न्यायपालिका क्या है ? | न्यायपालिका का महत्त्व | न्यायपालिका का संगठन | न्यायपालिका के कार्य | न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
न्यायपालिका क्या है ? | न्यायपालिका का महत्त्व | न्यायपालिका का संगठन | न्यायपालिका के कार्य | न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
न्यायपालिका क्या है ?
यदि न्यायाधीशों में प्रतिभा, सत्यतां और निर्णय देने की स्वतन्त्रता न हो तो न्यायपालिका का सारा ढाँचां खोखला प्रतीत होगा और उस ऊँचे उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी. जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।” गार्नर के इस कथन के संदर्भ में न्यायपालिका की स्वाधीनता महत्व तथा इस स्वाधीनता की प्राप्ति के साधनों की विवेचना कीजिये।
महत्त्व (Importance)
लोकतन्त्र में न्यायपालिका का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि किसी राष्ट्र की व्यवस्थापिका और कार्यपालिका तो सुचारु रूप से कार्य कर रही है किन्तु स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका न हो तो उस देश में सच्चे अर्थ में संवैधानिक सरकार नहीं है। नागरिकों का हित शीघ्र और निष्पक्ष न्याय में निहित है। प्रत्येक नागरिक एक प्रभुतासम्पन्न सरकार से यह आशा रखता है तथा वह उसके हितों की रक्षा करे उसे कि सुरक्षा प्रदान करे। इस सुरक्षा का सर्वोत्तम साधन है—एक सुसंगठित और स्वतन्त्र न्यायपालिका।
कानूनों का सर्वत्र पालन कराने हेतु और उनके उल्लंघन करने वाले को दण्डित करने के लिए एक निर्भीक तथा निष्पक्ष न्यायपालिका का होना आवश्यक है। सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु कानून ही सर्वाधिक सक्षम साधन है। आज के युग में न्यायपालिका का महत्त्व और भी बढ़ गया है। क्योंकि इसकी आवश्यकता न केवल पारस्परिक अभियोगों के निबटाने में पडती है अपितु उन विवादों का भी निर्णय करती है जो व्यक्तियों तथा राज्यों अथवा राज्यों- राज्यों के मध्य उत्पन्न हो जाते हैं। यह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों की रक्षा तथा उसका व्यवस्थाओं का स्पष्टीकरण करती है।
संगठन (Organization)-
प्रत्येक लोकतन्त्र राष्ट्र में एक सर्वोच्च न्यायालय होता है। इसके अधीन बहुत से राज्य स्तर के उच्च क्षेत्रीय और जिला न्यायालय होते हैं। इस प्रकार के न्याशालय प्रायः श्रृंखलाबद्ध होते हैं। इनमें सबसे निम्न स्तरं का न्यायालय छोटे-छोटे विषय की और उच्च न्यायालय विशिष्ट तथा पेंचीदे विवादों की सुनवाई करता है। अनेक देशों में दीवानी और फौजदारी अभियोगों के लिए अलग-अलग न्यायालय होते हैं जबकि कुछ देशों में एक ही न्यायालय में दोनों प्रकार के अभियोगों को चलाया जा सकता है
प्रत्येक राज्य सामान्य न्यायालयों के अतिरिक्त विशिष्ट उद्देश्यों के लिए भी स्थापना करता है; जैसे-सैनिक न्यायालय आदि।
भारत में न्यायपालिका का संगठन समन्वित रूप में है। देश के सबसे बड़े न्यायालय को उच्चतम न्यायालय कहते हैं, जिसके अधीन राज्यों के उच्च न्यायालय होते हैं। राज्य के निम्न- स्तरीय न्यायालय उस राज्य के उच्च न्यायालय के अधीन होते हैं। उच्च न्यायालय के निर्णयों की अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है।
कार्य (Functions)-
साधारणतया न्यायपालिका का कार्य कानूनों की व्यवस्था और सम्पादन करना है। किन्तु न्यायपालिका द्वारा अन्य कार्य भी सम्पादित किये जाते हैं जो निम्नलिखित हैं:-
(1) कानूनों की व्याख्या करना- न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या तथा उन्हें लागू करती है।
(2) नागरिक अधिकारों को संरक्षण- न्यायपालिका संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत्त वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की रक्षा करता है।
(3) संविधान का संरक्षक- न्यायपालिका संविधान की संरक्षक होती है। संविधान की धाराओं का अर्थ और उसके अनुरूप उसका कार्यान्वयन की उपयुक्तता को देखना न्यायपालिका का कार्य है।
(4) परामर्शसम्बन्धी कार्य- अनेक देशों में न्यायपालिका वहाँ के राज्याध्यक्षों को वैधानिक प्रश्नों पर परामर्श देती है।
(5) अन्य प्रकार के कार्य- उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त विभिन्न देशों में न्यायपालिका के कुछ अन्य कार्य भी होते हैं।
(i) अल्पवयस्कों की सम्पत्ति के लिए ट्रस्टी नियुक्त करना ।
(ii) नागरिक विवाहों की स्वीकृति देना।
(iii) कम्पनियों हेतु रिसीवर नियुक्त करना।
(iv) विभिन्न प्रकार के लेख और आदेश जारी करना ।
(v) विदेशियों को राज्यकृत नागरिक बनाने हेतु प्रमाणपत्र देना।
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
(Independence of Judiciary)
आधुनिक युग में न्यायपालिका एक विशेष स्थान रखती है। राज्य की श्रेष्ठता न्यायपालिका पर निर्भर है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायाधीशों को निष्पक्ष, ईमानदार और न्याय करने में स्वतन्त्र होना चाहिए। यदि न्यायपालिका स्वतन्त्र नहीं होगी और न्यायाधीश निर्भीक रूप से निर्णय नहीं दे सकेंगे तो नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं हो सकेगी। न्यायपालिका को अपने कार्यों में किसी भी अभाव तथा दवाव से मुक्त होना चाहिए। अतः न्यायपालिका स्वतन्त्र तब होगी जबकि न्यायाधीशों की नियुक्ति की पद्धति अच्छी हो। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं:-
(1) कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति- न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा होनी चाहिए न कि जनता या विधानमण्डल द्वारा निर्वाचन ।
(2) लम्बी पदावधि- न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए न्यायाधीश की नियुक्ति लम्बी अवधि के लिए होनी चाहिए।
(3) न्यायाधीशों की सेवा सुरक्षा- न्यायाधीशों को नौकरी की सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे कार्यपालिका के भय से मुक्त रह कर स्वतन्त्र निर्णय दे सकें।
(4) न्यायाधीशों की योग्यताएँ- न्यायाधीशों के पदों पर योग्य और प्रसिद्ध विधिवेत्ता नियुक्त किये जाने चाहिए।
(5) उच्च वेतन एवं सुविधाएँ- न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि न्यायपालिका को पर्याप्त वेतन दिया जाय।
(6) न्यायपालिका और कार्यपालिका के कार्यों का पृथक्करण- माण्टेस्क्यू ने इस बात पर बल दिया है कि न्यायपालिका कार्यपालिका के नियन्त्रण से सदैव मुक्त होनी चाहिये। कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के कार्य एक-दूसरे से पृथक् एवं स्पष्ट होने चाहिए। न्याय और शासन हेतु अलग-अलग संस्थाओं का होना आवश्यक है ताकि न्यायपालिका स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सके।
(7) न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के पश्चात् लाभ का पद प्राप्त करने पर रोक- नन्यायपालिका की निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों पर पदमुक्त होने के पश्चात् लाभ का पद प्राप्त करने पर रोक होनी चाहिए।
अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया सुनियोजित हो, उनका सेवाकाल लम्बा हो उनकी योग्यता उच्चस्तर की हो, पदच्युति का भय न हो और पदच्युति कठिन हो। वे योग्य और कर्मठ हों और उनको अच्छा वेतन मिलना चाहिए।
भारत में उपर्युक्त सभी बातों का ध्यान न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने हेतु रखा गया है और यही कारण है कि भारत की न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष है। यह संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम भी है।
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