों की प्राप्ति की कल्पना केवल निरपेक्ष अर्थों में ही नहीं अपितु सापेक्ष अर्थों में भी की है। निरपेक्ष तथा दार्शनिक स्तर पर द्वन्द्ववाद का ध्येय आत्मा या गोस्ट या निरपेक्ष भाव या युक्ति का आत्म-साक्षात्कार था। परन्तु सापेक्ष अर्थों में व्यावहारिक एवं उपयोगितावादी अर्थों से, द्वन्द्ववाद का ध्येय जर्मन राष्ट्र का एकीकरण और उस जमाने के उस प्रशियन सम्राट का नेतृत्व था जिसका. हेगल दार्शनिक-पथप्रदर्शक था। हेगल ने यह दावा किया था कि द्वन्द्ववाद के सिवाय संसार को कोई भी दूसरी गतिशील अवधारणा इतने, लचीलेपन केज्ञसाथ निरपेक्षतावाद तथा सापेक्षतावाद का एकीकरण नहीं कर सकती थी। हेगल ने अपने दर्शन का ऐसे ढंग से विकास किया था ताकि उनके सापेक्ष अथवा उपयोगितवादी ध्येय निरपेक्ष ध्येयों में से तर्कपूर्ण रीति से प्राप्त किया जा सके।
उदाहरण के लिए हेगल का मत था कि जर्मनी एक राष्ट्र-राज्य बन जाएगा इसलिए नहीं कि जर्मनी की जनता इसकी इच्छा रखती परन्तु इसलिए कि वही आत्मा के ऐतिहासिक विकास का तार्किक परिणाम था और राजनीतिक विकास की सम्पूर्ण दिशा के अनुरूप भी था। अतः जर्मन-जनता के चाहते या न चाहते हुए भी जर्मन राष्ट्र-राज्य का आविर्भाव अवश्यम्भावी था। युक्ति या बृद्धि के विकास से वांछित ध्येय की प्राप्ति अवश्य ही होगी। अतः द्वन्द्ववाद ने बुद्धि और संकल्प को एक किया था। इसलिए द्वन्द्ववाद जैसे कि जोमिया रोमस कहते हैं, “पाशियो का तर्क विज्ञान” अथवा “विज्ञान तथा काव्य” का संयोग है। प्रो० सेबाईन के अनन्य शब्दों में, “हेगल का द्वन्द्ववाद वास्तव में ऐतिहासिक अन्तर्दृष्टि एवं यथार्थवाद का नैतिक (प्रेरणा) का, रोमानी आदर्शकरण का, तथा धार्मिक रहस्यवाद का एक कौतूहल-वर्धक संयोग है। प्रो० ह्वेपर ने भी कहा है कि हेगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त की खूबी यह थी कि वह एक ही साथ “अनिवार्यत: रूढ़िवादी तथा मूलतः क्रान्तिकारी दोनों है।” वह रूढ़िवादी था क्योंकि हेगल ने वास्तविक को युक्तियुक्त और उचित ठहराया था। वह इस अर्थ में क्रान्तिकारी था कि आत्मा हमेशा परिवर्तन की दशा में थी। सारे इतिहास में आत्मा हमेशा अपना रूप बदलती रही है। इस प्रकार हेगल का सिद्धान्त परिवर्तन का सिद्धान्त है और यह परिवर्तन हमेशा बेहतर स्थिति के लिए है और सुनिश्चित प्रगति की आशा है।
आलोचना–
(1) हेगल के रीति विज्ञान की प्रथम और सबसे प्रमुख आलोचना है कि दद्वन्द्रवाद बहुत अस्पष्ट एवं अनेकार्थक है। प्रो० सेबाईन के शब्दों में, “हेगल के द्वन्द्ववाद को सबसे स्पष्ट त्रुटि उसकी अत्यधिक अस्पाता थी। पदों के प्रयोग में अनेकार्थता तथा शब्दों को प्रदान की गई सामान्यकरण की बात तो छोड ही दीजिए जितनी परिभाषा करना अत्यन्त कठिन हो गया। ‘विचार’ ‘बन्द’ निरपेक्ष भाव नागरिक सपाज’ पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन’ इन शब्दों को उन्होंने वे अर्थ दिए हैं जैसा उनको वे देना चाहते थे। इन शब्दों और अन्य अनेक शब्दों को प्रयोग परम्परागत, अस्पष्ट तथा अनेकार्थी हैं। इन शब्दों के अर्थ भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होंगे। हेगल का द्वन्द्ववादी सिद्धान्त अतिसरलीकरणों तथा अति सामान्यकरणों से भरा पड़ा है। ऐतिहासिक विकास की किसी भी परिस्थिति के बाद प्रतिवाद (ऐंटी-थोसिस) या सम्वाद (सिंधीसिज) कहा जा सकता है ताकि वह पहले से निकाले हुए निष्कर्ष से मेल खा जाए।
(2) एक संश्लेषिक तर्कशास्त्र के रूप में वह जिसे हेगल अवबोध के तर्क शास्त्र का पूरक अथवा प्रतिस्थापक बनाना चाहते थे न तो सन्तोषजनक है और न ही प्रभावकारी। तार्किक द्वन्द्र की विधि से जैसे कि हेगल ने उसकी कल्पना की थी, यह अर्थ लिया जाता है कि एक ही प्रस्थापना एक ही समय सत्य और असत्य दोनों हो सकती हैं। हेगल के बाद मार्क्स के सिवायक्षकोई भी तार्किक इस प्रस्ताव को पूरी गम्भीरता से नहीं ले सका । शोपेन हावर (Schopenhaver) ने स्पष्ट किया है कि हेगल का द्वन्द्ववाद वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित नहीं है। यदि वह वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित हुआ होता तो इससे दो विचारकों के जिन्होंने इस तर्क को अपनाया निष्कर्ष अलग-अलग न होते । इस तार्किक तरीके से हेगल ने राज्य को पृथ्वी पर ईश्वर का आगमन कहक उसकी पूजा की जबकि मार्क्स ने उसे शैतान कह कर उसकी निन्दा की।
(3) हेगल के द्वन्द्ववादी तथा ऐतिहासिक तरीके के अनुसार इतिहास की गति पहले से ही निश्चित है । पो० लंकैस्टर के शब्दों में यह द्वन्द्ववादी तरीके का अनुसरण करने का एक अनिवार्य परिणाम है कि व्यक्तिगत इच्छाओं तथा वरीयताओं को सहज सनक कह दिया गया है मानव इतिहास के अभिनेता मनुष्य नहीं, परन्तु विशाल अवैयक्तिक शक्तियां हैं। व्यक्ति के प्रयत्न को इतिहास के विशाल वितान में कोई श्रेय मिलने के लिए विश्व इतिहास के द्वन्द्ववादी दिग्दर्शन के अनुकूल चलना चाहिए। इतिहास की निष्पक्ष एवं तटस्थ दृष्टि हेगल के सिद्धान्त को प्रभाषित नहीं करती। विशेष व्यक्तियों की इच्छाओं, अभिलाषाओं, सनकों, समयानुकूल हस्तक्षेपों और प्रयासों ने इतिहास की पूरी गति को बदल दिया है। हेगल ने अपने ही जमाने में अपनी आंखों के सामने नैपोलियन जैसे साधारण पुरुष को नाटकीय ढंग से ऐश्वर्य के उन्नत शिखर तक उठते और वहां से गिरते देखा था। इतिहास की गति को बदलने में उनकी इच्छा शक्ति का हिस्सा कितना बड़ा था वह भी उन्होंने देखा था। विास्तव में व्यक्ति को अनुभवातीतता पर उनका जोर देना नैपोलियन युगीन तथा नेपोलियन-उत्तर युग के अति अणुवाद तथा व्यक्तिवाद एक उपयोगी के शोधक के रूप में ही आया था। परन्तु हेगल भी उसे दूसरी ओर उस सीमा तक लिए जाते हैं जहां वैयक्तिक मूल्य गायब हो जाते हैं।
(4) द्वन्द्ववाद एक दुधारी तलवार थी जिसका प्रयोग हेगल ने रूढ़िवादी के हथियार के रूप में लिया था जबकि मार्क्स और एजेल्स के हाथों में वह क्रान्तिकारी साम्यवाद लाने का उपकरण बन गया था।
(5) प्रो. जोड (Joad) ने स्पष्ट किया है, हेगल को अपना ही तर्क परास्त कर देता है। हेगल के विचार में ऐतिहासिक विकास द्वन्द्ववादी प्रक्रिया जर्मनी जैसे राष्ट्र राज्य में पूर्णता को पाएगा। तदनन्तर ऐतिहासिक विकास का अन्त हो जाएगा। हेगल का यह सिद्धान्त गलत था। ऐतिहासिक विकास का कभी अन्त नहीं होता। सभी राष्ट्रों की आर्थिक अन्तर्निर्भरता का पहले से अधिक विकास तथा राष्ट्र संघ संयुक्त राष्ट्र संगठन आदि विश्व संगठनों का आविर्भाव हेगल के तर्क विज्ञान को झूठा सिद्ध करते हैं।
(6) जैसे सेबाईन ने स्पष्ट किया है, जर्मनी के राष्ट्र राज्य के तर्कसंगत आविर्भाव सम्बन्धी हेगल का सिद्धान्त कि वह द्वन्द्ववादी तर्क में ही अद्भुत हुआ था सही नहीं था ! राष्ट्रीयता के सम्बन्ध में हेगल का सिद्धान्त द्वन्द्ववाद का परिणाम नहीं था, परन्तु समसामयिक फ्रांस की क्रान्ति से ही पैदा हुआ था। यदि द्वन्द्ववाद राष्ट्र-राज्य का तर्क संगत आधार बन सकता तो मार्क्स के हाथों में सैद्धान्तिक तौर पर ही सही राष्ट्र राज्यों के उन्मूलन का आधार बन सकता था। अतः हेगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त तथा राष्ट्र राज्य में अनेक विरोधी हैं।
(7) वैसे तो तर्क मनुष्य के सभी कार्यकलापों का आधार नहीं बन सकता । मानव प्रकृति जैसी कि वह होती है, मनुष्य के कार्यकलापों का 9/10 हिस्सा संवेगों से संचालित होता है और 1/10 हिस्सा ही युक्ति और तर्क के आदेश से होता है। व्यक्तियों के और राज्य के अतीत के अनुभव का भी मानव विकास में एक गौरवपूर्ण स्थान है। जैसे जस्टिस होल्मज ने विधि के बारे में कहा है वैसे मनुष्य के सभी कार्यकलापों में अनुभव ही तर्क से अधिक महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हेगल के द्वन्द्ववादी सिद्धान्त तथा ऐतिहासिक तरीके में असंगतियां हैं। वह तरीका इतना अमूर्त था कि समजा विज्ञानों के अध्ययन में उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता था। परन्तु सामाजिक परिवर्तन के एक व्यावहारिक उपकरण के रूप में उसने इतिहास का निर्माण किया है क्योंकि मार्क्स ने उसे अपनाया था और उसे उल्टा खड़ा करके अपने साम्यवादी क्रान्ति का आधार बनाया था। हेगल का अमरत्व सुनिश्चित हो गया है क्योंकि उनके तरीके का एक ऐसे सिद्धान्त में प्रयोग किया गया है जो वर्तमान विश्व-जनसंख्या के आधे से भी अधिक हिस्से का आधिपत्य बनाए हुए हैं।
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