इतिहास / History

चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल प्रशासक के रूप में | कौटिल्य के पुस्तकों से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की जानकारी | प्रशासक के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य के कार्यों का आलोचना

चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल प्रशासक के रूप में | कौटिल्य के पुस्तकों से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की जानकारी | प्रशासक के रूप में चंद्रगुप्त मौर्य के कार्यों का आलोचना

चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल प्रशासक के रूप में

चन्द्रगुप्त केवल एक महान विजेता ही नहीं था, वह एक कुशल शासक भी था। अपने प्रधानमन्त्री चाणक्य की सहायता से उसने एक सुसंगठित शासन तन्त्र का विकास किया। उसके द्वारा स्थापित शासन प्रणाली आगे आने वाले शासकों के लिए आदर्श बन गई।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ तथा मैगस्थनीज़ की ‘इण्डिका’ पुस्तकों से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की जानकारी-

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-प्रबन्ध की प्रामाणिक जानकारी कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ तथा मैगस्थनीज की पुस्तक ‘इण्डिका’ से मिलती है। चाणक्य का ही दूसरा नाम कौटिल्य था। इन्हीं दो पुस्तकों के आधार पर चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध की निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है-

(1) सम्राट-

सम्राट् ही प्रमुख प्रशासक होता था। वह राज्य के प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह विदेशी राजदूतों से वार्तालाप करता था। वह स्वयं ही गुप्तचरों से साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों तथा विभागों के समाचार प्राप्त करता था। अर्थ विभाग के पत्रों को भी स्वयं ही देखता था। वह हमेशा प्रजापालक बनकर अपनी प्रजा का ध्यान रखता था एवं अपनी प्रजा की सुविधा के लिए आवश्यक प्रशासनिक आदेश निकालता था। सम्राट ही राज्य का प्रधान न्यायाधीश होता था। वह राजसभा में बैठकर प्रजा के आवेदनों को सुनकर न्याय करता था और नीचे के न्यायालयों की अपील भी सुनता था।

सम्राट् ही सेना का प्रधान होता था। सेनापतियों की नियुक्ति और सैनिक संगठन वह स्वयं करता था। युद्ध के समय वह स्वयं सेना का नेतृत्व करता था।

इस प्रकार सम्राट की शासन की सर्वोच्च शक्ति थी। वह प्रशासन, न्याय, सेना, कानून बनाना आदि सभी काम करता था। फिर भी वह निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी नहीं था। वह अपनी प्रजा की भावनाओं और जनमत का ध्यान रखता था। पुरातन राजनियमों का आदर व पालन करना वह अपना धर्म समझता था।

(2) मन्त्रिपरिषद्-

सम्राट के शासन काल में सहायता देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् थी। डॉ० राजबली पाण्डेय के अनुसार इस मन्त्रिपरिषद् में आवश्यकतानुसार बारह से लेकर बीस सदस्य तक होते थे। राजा मन्त्रिपरिषद् के विचारों के अनुकूल कार्य करने के लिए बाध्य नहीं था, किन्तु साधारणतया वह मन्त्रिपरिषद् की मन्त्रणा के अनुकूल ही कार्य करता था। इस मन्त्रिपरिषद् के मुख्य कार्य थे-

(क) राज्य में उस कार्य को प्रारम्भ करना, जो आरम्भ न हुआ हो,

(ख) प्रारम्भ किये गये कार्य को करना,

(ग) पूरे किये गये कार्य में वृद्धि करना तथा

(घ) सभी कार्यों की सिद्धि हेतु साधनों को जुटाना तथा संग्रहण करना।

मन्त्रिपरिषद् का अधिवेशन दैनिक राजकार्यों के लिए न होता था परन्तु आवश्यक कार्यों के सम्बन्ध में मंत्रि परिषद की बैठक ही बुलाई जाती थी। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

(3) मन्त्री-

मन्त्रिपरिषद् के अतिरिक्त राज्य के दैनिक कार्य के लिए तीन या चार मंत्रियों की एक उपसमिति होती थी। इसे मंत्रिणा कहा जाता था। इस छोटी परिषद् के मन्त्रियों के परामर्श से ही सम्पूर्म राज्य के शासन का संचालन होता था। मन्त्रियों को 48,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। इससे स्पष्ट होता है कि इन मन्त्रियों का पद मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों से ऊँचा होता था।

(4) केन्द्रीय शासन-

चन्द्रगुप्त मौर्य के केन्द्रीय शासन व्यवस्था में सम्राट, मंत्रिपरिषद् और मन्त्रियों के अतिरिक्त केन्द्रीय शासन व्यवस्था अनेक विभागों (तीर्थ) में विभक्त थी, प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष अमात्य कहलाता था। शासन सुविधा की दृष्टि से केन्द्रीय शासन कई भागों में विभक्त था। ये विभाग ‘तीर्थ’ कहलाते थे। इन विभागों का संचालन तथा निरीक्षण के लिए एक अध्यक्ष होता था, जो अमात्य कहलाता था। ये अमात्य निम्नलिखित थे-

(1) प्रधानमन्त्री एवं पुरोहित, (2) समाहर्ता (राजस्व मन्त्री), (3) सन्निधाता (कोषाध्यक्ष), (4) सेनापति, (5) युवराज (भावी राजा), जो शासन में राजा को सहायता करता था, (6) प्रदेष्टा (शासन सम्बन्धी न्याय के लिए अमात्य), (7) व्यावहारिक (स्वास्थ्य, उत्तराधिकार आदि से सम्बन्ध रखने वाला न्यायालयों का अमात्य), (8) नायक (सेनानायक),(9) कार्मान्तिक (उद्योग मन्त्री), (10) मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष, (11) दण्डपाल (सेना के लिए सामग्री जुटाने वाले मन्त्री), (12) अन्तपाल (सीमा की रक्षा सम्बन्धी कार्यो का मन्त्री), (13) दुर्गपाल (गृहरक्षा मन्त्री), (14) पौर- (राजधानी के प्रबन्ध का अध्यक्ष), (15) प्रशास्ता (राजकीय कागज पत्र का मन्त्री), (16) दैवास्कि (राजद्वार का मुख्य अधिकारी), (17) आन्तर्वशिक (अन्तःपुर का प्रमुख अधिकारी), (18) आटविक (जुगल विभाग मन्त्री)।

इन अठारह विभागों के अतिरिक्त विभिन्न विभागों के अन्तर्गत अनेक उपविभाग थे, जिनका प्रधानाधिकारी अध्यक्ष कहलाता था।

(5) प्रान्तीय शासन-

चन्द्रगुप्त का साम्राज्य एक अत्यन्त विशाल साम्राज्य था, अतएव एक ही केन्द्र से उनका संचालित होना सम्भव नहीं था। इसके लिए उसका विकेन्द्रीकरण या प्रान्तों में विभाजन आवश्यक था। चन्द्रगुप्त के समय में साम्राज्य कितने प्रान्तों में विभक्त था, इसका पूरा-पूरा पता नहीं, किन्तु अशोक के अभिलेखों से अशोक के समय के प्रान्तों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि अशोक के समय में कम से कम पाँच प्रान्त थे। (1) उत्तरपथ, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी, (2) अवन्तिपथ, जिसकी राजधानी उजयिनी थी, (3) दक्षिणा-पथ, जिसकी राजधानी स्वर्ण गंगा थी, (4) कलिंग, जिसकी राजधानी तोषाली थी, (5) गृहराज्य या प्राच्य, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

चूँकि कलिंग पर अशोक ने विजय प्राप्त की थी, अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त के शेष चार प्रान्त ही थे। सुदूरस्थ प्रान्तों के प्रबन्ध के लिए राजकुमारों को नियुक्त किया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार, प्रत्येक राज्य के राजकुमारों का वार्षिक वेतन 12,000 पण होता था। इन प्रधान प्रान्तों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रदेश थे, जिन्हें अपने शासन में पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त थी। एरियन ने कतिपय ऐसे नगरों तथा लोगों का उल्लेख किया है, जिन्हें इस प्रकार की स्वतन्त्रता थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ऐसे संघों का उल्लेख है।

प्रो० स्मिथ के अनुसार, ‘सम्राट् का इन दूरस्थ प्रान्तों पर अकबर से भी अधिक नियन्त्रण था।”

(6) स्थानीय शासन-

केन्द्रीय तथा प्रान्तीय शासन के बाद स्थानीय शासन आता था। इस स्थानीय शासन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (i) ग्राम शासन, (ii) नगर शासन।

(i) ग्राम शासन- प्राचीन काल से ही हमारे शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम ही रही है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी उस इकाई को उतना ही महत्त्व दिया था। ग्राम के शासन का प्रधान ग्रामिक होता था। वह ग्रामिक ग्राम का ही कोई अनुभवी व्यक्ति होता था। किन्तु इसकी नियुक्ति सरकार द्वारा ही होती थी। ग्रामिक ग्राम सभा की सहायता से गाँव का शासन सम्बन्धी तथा न्याय सम्बन्धी कार्य करता था। अर्थशास्त्र के अनुसार, ग्रामिक के ऊपर गोप नामक अधिकारी होता था। गोप के नियन्त्रण में साधारणतया पाँच या दस ग्राम हुआ करते थे। गोप के ऊपर का अधिकारी, स्थानिक कहलाता था। यह एक जनपद के चतुर्थाश का अधिकारी होता था। इन अधिकारियों के कार्यों का निरीक्षण समाहर्ता किया करता था।

इस प्रकार ग्रामों का शासन अत्यन्त सुव्यवस्थित एवं संगठित था। यूनानी वृत्तान्तों से हमें पता चलता है कि कृपकों की दशा अच्छी थी। इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था कि उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो और न उनका किसी तरह का नुकसान हो। वे अपना काम बिना बाधा के निरन्तर करते थे।

(ii) नगर शासन- नगर का प्रधान प्रबन्धक ‘नगराध्यक्ष’ कहलाता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में उसे ‘पौर व्यावहारिक’ के नाम से पुकारा है, जो राज्य का उच्च अधिकारी होता था। नगर के प्रबन्ध के लिए छः समितियाँ होती थीं- (1) शिल्पकला समिति, (2) विदेशी यात्री समिति, (3) जनगणना समिति, (4) वाणिज्य समिति, (5) वस्तु निरीक्षक समिति, (6) कर समिति। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे। सामूहिक रूप से नगर की समितियों के सदस्य नगर की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होते थे। पाटलिपुत्र में तीस सदस्यों का मण्डल आधुनिक म्युनिसिपैलिटी की परिषद् के समान था और उसकी समितियाँ भी म्युनिसिपैलिटी या नगरपालिकाओं की उपसमितियों के समान थीं। अतः यह कहा जा सकता है कि आधुनिक स्थानीय स्वशासन की नगरपालिकाओं का विस्तृत रूप मर्य साम्राज्य में विद्यमान था।

(7) सेना का प्रबन्ध-

चन्द्रगुप्त मौर्य का एक विशाल साम्राज्य था। इस विशाल साम्राज्य की रक्षा एवं देखभाल के लिए एक सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित सेना की आवश्यकता थी।

चन्द्रगुप्त की सेना चतुरंगिणी या चार अंगों वाली थी। इसमें पैदल, अश्वारोही. हाथी तथा रथ शामिल थे। उसकी सेना में 6 लाख पैदल, 30 हजार अश्वारोही, 36 हजार हाथी तथा 24 हजार रथ थे। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक सुव्यवस्थित जहाजी बेड़ा भी था। खच्चरों और ऊँटों की सैनिक इकाइयों का उल्लेख मिलता है। इस विशाल सेना की व्यवस्था का बड़ा ही सुन्दर प्रबन्ध था। इस विशाल सेना का प्रबन्ध तीन सदस्यों के एक मण्डल के हाथ में था। मण्डल में 30 सदस्य होते थे। सेना के प्रमुख विभाग इस प्रकार थे-(i)-सेना विभाग- यह विभाग जल सेना का प्रबन्ध करता था। जल सेनापति की सहायता से इस विभाग के सदस्य जल सेना को हर प्रकार की सुविधा देते थे।

(ii) रसद विभाग- इस विभाग का कार्य सेना को हर प्रकार की आवश्यक सामग्री तथा  रसद आदि के भेजने का था। बाजा बजाने वाले, सईसों, घसियारों आदि का प्रबन्ध भी इसी विभाग के हाथ में था।

(iii) अश्वारोही विभाग- यह विभाग अश्वारोहिणी सेना की व्यवस्था करता था। इस सेना की आवश्यकताओं आदि का प्रबन्ध करना इस विभाग का कार्य था।

(iv) पैदल सेना विभाग- यह विभाग पैदल सेना को हर प्रकार की सुविधायें देने का प्रबन्ध करता था।

(v) रथ विभाग- यह रथ वाली सेना की सुविधा का ध्यान रखता था।

(vi) गज विभाग- यह हाथियों की सेना का प्रबन्ध करता था।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार, चिकित्सा विभाग भी होता था। प्रत्येक सैन्य विभाग के प्रत्येक कार्य की देखभाल राजा स्वयं करता था। उसकी सेना स्थायी थी। सेना के प्रत्येक व्यक्ति को राजकोष से नियमित वेतन मिलता था। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का सैन्य संगठन अत्यन्त सुव्यवस्थित और सुसंगठित था।

(8) पुलिस और गुप्तचर विभाग-

राज्य में आन्तरिक शान्ति की स्थापना के लिए पुलिस का भी संगठन था। इस विभाग के दो अंग थे-

(i) साधारण पुलिस, (ii) गुप्तचर।

(i) साधारण पुलिस- पुलिस अपने कार्य में सदैव तत्पर थी। इसलिए चोरी या अन्य अपराध अधिक नहीं होते थे। पुलिस विभाग के कर्मचारी ‘रक्षिन’ कहलाते थे।

(ii) गुप्तचर- अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचर के दो वर्ग होते थे, एक वर्ग को ‘संस्था’ और दूसरे को ‘संचार’ कहते थे। संस्था वर्ग के गुप्तचरों का कार्य एक स्थान पर रहकर अपने कर्तव्य का पालन करना था। विद्यार्थी, साधु, तपस्वी, दुकानदार, गृहस्थ एवं वेश्याओं के रूप में ये लोग कार्य करते थे। संस्था वर्ग के गुप्तचर-कापटीक, उदस्योत, गृहपतिक, वेदेहक तथा तापस आदि नामों से प्रसिद्ध थे। संचार वर्ग के गुप्तचर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। गुप्तचर साम्राज्य में होने वाली घटनाओं तथा प्रमुख अधिकारियों की गतिविधियों के बारे में सूचनाएं एकत्रित करते थे तथा उन्हें सम्राट् तक पहुंचाते थे। स्त्री गुप्तचरों में भिक्षुणी, वेश्याएं, दासियाँ आदि होती थीं। इसमें भी स्त्री-पुरुष दोनों ही प्रकार के लोग रहते थे। नर गुप्तचर विभाग बहुत ही संगठित था। राजा को गुप्तचरों के द्वारा अपने राज्य के अधिकारियों की गुप्त से गुप्त बातों का भी पता लग जाता था।

(9) न्याय व्यवस्था-

न्याय विभाग भी चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। चन्द्रगुप्त के राज्य में न्याय विभाग अत्यन्त कुशलतापूर्वक अपने कार्य का सम्पादन करता था। सम्राट् स्वयं प्रधान न्यायाधीश होता था। पाटलिपुत्र में उच्चतम न्यायालय था, जहाँ लोगों की अन्तिम अपीलें सुनी जाती थीं। न्यायालयों के अतिरिक्त नगरों तथा जनपदों के लिए अलग-अलग न्यायालय होते थे। जनपदों के न्यायाधीश राजुक कहलाते थे। इसी प्रकार संग्रहण, द्रोणमुख तथा स्थानीय अदालतें क्रम से 100, 400 तथा 800 गाँवों के मामले का निर्णय करती थीं। दीवानी अदालतों को ‘धर्मस्थीय’ तथा फौजदारी अदालतों को ‘कंटक शोधन’ कहा जाता था। न्यायाधीश प्रत्येक अभियोग के आवेदन-पत्रों का पूरी तरह से अध्ययन करके प्रमाण, साक्षी तथा सरकारी निरीक्षण की रिपोर्ट के बाद अपना निर्णय सुनाते  थे। दण्ड-विधान कड़ा था। राजद्रोह तथा फौजदारी के अपराध में कड़ा दण्ड दिया जाता था। ये दण्ड-विधान कई प्रकार के होते थे, जैसे धिकार, अर्थदण्ड, बन्धक (जेल), अंग-भंग, निर्वासन और मृत्यु-दण्ड।

(10) राजस्व विभाग-

केन्द्रीय शासन का एक प्रमुख विभाग राजस्व विभाग कहलाता था। राज्य की आय का पूरा प्रबन्ध इसी विभाग के हाथ में था। दुर्ग, भूमिकार, खाने, फल, औषधियाँ, जंगल, चरागाह, व्यापार, पथ और यातायात आदि की आय के मुख्य साधन थे। किसानों से भूमि की उपज का 1/6 या 1/4 भाग तक कर के रूप में लिया जाता था। कुछ भूमि पर राज्य की खेती होती थी। इसके अतिरिक्त न्यायालय के शुल्क, राजकीय मुद्रा, आयात-निर्यात कर बिक्री कर, व्यवसायियों पर लगे हुए कर, शस्त्र निर्माण, मादक वस्तुओं आदि से भी राज्य को अच्छी आमदनी होती थी। इस आमदनी में से राज परिवार, धार्मिक कृत्य, सेना, रक्षा, गुप्तचर विभाग, दौत्य, वेतन, दान, यातायात, सिंचाई, भवन निर्माण आदि में राज्य का व्यय होता था। राजस्व विभाग का प्रधान ‘समाहर्ता’ कहलाता था। उसकी अध्यक्षता में राज्य की आय को व्यय किया जाता था।

(11) लोकहितकारी कार्य विभाग-

यह विभाग भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इस विभाग का मुख्य उद्देश्य जनता को अधिक सुविधायें प्रदान करना था। आने-जाने के मार्गों का निर्माण, सड़कों के किनारे कुओं का निर्माण तथा पेड़ लगवाना, विश्रामगृह बनवाने का काम, सिचाई के लिए नदी, झील, कुएँ आदि के निर्माण का कार्य, चिकित्सा तथा औषधालय आदि के बनाने का कार्य, शिक्षा की व्यवस्था करने आदि के कार्य इसी विभाग के थे। इस विभाग ने जनता को इस प्रकार की अनेक सुविधाएँ प्रदान कर बहुत लाभ पहुँचाया था।

चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य विस्ता – डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, ‘चन्द्रगुप्त ने निश्चित ही एक बड़े साम्राज्य पर शासन किया होगा।” प्लूटार्क ने भी कहा है कि, “चन्द्रगुप्त मौर्य छः लाख सेना लेकर भारत पर ही छा गया।” जस्टिन ने भी सम्पूर्ण भारत पर उसकी सत्ता को स्वीकार किया है। इस तथ्य की अन्य प्रमाणों से भी पुष्टि होती है। अतः स्पष्ट है कि जिस साम्राज्य पर अशोक ने शासन किया वह उसके दादा की विजयों का परिणाम था।

डॉ० वी० ए० स्मिथ के शब्दों में, “अफगानिस्तान, प्राचीन अरियानी, हिन्दूकुश पर्वतमाला, पंजाब, उत्तर प्रदेश, विहार, सुदूर पश्चिम में काठियावाड़ का प्रायद्वीप आदि प्रदेश चन्द्रगुप्त के राज्य के अंग । सम्भवतः बंगाल भी उसके राज्य में सम्मिलित था। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जब चन्द्रगुप्त का शासनकाल समाप्त हुआ तो उस समय उसके राज्य की सीमायें दूर-दूर तक फैली थीं। यह समय 298 ई०पू० का समय था। इस समय वह सम्पूर्ण भारतवर्ष का सम्राट था। नर्मदा उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा थी। इस बात का स्पष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता कि उसने दक्षिण को विजय किया था या नहीं, किन्तु यह सम्भव है कि वह अपने सैनिकों को नर्मदा पार ले गया हो।”

मूल्याँकन-

डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार, “मौर्य साम्राज्य का आगमन भारतीय इतिहास की एक अपूर्व घटना है। जिस कठिन समय में इस वंश ने अपनी नींव को दृढ़ किया, उस समय को देखकर तो सचमुच इसका स्थान बहुत ऊँचा हो जाता है। वह समय संकट का था और सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हो चुका था।” डॉ० वी०ए० स्मिथ के अनुसार, ”मौर्यों के आगमन के साथ इतिहास के क्षेत्र में भी प्रकाश की ज्वलन्त किरणें फैलने लगती हैं। 18 वर्षों का लम्बा समय लगाकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मकदूनिया के सिपाहियों को भारत की  सीमा से खदेड़ा, विशेषकर पंजाब और सिन्ध की भूमि से उन्हें बाहर धकेल दिया। सेल्यूकस की शक्ति को उसने क्षीण कर दिया और स्वयं उत्तरी भारत का निर्विवाद सम्राट् बना। अरियाना प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर भी उसका अधिकार था। ये सभी विशेषतायें उसे इतिहास के महानतम और सफल शासकों के बीच स्थान देती हैं।” डॉ० ओमप्रकाश का कथन है कि ‘पश्चिम में सौराष्ट्र तक और दक्षिण में मैसूर तक दिग्विजय करके उसने भारत में राजनीतिक एकता स्थापित की। इन विजयों के कारण हम निःसन्देह चन्द्रगुप्त मौर्य को चक्रवर्ती शासक कह सकते हैं, किन्तु वह केवल एक विजेता ही नहीं था, उसने अपने मन्त्री कौटिल्य की सहायता से संगठित और सुव्यवस्थित शासन-व्यवस्था स्थापित की। ऐसी अच्छी शासन पद्धति वह चौथी शताब्दी में भारत में स्थापित कर सका, यह कुछ कम आश्चर्य की बात नहीं है।’’

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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