समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में शिक्षा | समाजीकरण का तात्पर्य | समाजीकरण का स्वरूप | समाजीकरण की प्रक्रियाएँ | समाजीकरण संस्कृति-संक्रमण की प्रक्रिया
समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में शिक्षा
मानव प्राणी का जन्म एक सामाजिक प्रक्रिया का परिणाम होता है। माता और पिता के सहयोग से बालक का जन्म होता है, वस्तुतः यह प्रक्रिया “समाजीकरण” ही है। बालक बड़ा होने पर अपने परिवार के अन्य लोगों, पास-पड़ोस के लोगों, और बाद में विभिन्न समूहों तथा समुदायों के लोगों के सम्पर्क में आता है। उनसे कुछ ग्रहण करता है तथा उन्हें कुछ प्रदान भी करता है। अतएव व्यक्ति एवं समूह के बीच समूह में व्यक्ति द्वारा घुल-मिल जाने पर व्यक्ति समाज का बन जाता है। तकनीकी शब्दावली में इसे ही “समाजीकरण” कहा जाता है।
समाजीकरण का तात्यर्य
समाज शब्द से ही समाजीकरण शब्द बना है। समाज शब्द का खण्ड ‘सम+अज’ रूप में होता है। सम का अर्थ है ‘प्रत्येक व्यक्ति’ और अज का अर्थ है ‘आगे खींचना।’ इस प्रकार समाज व्यक्ति का समूह है जो उसे समूह के आगे या समूह में खींचता है अथवा व्यक्ति दूसरों से मिलता-जुलता है, और फलस्वरूप सम्बन्ध रखता है। अंग्रेजी भाषा का सोसाइटी शब्द समाज के अर्थ में प्रयोग किया जाता है जिसका मूल लैटिन शब्द ‘सोसियस’ है और सोसियस का अर्थ इकट्ठा होना होता है। इस आधार पर प्रो० मैक-आइवर तथा प्रो० पार्सन्स ने समाज को “सम्बन्धों का जाल” कहा है। आगे भी प्रो०राइट ने समाज को “सम्बन्धों की प्रणाली” बताया है। प्रो० राइट लिखते हैं : “समाज लोगों का एक समूह ही नहीं है, यह तो सम्बन्धों की एक प्रणाली है जो समूहों के व्यक्तियों के बीच पाई जाती है।” इन विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि “समाजीकरण का तात्पर्य समाज के लोगों के साथ एकत्र होना है, समूह बनाना है और समूह के आचरण-व्यवहार को अपनाना है तथा समूह के अनुरूप ढालना है।”
समाजीकरण की प्रक्रिया के रूप में शिक्षा
(क) समाजीकरण का तात्पर्य
(ख) समाजीकरण का स्वरूप
(ग) समाजीकरण की प्रक्रियाएँ
(घ) समाजीकरण संस्कृति-संक्रमण की प्रक्रिया
समाजीकरण का स्वरूप
समाजीकरण के स्वरूप पर विचार करने से ज्ञात होता है कि यह एक प्रकार की सामाजिक प्रक्रिया है। मनोवैज्ञानिकों ने सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा है। सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया के द्वारा छोटा सा शिशु एक सभ्य और संस्कृत व्यक्ति या मनुष्य बन जाता है। सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया पशु जीवन से ऊपर उठकर समाज का मनुष्य बना देती है क्योंकि इसकी सहायता से व्यक्ति रीति- रिवाजों, प्रथाओं, नियमों, आदी आदि को जानता है, समझता है और ग्रहण भी करता है।
समाजीकरण की प्रक्रिया “अंतर्क्रियात्मक” होती है। इस सम्बन्ध में सिकार्ड और बेकमैन ने लिखा है कि “समाजीकरण एक अन्तक्रियात्मक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति का व्यवहार उससे सम्बन्धित समूह के सदस्यों के प्रत्याशाओं के अनुरूप परिमार्जित होता है।” इसका तात्पर्य यह है कि समाजीकरण व्यक्ति तथा व्यक्ति, व्यक्ति तथा समूह परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया के रूप में पाया जाता है। इस अर्थ में समाजीकरण की प्रक्रिया जीवन में निरन्तर चलती रहती है। समाजीकरण की अन्तक्रियात्मकता से व्यावहारिक तथा अभिवृत्यात्मक परिवर्तन होते हैं तथा दूसरे व्यक्तियों की क्रियाएँ भी प्रभावित होती है। इससे स्पष्ट है कि समाजीकरण परिवर्तनकारी प्रक्रिया भी है।
समाजीकरण की प्रक्रिया में नीचे लिखी विशेषताएँ पाई जाती हैं-
(i) समाजीकरण आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है।
(ii) समाजीकरण से जैविक व्यक्ति सामाजिक व्यक्ति बन जाता है।
(iii) समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति समाज के परिवेश में अपने आप को बदल देता है।
(iv) समाजीकरण व्यक्ति के आवेगों, मूलप्रवृत्तियों एवं भावनाओं पर नियंत्रण ठा देता है।
(v) समाजीकरण के द्वारा व्यक्ति व्यवहार, मूल्य, मान्यता आदि ग्रहण करता है।
(vi) समाजीकरण ढालने वाली और सृजनात्मक प्रक्रिया होती है।
(vii) समाजीकरण प्रगति, विकास, परिवर्तन और परिवर्धन की प्रक्रिया होती है।
समाजीकरण की परिभाषाएँ
यहाँ पर कुछ विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं को प्रस्तुत करके हम समाजीकरण के स्वरूप एवं तात्पर्य को और भी अच्छी तरह प्रकट कर सकते हैं। ये परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) प्रो० गस्किन और गस्किन- “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति व्यवहार, मूल्यों और दूसरों की स्वीकृति सीखता है जो उसे समाज में विशिष्ट भूमिकाओं को स्वीकार करने के योग्य बनाती है।”
(ii) प्रो० हैबिग्हर्स्ट तथा न्यूगार्टन- “समाजीकरण एक ढालने वाली तथा सृजन करने वाली दोनों प्रक्रिया होती है जिसमें समूह की संस्कृति शिशुओं के समक्ष प्रस्तुत की जाती है तथा जिसमें व्यक्तिगत विचार, भाव और व्यवहार धीरे-धीरे परन्तु लगातार समाज द्वारा निर्धारित मूल्यों के अनुसार बदलते एवं विकसित होते हैं।”
(iii) प्रो० फ्रैंक डी० बाटसन- “समाजीकरण की प्रक्रिया सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक होती है। इसके द्वारा व्यक्तित्व का विकास होता है।”
(iv) प्रो० सीताराम जायसवाल- “समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति का इस प्रकार अनुकूलन करती है कि वह सामाजिक जीवन पूर्ण रूप से ग्रहण कर ले।”
(v) प्रो० जानसन- “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य के योग्य बनाती है।”
(vi) प्रो० किम्बल यंग- “समाजीकरण निश्चय ही सीखने की न कि जैविक दाय की चीज है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति लोक रीतियों, विधियों और अपनी संस्कृति की अन्य बातों को और साथ ही साथ कौशलों और अन्य आवश्यक आदतों को सीखता है जो उसे समाज का एक कार्यशील सदस्य बनने के योग्य बनाती है।”
समाजीकरण संस्कृति-संक्रमण की प्रक्रिया
विद्वानों का विचार है कि समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे समाज की संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लगातार हस्तान्तरित होती जाती है। इस प्रकार से संस्कृति का संरक्षण भी होता है। अतः जहाँ समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समाज की दाय की सुरक्षा और उसे दूसरों तक पहुँचाने से कार्य का दायित्व होता है यहाँ समाजीकरण को संस्कृतीकरण कहा जाता है या संस्कृति का संक्रमण कहा जाता है। इस सम्बन्ध में प्रो० दुबे ने लिखा है कि “संस्कृतीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी संस्कृति के तत्वों को अपनाता है। मूलतः यह मानसिक प्रक्रिया है यधपि इसके माध्यम द्वारा आत्मीकृत तत्वों की अभिव्यक्ति आन्तरिक भी हो सकती है और बाह्या भी। समाजशास्त्र समाज के संदर्भ में जिस प्रक्रिया को समाजीकरण कहता है, संस्कृति के संदर्भ में नृतत्वशास्त्र उसे ही संस्कृतीकरण कहता है, “दोनों एक ही प्रकार की मानसिक शैक्षिक प्रक्रियाएँ हैं।”
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि समाजीकरण तथा संस्कृतीकरण अथवा संस्कृति का संक्रमण एक ही प्रक्रिया है। समाजीकरण अथवा संस्कृतीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति को समाज की संस्कृति अपनाने, प्रयोग में लाने, व्यवहार करने, अभिवृत्ति निर्माण करने आदि में सहायता देती है। इसका तात्यर्य यह है कि व्यक्ति अपने मूल व्यवहारों में परिष्कार कर लेता है और सभ्य समाज के अनुकूल आचरण करने में, समाज के सभ्य व्यक्तियों के साथ कार्यों में भाग लेने में योग्य एवं समर्थ होता है। यही समाजीकरण है अथवा संस्कृतीकरण या संस्कृति का संक्रमण है। अतः स्पष्ट है कि समाजीकरण संस्कृति संक्रमण की प्रक्रिया सही अर्थ में होती है।
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