इतिहास / History

विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण | महान् मन्दी के निवारण के लिए किये गये उपचार | लन्दन का विश्व अर्थ सम्मेलन | मन्दी के कारण | मन्दी के प्रभाव

विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण | महान् मन्दी के निवारण के लिए किये गये उपचार | लन्दन का विश्व अर्थ सम्मेलन | मन्दी के कारण | मन्दी के प्रभाव

विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण

प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न कठिनाइयों पर यूरोप 1929 ई. तक विजय प्राप्त कर चुका था और सर्वत्र आशावादी वातावरण बनने लगा था। जर्मनी की आर्थिक स्थिति भी काफी सुधर गई थी तथा नये राज्यों में आर्थिक स्थिरता आ गई थी। विश्व में कच्चे माल एवं खाद्य-पदार्थों को उत्पादन 11 प्रतिशत बढ़ गया था। कारखानों में बनने वाली वस्तुओं का उत्पादन भी 26 प्रतिशत बढ़ गया था। रूस ने क्रान्ति से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना करके अपने करोड़ों लोगों के लिए पंचवर्षीय योजना का कार्य आरम्भ कर दिया था इस समय की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में सर आर्थर साल्टर ने लिखा है- “1926 में यद्यपि कुछ देशे में सापेक्ष दृष्टि से गिरावट आई थी, तो भी कुल मिलाकर संसार की दशा पहले बहुत अच्छी थी और वह तीव्र गति से ऐसी समृद्धि की ओर बढ़ रहा था, जिसकी पहले कल्पना भी नही की जा सकती थी किन्तु इसी असमान समृद्धि में उसके अपकर्ष के बीज विद्यमान थे। “यह सब ऊपरी चमक-दमक थी। अक्टूबर 1929 में संसार की परिस्थिति अचानक बदल गई। वाल स्ट्रीट संक्ट जो 1929ई० में शुरू हुआ, विश्वव्यापी मन्दी में बदल गया तथा उसने लगभग सारे यूरोपीय देशों पर चोट को । इस महान् मन्दी के बारे में प्रसिद्ध लेखक आर्थर लुई ने लिखा है कि “1929 ई० में जो अवसाद आरम्भ हुआ, वह कोई साधारण मन्दी नहीं थी बल्कि आधुनिक इतिहास में अपने दीर्घ विस्तार और कठोरता, सब दृष्टि से सबसे भयानक मन्दी थी। सबसे खराब स्थिति तो 1932 ई० में आयी जब बेरोजगारों की संख्या बढ़ते बढ़ते 3 करोड़ तक पहुंच गयी। यह मन्दी संयुक्त राज्य अमेरिका तक ही सीमित न रहकर विश्व के सभी देशों में फैल गई। इसीलिए इसे ‘विश्वव्यापी मन्दी’ अथवा महान् मन्दी या आर्थिक मन्दी जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता है।

अक्टूबर 1929 में अमेरिका के मुद्रा बाजार में सट्टेबाजी का एक तीव्र दौर आया, जिसने आम अमेरिकी महाजनों का ध्यान आकर्षित किया और इसके परिणामस्वरूप अमेरिका के धन कुबेर भी यूरोप को ऋण देने के बजाय अपने ही देश में पूंजी लगाने लगे। यूरोप, जो उस समय अमरीकी ऋणों के आधार पर टिका हुआ था, सहसा आधारहीन हो गया और यूरोपीय अर्थव्यवस्था डगमगा गई। सम्पूर्ण संसार में आर्थिक संकट के चिन्ह प्रकट होने लगे। वस्तुओं की कीमतें गिर्ने लुगीं, बैंकों के लिए रुपया अदा करना कठिन हो गया, अनेक बैंक फेल हो गये, कारखानों और अन्य धन्धों को भारी घाटा उठाना पड़ा। लाखों मजदूर बेकार हो गये। कारखानों द्वारा उत्पादित माल से बाजार भरे पड़े थे, पर उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं था। आर्थिक संकट का यह भयावह रूप था। यह भीषण आर्थिक मन्दी थी, जो 1929 ई० में आरम्भ हुई, 1931 ई० में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई और उसके पश्चात् 1934 ई० तक उसका प्रभाव बना रहा। इस मन्दी के कारण ही ब्रिटेन ने स्वर्णमान का परित्याग कर दिया। अब उसके सिक्कों को सोने से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। ब्रिटेन की इस नीति का अनुसरण विश्व के कई देशों ने किया। अपनी अर्थव्यवस्था, कारखानों एवं कृषि को नष्ट हो जाने से बचाने के लिए सभी देशों ने निरोधात्मक शुल्क व संरक्षणात्क टैरिफ की नीति अपनाई, जिसके परिणामस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बिल्कुल ठप्प हो गया। इससे अमेरिका को यह प्रेरणा मिली कि अपने आर्थिक सिद्धान्तों को वह छोड़ दे और आर्थिक क्रियाओं पर सरकारी नियन्त्रण जारी करे। सभी देशों के सरकारी बजट में घाटा दिखाया जाने लगा और संसार का व्यापार लगभग आधा रह गया था।

विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण-

आर्थिक मन्दी और उससे उत्पन्न आर्थिक दुर्दशा अत्यन्त भयंकर थी और संसार के इतिहास में अभूतपर्व भी थी। इतिहासकारों एवं अर्थशास्त्रियों ने इसके भिन्न-भिन्न कारण बताये हैं। जिनमें से प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. 1. व्यापार चक्र का प्रभाव- इतिहास लेखक लिप्सन महोदय का मानना है कि साधारण दृष्टि से उत्पादन की क्रियाओं में एक निश्चित समय के पश्चात् इस प्रकार की शिथिलता आया करती है अर्थात् आर्थिक शिथिलता का चक्र एक अजीब नियम के अनुसार चला करता है। इस बात को पिछले तीन सौ वर्षों से देखा जा रहा है। सन् 1620-1624 में इग्लैण्ड में व्यापार मन्दी आयी थी। उस समय उसका विदेशी व्यापार संकुचित हो गया था तथा बेकारी बुढ़ गयी थी। तब एक शाही कमीशन नियुक्त हुआ, जिसने इस शिथिलता के कारणों की जांच की। उस समय भी इस शिथिलता के वे ही कारण बतलाये गये थे जो 1929-1932 ई० की शिथिलता के लिए बतलाए गयें।
  2. प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ- कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि प्रथमविश्व-युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ भी इस विश्व-व्यापी मन्दी का कारण थीं। प्रायः युद्ध के पश्चात् ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे आर्थिक संकट उत्पन्न होता है। उन्नीसवीं सताब्दी के इतिहास में पहले भी तीन बड़े युद्ध हो चुके थे और इन युद्धों के बाद भी इसी तरह की आर्थिक मन्दी आई थी। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न के जवाब में जे० बी० कांडलिफ ने लिखा है- “युद्ध काल में सैनिक सामग्री की मांग बढ़ जाने से उद्योग का असाधारण विस्तार होता है सैनिकों की असाधारण भर्ती के कारण मजदूरों की कमी हो जाती है, अतः रोजगार, मजदूरी और लाभ को दूर भी बढ़ जाती है। युद्ध की समाप्ति के बाद कुछ समय तक तो यह अभिवृद्धि बनी रहती है किन्तु उसके बाद मन्दी आ जाती है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भी यही घटना क्रम चला और सम्पूर्ण संसार इस मन्दी की चपेट में आ गया। प्रो. एडविन एफ० गे (Gay) ने इसी विचार की पुष्टि करते हुए लिखा है कि “विश्व युद्ध का विश्वव्यापी मन्दी के कारण और परिणाम के रूप में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।”
  3. कृषि उपज व औद्योगिक वस्तुओं का अति उत्पादन- कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कृषि एवं औद्योगिक वस्तुओं के अति उत्पादन के कारण ही विश्वव्यापी-मन्दी आयी थी। युद्धकाल की अतिरिका पाँग की पूर्ति के लिए कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन बढ़ाया गया था, साथ ही इन वस्तुओं की कीमतों में भी वृद्धि हुई थी। वैज्ञानिक खोजों और नये यन्त्रों के प्रयोग से उत्पादन बढ़ाने में सहायता मिली थी। किन्तु युद्ध के बाद कुछ समय तक तो इनकी माँग बनी रहती है किन्तु धीरे-धीरे इन वस्तुओं की मांग तथा लोगों की क्रय शक्ति कम होने लगती है, परन्तु उत्पादन उसी गति से बढ़ता रहता है, अत: मूल्यों में गिरावट आरम्भ हो जाती है, जिसमें कृषकों की आय कम हो जाती है और बेरोजगारी बढ़ जाती है। आधुनिक अर्धशास्त्री कांडलिफ ने अपनी पुसतक “दि कॉमर्स ऑफ नेशन्स” में लिखा है कि विश्व के सभी भागों में कृषि उत्पादन एवं खाद्यान्नों के मूल्य की विकृति 1929-1932 ई. के आर्थिक संकटों के प्रमुख कारणों में से एक थी” इसी प्रकार स्वीडिश लेखक ओहलीन ने अपनी पुस्तक-“नाऊ और नेव्हर” में यह विचार व्यक्त किया है कि “औद्योगिक क्षेत्र एवं कृषि क्षेत्र में म दी ऐसे समय में आरम्भ हुई जबकि विभिन्न देशों की आर्थिक स्थिति एवं आर्थिक क्षमता बहुत कम हो चुकी थी।”
  4. सोने का विषम विभाजन- प्रथम विश्व युद्ध के बाद संसार का अधिकांश सोना अमेरिका तथा फ्रांस में एकत्रित होने लगा था। अमेरिका में प्रथम विश्व युद्ध के आरम्भ तक व्यावसायिक उन्नति अपनी चरम सीमा तक पहुंच थी और युद्ध ने इसमें और अधिक बढ़ोतरी की क्योंकि अमेरिका विश्व युद्ध में आरम्भ से म्मिलित नहीं हुआ था, पर अपना माल और अस्त्र-शस्त्र आदि युद्ध सामग्री मित्र राष्ट्रों को देता रहा था। इस काल में उसने औद्योगिक उत्पादन द्वारा मित्रराष्ट्रों को अपना कर्जदार बना दिया। इस कर्ज को मात्रा बहुत अधिक थी। मित्र राष्ट्रों को जो कर्ज अमेरिका को चुकाना था, वह 5000 करोड़ रुपये से भी अधिक था। इस कर्ज को अमेरीका को माल के रूप में नहीं दिया जा सकता था क्योंकि अमेरिकन व्यवसायों का मुकाबला कर सकना अन्य देशों के लिये आसान नहीं था। यह रकम अमेरका ने सोने के रूप में प्राप्त की। अमेरिका के अतिरिक्त फ्रांस में भी क्षतिपूर्ति के रूप में सोना पहुंचने लगा। ऐसा अनुमान किया जाता है कि संसार में उस समय जितना सोना था, उसका 60 प्रतिशत सोना अमेरिका व फ्रांस के पास था। सोने के इस विषम विभाजन का स्पष्ट अभिप्राय था-अन्य देशों में सोने की कमी। सोना मुद्रा-स्फीति का आधार होता है। अतः जब सोने की कमी हो गयी तो सिक्के की कीमत भी बढ़ गयी और वस्तुओं की कीमत गिर गई। इसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर बुरा असर पड़ा और 1929 ई. में आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ । इस संकट का प्रथम असर ब्रिटेन पर हुआ और उसने ‘स्वर्णमान’ को स्थगित कर दिया। उसकी इस नीति के अनुरूप कुछ और देशों ने भी स्वर्णमान का परित्याग कर दिया था। स्वर्णमान को सुचारु रूप से संचालितु करने के लिए विभिन्न राज्यों के पास पर्याप्त मात्रा में स्वर्ण-संग्रह नहीं था। इतिहासकार लैंगसम का मानना है कि चाँदी अत्यधिक परिमाण में होने से चीन तथा भारत जैसे देशों को, जहाँ सिक्के का आधार चाँदी था; खरीदने की ताकत कम हो गई और सारी कठिनाई की जड़ यही कमी थी। कुछ लोगों ने अति उत्पादन के कारण, चाँदी का मूल्य घट जाने को आर्थिक संकट के लिए उत्तरदायी माना है। इतिहासकार वैन्स का भी मानना है कि चाँदी की क्रय शक्ति कम हो गई, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
  5. संकुचित आर्थिक राष्ट्रीयता- सन् 1929 से 1932 के बीच विश्व के अधिकांश देशों में संकुचित आर्थिक राष्ट्रीयता तथा आत्म-निर्भरता की भावना अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई थी। प्रत्येक राष्ट्र का यह प्रयास रहा था कि वह अपनी आवश्यकता की अधिकांश वस्तुएं बाहर से न मंगा कर स्वयं अपने देश में बनायें। विभिन्न राज्यों ने विदेशों से आने वाले माल पर उच्च सीमा शुल्क लगायें, विदेशों से आयात की मात्रा निश्चित की, आप्रवास नियन्त्रण हेतु कानून बनाये और विदेशी राज्यों के विरुद्ध अन्य कई प्रकारसे आर्थिक पक्षपात की नीति अपनायी । इंगलैण्ड जो अभी तक ‘मुक्त व्यापार का समर्थक था, वह भी अपने राष्ट्रीय उद्योगों की सुरक्षा की दृष्टि से संरक्षण की नीति अपनाने लगा। एशिया में स्वदेशी आन्दोलन, रूस में बॉल्शेविक क्रान्ति तथा युद्ध के फलस्वरूप यूरोप के नये स्थापित राज्यों की संरक्षण नीति में पश्चिमी यूरोप के हाथ से एक बहुत बड़ा बाजार निकल गया। इस प्रकार संकुचित राष्ट्रीयता की भावना से जो नीतियाँ अपनाई गयीं उनके फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और अधिक संकुचित हो गया। इसका प्रभाव उन देशों के लिए अहितकर था जिनको युद्ध-ऋण अथवा क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए अनुकूल व्यापार अन्तर की सख्त आवश्यकता था।
  6. सट्टेबाजी की बढ़ती हुई प्रवृत्ति- अक्टूबर, 1929 में अमेरिका के मुद्रा बाजार में घसट्टेबाजी (Speculation) का एक तीव्र दौर आया, जिसने आम अमेरिकी पूंजीपति का ध्यान आकर्षित किया। इसके परिणामस्वरूप अमेरिका के धन कुबेर भी यूरोप को ऋण देने के बजाय अपने ही देश में पूंजी लगाने लगे। यूरोप, जो इस समय अमेरिकी ऋणों के आधार पर टिका हुआ था, सहसा आधारहीन हो गया। प्रो. फाकनर ने अमेरिका में सट्टेबाजी की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को भी आर्थिक मन्दी का एक कारण माना है। महायुद्ध के पश्चात् अमेरिका की आर्थिक समृद्धि में काफी वृद्धि हुई, जिससे वहाँ के पूंजीपति अपनी अतिरिक्त पूंजी को सट्टे में लगाने के लिए आकर्षित हुए। प्रारम्भिक वर्षों में उससे बहुत लाभ हुआ, अतः शेयरों को खरीद के लिए प्रतिद्वन्द्विता आरम्भ हो गयी। करीब 10 लाख नये व्यक्ति इस व्यवसाय में प्रवेश कर गये । परिणामस्वरूप 1 जनवरी, 1925 तथा अक्टूबर 1929 के बीच की अवधि में न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज में अंशों की संख्या 44.34 करोड़ से बढ़कर 100 करोड़ हो गयी। अंश अपने अंकित मूल्य से बीस गुना अधिक मूल्य पर बिक रहे थे। अमेरिका के लोगों में यह धारणा व्याप्त हो गयी कि देश में कभी न समाप्त होने वाली समृद्धि आ गयी है। किन्तु यह चरम सीमा थी और 29 अक्टूबर, 1929 के बाद शेयर बाजार में गिरावट आरम्भ हो गई। परिणामस्वरूप सितम्बर, 1929 से जनवरी, 1933 की अवधि में 30 औद्योगिक इकाइयों के अंशों के मूल्य प्रति अंश 364.9 डालर से गिरकर 62.7 डालर रह गये। यही स्थिति अन्य अंशों की हुई। शेयर बाजार में लगभग 16 अरब डालर की हानि हुई, इससे यूरोपीय राज्यों की अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुंचा।
  7. यूरोपीय आर्थिक व्यवस्था को निर्बलता- यूरोप की स्थिति में विशेषकर इस समय दो बड़ी कमजोरियाँ थीं। प्रथम बात तो यह थी कि अब यान्त्रिक उत्पादन में यूरोप का एकाधिकार नहीं रहा था। युद्ध काल की कठिनाइयों के कारण जापान, भारत तथा ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के देशों ने फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों से माल खरीदने के स्थान पर स्वयं अपनी आवश्यकता को बहुत-सी वस्तुएं बनाना आरम्भ कर दिया था। इस समय कनाडा, रूस आदि देश इतना सस्ता अन्न उत्पन्न कर रहे थे कि यूरोप के कृषि प्रधान देश मूल्यों में उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। इससे यूरोप के कृषि प्रधान देशों पर बुरा प्रभाव पड़ा।

यूरोप की आर्थिक स्थिति की दूसरी निर्बलता यह थी की उन दिनों यूरोप के देश ऋण प्राप्त कर अपना काम चला रहे थे। अनुमानतः जर्मनी ने डावस योजना के कार्यान्वित होने के बाद विदों से 90 करोड़ पौण्ड् ऋण लिया था, जिसमें से अधिकांश अमेरिका से प्राप्त हुआ था। इस त्रण की सहायता से उसके व्यवसाय अच्छी तरह चल रहे थे, व्यापार उन्नति पर था और उसकी आय से वह क्षतिपूर्ति की किस्त चुका रहा था। 1924 से 1929 ई. के पांच वर्षों में उसने लगभग 50 करोड़ पौण्ड का भुगतान क्षतिपूर्ति के रूप में किया था और 40 करोड़ पौण्ड की उसकी बचत हुई थी। इस प्रकार 1929 ई. तक जर्मनी में समृद्धि उत्पन्न हो गयी थी किन्तु अक्टूबर, 1929 में न्यूयार्क के बैंकों का दिवाला निकल गया। विश्व पर इस घटना के दो प्रभाव पड़े। प्रथम, उन देशों को ऋण मिलना बन्द हो गया, जो उससे निरन्तर ऋण लेकर ही अपना कार्य चला रहे थे। दूसरा प्रभाव मूल्यों में गिरावट का आना था।

  1. उपभोग में कमी- उपभोग में कमी भी महानु आर्थिक मन्दी का एक प्रधान कारण बना। वर्ष 1900 से 1929 ई. के बीच की अवधि में मजदूरी की तुलना में लाभ में बहुत अधिक वृद्धि हुई थी, जिससे बचत तथा उपभोग के बीच का अन्तर बहुत बढ़ गया था। जे. एम. क्लार्क ने लिखा है कि “There wils an increase in the proportion of total income going to profits and a corresponding decrease in the relative proportion going to wages and sularics.” 1900 से 1929 ई० के बीच राष्ट्रीय आय में अनुमानतः चार गुणा वृद्धि हुई थी किन्तु राष्ट्रीय आय में इस असाधारण वृद्धि के परिणामस्वरूप भी जनता को क्रय शक्ति में कोई तोव वृद्धि नहीं हुई, अतः आधिक संकट उत्पन्न हुआ।
  2. यन्त्रजनित बेरोजगारी- महान् आर्थिक मन्दी के विभिन्न कारणों में यंत्रजनित बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारण है। विश्व युद्ध के बाद, उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में नये-नये यत्रों के उपयोग की होड़ सी लग गयी। इन यन्त्रों को अपनाने के कारण अब एक-एक यंत्र 500 व्यक्तियों या उससे भी अधिक के बराबर काम करता था। इस प्रकार यान्त्रिक उन्नति ने बेकारों की संख्या को बहुत अधिक बड़ा दिया। इससे प्रति व्यक्ति आय में कमी हुई, साथ ही क्रय शक्ति भी कम हो गयी, जिससे प्रभावोत्पादक मांग में कमी हो गयी।

महान् मन्दी के निवारण के लिए किये गये उपचार-

महान् आर्थिक मन्दी 24 अक्टूबर, 1929 से प्रारम्भ हुई। इस तिथि को “Black Thursday” केहा जाता है। इस समय से ही यूरोप के अनेक राजनीतिज्ञ इस प्रश्न पर विचार करने में तत्पर थे कि विविध राज्य किस प्रकार परस्पर सहयोग करके इस आर्थिक संकट को दूर कर सकते हैं। 1929 ई. में फ्रांस के विदेश मन्त्री बियां ने कहा था कि अब वह समय आ गया है, जबकि यूरोप के सब राज्यों को मिलकर अपना एक संघ (यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप) बना लेना चाहिये, जो न केवल उनके राजनीतिक जीवन को नियन्त्रित रखे, अपितु उनमें आर्थिक सहयोग भी स्थापित करे। किन्तु वियों के इस विचार से यूरोप के अन्य देश सहमत नहीं थे। अतः इस पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। इसी समये आस्ट्रिया के विदेश मंत्री डॉ. जोहान शोबर ने राष्ट्रसंघ सभा में यह स्ताव रखा कि तीव्र गति से बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति का सामना करने के लिए यधाशोध क्षेत्रीय समझौते किये जावें। इस सुझाव को स्वीकार भी कर लिया गया था किन्तु अन्ततः यह भी असफल सिद्ध हुआ। जून, 1931 में अमेरिका के राष्ट्रपति हूवर ने यूरोप के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए कुछ प्रस्ताव रखे, जिनमें-जुलाई, 1931 से जून 1932 तक अन्तर्राष्ट्रीय देनदारी की सब किस्तों को स्थागित रखना, जर्मनी से एक साल तक हर्जाने को वार्षिक किस्त न लेना तथा वार्षिक किस्त का जो अंश यंग-योजना के अनुसार जर्मनी को अनिवार्य रूप से प्रदान करना है, उसे भी ‘बैंक ऑफ इन्टरनेशनल सेट्लमेन्टस’ द्वारा जर्मनी में ही लगाना, प्रमुख हैं। संभवतः इस योजना से आर्थिक संकट दूर होता किन्तु सभी देश इस बात के लिए तैयार नहीं थे।

इंग्लैण्ड द्वारा 2 सितम्बर 1931 को स्वर्ण आधारित मुद्रा पद्धति त्यागने के साथ ही लगभग सभी यूरोपीय देशों में अव्यवस्था फैल गयी तथा एक के बाद एक सभी देश स्वर्णाधिरित मुद्रा को त्यागने लग गए। 1932 ई० में यूरोप में केवल फ्रांस, इटली स्विट्जरलैण्ड, रूमानिया व हॉलैण्ड ही पुरानी मुद्रा प्रणाली पर चल रहे थे। इस स्थिति के बारे में इतिहासकार डेविड थामसन लिखता है कि “स्वर्णाधारित मुद्रा का अब उस यूरोप में कोई औचित्य नहीं रह गया था, जहां का स्वर्ण अब अमेरिका में पहुंच गया था। इस प्रकार स्वर्णाधारित मुद्रा के हटते ही आर्थिक संकट से मुक्ति पाने के प्रयास तेज हो गये।

विभिन्न देशों की सरकारों ने इस समस्या से निबटने के लिए जो रास्ते अपनाये, वे निम्न प्रकार थे-

  1. विभिन्न देशों की सरकारों ने कड़ा मुद्रा नियन्त्रण आरम्भ किया तथा विनिमय-दरों पर अंकुश लगाया। तटकर को सुदृढ़ किया तथा आयात पर रोक लगायी तथा अपने-अपने देश में मन्दी के दौर पर नियन्त्रण पाने के लिए कठोर कानून लागू किए।
  2. 2. विभिन देशों की सरकारों ने क्षेत्रीय प्रबन्ध भी किये, जौसे कि नावें, स्वीडन आदि ने ‘ओस्लोगुट बना कर तथा कृषि प्रधान देश हंग्री, रूमानिया व चेकोस्लोवाकिया तथा ब्रिटिश कामनवैल्य के सदस्य देशों ने 1932 ई० में ओटावा (Ottawa) समझौता करके अपने आयात-निर्यात को सन्तुलित किया।
  3. सभी देशों ने मिलकर भी प्रयास किये, जिनमें प्रमुख है : जुलाई, 1932 का लोजान सम्मेलन । इसके द्वारा युद्ध क्षतिपूर्ति की अन्तिम शर्तों को तय किया। इसमें इंग्लैण्ड, बेल्जियम, जापान तथा इटली आदि कई देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में ‘यंग योजना’ को समाप्त कर दिया गया तथा जर्मनी से केवल 75 करोड़ डालर की राशि की मांग की गयी। इस प्रकार जर्मनी को 90 प्रतिशत ऋण की छूट मिल गई। इस छूट का कारण उदारता नहीं था अपितु आधिक संकर को दूर करने तथा व्यापार को बढ़ाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। मित्रराष्ट्र यह चाहते थे कि अमेरिका भी इसी अनुपात में प्राणों की मात्रा कम कर दे किन्तु अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं हुआ और यह सम्मेलन असफल रहा। इसी सम्मेलन में राष्ट्रसंघ से एक विश्व सम्मेलन बुलाने का अनुरोध किया गया किन्तु कोई ठोस कार्य नहीं किया जा सका। अब जर्मनी को बाहर से वाण नहीं मिल रहा था, अत: 1932 ई. में जर्मन चांसलर ने यह घोषणा कर दी कि अब जर्मनी क्षतिपूर्ति की किस्त नहीं चुका सकता। इस प्रकार 10-11 वर्षों से चला आने वाला क्षतिपूर्ति का प्रश्न समाप्त हो गया। अन्य राष्ट्रों ने भी ऋण चुकाने बन्द कर दिये।

यूरोपीय संघ योजना-

इस स्थिति से निपटने के लिए एक उपाय यह भी था कि संसार के सभी देश आर्थिक क्षेत्र में परस्पर सहयोग करें। कई तरह के सुझाव व योजनाएं प्रस्तुत की गई परन्तु सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव फ्रांस के विदेशमंत्री बियां का था, जिसने यूरोप को एक आर्थिक संघ निर्माण काने का प्रस्ताव किया। राष्ट्रसंघ की असेम्बली में इस पर विचार भी हुआ परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला क्योंकि कई राज्यों को इसमें फ्रांस का युरोप पर प्राधान्य स्थापित करने का कुचक्र दिखायी देता था। अत: आस्ट्रिया के विदेश मंत्री ने प्रादेशिक समझौते का प्रस्ताव किया। असेम्बली में इस प्रस्ताव का स्वागत हुआ। 1931 ई. में यूरोप की राजधानियों में आर्थिक सम्मेलन हुए परन्तु आर्थिक प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रीय ईर्ष्या के कारण कोई महत्वपूर्ण समझौता नहीं हो सका। केवल आस्ट्रिया और जर्मनी के बीच आर्थिक संघ बनाने के लिए समझौता हुआ। परन्तु फ्रांस ने यह कह कर कि जर्मनी इस प्रकार आस्ट्रिया को अपने साम्राज्य में सम्मिलित करना चाहता है, उसका कड़ा विरोध किया और यह समझौता भी कार्यान्वित न हो सका।

राष्ट्रसंध का सचिवालय भी बढ़ते हुए आर्थिक संकट से लगातार चिन्तित था क्योंकि इससे राजनीतिक वातावरण भी दूषित होता जा रहा था तथा एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का जन्म हो रहा था। 1931 ई० में राष्ट्रसंघ ने विश्व की अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करवाया, जिसकी रिपोट वर्ल्ड इकोनोमिक सर्वे के नाम से प्रकाशित की गई। इस आर्थिक संकट का इस रिपोर्ट में इस प्रकार से दर्शाया गया था। “यह एक पूर्ण सत्य है कि इतना बड़ा संकट किसी एक कारण से नहीं उपज सकता। जिस तरह से विभिन्न विशेषज्ञों तथा विचारधाराओं के लोगों के द्वारा इसका अलग-अलग ढंग से विश्लेषण किया गया है, वह यह सिद्ध करता है कि इसके जो कारण थे वे गहरे व अस्पष्ट थे। इससे न केवल विश्व की मुद्रा प्रणालियाँ ही प्रभावित हुई हैं बल्कि विश्व की अर्थव्यवस्था में भी आधारभूत परिवर्तन हो गये।

लन्दन का विश्व अर्थ सम्मेलन

(World Economic Conference)-

लोजान सम्मेलन के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए राष्ट्रसंघ ने जून 1933 में लन्दन में एक सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में 67 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सम्मेलन में सर्वप्रथम मुद्रा में स्थिरता लाने के सम्बन्ध में विचार हुआ और इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में संरक्षण नीति का अन्त कर परस्पर सहयोग की नीति अपनाने की बात कही गयी। फ्रांस ने यह प्रस्ताव रखा कि संरक्षण नीति का अन्त करने से पहले मुद्रा का स्थिरीकरण करना आवश्यक है। ब्रिटेन ने भी फ्रांस के इस प्रस्ताव का समर्थन किया। मुद्रा के प्रस्ताव पर कोई समझौता नहीं हो सका। इसी बीच अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ तथा रूजवेल्ट सत्ता में आया, जिसने मार्च, 1933 में अमेरिकी मुद्रा को भी स्वर्णोधार से हटा दिया। रूजवेल्ट ने महान् साहस तथा धैर्य के साथ विश्व-अर्थव्यवस्था को सुधारने का प्रयास आरम्भ किया।

मन्दी के इस दौर ने राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों व दार्शनिकों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? इसके कारणों को लेकर आज तक विवाद चल रहा है। साम्यवादी लेखक तथा मार्क्सवादी इतिहासकार इसे पूंजीवादी व्यवस्था का आन्तरिक संकट मानते हैं। रूसी लेखक जैसे ट्राटस्की व बुखारिन इस मन्दी को आर्थिक संकट नहीं मानते हैं क्योंकि यदि ऐसा होता तो इससे रूस भी प्रभावित होता । इस समस्या का सबसे गहन अध्ययन इस समय के प्रसिद्ध अंग्रेज अर्थशास्त्री जान मेनार्ड किन्स (John Maynard Kaynes) ने किया। सन् 1936 में उन्होंने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थ्योरी ऑफ एम्प्लायमेन्ट, इन्ट्रेस्ट एण्ड मनी प्रकाशित की। किन्स ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि बैंको में आम आदमी का जमा पैसा सा हो ही धकार से पूजी शिका पनी ले सकता क्योंकि पूंजी व्यवस्था में बचत करने वाला व्यक्ति तथा संयको बचत का उपयोग करने वाला व्यक्ति जरूरी नहीं कि एक ही ढंग से सोचते हैं। किन्स ने सरकारी हस्तक्षेप को पूंजी व्यवस्था के लिए भी उचित ठहराया तथा बेरोजगारी हटाने का उत्तरदायित्व सरकार पर डाल दिया। किंतु इतिहासकार जेम्म जाल इसे गलत मानते हैं। उसके विचार में किन्स साम्यवाद का कट्टर विरोधी था तथा वह पूजीवाद की केवल कुछ करीतियों को ही सरकारी हस्तक्षेप से दूर करना चाहता था। वह बीच का मार्ग सुझा रहा था।

अमेरिका पर प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व अमेरिका एक कर्जदार देश था, जो मुख्यतः इंग्लैंड के ऋण से अपने उद्योग धंधों को विकसित कर रहा था। किन्तु युद्ध के दौरान बड़े पैमाने पर खाद्य पदार्थ तथा अन्य सामग्री अमेरिका ने मित्रराष्ट्रों को दी। यूरोप के देश इस आयात के बदले कोई निर्यात नहीं दे सके । अतः व्यापार सन्तुलन तेजी से अमेरिका के पक्ष में जाना आरम्भ हो गया। युद्ध के चार वर्षों में अमेरिका कर्ज लेने वाले से कर्ज देने वाला देश बन गया। युद्ध के बाद भी अमरीकियों ने अपनी युद्ध-पूर्व की आर्थिक नीतियों को जारी रखा, जिसके फलस्वरूप वह एक निर्यातक देश बन गया। 1939 ई० के ग्रीमकाल तक तो अमरीकी शायद यह सोच रहे थे कि उन्होंने शाश्वत समृद्धि का रास्ता ढूंढ लिया है। एक दशक में उनका औद्योगिक उत्पादन ड्योढ़ा हो चुका था। व्यापारी अपने लाभों से तथा मजदूर अपनी मुजदूरी से सन्तुष्ट थे। इस समय प्रत्येक व्यक्ति यही सोचता था कि इस समृद्धि से उत्पादन में वृद्धि होगी। किन्तु अक्टूबर, 1929 में ये सारे सपने चूर हो गये। 1920-33 ई० के चार वषों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था जैसे रसातल में ही चली गई। चालू मूल्यों का राष्ट्रीय उत्पाद 46 प्रतिशत कर 104 अरब डालर से 56 अरब डालर पर आ गया। नागरिक रोजगार में करीब 20 प्रतिशत की गिरावट आयी तथा बेकारों की संख्या 15 लाख से बढ़कर एक करोड़ 30 लाख हो गई। टिकाऊ वस्तुओं का उत्पादन 80 प्रतिशत गिर गया। 1929 ई० की मन्दी के व्यापक प्रभावों को देखते हुए संघीय सरकार ने पहली बार गम्भीर रूप से स्थिति के नियन्त्रण के लिए प्रयत्न किये । राष्ट्रपति हूवर ने अक्टूबर, 1929 के संकट के बाद रेल कम्पनियों के अध्यक्षों, औद्योगपतियों, मजदूर नेताओं के साथ मन्त्रणाएं की। ऋण वितरण की व्यवस्था भी की गई किन्तु उपर्युक्त उपाय मन्दी के प्रसार को रोकने में सफल न हो सके। अन्ततः 1933 में राष्ट्रपति रुजवेल्ट ने नवीन कार्यक्रम (New Deal) के अन्तर्गत प्रभावशाली कदम उठाये। रूजवेल्ट के नवीन कार्यक्रम के तीन मुख्य उद्देश्य ये- (1) पुनरूत्थान (2) सुधार तथा (3) सन्तुलन। पुनरुत्थान का उद्देश्य राष्ट्र को घातक मन्दी से बाहर निकालना था तथा सुधारवादी कार्यक्रमों का उद्देश्य उन आर्थिक बुराइयों को दूर करना था जिनके कारण आर्थिक संकट आ गया । सन्तुलन का उद्देश्य आर्थिक प्रणाली में सन्तुलन स्थापित करना था, जिसके अन्तर्गत कमजोर क्षेत्रों जैसे, श्रम तथा कृषि को मजबूत बनाना तथा अन्य क्षेत्रों जैसें उद्योग तथा वित्त को दृढ़ संधीय नियन्त्रण के अन्तर्गत लाना था। इस प्रकार न्यूडील का मुख्य कार्य पूंजीवाद को रक्षा करना था।

इस प्रकार फ्रांस तथा रूस को छोड़कर विश्व के सभी छोटे व बड़े देशों पर विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी का प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ा और उसके कारण वहाँ आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन हुए।

लोग पूंजीवाद का विरोध कर साम्यवाद की ओर आकर्षित होने लगे। इस कारण पुंजीवादी देशों ने हिटलर तथा मुसालिनी के साथ तुष्टीकरण की नीति अपना कर उन्हें साम्यवाद के विरोध में खड़ा किया।

आर्थिक मन्दी के कारण संसार के विभिन्न राज्यों में प्रशासकीय नियन्त्रण में भी वृद्धि हुई। निरन्तर गिरती हुई कीमतों तथा मूल उत्पादकों की अत्यधिक निर्धनता एवं दयनीय स्थिति के कारण राज्यों को अनेक प्रकार के कानून एवं व्यवस्थाएं बनानी पड़ीं सीमाशुल्क आदि परम्परागत साधन मन्दी की स्थिति का सामना करने के लिए अपर्याप्त सिद्ध हुए। अतः कई राज्यों को विपणन, मूल्य नियन्त्रण, पूंजी विकास एवं वितरण पर नियंत्रण स्थापित करना पड़ा।

संकुचित राष्ट्रीयता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सौर्हाद्र की भावना, जो अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं को हल करने के लिए आवश्यक थी, समाप्त हो गयी।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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