निजी विदेशी विनियोग की आवश्यकता | विदेशी निजी की आवश्यकता | भारत में विदेशी निवेश की आवश्यकता | भारत को निजी विदेशी विनियोग से लाभ | भारत को निजी विदेशी विनियोग से हानियाँ | निजी विदेशी विनियोग के प्रयोग के सम्बन्ध में सावधानियाँ

निजी विदेशी विनियोग की आवश्यकता | विदेशी निजी की आवश्यकता | भारत में विदेशी निवेश की आवश्यकता | भारत को निजी विदेशी विनियोग से लाभ | भारत को निजी विदेशी विनियोग से हानियाँ | निजी विदेशी विनियोग के प्रयोग के सम्बन्ध में सावधानियाँ

निजी विदेशी विनियोग की आवश्यकता

एक अद्धविकसित देश में आन्तरिक साधनों को चाहे कितनी कुशलतापूर्वक गतिशील किया जाय, वे नियोजित विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपर्याप्त प्रमाणित होंगे। अतः, यह आवश्य हो जाता है कि पुँजी आधिक्य वाले देशों से पूँजी-आयातों द्वारा आन्तरिक साधनों की कमी को पूर्ण किया जाय। इसमें अर्द्ध विकसित देशों को शर्मिन्दा होने की कोई बात नहीं है। आज के अनेक उन्नत देशों ने भी अपनी प्रारम्भिक अवस्थाओं में विदेशों में व्यापक ऋण लिए थे। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता की प्राप्ति के बाद विदेशी पूजी के प्रति पहले जैसी विरोध भावना भी नहीं है, क्योंकि अब नव-स्वतन्त्र देश अपने हितों की रक्षा करने में स्वयं को पर्याप्त समर्थ समझते हैं।

विदेशी निजी की आवश्यकता

(1) निवेश का ऊँचा स्तर- अल्पविकसित देशों में निवेश की वांछित मात्रा और बचत की वास्तविक उपलब्धि के बीच अन्तर (Gap) रह जाता है जिसको पूरा करने के लिए विदेशी पूँजी आवश्यक है।

(2) आधुनिक तकनीक की उपलब्धि- अल्पविकसित देशों में तकनीकी ज्ञान का अभाव रहता है, जिसे हम विदेशी विशेषज्ञों की सेवाओं द्वारा, कर्मचारियों को बाहर भेजकर उनको प्रशिक्षण द्वारा तथा देश में प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थापना द्वारा पूरा कर सकते हैं।

(3) प्राकृतिक साधनों का विदोहन- विदेशी पूँजी प्राप्त होने से देश में साधनों का पूर्ण तथा विदोहन कर औद्योगिक विकास के स्तर को ऊंचा कर सकते हैं।

(4) प्रारम्भिक जोखिम- विकसित देशों में उद्यमी वर्ग का अभाव रहता है, विदेशी पूंजी विदेशी उद्यमियों द्वारा लगवा कर, इन उद्योगों की स्थापना की जा सकती है।

(5) आधारभूत आर्थिक ढाँचे का विकास- अल्प विकसित देशों में आर्थिक ढाँचे के विकास जैसे- परिवहन व्यवस्था, बिजली विकास तथा सिंचाई व्यवस्था के लिए, विदेशी पूंजी की आवश्यकता पड़ती है।

(6) भुगतान शेष की स्थिति में सुधार- विकासशील देशों को आधिक विकास के लिए भारी मात्रा में मशीनों, संयंत्रों, कच्चे पदार्थों आदि का आयात करना पड़ता है, इससे भुगतान शेष प्रतिकूल हो जाता है। यह स्थिति दीर्घकाल तक नहीं रह सकती है अतः विदेशी पूँजी के मिलने पर इस समस्या का अल्पकालीन हल निकल आता है।

विदेशी पूँजी की उपलब्धि से आयातक देश में आर्थिक विकास की गति तेज होना स्वाभाविक है। इसलिए यदि विदेशी पूँजी, बिना किसी प्रतिबंध के सरल शर्तों पर मिल सकती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए, जॉन पी0 लुइस के अनुसार, “इन्कार करने के बावजूद यह एक तथ्य है कि विदेशी सहायता के साथ प्रतिबन्ध होते हैं और प्रत्येक विदेशी सहायता से सम्बन्धित शर्तों के बारे में दोनों पक्षों के मध्य सौदेबाजी होती है। इसलिए पूँजी को आमंत्रित करते समय बहुत सावधानी से काम लेना चाहिए।

भारत को निजी विदेशी विनियोग से लाभ

भारत में विदेशी पूँजी के पक्ष-विपक्ष में इतना कुछ कहना सुना गया है कि साधारण जनता भ्रम में पड़ जाती है। नीचे भारतीय परिस्थितियों में विदेशी पूँजी के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है-

(1) प्राकृतिक साधनों का सदुपयोग बढ़ाना- देश में अपार प्राकृतिक साधन है जिनका पूर्ण प्रयोग नहीं किया जा सका है। इससे भारतवासी दरिद्र बने हुए हैं। प्राकृतिक साधनों का उपयोग करने के लिए पूँजी सर्वथा आवश्यक है।

(2) विदेशों से तकनीक ज्ञान की प्राप्ति- विदशी पूँजी के आयात के साथ-साथ हमें विदेशी टेक्नीकल ज्ञान एवं प्रबन्ध कौशल भी प्राप्त होता है। आर्थिक विकास के लिए प्राविधिक ज्ञान का बहुत महत्व है जो दुर्भाग्य से हमारे देश में अलभ्य रहा था। अभी भी विदेशी तकनीकी ज्ञान की प्राप्ति से हमें आर्थिक विकास में बहुत सहायता मिल सकती है।

(3) पूँजीगत सामान का आयात- औद्योगिक विकास के लिए अविकसित देश को विदेशों से पूँजीगत सामान मँगाना पड़ता है, जिसके लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा जुटाना कठिन है। भारत के सम्बन्ध में यही बात है। विदेशी पूँजी की प्राप्ति से यह कठिनाई भी हल हो जाती है।

(4) नये जोखिमपूर्ण व्यवसायों के लिए पूँजी– देशी साहसी, नये व्यवसायों में पूँजी लगाने में संकोच करते हैं। किन्तु विदेशी पूँजी के विनियोग की दशा में व्यवसायों की जोखिम प्रायः विदेशियों द्वारा उठाई जाती है और बाद में ये व्यवसाय, उनसे देशवासियों द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं।

(5) आर्थिक नियोजन की सफलता- आर्थिक नियोजन को सफल बनाने के लिए भी विदेशी पूँजी अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन देश में ही जुटाने में कठिनाई हो रही है।

(6) उत्पादक सम्पत्ति का सृजन- विदेशी पूँजी के प्रयोग से देश मे ऐसी सम्पत्ति का सृजन किया जा सकता है, जिससे मूलधन और ब्याज देने के बाद भी लगातार लाभ प्राप्त होता रहे। रेलें, नहरें, विद्युत केन्द्र ऐसी ही सम्पत्तियाँ हैं।

(7) मुद्रा-स्फीति में कमी होना- निसन्देह कई बार विदेशी सहायता, स्फीति का कारण बनती है किन्तु, जब यह सहायता उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में प्राप्त हो तो उसका असर मुद्रा- स्फीति निरोधक के रूप में होता है।

(8) आन्तरिक पूँजी के पूरक के रूप में कार्य करना- पूँजी-निर्माण के सिद्धान्त के अनुसार कर भार, बढ़ाने की भी एक सीमा होती है, जिसे हमें भूलना नहीं चाहिए। फलतः यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए लम्बे समय के आयोजन में ‘विदेशी सहायता’ सबके लिए राहत स्वरूप और अनिवार्य साधन है।

(9) देशों में परस्पर सहकार की भावना बढ़ना- जब सब देशों की ओर खास करके धनिक और शक्तिशाली देशों की पूँजी विदेशी सहायता के रूप में चारों ओर फैली पड़ी हो, तब युद्ध की ज्वाला भड़काने से पहले वे अवश्य ही विचार करेंगे। सहायता कार्यक्रमों के फलस्वरूप हमारे सम्बन्ध कई देशों के साथ बहुत गाढ़े बने दीख पड़ते हैं।

भारत को निजी विदेशी विनियोग से हानियाँ

(1) समाजवादी समाज की दिशा में प्रगति मन्द पड़ना- भारत के समाजवादी नमूने के समाज की स्थापना का उदय अपने समक्ष रखा है जबकि उसे विदेशी पूँजी प्रायः पूँजीवादी देशों में मिल रही है। अतः इस बात का खतरा है कि कहीं उसकी आर्थिक नीति उक्त देशों के आदर्शों से प्रभावित न होने लगे।

(2) ब्याज के साथ मूलधन की वापसी का असहनीय भार- बड़ी-बड़ी रकमें सहायता के रूप में लेते समय तो अर्थतन्त्र का बोझ बहुत हल्का हो जाता है, किन्तु जब लौटाने का समय आता है, तब रकम के साथ ब्याज भी चुकाना होता है और इस प्रकार अर्थतन्त्र पर भारी दबाव पड़ता है।

(3) राजनीतिक शर्ते- विदेशी पूँजी के साथ-साथ राजनीतिक शर्ते भी लगा दी जाती हैं। विशेषतः अशक्त एवं अविकसित राष्ट्रों की राजनीतिक स्वतन्त्रता भी खतरे में पड़ने का डर रहता है। भारत को तो यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि किस प्रकार ब्रिटेन का ‘झण्डा’ भारत में व्यापार के पीछे आ गया था। भारत-पाक संघर्ष (1971) के दौरान भी अमेरिका ने भारत पर पाकिस्तान के पक्ष में दबाव डालने का प्रयास किया था।

(4) वस्तु रूप में विदेशी पूँजी अनुपयुक्त- विदेशी पूँजी, वस्तुओं के रूप में भी प्राप्त, हुआ करती है, जैसे- मशीनें आदि जो प्रायः विनियोगकर्ता देश की औद्योगिक व्यवस्था के अनुसार निर्मित होती है। ऐसी दशा में भारतीय परिस्थितियों में उनका अधिक उपयोग सम्भव नहीं होता तथा विदेशों पर निर्भरता की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलता है।

(5) आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण- आर्थिक शक्ति का केन्द्रीयकरण इने-गिने लोगों के हाथों में होना विदेशी पूँजी की ही देन है। भूतकाल में विदेशी पूँजी के ही कारण भारत में प्रबन्ध अभिकर्ता प्रणाली विकसित हुई थी।

(6) विदेशियों का नियन्त्रण बढ़ना- जिस व्यवसाय में विदेशी पूँजी लगती है। उनमें न्यूनाधिक सीमा तक विदेशियों का नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। वे टेक्नीकल परामर्शदाता, संचालक, प्रबन्धक आदि के रूप में व्यवसाय में बने रहते हैं और यह स्थिति देश की सुरक्षा के लिए कभी भी चिन्ताजनक बन सकती है।

(7) भारतीयों से पक्षपातपूर्ण व्यवहार- विदशी पूँजीपतियों ने अपनी भारतीय मिलों में भारतीयों से पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है। उन्हें उच्च पदों पर नौकर नहीं रखा गया, जिससे वे अनुभव एवं प्रशिक्षण से वंचित हो गये।

निजी विदेशी विनियोग के प्रयोग के सम्बन्ध में सावधानियाँ

विदेशी विनियोग के लाभ-दोनिजी विदेशी विनियोग के प्रयोग के सम्बन्ध में सावधानिया विदेशी नियन्त्रण से सम्बन्धित हैं, विदेशी पूँजी से नहीं। विदेशी पूँजी का सदुपयोग करने के लिए निम्न सावधानियों की आवश्यकता है-

(1) ‘विदेशी सहायता’ का विनियोग इतना होना चाहिए कि जिससे अधिक से अधिक बदला मिल सके अन्यथा उसकी अदायगी का दोष अर्थतन्त्र की कमर को निश्चय ही तोड़ डालेगा।

(2) हर साल ‘ऋण फण्ड’ में एक निश्चित रकम जमा की जाय, जिससे कारोबार में अपव्ययों पर भी अंकुश आयेगा और ऋण की रकम धीरे-धीरे इकट्ठी होने से अर्थतन्त्र पर बोझ भी नहीं पड़ेगा।

(3) अन्त में तो ये ऋण, आयात के मुकाबले में अधिक निर्यात करके ही चुकाने पड़ते हैं। परन्तु कई बार आज भी गलाकाट होड़ के कराण अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अर्द्ध-विकसित देशों का माल चलता ही नहीं। ऐसी परिस्थिति में विदेशी ऋण चुकाना अर्द्ध-विकसित देशों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता है। अब समय आ गया है कि विकसित देश इस प्रश्न पर बहुत ही सहानुभूतिपूर्वक और समझदारी से सोचें।

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