इतिहास / History

प्रागैतिहासिक कालीन चित्रकला | प्रागैतिहासिक कालीन चित्रों के आधार | प्रागैतिहासिक कला की विशेषताएँ | भारत में प्रागैतिहासिक चित्रकला | भारतीय प्रागैतिहासिक गुफा चित्र | भारतीय प्रागैतिहासिक कालीन चित्रकला

प्रागैतिहासिक कालीन चित्रकला | प्रागैतिहासिक कालीन चित्रों के आधार | प्रागैतिहासिक कला की विशेषताएँ | भारत में प्रागैतिहासिक चित्रकला | भारतीय प्रागैतिहासिक गुफा चित्र | भारतीय प्रागैतिहासिक कालीन चित्रकला

प्रागैतिहासिक कालीन चित्रकला

विश्व की सभी प्रागैतिहासिक कलाएँ मानव के सभ्य होने के पूर्व की हैं उसमें मानव के जन्मोत्थान और क्रमिक विकास का इतिहास संकलित है। जैसे-जैसे मानव सभ्यता के पग पर बढ़ता गया, वैसे-वैसे समय के साथ कला भी विकास की सीढ़ी चढ़ती गयी। प्रागैतिहासिक चित्रों की खोज मनुष्य के सांस्कृतिक इतिहास में अभूतपूर्व महत्त्व रखती है। इन चित्रों का उद्भव काल मानव जाति की उत्पत्ति काल के इतिहास से ही सम्भवतया जुड़ा है। इन चित्रों का काल निर्णय स्वयं में एक जटिल समस्या है। स्पेन में अल्टामीरा और फ्रांस में लस्का नामक स्थानों के अतिरिक्त अफ्रीका के जंगलों में बुशमैन द्वारा निर्मित चित्रों से इस चित्रकला के अध्ययन को और अधिक समृद्ध किया। सौन्दर्यबोध, आनन्द चेतना, सरलता, भीषणता, आह्लाद, उत्साह, वीरता, गति आदि की शक्ति इन मानवानुभूतियों को प्रकट करके आनन्द व संतोष प्राप्त करने की क्षमता सबमें रही है। अबालवद्ध तथा नर-नारी की अनुभूति, चिन्तन पद्धति एवं आचार व्यवहार सबमें एकात्मकता है।

वैज्ञानिकों के मत से प्रागैतिहासिक काल 10 हजार वर्ष पूर्व के अन्तर्गत माना जाता है। इस काल को उन्होंने पैलीथोइस, मसोथोइस और कैनोथोइस युगों में विभाजित किया है और इसके भेद पूर्व पाषाण, मध्यपाषाण और उत्तर पाषाण के रूप में किये गये। उत्तर पाषाण के  कुछ अवशेष मिलते हैं जिनका रूप समय के साथ नष्ट-भ्रष्ट हो गया। और जो अवशेष मिले हैं उनसे समय निश्चित नहीं किया जा सकता।

प्रागैतिहासिक कालीन चित्रों के आधार

प्रारम्भ कालीन युग में मानव अपनी विषम परिस्थितियों, वातावरण व भौगोलिक दशा में उलझा हुआ था। वह उसी उलझी हुई विषमताओं व परिस्थितियों को ही चित्रित कर पाया। प्रागैतिहासिक कला में अभिव्यक्त मानवाकृतियों को देखकर स्पष्ट होता है कि उस युग में जीवन कठोर था। प्राकृतिक वातावरण ने उसकी प्रकृति को हिंसक और बर्बर बना दिया था। इसी कारण उनमें कठोरता के दर्शन होते हैं। प्रागैतिहासिक चित्रों से इस बात पर भी प्रकाश पड़ता है कि उस समय की सभ्यता बर्बर तथा जंगली थी। भोजन के लिए उसे आखेट पर निर्भर रहना पड़ता था और जीवनयापन के लिए अपने शिकार की तलाश में अस्थाई और असुरक्षित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। इन चित्रों से उनके जीवन के आधारभूत तत्त्वों का परिचय होता है, उसके जीवन में शक्ति और सहयोग का धीरे-धीरे विकास हो रहा था। इन्हीं चित्रों से यह भी ज्ञात होता है कि प्राचीन मानव किन-किन परिस्थितियों से गुजर रहा था और सभ्यता की दौड़ में वे कहाँ तक थे इन चित्रों के विवरण से हम इस तथा को भली प्रकार जान सकते हैं।

विषय- प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य प्रकृति की गोद में रहता था। प्रकृति ही उसकी सहचरी थी। अतः इस युग की. कला में कृत्रिमता का अभाव और वास्तविकता के दर्शन होते हैं। प्रागैतिहासिक युग में चित्रों का विषय धनुष बाण लिए हुए, युद्ध करते हुए, पशुओं का शिकार करते हुए, विजयोत्सव पर नृत्य करते हुए, ढाल तथा अन्य वाद्यों को बजाते हुए चित्रण करना रहा है। चित्रों में सबसे अधिक लुभावनी विषय वस्तु आखेट रही है। सुअर, गैंडा, बारहसिंगा, हिरन, भालू, बैल, हाथी, जिराफ, भैंसे, घोड़े, तीते आदि पशुओं तथा विभिन्न पक्षियों के चित्र अंकित किए गये हैं। इसके अतिरिक्त स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी आदि के चित्र भी इस युग की चित्रकला के विषय रहे हैं। जादू-टोने के रूप में अमूर्त भावनाओं को भी अभिव्यक्त किया। आधि-व्याधि, रोग-शोक आदि की भी चित्रकला के माध्यम से अभिव्यक्ति हुई है।

शैली- इन चित्रों की रचना के मूल में जिन भावनाओं ने काम किया है उसमें प्रकृति पर मानव-विजय के दृश्यों को अंकित करने तथा अपने चारों ओर की घटनाओं की स्मृति की इच्छा प्रधान है। अतः अविकसित होते हुए भी इन चित्रों की शैली व्यक्ति के आंतरिक उल्लास और आवेश से परिपूर्ण है। शैली यथार्थता पूर्ण है। और वही है जो संसार के अन्य देशों स्पेन, मेक्सिको में इस समय के चित्रों की थी। मूल रूप में इस काल के चित्र आदिम व्यक्ति के अनुभवों और उनकी आनन्दपूर्ण स्थितियों के सांकेतिक और लाक्षणिक नमूने हैं।

चित्रों के अंकन में रामरज, गेरू और हिरौजी का प्रयोग हुआ है। विन्ध्याचल की गुफाओं के निकट लाल रोड़ी से पीसे हुए नमूने और रंगों के पीसने के सिल मिले हैं जिससे इस काम का बड़े स्तर पर होने का पता चलता है।

काल- प्रागैतिहासिक काल के चित्रों का समय और तिथि अनिश्चित है। इस काल के पश्चात् भारतीय कला के ऐसे युग में प्रवेश करते हैं जो ईसा से 300 वर्ष पूर्व का है और जिसके सबसे अच्छे उदाहरण रामगढ़ पहाड़ियों के निकट जो मध्यप्रान्त के पैन्ड्रारोड़ स्टेशन से 100 मील के अन्तर पर रामगढ़ पहाड़ियों के बीच जोगी मारा गुफा पर पाये जाते हैं।

प्रागैतिहासिक काल के चित्र-

भारतवर्ष के प्रागैतिहासिक काल की चित्रकला के नमूने कम हैं पर जो हैं वे काफी मनोरंजक हैं। ये नमूने रायगढ़ रियासत के सिंहनपुर ग्राम में,मिर्जापुर में, मध्य भारत में होशंगाबाद के निकट, बिहार में चक्रधरपुर के पास तथा विजयगढ़ की गुफा में मिलते हैं। सिंहनपुर के नमूनों में हिरण, छिपकली तथा जंगली भैंसों के चित्रों की श्रृंखला है। एक चित्र में सामूहिक नृत्य का चित्रण हुआ है। दूसरे चित्र में भैंसे का चित्रण हुआ है। भैंसे के सिर के चित्रण में चित्रकार के सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय मिलता है। एक अन्य चित्र में कुछ व्यक्ति जंगली भैंसे का शिकार कर रहे हैं। शिकारियों में कुछ गिर रहे हैं और कुछ के घावों से रक्त निकल रहा है। एक स्थान पर बरछी और भालों से छिदे एक भैंसे का चित्र है। एक ओर वह भैंसा दम तोड़ रहा है और दूसरी ओर उमेरे हुए मनुष्य प्रसन्न मुद्रा में दिखाई गये हैं। होशंगाबाद के एक चित्र में घोड़े पर सवारी करते हुए मनुष्यों का चित्रण है। दूसरे चित्र में एक बारहसिंगा भागता हुआ दिखाया गया है। बिहार के चक्रधरपुर के समीप एक चित्र में कुछ मनुष्य लेटे हुए दिखाये गये हैं। उनके समीप कुछ व्यक्ति भुजाएँ फैलाकर अपनी विजय पर गर्व कर रहे हैं।

उद्देश्य- प्राचीन युग में मनुष्य वन्य पशुओं के भयावह रूप से भयभीत, था। अपने अस्तित्व की रक्षा ही उनके जीवन का मूल उद्देश्य था अतः अपने हृदयगत भय को शान्त करने के लिए गुफाओं की दीवारों पर ऐसे हथियारों, अस्त्र-शस्त्रों और आखेट के चित्रों का अंकन किया जिसमें उनकी वीरता और संरक्षण का अंकन हो सके। शचीरानी गुर्टू ने प्रागैतिहासिक चित्रकला के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा है-“प्राचीन काल में पार्थिव प्रकृति को आध्यात्मिक रूप देने का प्रयास किया गया। दृश्य जगत् और जीवन की मूल कल्पनाओं को अपने अज्ञान, अपूर्ण आवेगों और कामना की चाहों में न बांधकर दिव्य शक्तियों में रूपान्तरित किया गया। जिससे तत्कालीन समस्त कलामय सुजनों की पृष्ठभूमि में अधिकतर धार्मिक भावना ही निहित दिखाई पड़ती है।”

प्राकृतिक स्रोत– विश्व की समस्त प्राचीन कलाओं ने प्रायः प्रकृति से प्रेरणा ग्रहण की है। प्रकृति ने कलाकारों को विषय तथा माध्यम दोनों ही प्रदान किए। कलाकारों ने मानव, पशुओं तथा पक्षियों को प्रकृति के सान्निध्य में चित्रित किया। कुछ पशुओं को पूजनीय बनाकर देवता के साथ अंकित किया। सांड की भयंकरता तथा उस पर विजय प्राप्त करने के अनेक चित्रों से ज्ञात होता है कि चित्रकला ने मानव मन की भय ग्रन्थि को खोलने में मनोचिकित्सक का कार्य किया था।

प्राचीन कलाएँ- मानव के समस्त भू-भाग में फैले होने के कारण प्रागैतिहासिक कलाएँ भी सर्वत्र व्याप्त हैं। मानवकी प्रवृत्तियों ने उसको विकास की ओर उन्मुख किया। यही कारण है कि प्रागैतिहासिक कला मित्र, क्रीट, सुमेर, सिन्धु, असीरिया, बेबीलोनिया, उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका, पश्चिमी अफ्रीका, लंका, मैलानेशिया, खाल्डिया आदि स्थानों में पायी गयी। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की कला के प्राप्त चित्र यहाँ की कला से समानता रखते हैं।

आधुनिक मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता प्राचीन काल को नये परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करती है। उस सांस्कृतिक वेश क्रम को मानव किसी न किसी रूप में पर परागत रूप से निर्वाह कर रहा है। सर जॉन मार्शल और डॉ० अर्नेस्ट पैके के प्रपल से सन् 1923 में सिन्धु और रावी के तट पर हजारों वर्ष पहले के निवासियों के रहन-सहन, जीवन प्रणाली तथा सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त किया गया। इस खोज में अनेक प्रकार के सभा भवन, सरोवर, सानागार, दुमंजिले भवनों के अवशेष, वस्त्र, आभूषण, हाथी दाँत, हड्डी, मिट्टी तथा तांबे के गहने, हथियार आदि प्राप्त हुए हैं, जो उस युग की कला के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। बर्तन, ठप्पा, जवाहरात, आभूषण, मूर्तियाँ और मुद्राओं पर चित्रित चित्र धर्म के अन्तर्गत हैं। ये चित्र शैव और नाग मत के प्रतीकात्मक चित्र हैं। मुद्राओं पर पशुओं की आकृतियाँ अंकित हैं। ये कलात्मक आकृतियाँ उनके मानसिक उद्वेगों, कल्पनाओं, भावनाओं, स्वप्नों, धर्म धारणा तथा सौन्दर्यात्मक प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती हैं। वाचस्पति गैरोला ने इस सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करते हुए लिखा है कि भारत में आध्यात्मिक उपादानों को लेकर कला के विराट स्वरूप का निर्माण हुआ। भारतीय कलाकार ने बाहा सौन्दर्य के वशीभूत होकर कला की उद्भावना नहीं को, बल्कि उसकी अन्तःप्रेरणाओं और उनके भीतर प्रस्तुत दैवी विश्वासों ने ही उसके विचारों को रंग, रूप, वाणी और ख्याति प्रदान की।” मोहनजोदडो में ऐसे चित्र मिले हैं जिन पर आर्य सभ्यता का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है इस स्थान से अस्सी मील उत्तर में हड़प्पा नामक स्थान पर अनेक शिला खण्ड मिले हैं जिनकी कलात्मक चित्रकारी के सुन्दरतम रूप हजारों वर्ष प्राचीन हैं।

भारत में विन्ध्याचल की पहाड़ियों में डेढ़ लाख वर्ष पूर्व के मानव अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें भारतीय प्रागैतिहासिक कला की प्राचीनता का इतिहास छिपा है जिससे विश्व की प्रागैतिहासिक कला के क्षेत्र में स्थापित महत्व पर प्रकाश पड़ता है। सन् 1863 में राबर्ट्स फूट ने मद्रास के समीप प्रस्तर युग का शिलाखण्ड ढूंढा । तत्पश्चात् 1880 में आर्चीबाल्ड कार्लाइल तथा जे काकबन ने मिर्जापुर में पंख के वस्त्र पहने हुए मनुष्यों के चित्रों से अंकित चट्टानों की खोज की। सिंहनपुर तथा जोगीमारा, उड़ीसा, होशंगाबाद, पंचमढ़ी आदि में प्राचीन कला के चित्र उपलब्ध हुए हैं। चित्रकार ने सीमित रेखाओं में वस्तु के सूक्ष्म रूप की तथा अधिकतम भाव व्यंजना करके अपनी कला कुशलता और चातुर्य का परिचय दिया है।

प्रागैतिहासिक कला की विशेषताएँ

आदि मानव ने जिस प्रकार अपने अस्तित्व की रक्षा की उस सबके प्रागैतिहासिक चित्र मानव के आरम्भिक तथा असभ्य जीवन का दर्शन कराते हैं। तत्कालीन मानव अपने में बर्बरता लिए प्रकृति से संघर्ष करता रहा है। अपने जीवनयापन के साधन के साथ-साथ भावाभिव्यक्ति की ओर भी ध्यान दिया है। विषम रेखाओं, स्पष्ट चित्रण द्वारा मनुष्य ने अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति की है उस युग की कला से स्पष्ट होता है कि उन विषम परिस्थितियों में मानव का जीवन कितना अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित था।

(1) विषयात्मक चित्रण- प्राचीन काल में मानव ने अपने सामाजिक परिवेश से समन्वय करके अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप देकर बाह्य जगत् से एकात्म स्थापित किया। प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करके उस समरसता से विजय प्राप्त की। भावनाओं को धर्म का रूप दिया क्योंकि तार्किक बुद्धि के अभाव के कारण मानव मान्यताओं को आस्था और दृढ़ता से ग्रहण करता था क्योंकि अनिश्चित धारणाओं के कारण वह चिन्तन करने में अक्षम था। शरीर के गुह्य भागों की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं किया। ये चित्र स्वाभाविक और सजीव प्रतीत होते हैं।

(2) मौलिकता एवं यथार्थता- प्रागैतिहासिक मानव की कला में यथार्थता एवं मौलिकता दोनों ही पाये जाते हैं। उस युग के चित्रों में शरीर के विभिन्न अंगों, उपाँगों, मांसपेशियों, नस्लों और भंगिमाओं को चित्रित न करके उनकी स्थायी प्रतिमा प्रदर्शित की गई है। चित्रों में मौलिक उद्भावना तो है किन्तु सौन्दर्य पक्ष अधिक विकसित नहीं हुआ है। ये चित्र विषय शैली तथा सामग्री की दृष्टि से उस युग के मानव जीवन के प्रतीक हैं।

(3) सूक्ष्म चित्रण- प्रागैतिहासिक युग की कला में वस्तु को मूल रूप की अपेक्षा सूक्ष्मतम रूप में चित्रित किया गया है क्योंकि अपने मौलिक रंगों के प्रयोग से वस्तु का प्रकृति से घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करना तथा सूक्ष्म रूप का दर्शन कराना ही कलाकार का उद्देश्य था।

(4) प्रतीकात्मकता तथा आध्यात्मिकता- इस कला में मानव ने अपनी अन्तर्नुभूतियों को प्रतीक द्वारा व्यक्त किया। उन प्रतीकों से समाज की मान्यताओं और विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है। इन प्रतीकों को धर्म में संयुक्त करके पशु-पक्षियों को भी देव तुल्य बना दिया। आज भी उन प्रतीकों का माँगलिक रूपों में स्पष्ट दिखाई देता है जो मानव समाज के धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति के आधार हैं।

(5) एक तथा दो चश्म चित्र- प्रागैतिहासिक कला-चित्रों में लम्बाई तथा चौड़ाई वाले पार्श्व ही पाये जाते हैं। चित्रों में सरल सुबोध शैली में अपने मन के स्पन्दनों को साकार किया। उनकी कला बालक की अनगढ़ रचनाओं के निकट प्रतीत होती है क्योंकि उन्हें किसी प्रकार का कलागत तकनीकी ज्ञान नहीं था। फिर भी सीमित साधनों द्वारा चित्रों में भावपूर्ण मौलिक अंकन है जिनमें उनके कौशल और दक्षता के दर्शन होते हैं।

(6) लोक कला का प्रतिनिधित्व- इस युग में कला जनजीवन में समायी हुई थी वह उनके दैनिक जीवन का एक अंग थी अपने मन की अनुभूतियों की कला रूपों में व्यक्त करके उन्हें आत्म-तुष्टि का अनुभव होता था। कलाकार कला का प्रयोग व्यावसायिक रूप में नहीं करते थे। वह कला के प्रति हमारे आदर और सम्मान की भावना तथा हमारी संस्कृति की महानता को व्यक्त करता है।

स्वदेशी तथा सामान्य उपकरण सामग्री का प्रयोग-

प्रागैतिहासिक कला के हड़प्पा तथआ मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों, बर्तनों तथा अन्य प्राप्त हुए अवशेषों से ज्ञात होता है’ कि कलाकार उस समय चित्रण में गेरू, हिरौंजी, रामरज आदि सामान्य रंगों तथा सामग्रियों का प्रयोग करते थे। इन सामान्य साधनों के प्रयोग से भी उन चित्रों की सजीवता, सौन्दर्य सहस्रों वर्षों के बाद भी अपनी धमक को अमर बनाये हुए है।

प्रागैतिहासिक कला विश्व कला की सुदृढ़ नींव है जिसमें पाश्चात्य तथा पूर्वात्य के भेद से दूर मानव इतिहास की गरिमा छिपी है, जो हमारी चेतना को जागृत करके मानव विकास को गतिशील बनाने में तथा जीवन मूल्यों को समन्वित करने में सदैव सहायक सिद्ध हुई है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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