समाज शास्‍त्र / Sociology

आर. के. मर्टन का संदर्भ समूह सिद्धांत | आर. के. मटन के संदर्भ समूह व्यवहार एवं सापेक्षिक अभाव बोध के सिद्धांत की विवेचना

आर. के. मर्टन का संदर्भ समूह सिद्धांत | आर. के. मटन के संदर्भ समूह व्यवहार एवं सापेक्षिक अभाव बोध के सिद्धांत की विवेचना | R. K. Merton’s reference group theory in Hindi | R. K. Discussion of Mutton’s theory of reference group behavior and relative deprivation perception in Hindi

आर. के. मर्टन का संदर्भ समूह सिद्धांत

हाईमेन ने 1942 ई. में ‘संदर्भ समूह’ का सर्वप्रथम प्रयोग किया था। संदर्भ समूह का संबंध सदस्यों के मनोविज्ञान से था। जिसे समझने के लिए हमें इस विषय की कुछ गहराई में जाना पड़ेगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दो प्रकार के समूहों का उल्लेख किया जा सकता है और वे हैं-

(1) सदस्यता समूह

(2) संदर्भ समूह

व्यक्ति वास्तव में जिस समूह का सदस्य होता है और जिस समूह को ‘अपना समूह’ मानकर उसके प्रकार्यों में सक्रिय भाग लेता है उसे तो सदस्यता समूह कहते हैं। पर व्यावहारिक तौर पर ऐसा भी देखा जाता है कि वह मनोवैज्ञानिक तौर पर अपना सम्बन्ध ऐसे समूह से भी बनाए रखता है और उसके आदर्श, नियमों, मूल्यों आदि को अपने आचरण में सम्मिलित करते हैं जिसका कि वह वास्तविक रूप में सदस्य नहीं है। ऐसे समूहों को ही संदर्भ समूह कहते हैं। यह एक व्यक्ति का संदर्भ- समूह इस अर्थ में है कि इसी के सन्दर्भ में वह व्यक्ति अपने आचरणों, विचारों तथा मनोवृत्तियों को काफी हद तक ढालता है, यद्यपि वास्तव में वह इस समूह का सदस्य नहीं है। यह संदर्भ समूह इस अर्थ में भी है कि इसी संदर्भ में हम व्यक्ति के व्यवहार, मनोवृत्ति, विचार, मूल्य, आदर्श का एक यथार्थ तथा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यह बात मर्टन द्वारा प्रास्तुत संदर्भ-समूह की निम्नलिखित विवेचना से और भी स्पष्ट हो जाएगी। अमेरिकन सैनिकों के एक विस्तृत अध्ययन के आधार पर लिखित The American Soldier नामक कृति में मर्टन तथा रोसी ने संदर्भ-समूह की अवधारणा को समझाने का प्रयत्न किया है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है कि एक व्यक्ति का संदर्भ समूह उसका अपना अंतः समूह अर्थात् वह समूह हो सकता है कि जिसका कि वह वास्तव में सदस्य और वह बाह्य समूह भी हो सकता है जिसका कि वह सदस्य नहीं है। प्रथम अवस्था में अंतः समूह (In Group) या अपने ही समूह के सदस्य निर्देश तंत्र का कार्य करते हैं जबकि दूसरी अवस्था में बाह्य समूह अथवा दूसरे समूह के सदस्य इस निर्देश के लिए चुने जाते हैं। अतः मर्टन के अनुसार संदर्भ समूह का सिद्धांत हमें यह बताता है कि व्यक्ति अंतःसमूह अथवा बाह्य-समूह को किस प्रकार अपने व्यवहार का निर्देश मानने लगता है और उस समूह से अपना संदर्भ स्थापित कर लेता है। मर्टन ने संदर्भ-समूह से संबंधित अपने विचारों या निष्कर्षो को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है-

(1) अंतःसमूह या सदस्यता समूह संदर्भ-समूह के रूप में- बहुधा एक व्यक्ति अपने ही समूह के उन दूसरे व्यक्तियों के उप-समूह को अपना संदर्भ-समूह मानने लगता है जिनकी कि उपलब्धियाँ अधिक हैं अर्थात जो जीवन में अधिक सफल हैं। उदाहरणार्थ अपने ही समूह के उन सैनिकों को उसी समूह के अन्य सैनिक संदर्भ समूह के रूप में स्वीकार कर सकते हैं जिन्हें कि वीरता के पुरस्कार मिले हैं।

(2) गैर-सदस्यता समूह- मर्टन का कहना है कि यह जरूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति केवल उसी समूह का सदस्य हो जिसका वह सदस्य है। वह उस समूह का भी सदस्य हो सकता है जिसका कि वह सदस्य नहीं है। मर्टन के अनुसार जिन समूहों के हम सदस्य नहीं होते और जिनके सदस्यों के साथ हम किसी प्रकार की अंतःक्रिया नहीं करते, तो भी वह समूह हमारे व्यवहारों, आदर्शों तथा मूल्यों को प्रभावित करते व अपने अनुरूप ढालते हैं तो वह गैर-सदस्यता समूह भी हमारे लिए संदर्भ समूह होगा।

(3) संदर्भ-व्यक्ति या समूह का चुनाव- मर्टन कहते हैं कि एक व्यक्ति के द्वारा अपने संदर्भ के रूप में केवल समूह को ही नहीं अपितु व्यक्ति को भी चुना जा सकता है। इन दोनों का चुनाव कैसे किया जाता है उसे मर्टन ने इस प्रकार समझाया है-

(अ) संदर्भ-व्यक्ति का चुनाव- आदर्श भूमिका के आधार पर किया जाता है। ऐसा होता है कि एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की कुछ भूमिकाएँ अच्छी लगती हैं और वह उन्हें न केवल आदर्श मानने लगता है अपितु उन भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है। उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी को अपने किसी शिक्षक का पढ़ाने का ढंग व विद्यार्थियों के साथ व्यवहार करने का ढंग अच्छा लगता है तो आगे चलकर शिक्षक का पेशा अपनाने पर वह विद्यार्थी उसी शिक्षक को अपना संदर्भ-व्यक्ति मान लेता है और शिक्षक के रूप में उसके आचरणों और भूमिकाओं को अपने जीवन में भी निखारने का प्रयत्न करता है।

(ब) संदर्भ-समूह का चुनाव सामाजिक जीवन में अपने को अधिक प्रतिष्ठित देखने की इच्छा से प्रेरित होता है। व्यक्ति की यह अभिलाषा होती है कि वह सामाजिक सीढ़ी पर ऊपर की ओर जाये, इसके लिए एक आधार की आवश्यकता होती है। अतः वह किसी ऐसे समूह को चुन लेता है जोकि उसकी निगाह में आदर्श व अधिक प्रतिष्ठित सम्पन्न है। इसी से यह स्पष्ट है कि सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की इच्छा व्यक्ति को उस दूसरे समूह का चुनाव करने की प्रेरणा देती है जिसका कि वह सदस्य नहीं है।

(4) दूसरे विशिष्ट- मर्टन का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति के सामने कुछ दूसरे प्रतिष्ठित समझे जाने वाले लोगों की प्रतिमा होती है जिन्हें कि हम ‘दूसरे विशिष्ट’ कह सकते हैं। ये लोग उस व्यक्ति की निगाहों में आदर्श होते हैं और इसीलिए वह इन व्यक्तियों के साथ समरूपता स्थापित करना चाहता है, अर्थात उन ‘दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों जैसा बनना चाहता है। यही कारण है कि इन व्यक्तियों में वह स्वयं अपनी प्रतिमा तथा स्वयं अपने मूल्यांकन का प्रतिबिम्ब देखता है, उसके मूल्यों, आदर्शों तथा आचरणों को ग्रहण करता है ताकि उन दूसरे विशिष्ट की भाँति वह स्वयं भी ‘विशिष्ट’ बन सके। यही कारण है कि निम्न समूह के लोग उच्च समूह को प्रभावशाली व प्रतिष्ठा वाले समूह के रूप में न केवल देखते हैं अपितु उनके मूल्यों, आदर्शों तथा आचरणों को ग्रहण करते हुए सामाजिक सीढ़ी में ऊपर चढ़कर उस उच्च समूह के पास पहुँचने का भी प्रयत्न करते हैं।

(5) सकारात्मक व नकारात्मक संदर्भ-समूह- मर्टन के अनुसार संदर्भ-समूह सकारात्मक हो सकते हैं और नकारात्मक भी। अर्थात् संदर्भ-समूह का व्यक्ति पर प्रभाव सदा स्वस्थ ही होगा ऐसी बात नहीं है। एक व्यक्ति अपने संदर्भ-समूह के रूप में ऐसे समूह को भी चुन सकता है जिसका प्रभाव व्यक्ति पर नकारात्मक हो।

(6) बहुत संदर्भ समूह इसके अंतर्गत मर्टन ने दो प्रकार के संदर्भ-समूहों का उल्लेख किया है- (i) परस्पर विरोधी संदर्भ- समूह कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में एकाधिक परस्पर विरोधी संदर्भ समूह आ जाते हैं और उस अवस्था में उसके सामने यह समस्या होती है कि वह उनमें से किसको चुने अथवा किस समूह को अपना आदर्श माने। ऐसी स्थिति में व्यक्ति बहुधा परिस्थितियों की समानता से प्रभावित होता है और उस समूह को अपना संदर्भ-समूह नहीं मानता है जो कि उसे पूर्णतया अनजाना और भिन्न परिस्थिति वाला है।

(ii) निरंतर संपर्क वाले संदर्भ समूह- मर्टन का यह निष्कर्ष है कि जिस आयु समूह अथवा वैवाहिक स्थिति या शैक्षिक स्तर वाले समूह के निरंतर संपर्क में व्यक्ति रहता है उसी के अनुसार उसकी मनोवृत्तियाँ ढलने लगती हैं और उसी को वह अपना संदर्भ-समूह मान लेता है। मर्टन की मान्यता यह भी है कि जिस समूह के साथ व्यक्ति का सामाजिक संबंध जितना निरंतर व दीर्घ होगा वही समूह उस व्यक्ति के जीवन को अधिक प्रभावित भी करेगा।

(7) समरूपता और असमता मर्टन का कथन है कि संदर्भ- समूह का अपना एक प्रकार्यात्मक महत्व यह है कि वह व्यक्ति को उसके साथ समरूपता स्थापित करने को प्रेरित करता है जिसके फलस्वरूप उस व्यक्ति का व्यवहार, आदर्श व मूल्य उस समूह के मूल्य, आदर्श तथा आचरणों से भिन्न हो जाता है जिसका कि वह वास्तव में सदस्य अर्थात उसकी अपने समूह से असमानता उत्पन्न हो जाती है। परंतु उसका ऐसा करना अर्थात् संदर्भ-समूह से समरूपता और अपने समूह से असमता स्थापित करना उसी सीमा तक वांछनीय समझा जाता है, जहाँ तक वह सामाजिक व्यवस्था के लिए अकार्यात्मक न हो। पर यह आवश्यक नहीं है कि उस समूह के साथ जिसका कि वह सदस्य नहीं है समरूपता स्थापित करना ही अकार्यात्मक हो। यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि उसके ऐसा करने से उसके अपने समूह के स्थापित मूल्यों को कितनी ठेस पहुँचेगी।

(8) संदर्भ-समूह के प्रकार्यात्मक पक्ष- मर्टन ने संदर्भ-समूह के कुछ निश्चित प्रकार्यों का भी उल्लेख किया है। संदर्भ-समूह व्यक्ति को उसके (उस समूह के साथ समरूपता स्थापित करने की प्रेरणा देता रहता है जिसके कारण व्यक्ति अपने संदर्भ-समूह के मूल्यों, आदर्शों तथा आचरणों को अपने जीवन में उतारने के लिए प्रयत्नशील रहता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व में न केवल अनेक नये मूल्य, आदर्श, व्यवहार प्रतिमान, विचार, प्रतिमाएँ आदि सम्मिलित हो जाते हैं। अपितु यह संभावना भी रहती है कि उसकी सामाजिक स्थिति भी ऊंची उठ सकेगी। इस प्रकार मर्टन के अनुसार, व्यक्ति का प्रत्याशित समाजीकरण की दिशा में संदर्भ-समूह का प्रकार्य उल्लेखनीय है। परन्तु यह प्रत्याशित समाजीकरण केवल मुक्त सामाजिक संरचना में ही प्रकार्य के रूप में होता है। बंद सामाजिक संरचना में यह अकार्य का रूप धारण कर लेता है क्योंकि ऐसे समाज परंपरागत नियमों, आदर्शों तथा मूल्यों के द्वारा आबद्ध होने के कारण एक समूह के सदस्य द्वारा अपने समूह के मूल्यों व व्यवहारों को त्यागकर दूसरे समूह के मूल्यों व व्यवहारों को अपनाना बुरा माना जाना है और उसका विरोध भी किया जाता है। ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन तनान व विघटन को स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अतः दूसरे समूह के मूल्यों व व्यवहारों को अपनाने के बाद भी व्यक्ति के लिए अपनी आकांक्षाओं को पूरा करना संभव नहीं होता।

इस संदर्भ में मर्टन ने हमारा ध्यान इस सत्य की ओर आकर्षित किया है कि जिस अनुपात में एक व्यक्ति दूसरे समूह (संदर्भ-समृह) के मूल्यों, आदर्शों व आचरणों के साथ अपनी समरूपता स्थापित करता है। इसी अनुपात में वह अपने समूह के मूल्यों तथा आचरणों से दूर हो जाता है और यदि उसके  अपने समूह के अन्य सदस्य इस बात को पसंद नहीं करते तो उस व्यक्ति व शेष समूह के बीच  सामाजिक संबंध बिगड़ने लगते हैं और कभी-कभी तो वह खुले संघर्ष का रूप धारण कर लेता है। उस अवस्था में यदि व्यक्ति लौटकर अपने ही समूह के मूल्यों व आचरणों को फिर से अपनाना चाहे तो भी उसे ऐसा करने का अवसर नहीं दिया जाता। अतः  दूसरे समूह के मूल्यों व आचरणों को अपनाने की प्रक्रिया एक बार शुरू हो जाने पर वह संचित होती चली जाती है और व्यक्ति अपनी मनोवृत्तियाँ, मूल्यों तथा सामाजिक संबंधों के क्षेत्र में अपने समूह से धीरे-धीरे अलग होता जाता है, यहाँ तक कि अंत में वह अपने समूह से बिल्कुल विच्छिन्न हो जाता है और संदर्भ- समूह को ही पूर्णतया स्वीकार कर लेता है। ऐसा विशेषकर उस अवस्था में होता है जबकि उसका अपना समूह पुनः उसे अपने सदस्य के रूप में ग्रहण करने से इंकार कर देता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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