इतिहास / History

मौर्यकाल की वास्तुकला | मौर्यकालीन स्थापत्य | अशोक के पाषाण-स्तम्भ | मौर्यकाल के भवन | मौर्यकाल के स्तूप | मौर्यकालीन गुफायें

मौर्यकाल की वास्तुकला | मौर्यकालीन स्थापत्य | अशोक के पाषाण-स्तम्भ | मौर्यकाल के भवन | मौर्यकाल के स्तूप | मौर्यकालीन गुफायें

मौर्यकाल की वास्तुकला-

मौर्यकाल की वास्तुकला की बड़ी उन्नति हुई तथा उसकी प्रत्येक शाखा ने उन्नति की। सम्राट अशोक ने वास्तुकला की उन्नति पर ध्यान दिया।

सम्राट अशोक 40 वर्ष तक सिंहासन पर रहे। इस अवधि में उन्होंने स्वयं विभिन्न तीर्थों में घूम कर उपदेशक भेज कर, शिलालेख गाड़कर अनेक प्रकार से लोगों में सद्भावना एवं धर्म प्रचार का प्रयत्न किया। तीन वर्ष के अल्पकाल में चौरासी हजार स्तूपों का निर्माण करना प्रियदर्शी सम्राट का ही कार्य था। गया के समीप उन्होंने गुफाओं का स्थावर आवास निर्मित कराया। सैकड़ों विहार उनके स्थापित किए हुए थे। अपने शिला लेखों में उन्होंने माता-पिता की एवं प्राणियों की सेवा, सभी सम्प्रदायों की परस्पर सद्भावना, परलोक सुधार तथा सत्य, त्याग, तप आदि सार्वभौम धर्मों पर ही पूरा बल दिया। सम्राट सचमुच देव प्रिय थे। उन्होंने लोगों को देव पथ में ले जाने का पूरा प्रयत्न किया। वे प्रियदर्शी थे। जनता में जनता से शिक्षा ग्रहण एवं विचार विनिमय की भावना से जाना उन्हीं जैसे महान् का कार्य था।

चार सिंहों के ऊपर स्थापित धर्म चक्र अशोक के साम्राज्य का प्रतीक अब भारत का राष्ट्रीय प्रतीक है। चतुर्दिक व्यापी पराक्रम पर धर्म चक्र की स्थापना अशोक ने की यह सब जानते हैं। उनका राज्य सम्पूर्ण भारत में था।

मौर्यकाल के भवन-

चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज रहता था। इसके लेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त का महल एशिया के सब भवनों से अधिक सुन्दर था। इस विषय में भारतीय तथा यूरोप के इतिहास के विद्वानों में मतभेद है। डा० स्मिथ (Smith) का यह कहना कि चन्द्रगुप्त का महल लकड़ी का बना हुआ था जिस पर नकाशी बहुत ही सुन्दर ढंग से की गई थी, मेगस्थनीज के लेखों से उसकी यह बात सत्य नहीं होती है।

मौर्यकाल के स्तूप-

चैत्यों का वास्तुकला की दृष्टि से स्तूप नाम है। कहा यह जाता है कि सम्राट अशोक ने इन स्तूपों में संरक्षित बुद्ध जी की अस्थि आदि पदार्थों को लेकर 84000 स्तूपों में रखवाया था। इन स्तूपों का पूर्व रूप लक्षण में हो सकता है। अशोककालीन स्तूपों में साँची का स्तुप मुख्य है। भारत के गौरव ज्ञान के लिए यह स्तूप आज भी महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। साँची में दो छोटे तथा एक बड़ा स्तूप है। बड़ा स्तूप अशोक या उसके किसी प्रतिनिधि ने तृतीय शतक ई०पू० में ईंटों से बनवाया था। इसके तल का व्यास 120 फुट तथा ऊँचाई 75 फुट है।

सम्राट अशोक के महल-

सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त के भवन के पास अपने महल बनवाये थे, जो आठ सौ वर्ष तक उसी सुन्दरता के साथ बड़ी सजधज के साथ खड़े रहे तथा दुनिया के तूफानों और समय के परिवर्तनों का मुकाबला करते रहे तथा उनको किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचा। जब चीनी, यात्री, जिसका नाम फाह्यान था, भारत में आया और वह पाटलिपुत्र पहुँचा और अशोक के महल को देखा तो उसकी अकलं (बुद्धि) के तोते  उड़ गए और इन महलों की सजावट तथा बनावट को देखकर उसने भारतीय दस्तकारों की तारीफ की है। उसने लिखा है कि वे मनुष्य के नहीं देवयोनि के बनाये हुए हैं।” खुदाई करने में कुछ भाग निकले हैं जिनमें अधिकतर खाये हैं। सभा भवन की नींव में चौसल्ला दिया हुआ था। उसको भी इस खुदाई से निकाला गया है। खुदाई पूरी न होने के कारण कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं मिली है। फाह्यान के लेखों से पता चलता है कि अशोक भवनों पर मूर्तियाँ भी बनाई गई थीं, जो बहुत ही सुदूर ढंग से गढ़ी हुई थीं, जिनको देखकर हृदय खुश हो जाता था। इसके साथ-साथ दस्तकारों ने बड़े सुन्दर ढंग से इन पर नक्काशी भी की थी। उन्होंने एक इकाई को दूसरी इकाई से बहुत सुन्दर ढंग से जोड़ दिया था। ऐसी इकाईयों के जोड़ों ने भवन की सुन्दरता और अधिक कर दी थी।

कुछ इतिहास के विद्वानों का मत है कि सम्राट अशोक ने इन भवनों के नक्शों को ईरान की राजधानी पर्सीपोलिस ने लिया था, परन्तु कुछ इतिहास के विद्वान् ने इस बात को ठीक नहीं स्वीकार करते हैं।

इस समय भवनों में ईंट, पत्थर तथा लकड़ी का प्रयोग होता था। उनकी कुर्सी ईंटों की, खम्भे पत्थर के, सायवान लकड़ी के और पाटन तथा अपर मंडप लकड़ी के होते थे। इमारतें लकड़ी और ईंटों की अधिकतर बना करती थीं। वर्तमान काल में भी वे स्थान, जो पत्थरों के स्थानों से दूर हैं. वहाँ ईंटों तथा लकडी से मकान बनाये जाते हैं।

मौर्यकालीन गुफायें-

गया जिले की पहाड़ियों में अशोक ने कई गुफायें बनवाईं और उसमें लेख भी खुदवाये। सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं के लिए ये गुफायें बनवाई थीं। यह गुफायें बड़ी कठिनाई में बनाई गई थी, क्योंकि इनके पत्थर कड़े हैं। अशोक के दो पौत्र थे। उन्होंने भी एक गुफा बनवाई। उक्त गुफा पर्वत में है। यह लोमष ऋषि की गुफा कहलाती है। इस गुफा के द्वार महराबदार हैं। इसमें हाथियों की मूर्तियां बड़े सुन्दर ढंग से बनाई गई हैं। भीतर भी सुन्दर मूर्तियों के दर्शन होते हैं। ये गुफायें दो प्रकार की हैं-इनमें एक चैत्य कहलाती थीं और दूसरी विहार। विहार नाम की गुफाओं में बौद्ध भिक्षु निवास और अध्ययन करते थे। चैत्य में वे केवल उपासना करते थे। चैत्य गुफाएँ विहार गुफाओं से कुछ बड़ी थीं। गुफा का नक्शा धीरे-धीरे बदलता गया। उसमें प्रवेश करते ही एक लम्बा घर देखने को मिलता था। उसके बाद में एक छोटा-सा घर होता था। इनमें और मन्दिरों में बहुत कम सम्बन्ध होता था। इनको कमानीदार बनाया जाता था। इससे जान पड़ता है कि वह गुफायें उन विरक्त महात्माओं की कुटियों की नकल थीं, जिनका उनकी आँखों में अच्छा मान था। इनका आगे वाला भाग उनके उपदेश देने के लिए होता था। पीछे की ओर वे विश्राम करते थे। महात्मा बुद्ध की कुटिया   हाल मिलता है वह इसी प्रकार का है। इस बात का पता हमें भरहुत के दृश्य से हो जाता है। ऐसी अवस्था में हम यह कह सकते हैं कि गुफाओं का कोई सम्बन्ध मंदिरों से नहीं हो सकता था।

मौर्यकालीन मन्दिर-

इससे यह बात नहीं समझनी चाहिए कि उस समय मन्दिर बना ही नहीं करते थे। हिन्दू तथा जैन मन्दिर अवश्य बना करते थे। क्योंकि मौर्य राज्य में धार्मिक स्वतन्त्रता थी जो कोई जो चाहता था वहीं धर्म मानता था। किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध राजा की ओर से नहीं लगाया जाता था। अशोक के समय में राज धर्म बौद्ध था। परन्तु लोग जैन धर्म तथा ब्राह्मण धर्म को भी मानते थे। भारत के निवासी आरम्भ से ही धार्मिक विचारों के कहे जाते हैं फिर भला वे मौर्यकाल में मन्दिर क्यों न बनाते जबकि जैन बहुत ही मालदार थे। इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्म के मानने वाले भी किसी से कम न थे इस कारण उन्होंने भी दिल खोल कर मन्दिर बनवाने में धन लगाया।

मौर्य काल के मन्दिरों पर किसी प्रकार का प्रभाव दिखाई नहीं देता है। शैली की छाप मौर्य मठों पर अवश्य दिखाई देती है। मन्दिर वस्तु का सबसे प्रमुख निजस्व शिखर माना जाता है। जो पर्वत, मरू, मन्दिर, कैलाश, तिकूट आदि से लिया गया है। वे पर्वत देवताओं के मुख्य निवास स्थान माने गए हैं। इन्हीं की भावना और कल्पना में अनूदित करके मन्दिर शिखर का रूप दिया गया। भन्दिरों बाहरी ओर से मूर्तियाँ मिलती हैं वे अमरयुग्म और यक्ष की हैं. जिनका भाव भी पर्वत की व्यजना ही हैं क्योंकि पर्वत देवताओं के साथ-साथ देव योनियों के निवास स्थान तथा क्रीड़ास्थल भी कहे जाते हैं।

अप्सराओं का बौद्ध तथा जैन के स्तूपों में कोई स्थान नहीं है। और न ही इनकी मूर्तियां बनाई जा सकती थीं। परन्तु ऐसा नहीं है। स्तूपों पर अप्सराओं की मूर्तियाँ बनी हुई मिलती हैं। हालांकि अप्सराओं का जैन तथा बौद्ध धर्मों में कहीं पता नहीं लगता है। ब्राह्मणों की धार्मिक पुस्तकों से इनका पता चलता है। पन्दिरों के द्वार पर इनकी मूर्तियाँ होना आवश्यक है। मथुरा में नहाती हुई नारियों की मूर्तियों बनी हैं जिनको हम अप्सराओं की मूर्तियाँ कह सकते हैं, इनको जल अप्सरायें भी कहते हैं।

यह बात साफ है कि वातावरण का प्रभाव मनुष्य के जीवन और संस्कृति पर पड़ता है। ब्राह्मण धर्म का जैन तथा बौद्ध धर्मों पर यह प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने स्तूपों के बाहर अप्सराओं की मूर्तियाँ बनाई। दूसरी बात यह थी कि उस समय के दस्तकारों का इन अप्सराओं के बनाने का अच्छा अभ्यास था और वे इनकी मूर्तियाँ सुन्दर ढंग से बना लेते थे जिनका प्रयोग केवल सजावट के लिए ही होता था। इन कारण स्तूपों के बनाने वाले ऐसे दस्तकार जो ब्राह्मण धर्म के मानने वाले थे. उन्होंने इनको स्तूपों पर बना दिया।

अभी हाल ही में जो खुदाई पाटलिपुत्र में हुई है उससे इस समय के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं। कुमराहार ग्राम के पास प्राचीन पाटलिपुत्र के बहुत से अवशेष भी मिले हैं। यहाँ कल्लू और चमनराय के तालाबों के मध्य में एक अशोककालीन स्तम्भ के कुछ अवशेष भी पाये गये हैं। ये बलुए पत्थर के बने हुए हैं तथा इस पर अच्छा और सुन्दर बज्रलेप किया हुआ दिखाई देता है। इसका व्यास तीस फुट है। प्राचीन ग्रन्थों से पता चलता है कि अशोक ने चौरासी लाख स्तूपों व विहारों का निर्माण कराया था, जो कि फाह्यान के समय तक भारत में देखे जा सकते थे। इनके विषय में फाह्यान ने भी लिखा है-”ये पत्थर चुन कर दीवारों तथा द्वार के साथ बनाये गये हैं, जिन पर सुन्दर पच्चीकारी का काम हुआ है।” ह्वेनसांग ने भी अशोक के स्तूपों को देखा था।

मौर्यकालीन स्तम्भ-

मौर्यकाल के स्तम्भ भी हमें देखने को मिलते हैं जिनकी बनावट में हमें सुन्दरता की छाप दिखाई देती है। इनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

प्रस्तर स्तम्भ- इस पर अशोक काल की धम्मलिपि उत्कीर्ण है, जो स्तम्भ को सुन्दर बनाने में सहायता देती है। इसके सिर पर चार सिंह मूर्तियाँ गढ़ी गई हैं, जो मूर्तिकला के दृष्टिकोण से बहुत प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि पहले इन पूर्तियों की आँखें मणियुक्ति थीं, परन्तु अब मणियों की झलक इनमें दिखाई नहीं देती हैं। सिंह की मूर्तियों के नीचे चार चक्र भी बने हैं,  जिनके मध्य में हाथी, सांड़, अश्व तथा शेर की खुदी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। इनको चक्रों तथा प्राणियों को चलती-फिरती दशा की मुद्राओं में बनाया गया है। इनके नीचे का भाग विशाल घण्टे के समान है। स्तम्भ तथा इसका शीर्ष भाग बलुए पत्थर का बनाया गया है, जिसके ऊपर बजलेप सुन्दर विधि से किया हुआ दिखाई पड़ा है। उसके गुणों का इस बात से पता चलता है कि समय के परिवर्तन उसको किसी प्रकार से हानि नहीं पहुंचा सके हैं।

पाषाणावेष्टनी (रेलिंग)- यहाँ इसका भी पता चला है। यह सारनाथ के बौद्ध-विहार मन्दिर में लगी हुई थी। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि इसका निर्माण केवल एक पत्थर से हुआ है। यह सुन्दर ढंग से बनाई गई है। इस पर सब ही का नाम खुदा हुआ है।

स्तूप- एक स्तूप के कुछ भाग भी सारनाथ की खुदाई में प्राप्त हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्व इस स्तूप के दर्शन हो सकते थे, परन्तु अब इसको नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि राजा चेतसिंह ने इसको इस प्रकार नष्ट किया कि इसका केवल नाम ही रह गया है और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है।

साँची का स्तूप- इस स्तूप की ऊंचाई 77 फुट थी, परन्तु समय के परिवर्तन के कारण इसका ऊपरी भाग टूट गया है। यह लाल रंग के बलुए पत्थर से बना है। इस स्तूप की शक्ल अर्ध मण्डलाकार दिखाई देती है। इसके चारों ओर रेलिंग भी बनी है, जो बिल्कुल साधारण है। यहां इसमें चार सुन्दर द्वार हैं, जिन पर सुन्दर मूर्तियाँ बनाई गई हैं जो देखने योग्य हैं। कहा यह जाता है कि अशोक के शासन काल में इसे ईंटों से बनाया गया जिसको आगे चलकर बढ़ाया गया। इसका वर्तमान रूप अशोक के काल का नहीं है। अशोक के युम की एक अन्य कृति उपलब्ध हुई है। स्तूप के दक्षिण फाटक के पास एक स्तम्भ के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिसकी प्रथम ऊँचाई 42 फुट बताई जाती है। इसके ऊपर भी सदृश सिंहों की मूर्तियाँ बनी हैं जो अब खण्डित रूप में दिखाई पड़ती है।

भरहुत- यहाँ भी अशोक के समय की अनेक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ के स्तूप का सर अलक्जंडर ने सं0 1873 में पता लगाया था जो ईंटों का बना हुआ था। इस स्तूप का व्यास 68 फुट था। इसके भी चारों ओर रेलिंग बनी हुई थी, जिस पर जातक ग्रन्थों की कथाओं के चित्र बने हुए थे। अब यह स्तूप बहुत कुछ नष्ट हो चुका है।

अशोक के शिला लेख-

अशोक के काल के बहुत से लेख आज भी देखने को मिलते हैं इन लेखों की लिपि को धम्म लिपि कहा जाता है। ये दोनों निम्नलिखित प्रकार की लिपियों में लिखे गये हैं-

(i) खरोष्ठी लिपि- इनमें पेशावर तथा हजारा जिलों के शिला लेख आते हैं।

(ii) ब्रह्म लिपि– इसमें शेष शिला लेख आते हैं। ये शिला लेख निम्नलिखित चार प्रकार के देखने को मिले हैं-

(i) चतुर्दश शिला लेख- इस प्रकार के लेख को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस प्रकार के लेख शाहबाजगढ़ी (पेशावर), मानसेरा (हजारा), कालसी (देहरादून), गिरनार (काठियावाड़), सोपार (बम्बई प्रान्त), योली (उड़ीसा में भुवनेश्वर जिला पुरी), आँध्र देश (कर्नूल जिला) में देखने को मिलते हैं।

(ii) शिला लेख- यह भी चतुर्दश लेख के समान हैं। जो निम्नलिखित स्थानों में पाये जाते हैं

(1) सारनाथ (2) सहसराम, (3) वैराट, (4) सिंहपुर, (5) जलिंग रामेश्वर, (6) ब्रह्म गिरि तथा (7) मास्की।

(iii) सप्त स्तम्भ लेख- इस प्रकार के लेख भी अशोक कालीन निम्नलिखित स्थानों पर पाये जाते हैं-

(1) दिल्ली का टोपरा स्तम्भ, (2) दिल्ली का मेरठ स्तम्भ, (3) इलाहाबाद का स्तम्भ, (4) लौरिया अरराज का स्तम्भ, (5) लौरिया नन्दन गढ़ का स्तम्भ, (6) रामपुरवा का स्तम्भ।

(iv) लघु स्तम्भ लेख- इस प्रकार के लेख भी अशोक के समय के निम्नलिखित स्थानों पर देखे जा सकते हैं-

(1) सारनाथ (2) साँची, तथा इलाहाबाद का स्तम्भ।

(v) अन्य स्तम्भ लेख- अन्य स्तम्भ के लेख भी प्राप्त हुए हैं-रुम्मिनदेई का स्तम्भ, निग्लीव का स्तम्भ, रानी के लेख का स्तम्भ तथा गृहा लेख का स्तम्भ ।

अशोक के लेखों का महत्त्व-

अशोक के लेखों का मूर्तिकला में बड़ा महत्त्व माना जाता है। पेशावर तथा हजारा जिलों की चट्टानों पर के लेखों के अतिरिक्त सब लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं, जिसकी सबसे श्रेष्ठ संतति देवानगरी लिपि है, जिससे सबकी भाषा मगधी अर्थात् हिन्दी कही जा सकती है। इनको देखने में हमें इस बात का पता चल जाता है कि उस समय जनता इस पर अधिक ध्यान देती थी। इसी कारण तो इन धर्म लेखों को लिखा गया था, ताकि जनता इनको पढ़ कर इससे लाभ उठाये। इनसे यह भी प्रत्यक्ष है कि हिन्दी को राष्ट्रभाष का तथा नागरी को राष्ट्र लिपि का स्वत्व आज से नहीं उसी समय से चला आता है। कला के दृष्टिकोण से इन लेखों के अक्षर बड़े उत्तम विधि से लिखे गये हैं। खुदाई ने इनको और सुन्दर बना दिया है। इन अक्षरों की आकृतियाँ और मरोड़ एक सी हैं। इनमें गोलाई और तनाव भी है। यह अक्षर नाटे तथा चपटे नहीं हैं। इनकी पंक्तियाँ सीधी हैं। उनकी सुन्दरता आज भी उतनी ही है जितनी कि पहले थी।

अशोक के स्तम्भ-

अशोक ने स्तम्भ भी बनवाये जो अब भी निम्नलिखित स्थानों पर देखे जा सकते हैं-

(1) साँची में, (2) नेपाल में, (3) रमपुरवा में, (4) लौरिया और रदियां ग्रामों में, (5) मुजफ्फरपुर के बखीरा ग्राम में,(6) सारनाथ में, (7) इलाहाबाद के किले में, (8) कौशाम्बी में, (9) दिल्ली में, (10) संकीसा जिला फर्रुखाबाद में ,(11) काशी में जिसे लाठ मैरा कहते हैं। (12) पटना की पुरानी बस्ती में, (13) गया में, (14) जयपुर में।

इन स्थानों पर अशोक के स्तम्भों में जो पत्थर लगा है उसको चुनार का पत्थर कहते हैं। यह लाट एक ही पत्थर के बने हुए मालूम होते हैं। इनको इस समय के दस्तकारों ने बड़ी सुन्दरता से तराशा है कि आँखें फिसलती हैं। इनमें इतना टटकापन प्रतीत होता है कि जैसे दस्तकार इनको अभी घुटा है। कुछ विद्वानों का मत है कि स्तम्भों के बनाने में वज्रलेप का प्रयोग हुआ है, जिसकी घुटाई बड़े सुन्दर ढंग से हुई है। सुन्दरता का यह ढंग प्रस्तर कला की एक ऐसी विशेषता है, जो संसार भर में अपना जोड़ नहीं रखती है। इन स्तम्भों की लाट गोल है और नीचे से ऊपर तक उसमें उतार चढ़ाव दिखाई देता है। यह लम्बाई में 30-40 फुट की है, इनका वजन लगभग 1200 मन कहा जाता है। इन सब में लौरिया नंदगढ़ की लाट का उतार चढ़ाव सबसे सुन्दर है। जब इन लाटों की बनावट पर गौर किया जाता है तो अकल के तोते उड़ जाते हैं कि हमारे पूर्वजों ने जो इतने अच्छे दस्तकार थे किस तरह इनको खड़ा किया तथा बनाया होगा। इस समय, जबकि बहुत से साधन हैं, तब हमारे दस्तकारों की ऊँची इमारतों और मीनारों को बनाने में कठिनाई होती है। उस समय के कारीगरों और इंजीनियरों के आगे सिर उठाया नहीं जाता है

लाटों के भाग- इन लाटों के परगेह जो एक पत्थर के बने हुए हैं उसमें पाँच निम्नलिखित भाग हैं-

(1) पतली पेखला, (2) दोहरी पतली लौटी हुई कमल पंखड़ियों की अलंकारिक आकृति वाली बैठकी, (3) कंठा,(4) गोल व चौखूटी चौकी तथा (5) सिरे पर पशुओं की मूर्तियाँ ।

इन भागों के बनाने में इस युग के दस्तकारों ने अपनी योग्यता दिखा दी है। चौकी के बनाने में इन दस्तकारों ने वह बात पैदा कर दी है जिससे लाट की सुन्दरता में चार चाँद लग गए हैं। चौकी का उभार बहुत ही सुन्दर है। लौरिया, नंदगढ़ की चौकी सबसे अधिक सुन्दर दिखाई पड़ती है। इस पर उड़ते हुए हंसों की मूर्तियाँ, जो उभारदार हैं, चौकी की सुन्दरता में चार चांद लगाती हैं। इसके अतिरिक्त इलाहाबाद संकीसा रामपुरवा के बैल वाले स्तम्भ पर पंकज, कमल, मकंद आदि बड़े सुन्दर ढंग से बनाये गए हैं। इनमें सजीवता झलकती है। इनमें शेर, हाथी, बैल और घोड़े भी बनाये गए हैं। इसमें पहले तीन तो परगहों के सिर पर विद्यमान हैं। सारनाथ के परगेह की चौकी के चारों ओर यही चार जानवर पहियों को परगेह के बीच में उभार कर बने हुए हैं। इनमें बड़ी सफाई है और यह सजीव ढंग से बनाये गये हैं। सारनाथ के परगहों में सर्वश्रेष्ठता की छाप है। यह सारनाथ पर परगेह अशोक के शासन के पिछले दिनों में बनाए गए। चौकी पर के चार पहिये धर्म चक्र के प्रतीक हैं। सिरे के चार सिंहों पर भी एक धर्म चक्र था जिसके टुकडे अब मिले हैं।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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