शिक्षाशास्त्र / Education

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का क्षेत्र | विद्यालयी बालक की व्यवहार सम्बन्धी समस्यायें

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का क्षेत्र | विद्यालयी बालक की व्यवहार सम्बन्धी समस्यायें

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का क्षेत्र

मानसिक स्वास्थ्य-विज्ञान का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। विचार करने पर मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का महत्व हमें जीवन के निम्नलिखित सभी क्षेत्रों में मालूम पड़ता है-

(1) परिवार-

विकास की दृष्टि से मनुष्य के प्रारम्भिक वर्षों का (शैशवकाल) और घर तथा परिवार का जो महत्त्व है वह किसी से छिपा नहीं है। शिशु का पालन-पोषण यदि ठीक ढंग से हुआ तो उसका विकास भी भली-भाँति होता है और उसका मानसिक- स्वास्थ्य ठीक रहता है। उसकी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति प्रारम्भ से ही होती रहनी चाहिये। वे हैं-स्नेह, सुरक्षा, स्वतन्त्रता और क्रियाशीलता। उन्हें प्रारम्भ से मान्यता मिलती रहनी चाहिये। उनके साथ कठोरता का व्यवहार नहीं होना चाहिये। स्तनपान छुड़ाने का, मल-मूत्र त्यागने और परस्पर दैनिक व्यवहार से सम्बन्धित आचरण सिखाने में कभी-कभी माँ-बाप आवश्यकता से अधिक कठोर और नियमबर हो जाते हैं इसके लिए उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं। यह ठीक नहीं। शिशु की संवेगात्मक स्थिरता को कायम रखने के लिए यह आवश्यकता से अधिक प्रेम और स्नेह प्रदान करना भी उन्हें बिगाड़ देता है। विदेशों में मानसिक स्वास्थ्य कायम रखने से सम्बन्धित इन सब बातों की शिक्षा माता-पिता को दी जाती है। भारत में मनोविज्ञान केन्द्र माँ-बाप को इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्रदान करने का प्रयास करते हैं।

(2) विद्यालयों में-

आमतौर पर भारत में पाँच-छ: वर्ष की अवस्था में बालक विद्यालय में प्रवेश करता है। 2-3 वर्ष की आयु में शिशु को नर्सरी स्कूल में भर्ती करा दिया जाता है। विद्यालय शिशु या बालक के लिए एक नयी परिस्थिति प्रस्तुत करता है। वह नये-नये व्यक्तियों, विचारों और वस्तुओं के सम्पर्क में आता है। इसलिए उसके मानसिक स्वास्थ्य के बिगड़ने की संभावना उत्पन्न हो जाती है।

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, जीवन के इस निर्माण-काल और बाद में भी व्यक्ति की सहायता करता है। विद्यालय में शिक्षक माँ-बाप का स्थान ग्रहण कर लेते हैं और मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुसार बालकों को शिक्षा प्रदान करते हैं। विद्यालय में बालकों के व्यक्तित्य के संतुलित विकास की ओर ध्यान दिया जाता है। इसके शारीरिक, मानसिक संवेगात्मक, नैतिक और सामाजिक सभी पहलुओं का विकास किया जाता है।

किशोरावस्था विशेष रूप से खतरनाक अवस्था होती है। इसमें शारीरिक और संवेगात्मक परिवर्तन इतनी अधिक संख्या और इतनी अधिक मात्रा में होते है कि व्यक्ति का संतुलन बिगड़ जाता है। इस अवस्था में किशोर के निर्देशन और मार्गोपदेशन का विशेष प्रबन्ध विद्यालयों में होता है। वहाँ प्रशिक्षित अध्यापक होते हैं जो किशोरों की आवश्यकताओं को समझते हुये उनका मार्गदर्शन करते हैं।

(3) समाज-

समाज एक परिवर्तनशील इकाई है। व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, समाज का दायरा भी उसके लिये बढ़ता जाता है। समाज में तरह-तरह के लोग और वस्तुएँ होती हैं। वह विषमताओं से भरा होता है। जातीय, धार्मिक, व्यावसायिक, संवेगात्मक, चारित्रिक, आर्थिक तरह-तरह के भेद समाज में दिखाई पड़ते हैं। जो भी व्यक्ति समाज के सम्पर्क में आता है उसे इन विषमताओं और परिवर्तनशील परिस्थितियों से सदैव समायोजन करते रहना पड़ता है। समाज में व्यक्ति के विकास के विरोधी तत्त्व भी होते हैं। वे विकास को कुण्ठित कर देते हैं। अस्तु, मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा व्यक्ति को अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने और प्रयोजन करने के उपाय मालूम होते रहते हैं। इसके द्वारा व्यक्तियों में परस्पर भावात्मक एकता कायम रखने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य समाज के क्षेत्र में भी व्यक्तियों का मानसिक- स्वास्थ्य बनाये रखने का प्रयास करता है।

(4) उद्योग के क्षेत्र में-

उद्योग-धन्धों में लगे हुए लोगों को काफी समय तक काम में लगा रहना पड़ता है। मशीनों की खड़खड़ और शोरगुल मस्तिष्क में एक अजीब नीरसता और कठोरता भर देती है। श्रमिकों पर इसका बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि कठोर श्रम करते हुए भी उन्हें पूरा पारिश्रमिक नहीं मिलता। न तो उनके पास मनोरंजन के उपयुक्त और पर्याप्त साधन होते हैं, और न वे अपना और अपने परिवार का ठीक से भरण-पोषण ही कर पाते हैं। इसके अलावा मिल मालिकों और मैनेजरों के ताने और गालियाँ सुनते सुनते उनके मन विकृत हो जाते हैं। मानसिक-स्वास्थ्य विज्ञान ने श्रमिक और मिल-मालिकों के बीच सद्भाव बढ़ाने का प्रयास किया है। दोनों के बीच संतुलन उत्पन्न करने का प्रयास किया गया ताकि दोनों में सहयोग और प्रेम बढ़े तथा उद्योग के क्षेत्र में लोगों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक रह सके और इसमें काम करने वाले लोग वहाँ की परिस्थितियों से अपना समायोजन कर सकें।

(5) अपराध के क्षेत्र में-

अपराध व्यक्ति के अन्दर स्थिति कुसमायोजन का द्योतक होता है। अपराध व्यक्ति की मानसिक अस्वस्थता की ओर संकेत करता है। पहले अपराध को दैवी प्रकोप माना जाता था किन्तु अब मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अपराध इस बात की पुष्टि करता है कि व्यक्ति के विकास में कोई कमी रह गयी है। उसके व्यक्तित्व में कहीं कोई अभाव है जिसकी वजह से व्यक्ति अपराध की ओर प्रवृत्त होता है। इसलिए अब अपराधी का मनोवैज्ञानिक उपचार करने का प्रयास किया जाता है। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान इस बात पर जोर देता है कि उपर्युक्त उपचार से अपराधी को ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार मनोविज्ञान मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में भी क्रियाशील है।

(6) व्यवसाय के क्षेत्र में-

जीविका कमाने के लिये हर व्यक्ति को किसी-न-किसी व्यवसाय में प्रवेश करना पड़ता है। व्यवसाय की परिस्थितियाँ कभी अनुकूल होती हैं तो कभी प्रतिकूल । जब मनुष्य व्यवसाय की परिस्थितियों से अपने को समायोजित नहीं कर पाता तो उसे कष्ट होता है और उसका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। ऐसा उस परिस्थिति में होता है जब व्यक्ति को अपनी योग्यता, रुचि, अभियोग्यता और कार्यक्षमता के अनुसार काम नहीं मिलता। बड़े-बड़े नगरों में इस प्रकार उत्पन्न मानसिक असंतुलन को दूर करने और व्यक्ति को अपने कार्य से समायोजन स्थापित करने में सहायता करने के लिए निर्देशन केन्द्र खोले गये हैं। इस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान जीवन के इस क्षेत्र में भी व्यक्ति की सहायता करने के लिए तत्पर रहता है।

उपसंहार-

मनुष्य सुख और शान्ति से रहना चाहता है और उसकी सुख और शान्ति उसके सुसमायोजन पर निर्भर है। मनुष्य को इस कार्य में सहायता करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का दायरा बढ़ता जा रहा है। भविष्य में इसके क्षेत्र के और भी बढ़ने की संभावनाएँ हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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