इतिहास / History

मूर्तिकला और उसका इतिहास | भारतीय मूर्ति कला की विशेषताएँ | भारत में मूर्ति कला का ऐतिहासिक विकास | मूर्तिकला का आशय

मूर्तिकला और उसका इतिहास | भारतीय मूर्ति कला की विशेषताएँ | भारत में मूर्ति कला का ऐतिहासिक विकास | मूर्तिकला का आशय

मूर्तिकला और उसका इतिहास

कला का आरम्भ भारत में एक सुदूर अतीत काल में हुआ। लगभग 2500 वर्ष ई० पू० की हड़प्पा की कला एक उच्च विकासावधि को प्रस्तुत करती हैं जो कि और भी पहले से चली आ रही एक निरन्तर पद्धति का परिणाम है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की मानव व पशु आकृतियों का दक्ष चित्रण और दस्तकार की धातु की मूर्तियों को बनाने की कार्य कुशलता एक ऐसी सभ्यता के केन्द्र का चित्र प्रस्तुत करते हैं जो हड़प्पा संस्कृति को समकालीन विकसित सभ्यताओं की समानता के स्तर पर पहुँचा देती है।

भारत में ऐतिहासिक काल की सबसे पुरानी मूर्तियाँ मौर्य काल (4 थी-3री शती ई० पू०) की हैं। अत्यधिक ओजस्विता और काम में लाये हुए पत्थर पर चमकदार घोट इनकी विशेषता है। अशोक शीर्षस्तम्भों पर वृषभ और सिंह जैसी पशु आकृतियाँ और फलक पर खुदी हुई पक्षी व हंस पंक्तियाँ मूर्तिकार के निर्माण की प्रवीणता को दिखाते हैं। सारनाथ से प्राप्त कुछ मस्तक राष्ट्रीय संग्रहालय में हैं। पटना संग्रहालय की दीदारगंज से प्राप्त यक्षी, लोहानीपुर के तीर्थंकर का आकर्षक धड़ व पटना के दो यक्ष (इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता) मौर्य काल में  मनुष्य आकृतियों के बनाने आदि के अति उत्तम उदाहरण हैं। भारत सरकार द्वारा राजचिह्न घोषित सारनाथ का शीर्षस्तम्भ और रामपुरवा का वृषभ शीर्षस्तम्भ जो अब नई दिल्ली में हैं, अशोक कालीन अति विलक्षण चिरस्मरणीय कला को प्रदर्शित करते हैं।

शुंग (लगभग 185-100 शती ई०पू०), जो मौर्यों के बाद उत्तर भारत में राज्याधिकारी हुए के समय में भारहुत (मध्य प्रदेश) के स्तूप के चारों ओर की वेदिका बनाई गई। यह शुंग काल की अति उत्तम रचना है और अब इण्डियन म्यूजियम, कलकत्ता में सुरक्षित है। इस काल की खण्डित कृतियाँ सारनाथ और कौशाम्बी में व अन्यत्र भी पायी गई हैं जिनमें से कुछ नमूने राष्ट्रीय संग्रहालय में हैं।

इसके बाद उत्तर में कुषाण वंश में (दूसरी शती ई०) बड़े ही कलाप्रिय शासक हुए। उस युग की बौद्ध और हिन्दू सूत्रों पर आधारित स्वदेशी भावों को लिये हुए लाल बलुआ पत्थर पर मथुरा की एक विशेष शैली हमें मिलती है। यह उत्तर पश्चिमी सीमान्त की कला से भिन्न है। सीमान्तं कला में समकालीन बौद्ध व हिन्दू विषयों के प्रयोग में विदेशी प्रभाव प्रबल है। यह कुषाण कला का गांधार रूप उत्तर कालीन यूनान-रोम प्रभाव से लिप्त है इसका विषय मुख्यतया बौद्ध धर्म है। गंधार क्षेत्र में पहले की प्रस्तर मूर्तियाँ बाद की गाच मूर्तियों के समान ओज व सुन्दरता की सूचक हैं, जिसके कारण वे संसार की अति उत्तम रचनाओं में स्थान प्राप्त कर गई हैं। इनमें से जैसे कि मर्दान के गाइड्सम्यस की चित्ताकर्षक बुद्ध की मूर्ति (पेशावर संग्रहालय), तक्षशिला से प्राप्त सुन्दर सूक्ष्म नक्काशी युक्त छोटी श्रृंगार तश्तरियाँ, गांधार शैली की विशेषता, रुचि और सजावट ही चेतना को प्रकट करती हैं। कई श्रृंगार-तश्तरियाँ राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में हैं।

भूतेश्वर, मथुरा की यक्षिणियाँ और श्रावस्ती व महोली की बुद्ध मूर्तियाँ, जैसे कि कमल पर खड़ी सम्पन्नता व समृद्धि की देवी के समान अपन स्तन को पकड़े हुए लक्ष्मी और मुस्कानयुक्त मुख व तोंदधारी कुबेर, कुषाणकला के उत्तर नमूने हैं। ये अब राष्ट्रीय संग्रहालय के संग्रह में हैं।

दक्षिण में समकालीन सातवाहनों की कला बड़ी सुन्दर व आकर्षक है। अमरावती क्षेत्र की कृतियाँ सातवाहन कला के अनमोल खजाने हैं। साँची के द्वारों में से एक के बनाने वाले विदिशा प्रदेश के हाथी दाँत के कारीगर एक ऐसी श्रेणी का प्रतिनिधित्व करते है जिन्हें सातवाहन नरेशों ने कला कौशल के लिये विशेष प्रोत्साहन दिया। उनकी कृतियाँ अमरावती की आरम्भकालीन व पश्चिमी घाट की गुफाओं की कलाओं के समकालीन है। कृष्णा नदी की घाटी में सातवाहनों के बाद आने वाले इक्ष्वाकु वंश ने भी इसी पद्धति को चलाया। नागार्जुनकोंडा के स्तूप के पत्थरों की सजावट जिनमें से कुछ राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में हैं, ठीक अमरावती जैसी है और गांधार व कुषाण कला के समकालीन है। चौरस वास्तुकला की कृतियाँ पूर्णरूप रचना में दर्शनीय हैं और उस दीवार को जिसकी कि वे शोभा बढ़ाते है । और भी गुरुत्व प्रदान करते हैं। इनके विषय भी बौद्ध धर्म के हैं।

कुषाणों के बाद उत्तर भारत में गुप्त सम्राटों का शासन लगभग दो शताब्दियों (320- 495ई०) तक रहा। उनके समय में कला की बहुत बड़ी उन्नति हुई। सारनाथ का धर्मोपदेशक बुद्ध, मथुरा का खड़ा बुद्ध व और भी कई अत्युत्तम रचनायें इन्हीं के शासन काल में बनाई गई। तीन अद्भुत चौखटे, शेषशायी विष्णु, नरनारायण और करिवरद तथा गजेन्द्रवरद, प्रसिद्ध देवगढ़ मन्दिर के हैं। यह मन्दिर गुप्त स्मारकों में बहुत ही भावपूर्ण हैं।

गुर्जर-प्रतिहारों ने जो मध्य काल (8वीं-9वीं शती ई०) के आरम्भ में सत्तारूढ़ हुए, अपनी कृतियों में गुप्त शैलियों को विलक्षण शोभा के साथ अपनाया। ये कृतियाँ कला शैली के विकास को दिखाती हैं और साथ ही चिरकाल से चलती हुई गुप्त शैली की याद दिलाती हैं।

गहड़वालों ने (12वीं शती ई०) में भी इस कला को निरन्तर जारी रखा।

चन्देलों ने गहरे उकेरे हुए, नर्तकों, गायकों और अन्य आकृतियों से सज्जित खजुराहो जैसे आकर्षक मन्दिर मध्य भारत में बनवाये।

मालवा के परमारों ने भी ऐसी ही कृतियाँ बनवाईं। इनकी उत्तम कृतियों में से एक शोभायुक्त सरस्वती आजकल ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित है।

पूर्वी भारत के पाल शासकों ने (9वीं-11वीं शती ई०) जो कि बौद्ध धर्म के उपासक थे, नालन्दा जैसे विहारों को बहुत प्रोत्साहन दिया। वहां धर्म से प्रेरित शिल्पी को कला के प्रदर्शन के लिये स्तूप व विहारों में पर्याप्त अवसर मिला। नालन्दा में कुछ सूक्ष्म आकृतियाँ प्रतिज्ञा- पूरक उपहार स्वरूप बनाई गईं। वे साधारणतया बौद्ध देवतागणों की मूर्तियों या बुद्ध जीवन के दृश्यों को दिखाती हैं। बिहार की पाल मूर्तियाँ बंगाल की सामान्य तुलना में शारीरिक अवयवों की बनावट में कुंछ भारी हैं। बंगाल में सेन शासकों ने पालों की शैली को प्रचुर कोमलता के साथ जारी रखा।

वाकाटकों ने, जो कि उत्तर भारत के गुप्तों के समकालीन थे और उनके विवाह सम्बन्धी भी थे, अजन्ता और आरम्भिक एलोरा के महान स्मारकों (5वीं-6वीं शती ई०) का निर्माण करवाया। यही परम्परा उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी पश्चिमी चालुक्यों (6ठीं-7वीं शती ई०) ने भी चलाई। इनके आरम्भिक शासकों ने मैसूर में ऐहोल और पट्टादकल के ख्याति प्राप्त  स्मारक बनवाये। राष्ट्रकूट (8वीं 9वीं शती ई०), जो पश्चिमी चालुक्यों के बाद सत्तारूढ़ हुए, फिर कुछ समय बाद ही उत्तर कालीन पश्चिमी चालुक्यों (11वीं-12वीं शती ई०) द्वारा पदच्युत कर दिये गये। इनकी उत्तर मध्यकालीन सुशोभित कलाकृतियाँ कुकनूर और कुरुवत्ती के मन्दिरों व अन्य स्थानों में देखने को मिलती हैं।

पूर्वी गंग और पूर्वी चालुक्यों (7वीं-10वीं शती ई०) के स्मारक मध्य कालीन कला को दर्शाये हुए भारत के पूर्वी क्षेत्र बंगाल प्रदेश के दक्षिण में हैं। नरसिंह (13वीं शती ई०) के समय के कोणार्क के प्रसिद्ध मन्दिर पर भुवनेश्वर व अन्य स्थानों की पहले की शताब्दियों की कला की पराकाष्ठा है।

काकतीयों (12वीं-13वीं शती ई०) ने, जो पहले चालुक्यों के अधीन छोटे राज्याधिकारी थे, वरंगल, हेनमकोंडा, त्रिपुरान्तकम व अन्य स्थानों में मन्दिर बनवाये। इनमें उत्तर कालीन चालुक्यों की शैली में विलक्षण व पतली आकृतियाँ कुछ कम सजावट के साथ बनी हुई हैं। ऐसी अनुपम सजावट का वरंगल का तोरण, जिसकी सोहावटी राष्ट्रीय संग्रहालय में है, एक उत्तम उदाहरण है।

आरम्भिक पश्चिमी चालुक्यों के समकालीन तामिल देश के पल्लव राजा थे। इनमें महेन्द्रवर्मन पल्लव भारतवर्ष के इतिहास में एक अति ही कलाप्रिय सम्राट हुआ उसने दक्षिण में गुफाओं की वास्तुकला का प्रचलन किया। उसने गुफाओं को मूर्तियों से भी सुशोभित करवाया। महेन्द्रवर्मन काल की एक शताब्दी के अन्दर मनोहर आकृतियों से सजे हुए मन्दिरों का निर्माण हुआ जिनके दृष्टान्त कांचीपुरम व अन्यत्र देखने में आते हैं। पल्लक कला का प्रभाव सुदूर दक्षिण के पांड्य व चेर क्षेत्रों तक में दिखाई देता है।

पल्लव शैली को चोलों (10वीं-13वीं शती ई०) ने भी अपनाया। ये भी मन्दिरों के महान निर्माता थे। उन्होंने साम्राज्य को तन्जवूर व गंगैकोंड-चोलपुरम की जैसी मूर्तियों से जगमगाते मन्दिरों से जड़ दिया। .

विजयनगर के सम्राट (14वीं-16वीं शती ई०) भी कला और साहित्य के संरक्षक थे। उनके विस्तृत साम्राज्य में विभिन्न शैलियों की मूर्तियों से सुसज्जित मन्दिर देखने में आते हैं। नायकों का काल(16वीं-17वीं शती ई०) दक्षिण में कला की उपासना का अन्तिम चरण था।

इस पुस्तक में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली के संग्रह से विभिन्न काल की कलाओं की उत्तम कृतियों के कुछ नमूने भी सम्मिलित किये गये हैं। ये कई शताब्दियों से चलती हुई देश के अनेक भागों से प्राप्त छोटी मूर्तियों के सही नाप के या बड़ी मूर्तियों के छोटे नमूने हैं।

उ०प्र० में मूर्ति कला की अभिव्यक्ति के लिये जिन पत्थरों का प्रयोग हुआ है, उनमें चुनार, मिर्जापुर, आगरा तथा महोबा के आस-पास सुगमता से प्राप्य विविध वर्गों के बलुए पत्थर विशेष हैं। इनके अतिरिक्त महोबा से कसौटी पत्थर, पर्वतीय अंचलों से विशेष प्रकार के काले पत्थर तथा बस्ती और गोरखपुर की ओर से नीलिमा लिये विशिष्ट कड़े पत्थरों की मूर्तियाँ पर्याप्त मात्रा में मिली हैं। इन विविध प्रकार के पत्थरों के प्रयोग को हम राजनीतिक इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी मोटे रूप से देख सकते हैं तथा चुनार का बलुआ पत्थर मौर्यकाल से बराबर व्यवहार में लाया जाता रहा तथा बहुथा उसके ऊपर विशेष प्रकार का लेप या चमक लगाई जाती थी। मथुरा की शुंग, कुषाण एवं गुप्तकालीन कलाकृतियों में लाल चित्तीदार बलुए पत्थर का प्रयोग हुआ। सारनाथ की गुप्त कालीन कला वहीं के आसपास के भूरे बलुए पत्थर के माध्यम से मुखरित हुई है। प्रतिहार कला का माध्यम अधिकतर भूरा-पीला अथवा किंचित गुलाबी रंग का बलुआ पत्थर रहा। श्रावस्ती की मध्यकालीन जैन कलाकृतियाँ मटमैले पत्थर में बनी हैं। चन्देलों ने अधिकतर भूरे रंग के बलुए पत्थर का ही प्रयोग किया है। पर्वतीय अंचल की कत्यूरी मूर्तियाँ हलके काले अथवा सुरमई रंग के पाषाण में, महोबे की जैन कला कसौटी पत्थर में तथा बस्ती-गोरखपुर की कलाकृतियाँ नीले रंग के कठोर पत्थर में विकसित हुई है। ‘मध्यकाल तक संगमरमर का प्रयोग, विशेषकर उत्तर प्रदेश में, नहीं के बराबर है, पर इसके बाद, अर्थात् पन्द्रहवीं शती के पश्चात् मन्दिरों में प्रतिष्ठित होने वाली मूर्तियों में इसका खुलकर उपयोग हुआ है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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