इतिहास / History

संगम-युगीन संस्कृति | संगम युग की सामाजिक स्थिति | संगम युगीन संस्कृति की विवेचना

संगम-युगीन संस्कृति | संगम युग की सामाजिक स्थिति | संगम युगीन संस्कृति की विवेचना

संगम-युगीन संस्कृति

शासन-व्यवस्था- संगम साहित्य के अध्ययन से हम ईसा की आरम्भिक शताब्दियों के सुदूर दक्षिण की सभ्यता का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। जैसा कि उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि इस युग के राज्य परस्पर संघर्ष में उलझे हुए थे। उनकी शासन-व्यवस्था का जो कुछ भी विवरण हमें प्राप्त होता है उसके आधार पर यह पता लगता है कि इस युग में वंशानुगत राजतन्त्र (Hereditary Monarchy) का ही प्रचलन था। इसमें राजा की शक्ति सर्वोच्च होती थी। उसके अधिकार तथा शक्तियाँ असीमित थीं। इस प्रकार सिद्धान्त रूप में वह निरंकुश  था। किन्तु व्यावहारिक तौर पर उसकी निरंकुशता पर कुछ रोक लगायी गयी। उसे परम्परागत नियमों का पालन करना पड़ता था। उसके बुद्धिमान मन्त्री तथा दरबारी कविगण उसे निरंकुश होने से बचाते थे। संगमकालीन कवियों ने राजा के सदाचरण एवं नैतिकता पर बल दिया है। उसके नैतिक चरित्र का प्रजा अनुकरण करती थी। राजा प्रजाहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था। राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार करे तथा उसके सुख-दुःख का सदा ध्यान रखे। संगम साहित्य में उसे धर्म, साहित्य, कला आदि को संरक्षण प्रदान करने की सलाह दी गयी है।

संगम युग में उत्तराधिकार का नियम स्पष्ट नहीं था। अतः इसके लिये युद्ध हुआ करते थे। कभी-कभी एक साथ कई शासक शासन करते थे। शासन कार्यों में राजा ब्राह्मणों की सभा से सहायता प्राप्त करता था। चूँकि इस युग में शासक ब्राह्मण मतानुयायी थे अतः उन्होंने ब्राह्मणों को प्रशासन में सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधायें प्रदान की थीं। इस काल के कवियों ने भी राजा को यह सलाह दी है कि वह ब्राह्मणों को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखे। राजधानी में एक राजसभा होती थी जिसे ‘नालवै” कहा जाता था। यह राजा के साथ न्याय का कार्य करता था। संगम युग में स्थानीय शासन को भी महत्त्व दिया गया। नगर तथा ग्राम में अलग-अलग सभायें होती थीं। नगर सभा का मुख्य कार्य शासक को न्याय के कार्यच में सहायता देना तथा उसे परामर्श देना होता था। ग्राम सभा का कार्यक्षेत्र गाँवों में था। गाँवों में पंचायतों का बड़ा महत्त्व होता था। राजा, पंचायतों के परामर्श से ही गाँवों के लिये कानून बनाता । कालान्तर में हम देखते हैं कि चोल राज्य में स्थानीय शासन एक अत्यन्त विशिष्ट तत्त्व हो गया।

चूँकि संगम युग में कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य दोनों ही अत्यन्त विकसित अवस्था में थे, अतः राज्य की आय का मुख्य साधन इन्हीं पर लगाये जाने वाले कर थे। भूमिकर नकद तथा अनाज दोनों रुपों में अदा किया जाता था। संभवतः यह उपज का छठाँ भाग होता था किन्तु कभी-कभी इसे बढ़ाया भी जा सकता था। व्यापारियों से सीमा-शुल्क तथा चुंगी वसूल की जाती थी और इससे भी राज्य को प्रभूत आय होती थीं। इस काल की रचना पत्तिनप्पाले में कावेरीपत्तन में कार्यरत सीमा-शुल्क अधिकारियों के कार्यों का विवरण दिया गया है। इस युग के शासक युद्धों में लूट का धन भी प्राप्त करते थे। यह भी राजकोष की वृद्धि का एक प्रमुख साधन बन गया था।

संगम साहित्य से तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के विषय में भी कुछ बातें ज्ञात होती हैं। राजा देश का प्रधान न्यायाधीश तथा सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई की अन्तिम अदालत होता था। राजा के न्यायालय को ‘मनम्’ कहा जाता था। इसमें राजा के अतिरिक्त अन्य सदस्य भी होते थे। न्यायाधीशों से निष्पक्ष होकर न्याय करने की आशा की जाती थी। इस काल का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। मृत्युदण्ड, कारावास, आर्थिक जुर्माना आदि विविध रूपों में दण्ड प्रदान किये जाते थे। अपराधी को कभी-कभी भीषण यातनायें भी दी जाती थीं। चोरी तथा व्यभिचार के अपराध में मृत्युदण्ड दिया जाता था। झूठी गवाही देने पर जीभ काट ली जाती थी।

संगम युग के शासक युद्ध प्रेमी थे। वे चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षा रखते थे। युद्ध में वीरगति पाना अत्यन्त शुभ का कार्य माना जाता था। राजा की सेना में पेशेवर सैनिक ही होते थे। वह व्यक्तिगत रूप से युद्धों में जा । तथा सेना का संचालन करता था। सेना चतुरंगिणी होती थी जिसमें अश्व, गज, रथ तथा पैदल सिपाही सम्मिलित थे। नगाड़ा तथा शंख बजाकर सैनिक को बुलाया जाता था। सैनिक शिविर लगाये जाते थे। युद्ध-भूमि में वीरगति पाने वाले सैनिकों के सम्मान में पत्थर की मूर्ति बनवाये जाने की प्रथा थी। राजा अपने आवास की रक्षा के लिये सशस्त्र महिलाओं को तैनात करता था। समय जानने के लिये जलघड़ी का प्रयोग किया जाता था। विजेता शासक विजित प्रदेशों की प्रजा के साथ अत्यन्त क्रूरता का व्यवहार करते थे। विजित प्रदेशों को लूटने के पश्चात् वहाँ की फसलों को नष्ट कर दिया जाता था। इस प्रकार का क्रूर आचरण संभवतः भविष्य की विद्रोही प्रवृत्ति को दबाने के उद्देश्य से किया जाता होगा।

सामाजिक दशा-

संगम साहित्य के अध्ययन से हम तमिल देश की सामाजिक दशा के विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस समय तक सुदूर दक्षिण का आर्वीकरण हो चुका था। यह साहित्य हमारे सामने आर्य तथा द्रविड संस्कृतियों के समन्वय का चित्र उपस्थित करता है। उत्तर भारतीय समाज की कई परम्पराओं को इस काल के तमिलवासियों ने अपना लिया।

तमिल समाज उत्तर भारतीय समाज की भाँति वर्गभेद पर आधारित था। सर्वोपरि स्थान राजा का ही होता था जो अपने अधिकारियों एवं कर्मचारियों के साथ समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करता था। सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों का समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान था। वस्तुतः तमिल प्रदेश में ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगम काल में ही हुआ। समाज में वैदिक यज्ञों का प्रचलन था। बड़े राजा तथा अन्य कुलीन लोग यज्ञ कराते थे। इस कारण ब्राह्मणों, पुरोहितों को अत्यधिक सम्मानित स्थान मिला। ब्राह्मणों की हत्या को सबसे बड़ा अपराध माना जाता था। इस काल में अनेक ब्राह्मण कवि भी थे जिन्होंने राजाओं की प्रशंसा में कवितायें लिखीं। इनके बदले में उन्हें राज्य की ओर से अच्छे पुरस्कार प्राप्त होते थे। परम्परा के अनुसार चोल राजा करिकाल ने एक ब्राह्मण कवि को सोलह लाख मुद्रायें प्रदान किया था। धन के अतिरिक्त उन्हें भूमि, अश्व, रथ, हाथी आदि भी दान में दिये जाते थे। ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना इस युग के राजा का परम कर्त्तव्य था। अध्ययन-अध्यापन तथा यज्ञ- योजन ब्राह्मणों का प्रमुख कर्तव्य होता था। संगम साहित्य में उनकी दिनचर्या का विवरण दिया गया है। वे मृगचर्म धारण करते थे तथा वेदाध्ययन में लगे रहते थे। उनके रहने की अलग बस्ती होती थी। किन्तु संगम युग के ब्राह्मण मांस भक्षण करते थे तथा सुरा पीते थे। तत्कालीन समाज इस कार्यों को निन्दनीय समझता था।

ब्राह्मणों के पश्चात् संगम युगीन समाज में ‘वेल्लार’ वर्ग का स्थान था। संगम साहित्य के अनुसार उनका मुख्य उद्यम कृषि-कर्म था। इनमें कुछ धनी किसान थे। वे युद्ध में भाग लेते थे तथा उन्हें ही महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया जाता था। इनका वैवाहिक सम्बन्ध राजघराने में स्थापित होता था। ‘वेल्लार’ का दूसरा वर्ग निर्धन किसानों का था जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी और वे धनी किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे। संगम साहित्य में व्यापारी वर्ग का भी उल्लेख मिलता है जिसे ‘वेनिगर’ कहा गया है। किन्तु इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी। उन्हें शूद्रों की कोटि में रखा गया था। इसके अतिरिक्त समाज का आयोजन करते थे जिनमें कवियों को भी आमंत्रित किया जाता था। ऐसे दावतों में परोसे जाने वाले व्यंजनों तथा पेय पदार्थों का विवरण प्राप्त होता है। एक कवि अपने संरक्षण में होता है- “मैं यहाँ इस लिये आया था ताकि हम लोग उबाले जाने के बाद ठंडे  किये गये तथा साफ की गयी रुई के समान कोमल रसीले मांस खण्डों को खा सकें और बड़े बर्तनों में साथ-साथ ताड़ी पी सके।’ इसी प्रकार करिकाल के दरबार में एक दावत के अवसर पर परोसे गये व्यंजनों का विवरण देते हुए एक अन्य कवि हमें बताता है कि यहाँ जवाहरात से सुसज्जित मुस्कराती महिलायें स्वर्ण पात्रों में मदिरा उडेलती थी तथा समूचे पकाये गये पशुओं के मांस, विशेषतः उस सुअर का मांस जिसे अपनी मादा से कई दिनों तक अलग रखा गया था और खूब खिला-पिलाकर इस अवसर के लिये मोटा-ताजा कर दिया गया था, दूध में तर आप्पम् (हलवा), कछुवे का मांस एवं विशेष प्रकार की मछलियाँ स्वादिष्ट व्यंजन होती थीं। पेय पदार्थों में विशेष उल्लेख हरे बोतलों में रखी गयी विदेशी मदिरा, मुन्नीर-जो कच्चे नारियल, ताड़ के जूस तथा गन्ने के जूस को मिलाकर बनता था, तथा बाँस के पीपे में भरकर जमाने के भीतर गाड़कर पकाई गयी ताडी आदि का मिलता है। भूत-प्रेत, जादू-टोने, ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों आदि में लोगों का विश्वास था। ज्योतिषियों तथा शकुन- विचारकों का समाज में सम्मानित स्थान था तथा वे जनता से काफी धन ऐंठते थे। बच्चों को अशुभ शक्तियों से बचाने के लिये ताबीजें पहनाई जाती थीं। इस काल के लोग कौवे को शुभ पक्षी मानते थे जो अतिथियों के आगमन की सूचना देता था। भोजन के पूर्व कौवे के खाने के लिये कुछ सामग्री घर के बाहर रख देने की प्रथा थी।

संगम साहित्य से उस युग की मृतक संस्कार विधियों की भी कुछ जानकारी मिलती है। अग्निदास तथा समाधिकरण दोनों ही विधियों द्वारा शवों को विसर्जित किया जाता था। शवदाह के बाद अस्थियों को कलश अथवा मंजूषा में रखकर समाधिस्थ भी करते थे। कभी- कभी शवों को खुले रूप में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। एच० डी० सकालिया का विचार है कि महापाषाणयुगीन संस्कृतियों में प्रचलित अनेक प्रथायें संगम काल में भी विद्यमान थीं। उल्लेखनीय है कि दक्षिण की महापाषाणिक समाधियों की खुदाई में शवों के साथ-साथ दैनिक उपयोग की कई वस्तुएं, जैसे-बर्तन, आभूषण, औजार, हथियार आदि- गड़ी हुई मिलती हैं। यह लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक है। अतः कहा जा सकता है कि संगम काल में भी यह प्रथा प्रचलित रही होगी। इस युग में समाधियों के स्थान पर पत्थर गाड़ने की प्रथा थी। स्त्रियाँ अपने मृत पतियों की आत्मा की शान्ति के लिये चावल के पिन्ड का दान देती थीं।

कुछ अन्य वर्ग भी थे। ‘पुलैयन’ नामक दस्तकारों के एक वर्ग का उल्लेख मिलता है जो रस्सी तथा पशुचर्म की सहायता से चारपाई एवं चटाई बनाने का कार्य करते थे। चरवाहों तथा शिकारियों का अलग वर्ग होता था। चरवाह सामान्य जन के उपभोग के लिये दही-मक्खन तैयार करते तथा उनकी बिक्री करते थे। शिकारियों की ‘एनियर’ नामक एक जाति का उल्लेख मिलता है। ये लोग अपने पास धनुष-बाण, ढाल आदि हथियार रखते थे। तमिल देश के उत्तर में ‘मलवर’ नामक जाति निवास करती थी। इस जाति के लोग अशिक्षित थे जिनका पेशा लूट-पाट करना था। इस समय बन्दरगाहों के पास कुछ विदेशी जातियाँ-हिन्द-यवन, अरब आदि भी बस गयी थीं। विभिन्न वर्गों के जीवन स्तर में भारी विषमता थी। कुछ लोग अत्यन्त निर्धन थे और किसी प्रकार अपना भरण-पोषण कर पाते थे। धनी लोगों के मकान पक्की ईंटों के बनते थे जबकि निर्धन लोग मिट्टी तथा घास-फूस की झोपड़ियों में शरण लेते थे। नगरों में धनी व्यापारी बहुमंजिले मकान बनवाते थे। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन समाज में ब्राह्मण तथा शासक वर्ग का ही बोलबाला था। इस युग की आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों को समान रूप से सुलभ नहीं हो सका था। किन्तु संगम साहित्य में दास-प्रथा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता है।

‘तोल्काप्पियम्’ नामक तमिल रचना से ज्ञात होता है कि संगम काल में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी। इसमें हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख मिलता है। इस युग में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। तमिल साहित्य में नच्चेलियर तथा ओवैयर जैसी कवियित्रियों की चर्चा हुई जिससे स्पष्ट है कि इस काल की स्त्रियाँ सुशिक्षिता होती थीं। किन्तु विधवाओं की दशा अच्छी नहीं थी। उनके लिये अनेक कड़े नियमों का विधान किया गया था। उनके बाल मुड़ा दिये जाते थे तथा उनके लिये बिस्तर का. प्रयोग, आभूषण पहनना, अच्छा भोजन करना आदि वर्जित था। इस कारण कई विधवाओं ने मर जाना ही अच्छा समझा और इस प्रकार समाज में सती-प्रथा का प्रचलन हुआ। कुछ महिलायें वेश्यावृत्ति तथा नृत्य-गान द्वारा अपना जीवनयापन किया करती थीं। संगम साहित्य में वेश्याओं तथा नर्तकियों का उल्लेख मिलता है। समाज में व्यभिचार को अपराध माना जाता था। नर्तकियाँ नृत्य के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं कर सकती थीं।

संगम युग के तमिल शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। चावल उनका मुख्य खाद्यान्न था। इसे दूध में मिलाकर सांभर नामक खाद्यान्न तैयार किया जाता था। मांसाहार का खूब प्रचलन था। यहाँ तक कि ब्राह्मण भी मांस खाते थे। भेंड, सुअर आदि के मांस खाये जाते थे। कहीं-कहीं मछलियाँ खाये जाने का भी उल्लेख मिलता है। मदिरा तथा ताड़ी उनके प्रिय पेय थे। लोग पान, सुपाड़ी के भी शौकीन थे। संगीत, नृत्य तथा विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा लोग मनोरंजन किया करते थे। नर्तक, नर्तकियों तथा गायकों के दल घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। संगम साहित्य में इन्हें ‘पाणर’ तथा ‘विडैलियर’ कहा गया है। कवि लोग भी कवियों के पाठ द्वारा लोगों का मन बहलाव किया करते थे। कवियों को पुरस्कार भी दिये जाते थे। इनके अतिरिक्त समय-समय पर अनेक खेल तथा समारोहों का भी आयोजन किया जाता था। पासा खेलना भी मनोरंजन का एक प्रिय साधन था। मुक्केबाजी, कुश्ती, कुत्तों, खरगोशों आदि के शिकार द्वारा लोग अपना मन बहलाव करते थे। लोग अतिथियों का सत्कार करते थे तथा उसके सम्मान में बड़ी-बड़ी दावतों का आयोजन किया जाता था। राजा लोग प्रायः प्रत्येक अवसर पर बड़ी-बड़ी दावतों का आयोजन करते थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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