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मानसिक अस्वस्थता के कारण | मानसिक अस्वस्थता का उपचार | साधारण मानसिक अस्वस्थता का उपचार | गम्भीर मानसिक अस्वस्थता का उपचार

मानसिक अस्वस्थता के कारण | मानसिक अस्वस्थता का उपचार | साधारण मानसिक अस्वस्थता का उपचार | गम्भीर मानसिक अस्वस्थता का उपचार

मानसिक अस्वस्थता के कारण

संसार का हर प्राणी मानसिक दृष्टि से कुछ-न-कुछ अस्वस्थ होता है क्योंकि मनुष्य की क्षमताएँ सीमित होने के कारण कहीं-न-कहीं उसे असफलता मिलती है और फलस्वरूप उसे असंतोष मिलता है। यदि गम्भीरतापूर्वक हम विचार करें तो मानसिक अस्वस्थता के निम्नलिखित कारण समझ में आते हैं-

(1) शारीरिक कारण- मानसिक अस्वस्थता का एक कारण शारीरिक अस्वस्थता है। किसी असाध्य रोग जैसे क्षय, कैन्सर, संग्रहणी आदि से पीड़ित व्यक्तियों की शारीरिक क्षमता बहुत घट जाती है। वे स्वभाव से चिड़चिड़े, निराश और दुःखी हो जाते हैं क्योंकि वे जीवन से निराश हो जाते हैं। शरीर के अन्दर स्थित अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के ठीक कार्य न करने के कारण भी लोगों में मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं।

(2) वंशानुक्रमणीय कारण- कुछ विशिष्ट मानसिक रचनाएँ जो व्यक्ति वंशानुक्रम से प्राप्त करते हैं मानसिक अव्यवस्था और विकार उत्पन्न करती हैं। रक्त की कुछ विशेषताएँ जो व्यक्ति वंशानुक्रम से प्राप्त करते हैं, मानसिक विकार को उत्पन्न करने के लिए उत्तेजक दशाएँ शरीर में पैदा कर देती हैं। इसके अतिरिक्त मानसिक रोग एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रमिक होते रहते हैं।

(3) पारिवारिक कारण- व्यक्ति के विकास पर परिवार का प्रभाव बहुत अधिक पडता है! 5-6 वर्ष की आयु तक बालक परिवार के वातावरण से बहुत प्रभावित होता है। शैशवावस्थ में शिशु का पालन-पोषण जिस ढंग से होता है वह उसके मानसिक स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित करता है। ऐसे घर जहाँ माता-पिता लड़ते-झगड़ते रहते हैं अथवा ऐसे परिवार जो भग्न हैं जिनमें माता या पिता या दोनों का अभाव हो या विमाता या विपिता की उपस्थिति है, बालक को पूरा स्नेह और प्यार नहीं मिल पाता। उसकी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। इसलिये उसमें पारिवारिक कारणों से मानसिक- अस्वस्थता उत्पन्न हो जाती है।

(4) विद्यालयीय कारण- ऐसे विद्यालय जहाँ मनोवैज्ञानिक विधियों से शिक्षण नहीं किया जाता और बालकों को कठोर अनुशासन में रहना पड़ता है, सदैव डाँट-फटकार और मार पड़ती रहती है और उन्हें तरह-तरह के कठोर दण्ड मिलते हैं अथवा अध्यापकों में आपसी कलह और द्वेष के कारण तनाव बना रहता है, बालकों का मानसिक स्वास्थ्य खराब हो जाता है। कुछ अध्यापक अपने स्वार्यों को पूरा करने के लिए लड़कों को आपस में या किसी अन्य अध्यापक से लड़ा देते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों का मानसिक संतुलन बिगड़ने का उत्तरदायित्व विद्यालयों पर भी है।

(5) सामाजिक कारण- कभी-कभी समाज के विरोधी तत्त्व व्यक्ति को पर्याप्त मान्यता नहीं प्रदान करते, उसके कार्यों और विचारों का विरोध होता है। कभी-कभी कुछ स्वार्थी और अत्याचारी लोग निर्दोष व्यक्तियों का भारी नुकसान कर देते हैं। जीवन की जटिलता के कारण मनुष्य का जीवन तनावपूर्ण होता जा रहा है। आवश्यकताओं की वृद्धि से मानव कुण्ठा और तनाव का शिकार हो गया है। इनसे मानसिक अस्वस्थता का जन्म होता है।

(6) जीवन की विषम परिस्थितियाँ- जीवन में मनुष्य को अनेक बार निराशा एवं असफलताओं का सामना करना पड़ता है। किसी को व्यवसाय में सफलता नहीं मिलती तो किसी को प्रेम में सफलता नहीं मिलती। कोई आर्थिक संकट से ग्रस्त है तो कोई अपनी सामाजिक स्थिति से सन्तुष्ट नहीं है। इनका व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और उसमें समायोजन के दोष उत्पन्न हो जाते हैं।

(7) आर्थिक कारण- निरन्तर गरीबी में पलने वाले व्यक्ति की अनेक इच्छायें पूरी नहीं हो पाती जिससे उनमें मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न हो जाती है और उसका मानसिक- सन्तुलन बिगड़ जाता है। उसके विरुद्ध अत्यधिक धन होने से व्यक्ति में वेश्यागामी या जुआ खेलने या शराब पीने की लत पड़ जाती है जिससे उसमें मानसिक असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। अचानक गरीब से धनाढ्य होना या धनी से निर्धन हो जाना भी असन्तुलन उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार आर्थिक कारणों से मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न होती है।

(8) संवेगात्मक कारण- मनोवैज्ञानिकों की खोजों के अनुसार संवेग मनोविकारों के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी संवेग होते हैं। मनुष्य में अनेक मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं जो किसी-न-किसी संवेग से सम्बन्धित होती हैं। उनमें से कुछ प्रवृत्तियाँ और तत्संबंधित संवेग अधिक प्रबल होते हैं, जैसे काम-वासना का संवेग, क्रोध, भय आदि । इसके अवदमन, या व्यक्ति में केन्द्रीकरण हो जाने से मानसिक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। किसी भी संवेग की अतिशयता शरीर में, ग्रन्थियों की क्रियाशीलता तथा रक्त की रचना में स्थायी परिवर्तन उत्पन्न करती है जो मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़ देते हैं।

(9) सांस्कृतिक कारण- समाज की सांस्कृतिक परम्परायें व्यक्ति की इच्छाओं की पूर्ति पर रोक-टोक लगाती हैं। व्यक्ति को अक्सर अपने ऊपर दबाव डाल कर अपनी प्रवृत्तियों को रोकना पड़ता है और जबरदस्ती कुछ कार्य करने पड़ते हैं। इस प्रकार सांस्कृतिक कारणों से मनोविकार उत्पन्न होते हैं।

(10) भौगोलिक कारण- कुछ भौगोलिक कारण ऐसे होते हैं जिनसे लोग अपना समायोजन नहीं कर पाते। किसी ठंडे प्रदेश से गर्म जलवायु में आये हुए लोगों के लिए वह जलवायु असह्य होती है। उनकी कार्यक्षमता कम हो जाती है, उनका हाजमा खराब हो जाता है और वे बीमार रहने लगते हैं। इस प्रकार उनका मानसिक स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है। अधिक रक्तचाप वाले लोगों को डाक्टर समुद्री तट पर चले जाने की राय देते हैं, और कम चाप वाले को पर्वत पर जाने के लिए क्योंकि जिस स्थान पर वे रहते हैं वहाँ की जलवायु उनके अनुकूल नहीं रह जाती और वह उनमें शारीरिक तथा मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करती है।

मानसिक अस्वस्थता का उपचार

मनुष्यों में पाई जाने वाली मानसिक अस्वस्थता के उपचार में दो बातें शामिल हैं-(1) मानसिक अस्वस्थता का निदान (Diagnosis) | (2) उपचार (Treatment)| इनमें से प्रत्येक पर अलग-अलग विचार करना आवश्यक है।

(अ) मानसिक-अस्वस्थता का निदान- इसके अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि व्यक्ति को किस प्रकार की मानसिक अस्वस्थता है और उससे व्यक्ति को कितनी क्षति पहुंची है। यह भी मालूम किया जाता है कि व्यक्ति की मानसिक-अस्वस्थता का कारण क्या है ? मानसिक अस्वस्थता के कारण और प्रकार को समझने के लिए व्यक्ति से सम्बन्धित निम्नलिखित सूचनायें प्राप्त करने की कोशिश की जाती है-

(1) शारीरिक दशा- व्यक्ति के विभिन्न अंगों का स्वास्थ्य और कार्य क्षमता तथा रोग की उपस्थिति।

(2) परिवार की दशा- माता-पिता की स्थिति, उनके परस्पर सम्बन्ध, परिवार के अन्य सदस्य, उनके शारीरिक और मानसिक विकारों की स्थिति, परिवार की एकता या भग्नता इत्यादि।

(3) शैक्षिक स्तर- रोगी ने कितनी शिक्षा पाई है, किस प्रकार का अध्ययन किया है और उसकी संप्राप्ति का स्वरूप कैसा रहा है।

(4) आर्थिक दशा- रोगी के परिवार के सदस्यों और उसकी अपनी वर्तमान आर्थिक दशा भूतकाल में उसकी अपनी और उसके माँ-बाप इत्यादि की आर्थिक स्थिति ।

(5) व्यावसायिक दशा- रोगी क्या-क्या व्यवसाय करता रहा है और उनमें कार्य की दशायें क्या रही हैं तथा उसने कितनी सफलता पायी है। रोगी की वर्तमान व्यावसायिक स्थिति और तज्जनित संतोष या असंतोष ।

(6) सामाजिक दशा- रोगी के सामाजिक सम्पर्क और सामाजिक कार्य, समाज में उसकी मान्यता और उसके कार्यों की स्वीकृति ।

(7) मानसिक दशा- रोगी की बुद्धि और अन्य सामाजिक योग्यताओं का स्तर ।

(8) व्यक्तित्व की अन्य विशेषतायें- रोगी के व्यक्तित्व की अन्य विशेषताओं की भी चिकित्सक को खोज करनी चाहिये जिनमें उसकी रुचियाँ, अरुचियाँ इत्यादि भी शामिल होती हैं।

उपर्युक्त सभी सूचनायें जो रोगी के विषय में प्राप्त करनी होती हैं, निम्नलिखित विधियों से प्राप्त की जानी चाहिये-

(i) साक्षात्कार, (ii) प्रश्नावली, (iii) निरीक्षण, (iv) डॉक्टरी यन्त्रों से शारीरिक जाँच, (v) जीवन-वृत्त, (vi) व्यक्तित्व परिसूची, (vii) विद्यालय के सामूहिक अभिलेख, (viii) मनोवैज्ञानिक परीक्षण जिनसे बुद्धि और मानसिक योग्यताओं की जाँच होती है, (ix) प्रक्षेपण विधियाँ, (x) प्रयोगात्मक विधि, (xi) सामान्य सेवाओं का आलेख ।

(ब) मानसिक अस्वस्थता का उपचार- उपचार की दृष्टि से मानसिक अस्वस्थता को दो कोटियों में रखा जा सकता है- (अ) साधारण मानसिक अस्वस्थता, (ब) गम्भीर मानसिक अस्वस्थता।

साधारण मानसिक अस्वस्थता का उपचार

कम गम्भीर या साधारण मानसिक रोगी के लिए सामान्य विधियों का प्रयोग किया जाता है। इस दृष्टि से साधारण मानसिक रोग है-मनस्ताप, व्यवहार सम्बन्धी दोष, साधारण मानसिक रोग और समायोजन-दोष है। इनके उपचार में आवश्यकतानुसार निम्नलिखित विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-

(1) उन्नयन- जिस प्रकृति या संवेग से रोग का सम्बन्ध हो उराका स्तर ऊँचा उठाकर उसे किसी ऊँचे उदेश्य से जोड़ देना चाहिये ।

(2) सुझाव- रोगी को सीधे-सीधे सुझाव देकर यह बताना कि उसे क्या करना और सोचना चाहिये । उसकी भ्रान्तियों के सम्बन्ध में भी उसे समझाया जा सकता है।

(3) पुनर्शिक्षण- रोगी के सामने आने पर पहले चिकित्सक उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयास करता है और साथ-ही-साथ उसमें आत्मनियंत्रण की शक्ति भी उत्पन्न करता है। इसके लिए वह संसूचन, उपदेश और व्यावहारिक शिक्षा का सहारा लेता है। जब उसमें आत्मविश्वास आसानी से नहीं उत्पन्न होता तो उसे दूसरे व्यक्ति, किसी अन्य समूह या दैवी-शक्ति में विश्वास करने के लिए प्रेरित किया जाता है। कोमल और दुर्बल व्यक्तियों को इस विधि से शिक्षित करना सरल है। इसकी सफलता रोगी द्वारा हुए सहयोग पर निर्भर होती है।

(4) विश्राम- कहा जाता है कि विश्राम का स्थान कोई भी दवा या चिकित्सा नहीं ले सकती। इसलिए विश्राम स्वयं एक दवा है, चिकित्सा की विधि है। ऐसे रोगी जिनका मानसिक संतुलन अत्यधिक कार्य-भार, थकावट, तनाव और उलझनों से बिगड़ जाता है तथा जिनका पोषण ठीक से नहीं होता वे कोलाहल, शोरगुल, व्यस्तता और उत्तेजनाओं से दूर किसी एकाकी स्थान में रहने से और सुख-सुविधा प्रदान करने से तथा पौष्टिक भोजन देने से ठीक हो जाते हैं।

(5) निद्रा- इस विधि का प्रयोग तब किया जाता है जब किसी आकस्मिक दुर्घटना या आघात के कारण मानसिक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशा में औषधि देकर रोगी कई दिनों तक सुलाये रखा जाता है। लेकिन शारीरिक क्षमता और शक्ति कायम रखने के लिए ताकत के इन्जेक्शन लगाये जाते हैं। सब कुछ ठीक रहने पर रोगी को एक लम्बे अरसे तक सोने दिया जाता है। जब रोगी सोकर उठता है तो स्वस्थ पाया जाता है।

(6) सामूहिक चिकित्सा- इसमें एक साथ 10 से 30 रोगियों की चिकित्सा की जाती है। एक समूह में एक प्रकार के रोग वाले सभी समलिंगी रोगी होते हैं। पहले चिकित्सक (जिसका योग्य और नीरोग होना आवश्यक होता है) रोगियों से आत्मीकरण करता है, उनकी समस्याओं को स्वयं समझने का प्रयास करता है, उनका विश्वास प्राप्त करता है। फिर इस प्रकार की प्रेरणा देता है कि एक रोगी अपनी समस्या या कठिनाई दूसरे से कह दें और दूसरे की समस्या को स्वयं सुनें। सभी रोगी परस्पर एक दूसरे की समस्या से जब परिचित हो जाते हैं तो उनमें एक दूसरे के प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है तथा अपने समान अन्य पीड़ितों को देखकर संतोष का अनुभव करते हैं। फिर सभी मिलकर उस समस्या को सुलझाने का प्रयास करते और नये सिरे से अभियोजन प्राप्त करते है।

(7) संगीत- संगीत के अनेक राग और धुनें मानसिक तनाव को कम करने में सहायक होती हैं। संगीत सुनने से रोगी के उत्तेजिक स्नायुओं को विश्राम मिलता है और उनकी पाचन-क्रिया, रक्त-चाप और संवेगात्मक उत्तेजना सामान्य हो जाती है। भारत में इसका प्रचार बहुत प्राचीन काल से है।

(8) खेल द्वारा शिक्षा- रोगी को स्वतन्त्र रूप से स्वेच्छापूर्वक तरह-तरह के खेल खेलाये जाते हैं। इससे उनकी विचार की दिशा बदल जाती है। खेलों में जीतने पर उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ता है। बहुत काल तक दबाव में रहने वाले व्यक्तियों के लिए इसका बड़ा उपयोग है। बालकों के लिए यह विशेष रूप से उपयोगी है।

(9) व्यावसायिक चिकित्सा- ऐसे रोगी जिनके पास कम काम होता है जो खाली बैठे-बैठे उल्टे-पुलटे विचार मन में लाते हैं, इस चिकित्सा से काफी लाभ उठाते हैं। उनके लिए कपड़ा बुनना, चटाई बनाना, टोकरी बनाना, चित्रकारी, रंगाई आदि कार्यों का चयन करके जब उन्हें कार्य में लगा दिया जाता है तो उनके अनेक सामान्य मानसिक रोग ठीक हो जाते हैं। कार्य में लग जाने पर सहयोग, मैत्री, प्रेम, सहनशीलता आदि गुण उसमें उत्पन्न होते हैं जो मानसिक तनाव को काफी कम कर देते हैं। इससे रोगी की शक्ति का सदुपयोग होता है और उसमें आत्मविश्वास होता है।

(10) ग्रन्थ-विधि- कुछ लोगों ने विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगों के बालकों और व्यक्तियों के लिए पुस्तकों की रचना की है। शिक्षित व्यक्ति या बालक जब किसी प्रकार के मानसिक रोग से पीड़ित होते हैं तो चिकित्सक उन्हें तत्सम्बन्धित पुस्तक पढ़ने को दे देता है। उस पुस्तक को पढ़ने से मानसिक तनाव कम होता है और मानसिक चिकित्सक को रोगी के रोग को और भी विस्तार से समझने का अवसर मिलता है। इसके बाद उपयुक्त निर्देशन से चिकित्सा रोगों को ठीक कर देता है।

(11) मनोभिनय- यह विधि सामूहिक विधि से मिलती-जुलती है। सामूहिक विधि की भाँति इसमें भी कई रोगियों का एक साथ उपचार किया जाता है। किन्तु सामूहिक विधि में रोगी परस्पर एक दूसरे को अपनी समस्या का हल बताते हैं जबकि इस विधि में वे अभिनय द्वारा अपनी समस्या का प्रकाशन स्वतन्त्र रूप से करते हैं। इससे समस्या का रेचन हो जाता है। आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक निर्देशन भी करता है।

(12) सम्मोहन- सम्मोहन एक क्रिया है जिससे चिकित्सक रोगी को कुछ समय के लिए अचेत कर देता है। रोगी को एक आराम कुर्सी पर खूब विश्रामपूर्वक बैठाकर उसे किसी दृष्टात्मक या ध्वन्यात्मक उत्तेजना पर ध्यान को केन्द्रित करने के लिए कहा जाता है। उसे तरह-तरह से संसूचित करके अचेत कर दिया जाता है। इसके बाद चिकित्सक रोगी से अपने जीवन की भूतकाल की उन अनुभूतियों को कहने का आदेश देता है जो उसकी स्मरण शक्ति से लुप्त हो जाती है। रोगी चिकित्सक के आदेशों का पालन करता है और अनुभूति के स्मरण मात्र से उसका रोग समाप्त हो जाता है।

किन्तु इस विधि का प्रभाव अल्पकालीन होता है क्योंकि रोग दूर नहीं होता केवल लक्षण ही दूर होते हैं। इसके अलावा कभी-कभी रोगी चिकित्सक पर अनुचित व्यवहार का आरोप लगाते हैं। इन कारणों से इस विधि का प्रयोग अब बहुत कम हो गया है।

(13) मनो-विश्लेषण (Pyscho-analysis)-  सम्मोहन विधि की कमियों को ध्यान में रखते हुए फ्रायड (Freud) ने मनोविश्लेषण विधि का आविष्कार किया। इसमें पहले चिकित्सक रोगी को एक आराम कुर्सी पर अर्धप्रकाशित कमरे में इस प्रकार बैठाता है कि वह रोगी की क्रियाओं का पूर्ण रूप से अध्ययन और निरीक्षण कर सके लेकिन रोगी उसे देख न सके। फिर वह रोगी से ऐसा व्यवहार करता है कि रोगी उसके ऊपर पूर्ण विश्वास करने लगता है।

प्रारम्भ में रोगी में प्रतिरोध की अवस्था रहती है। वह चिकित्सक से कुछ भी नहीं कहना चाहता। चिकित्सक उत्तेजक शब्दों को प्रस्तुत करके रोगी से अपने पूर्व के अनुभवों को कहने के लिए प्रेरित करते हैं।

इसके बाद स्थानान्तरण की अवस्था आती है जिसमें या तो रोगी चिकित्सक को खूब गाली देता है और भला-बुरा कहता है या फिर चिकित्सक पर मुग्ध हो जाता है और उसकी आज्ञाओं और आदेशों का पालन करने लगता है।

धीरे-धीरे चिकित्सक रोगी की वास्तविकता की जानकारी करता है और रोगी अपने बारे में सब कुछ चिकित्सक को बता देता है। उसकी उलझने समाप्त हो जाती हैं। इस विधि की उपयोगिता शिक्षित बुद्धिमान लोगों के लिए भी है।

गम्भीर मानसिक अस्वस्थता का उपचार

गम्भीर मानसिक रोगों से पीड़ित रोगियों का उपचार आसानी से नहीं होता। उनके लिये निम्नलिखित जटिल विधियों का प्रयोग किया जाता है-

(1) आघात-विधि- यह विधि कष्ट देकर मनोविकृतियों को ठीक करने के सिद्धान्त पर आधारित है। यह बड़ी प्राचीन पद्धति है। पहले कार्बन-डाइआक्साइड और ओषजन के मिश्रण को सुंघाकर रोगी को आघात पहुँचाया जाता था। इससे क्षणिक लाभ होता था। इसके बाद इन्सुलिन के इन्जेक्शन से आघात किया जाने लगा। अधिक मात्रा मेंक्षइन्सुलिन एन्जेक्ट कर देने से रोगी अचेत हो जाता है और धीरे-धीरे चेतनावस्था में लाया जाता है। रोगी को लगभग 15 से 60 तक आघात दिये जाते हैं। कपूर और मेटाजाल के द्वारा भी आघात पहुँचाया जाता है लेकिन इससे होने वाली हानियों के कारण अब विद्युत आघात दिये जाते हैं।

(2) रासायनिक विधि- कुछ औषधियों द्वारा जो रक्त की रचना और मस्तिष्क की रचना पर प्रभाव डालती हैं। मनोविकृतियों को ठीक करने का प्रयास किया जाता है।

(3) मनोशल्य चिकित्सा (Psycho-Surgery)-  इस विधि के अन्तर्गत मस्तिष्क पर शल्य-क्रिया करके थैलेमस और फ्रण्टल लोब के सम्बन्ध का विछेद कर दिया जाता है जिससे अनेक मानसिक उन्माद और विकृतियाँ ठीक हो जाती हैं किन्तु इससे अन्य मानसिक असामान्यतायें भी उत्पन्न हो जाती हैं। इस प्रकार रोगी की स्थिति में सुधार अवश्य हो जाता है किन्तु पूर्ण उपचार नहीं हो पाता।

इसके अलावा निद्र-वधि, मनोविश्लेषण-विधि या अन्य किसी चिकित्सा प्राणाली का प्रयोग भी आवश्यकतानुसार गम्भीर रोगियों पर किया जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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